श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
१. नमोजी विघ्नहारा। गजानन गिरराजाकुमारा। जय जय लंबोदर। एकदंत शुभलक्षणा। २. हालिवशी कणुयुगुला। ताथून जो का वारा इसळा। तयाचांन वाता विघ्न पलवा। विघ्नांतक म्हणती तुझा। ३. तुझा शोभा अनन। जैसा तप्त कांचन। ककवा इवदत प्रभारमण। तैसा ताज फाकतसा। ४. विघ्नकाननच्छादनासी। हाती फरश धररलासी। नागबंद कटीसी। ईरग यज्ञोपवीत। ५. चतुभुज वदससी निका। विशालांली वनायका। प्रियतमाळसी विश्वलोका। निर्मविघ्ना करूणया। ६. तुझा सचेतन जा कर्रती। तया विघ्ना न बाधती। सकळाभीष्टा साधती। अवलंबासी। ७. सकळ मंगल कायामुसी। प्रथम वंदजा तुम्हासी। चतुर्दश विद्यान्सी। स्वामी तुझीच लंबोदर। ८. वाद शास्त्र पुराण। तुझाच असाल बोलण। ब्रह्मावदवक या कारणा। स्तवला अस सुरवारी। ९. त्रिपुर साधन करावयासी। ईश्वर अरमचला तुम्हासी। संहारावया दैतयांसी। पहिला तुम्हांसी स्तवला। १०. हर हर ब्रह्मावदक गणपती। कायुरंभी तुज वंदती। सकळाभीष्टा साधती। तुझानी प्रसादा। ११. कृपानिधी गणनाथा। सुरवरावदका विघ्नहता। वनायका अभयदाता। मितप्रकाश करी मज। १२. समस्त गणांचा नायक। तुच विघ्नांचा अंतक। तुता वंदती जा लोक। कायू साधा तयांचा। १३. सकळ काया अधारू। तुच कृपाचा सागरू। करुणानिधी गौरीकुमारू। मितप्रकाश करी मज। १४. माझा मनींची वासना। तुने पुरवावी गजानना। साष्टांग करतो नमना। विद्या दाय मज आता। १५. नांता होतो मितहीन। म्हणून धरला तुझा चरण। चौदा विद्यांचा निधान। शरणागतवरप्रदा। १६. माझ्या अंतःकरणीचा वहावा। गुरुचरित्र कथन करावा। पूणदृष्टीना पहावा। ग्रंथसिद्ध पाववी दातारा। १७. अता वंदू ब्रह्मकुमारी। जीचा नाम वागीश्वरी। पुस्तक वीना जीचा करी। हंसवाहिनी असा दाखा। १८. म्हणून नमतो तुझा चरणी। प्रसन्न वहावा मज स्वामीणी। राहोइनया माझया वाणी। ग्रंथी रघू करी आता। १९. विद्या वाद शास्त्राशी। अधिकार जाणा शारदाशी। तितया वंदती विश्वासी। ज्ञान होय अवधारा। २०. ऐक माझी विनंती। द्यावी आता अवलीला मती। विस्तार करावा गुरुचरित्री। मितप्रकाश करी मज। २१. जय जय जगन्माता। तूच विश्वी वाग्दावता। वादशास्त्र तुझी लिहिता। नांदिवशी याणापरी। २२. माता तुझ्या वाग्वाणी। इतिपित्त वादशास्त्रपुराणी। वदता साही दशुनी। तयांता अशक्य पर्ययासा। २३. गुरूचा नामी तुझी स्थिती। म्हणती नृसिंहसरस्वती। या कारणा मजवरी प्रीति। नाम अपुला म्हणुनी। २४. खांबसूत्रींची बाहुली जैसी। खाली ती सूत्रासारसी। स्वतंत्रबुद्धी नाही तयांसी। वुतुति अणकाचान मता। २५. तैसा तुझांन अनुमता। माझा जिव्हा प्रारीमाता। कृपानिधि वाग्दावता। म्हणून विनवी तुझा बाळ। २६. म्हणून निमला तुझा चरण। वहावा स्वामीणी प्रसन्न। द्यावा माता वरदान। ग्रंथी रघू करी आता। २७. अता वंदू त्रिमूर्तीसि। ब्रह्मा विष्णु शिवांसी। विद्या मागा मी तयासी। अनुक्रमा करणी। २८. चतुमुखा असती र्जयासी। कतात जो का सृष्टीसी। वाद झाला बोलता र्जयासी। तयाचा चरणी नमन माझा। २९. अता वंदू हृषीका शी। जो नायक तया विश्वासी। लक्ष्मीसिहत अहर्मनशी। वीरसागरी असा जाणं। ३०. चतुर्भुज नरहरी। शंख चक्र गदा करी। पद्महस्त मुरारी। पद्मनाभ पर्ययासा। पीतांबर असं किसयाला। वैजयंती माला गळा। शरणागत अभिष्ट सकळा। दाता होय कृपाळू। ३१. अता नमू शिवासी। धरली गंगा मस्तकासी। पंचवक्त्र दहा भुजासी। अधांगी असा जगन्माता। ३२. पंचवदना असती र्जयासी। संहारी जो या सृष्टीसी। म्हणून बोलती स्मशानवासी। तयाचा चरणी नमन माझा। ३३. व्याघ्रांबर पांघरून। सवांगी असा सपुवाष्टण। असा शंभू इमारमण। तयाचा चरणी नमन माझा। ३४. नमन समस्त सुरवरा। सिद्धसाध्यां अवधारा। गंधवुदीवकन्नरा। ऊषीश्वरा नमन माझा। ३५. वंदू अता किवकुळाशी। पराशरावद व्यासांसी। वाल्मीकावद सकिळकांसी। नमन माझा पररयासा। ३६. नाणा किवतव असं कैसा। म्हणून तुम्हा विनिवतसा। ज्ञान द्यावा जी भरवसा। अपुला दास म्हणून। ३७. न कळा ग्रंथप्रकार। नाणा शास्त्रांचा विचार। भाषा नव्या महाराष्ट्र। म्हणून विनवी तुम्हासी। ३८. समस्त तुम्ही कृपा करणं। माझया वचने साह्य होणं। शब्दब्युतपत्तीही नाणा। किवकुळ तुम्ही प्रीतपाळा। ३९. ऐसा सकिळका विनवोन। मग ध्यालं पूवुज मनी। ईभयपि जनकजननी। माहातम्य पुण्यपुरुषांचा। ४०. अपस्तंभशाखासी। गोत्र कौंडण्य महाऊष। साखरा नाम ख्यातशी। सायंदावापासाव। ४१. तयापासून नागनाथ। दावराव तयाचा सुत। सदा श्रीसद् गुरुचरण ध्यात। गंगाधर जनक माझा। ४२. नमन कर्रता जनकचरणी। मातापूवुज ध्यातो मनी। जो का पूवुज नामधारणी। अश्वलायन शाखाचा। ४३. काश्यपाचा गोत्री। चौंडाश्वरी नामधारी। वागा जैसा जन्हु अवधारी। अथवा जनक गंगाचा। ४४. तयाची कन्या माझी जननी। नियां जैशी भवानी। चंपा नामा पुण्यखाणी। स्वामीणी माझी पररयासा। ४५. निमता जनकजननीसी। नंतर नमू श्रीगुरुसी। घाली मित प्रकाशी। गुरुचरण स्मरावया। ४६. गंगाधराचा कुशी। जन्म झाला पररयासी। सदा ध्याय श्रीगुरुसी। एका भावा निरंतर। ४७. म्हणून सरस्वतीगंगाधर। करी संतांसी नमस्कार। श्रोतया विनवी वारंवार। इमा करणा बाळकासी। ४८. वादाभ्यासी संन्यासी। यती योगाश्वर तपसी। सदा ध्याती श्रीगुरुसी। तयांसी माझा नमस्कार। ४९. विनिवतसा समस्तांसी। अल्पमती अपणासी। माझा बोबडा बोलांसी। सकळ तुम्ही अंगीकारा। ५०. तावन्मात्र माझी मित। नाणा काव्यव्युत्पत्त। जैसा श्रीगुरु निरूपती। ताणा परी सांगत। ५१. पूवुपार अमुचा वंशी। गुरु प्रसन्न अहर्मनशी। निरोप दाती माता पररयासी। चरित्र अपुला विस्तारावया। ५२. म्हणां ग्रंथ कथन करी। अमृतघट स्वीकारी। तुझा वंशी परंपरी। लाधती चारी पुरुषाथु। ५३. गुरुवाक्य मज कामधानु। मनी नाही अनुमानु। सिद्ध पाविवणार अपणु। श्रीनृसिंहसरस्वती। ५४. त्रैमूतीचा अवतार। झाला नृसिंहसरस्वती नर। कवण जाणा याचा पार। चरित्र कवणा न वणुवा। ५५. चरित्र ऐसा श्रीगुरुचा। वणू न शका मी वाचा। अज्ञापन असा श्रीगुरुचा। म्हणून वाचा बोलतसा। ५६. रज्यास पुत्रपौत्री असा चाड। तयासी कथा हा असा गोड। लक्ष्मी वसा अखंड। तया भुवनी पररयासा। ५७. ऐशी कथा जयाचा घरी। वाचती नित्य प्राम्भरी। श्रद्धायुक्त निरंतर। नांदती पुत्रकलत्रयुक्त। ५८. रोग नाही तया भुवनी। सदा संतुष्ट गुरुकृपाकरणं। निःसंदाह साता वदनी। ऐकता बंधन तुटा जाणा। ५९. ऐसी पुण्यपावन कथा। सांगान ऐक विस्तारता। सायासांवण होय साध्यता। सद्यःफल प्राप्त होय। ६०. निधान लाधा अप्रयासी। तरी कष्ट का सायासी। विश्वास माझया बोलाशी। ऐका श्रोता एकिचत्ता। ६१. अम्हा साही ऐसा घडला। म्हणून विनिवतसा बळा। श्रीगुरुस्मरण असा भला। अनुभव हो सकिळका। तृप्त झाल्यावरी ढाकर। दाती जैसा जावणार। गुरुम्हमाचा ईद्गार। बोलतसा अनुभवोिन। ६३. मी सामान्य म्हणोिन। ईदास वहाल माझा वचनी। मिका च्या मुखांतुनी। मधु का वी ग्राह्य होय। ६४. जैसा सशपल्यांत मुक्ताफळ। अथवा कपूरी कदुळ। विचारि पा अश्वत्थमूल। कवणापासावईतपित्त। ६५. ग्रंथ कराल ईदास। वाकु ड कृष्ण वदसा उस। अमृतवत निगा तयाचा रस। दृष्ट द्यावी तयावरी। ६६. तैसा माझा बोलणा। र्जयाची चाड गुरुस्मरणा। अंगीकार करणार शहाणा। अनुभवती एकिचत्ता। ६७. ब्रह्मरसाची गोडी। अनुभवतां फळें रोकडी। या बोलाची अवडी। र्जयासी संभवा अनुभव। ६८. गुरुचरित्र कामधानु। ऐकता होय महाज्ञानु। श्रोती करोिनया सावध मनु। एकिचता पररयासा। ६९. श्रीगुरुनृसिंहसरस्वती। होता गाणगापुरी ख्याति। मिहमा त्यांचा अत्यद् भुती। सांगान ऐका एकिचत्ता। ७०. तया ग्रामी वसती गुरु। म्हणोिन मिहमा असा थोरु। जाणती लोक चहू राश्ु। समस्त जाती यात्रा सी। ७१. ताथा राहोिन अराधती। त्वररत होय फलप्राप्त। पुत्र दारा धन संपत्ति। जा जा इच्छला होय जना। ७२. लाधोिनया संताना। नामा ठावठवती नामकरणा। संतोषरूपा याउन। पावती चारी पुरुषाथु। ७३. ऐसा असता वतुमानी। भक्त एक 'नामकरणी'। कष्टतसा इत गहनी। सदा ध्याय श्रीगुरुसी। ७४. ऐसा मनी व्याकुलत। सचताना वाश्टीला बहुत। गुरुदशुना जाऊं म्हणत। निवाणमानसा निगाला। ७५. इत निवाण उंतःकरणी। लय होवोइन गुरुचरणी। जातो शिष्यिशरोमणी। विसरोनया विदातृषा। ७६. निधाऊं करोइन मानसी। म्हणा पाहीन श्रीगुरुसी। अथवा सांडीन दाहासी। जडस्वरूपा काय काज। ७७. रजयाचा नामस्मरण कररता। दैन्यहान होय त्वररता। अपण तैसा नामांवकता। कक्कार म्हणतसा। ७८. दैव असा अपुला ईणा। तरी का भजावा श्रीगुरुचरण। पररस लावता लोहा जाण। सुवणु का वी होतसा। ७९. तैसा तुझा नाम पररसा। माझा ह्रदयी सदा वसा। माता कष्टी सायासा। ठावठवता लाज कवणासी। ८०. या बोलांच्या हावां। मनी धरोइन पहावा। गुरुमूती सदाशिवा। कृपाळू बा सवुभूती। ८१. इतव्याकुल अंतःकरणी। सनदास्तुत अपुली वाणी। कष्टला भक्त नामकरणी। कररता होय पररयासा। ८२. राग स्वच्छ ओवीबद्ध म्हणावा। अिज पाहुणा पंढरीचा रावा। वंदू विघ्नहरा भावा। नमूता सुंदर शारदासी। ८३. गुरुची त्रैमूर्मत। म्हणती वादश्रुति। सांगती दृष्टान्ती। किलयुगात। ८४. किलयुगात ख्याति। श्रीनृसिंहसरस्वती। भक्तांसी सारथी। कृपासाधू। ८५. कृपासाधू भक्ता। वाद वाखाणता। त्रयमूर्मत गुरुनाथा। म्हणोइनया। ८६. त्रयमूतीचा गुण। तू एक निधान। भक्तांसी ऋण। दयानिधि। ८७. दयानिधि यती। विनिवतो मी श्रीपती। नाणा भावभक्त। अंतःकरणी। ८८. अंतःकरणी स्थिरु। नवहा बा श्रीगुरु। तू कृपासागरु। पाव वागी। ८९. पाव वागी अता। नरहरी अनंता। बाळालागी माता। का वी टाकी। ९०. तू माता तू पिता। तूच सखा भ्राता। तूच कुलदावता। परंपरी। ९१. वंशपरंपरी। धरून निधूरी। भजतो मी नरहरी। सरस्वतीसी। ९२. सरस्वती नरहरी। दैन्य माझा हरी। म्हणून मी निरंतर। सदा कष्टा व. ९३. सदा कष्ट चित्ता। का हो दाशी अता। कृपासाधू भक्ता। का वी होसी। ९४. कृपासाधु भक्ता। कृपाळू अनंता। त्रयमूर्मत जगन्नाथा। दयानिधी। ९५. त्रयमूर्मत तू होसी। पाळसी विश्वासी। समस्त दावांसी। तूच दाता। ९६. समस्ता दावांसी। तूच दाता होसी। मागो मी कवणासी। तुजवांचोनी। ९७. तुजवाचोनी अता। असा कवण दाता। विश्वासी पोषिता। सुवज्ञ तू। ९८. सुवज्ञाची खूण। असा हा लिण। समस्तांचा जाण। कवण असा। ९९. सुवज्ञ म्हणोइन। वाणीती पुराणी। माझा अंतःकरणी। न या साची। १००. कवण कै शापरी। असती भूमीवरी। जाणजाणच तरी। सुवज्ञ तो। १. बाळक तान्हया। नाणा बापमाया। कृपा का वी होय। मातापित्ये। २. वदिलयावांचोइन। न दाववा म्हणोइन। असाल तुझा मनी। सांग मज। ३. समस्त महीतळी। तुम्हा वदळा बळी। तयाता हो पाताळी। बैसिवला। ४. सुवणाची लंका। तुवा वदळी एका। ताणा पूवी लंका। कवणा वदळी। ५. अढळ ध्रुवासी। वदळा हृषीका शी। तयाना हो तुम्हासी। काय वदळा। ६. निःश्रित करूनी। विप्राता मावदनी। दाता तुम्हा कोणी। काय वदळा। ७. सृष्टीचा पोषक। तूच दाव एक। तूटा मी मशक। काय दाव। ८. नाही तुम्हा जरी। श्रीमंत नरहरी। लक्ष्मी तुझा घरी। नांदतसा। ९. याहोनी अम्हासी। तू काय मागसी। सांग हृषीका शी। काय दाव। १०. माताचा वोसंगी। बैसोनया बाळ वागी। पसरी मुखसुरंगी। स्तनकांसी। ११. बाळापासी माता। काय मागा ताता। ऐक श्रीगुरुनाथा। काय दाव। १२. घाउिनया दाता। नाम नाही दाता। दयानिधि म्हणता। बोल वदसा। १३. दावू न शकसी। म्हणा मी मानसी। चौदाही भुवनासी। तूच दाता। १४. तुझा मनी पाहि। वसा अणक काही। सावा का ली नाही। म्हणोइनया। १५. सावा घावोइनया। दाणा हा सामान्य। नाम नसा जाण। दातृतवासी। १६. तळी बावी विहरी। असती भूमीवरी। माघ तो आंबरी। वषुतसा। १७. माघाची ही सावा। न कररता स्वभावा। ईदकपूण सावा। का वी करी। १८. सावा अपातिता। बोल असा दाता। दयानिधि म्हणता। का वी साजा। १९. नाणा सावा कैसी। स्थिर होय मानसी। माझा वंशोवंशी। तुझा दास। २०. माझा पूवुजवंशी। साजवला तुम्हांसी। संग्रह बहुवसी। तुझा चरणी। २१. बापाचा सावासी। पाळटी पुत्रासी। तावी तवा अम्हासी। प्रीतपाळावा। २२. माझा पूवुधन। तुम्ही द्यावा ऊण। का बा नया करुणा। कृपासाधु। २३. अमुचा अम्ही घाता। का बा नया चित्त। मागान मी सत्ता। घाइन अता। २४. अता मज जरी। न दासी नरहरी। सजतोइन वावहारी। घाइन जाणा। २५. वदसतसा अता। करठणता गुरुनाथा। दास मी अवकता। सनातन। २६. अपुला समान। असाल कवण। तयासवा मन। करठण कीजा॥२७॥ कठीण कीजा हरी। तुवा दैतयांवरी। प्रल्हाद कै वारी। सावकांसी॥२८॥ सावका बाळकासी। करू नया ऐसी। करठणता पररयासी। बरवा न वदसा॥२९॥ माझया अपाराधी। धरोइनया बुद्धि। अंतःकरण क्रोधी। पाहसी जरी॥१३०॥ बाळक मातासी। बोला निष्ठुरासी। अज्ञाना मायासी। मारी जरी॥३१॥ माता तया कुमारासी। कोप न धरी कैशी। असलगोइन हर्षी। संबोखी पा॥३२॥ कवण्या अपाराधासी। न घालसी अम्हासी। ओ हो हृषीका शी। सांगा मज॥३३॥ माता हो कोपासी। बोला बाळकासी। जावोइन पितयासी। सांगा बाळ॥३४॥ माता कोपा जरी। एखादा अवसरी। पित कृपा करी। संबोखूइन॥३५॥ तू माता तू पिता। कोपसी गुरुनाथा। सांगो कवणा अता। मा करी॥३६॥ तूच स्वामी ऐसा। जगी झाला ठसा। दास तुझा भलतैसा। प्रीतपाळावा॥३७॥ अनाथरिक। म्हणती तुज लोक। मी तुझा बाळक। प्रीतपाळावा॥३८॥ कृ पाळू म्हणोइन। वाणीती पुराणी। माझा बोल कानी। न घालसीच॥३९॥ नायकसी गुरुराणा। माझाकरुनावचना। काय दुशितपणा। तुझा असा॥४०॥ माझा करुणावचना। न ऐकती तुझा कान। ऐकोइन पाषाण। विकुरतसा॥४१॥ करुणा करी ऐसा। वाणीती तुज पिसा। अजुनी तरी कै सा। कृपा न या॥४२॥ ऐसा नामांवकत। विनिवता त्वररत। कृ पाळू श्रीगुरुनाथ। आला वागी॥४३॥ वतसालागी धानु। जैशी या धावोनु। तैसा श्रीगुरु अपणु। आला जवळी॥४४॥ यातांिच गुरुमुिन। वंदी नामकरणी। मस्तक ठावोइन। चरणयुग्मी॥४५॥ का श तो मोकळी। झाडी चरणधुळी। आनंदाश्रुजळी। अंति हालि॥४६॥ ह्रदयमंवदरात। बैसवोइन व्यक्त। पूजा ईपचाररत। षोडशिविध॥४७॥ आनंदभररत। झाला नामांवकत। ह्रदयी श्रीगुरुनाथ। स्थिरावला॥४८॥ भक्तांच्या ह्रदयांत। राहा श्रीगुरुनाथ। संतोष बहुत। सरस्वतीसी॥४९॥आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
ओवीसंख्या १४९
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । त्रैमूर्तिराजा गुरु तूंचि माझा। कृष्णातिरीं वास करोनि वोजा'। सुभक्त तेथे करिती आनंदा । ते सुर स्वर्गी पहाती विनोदा ।।१।। ऐसे श्रीगुरुचरणध्यात । जातां विष्णुनामांकित । अति श्रमला चालत । राहिला एका वृक्षातळीं ।।२।। क्षण एक निद्रिस्त । मनीं श्रीगुरु चिंतित । कृपानिधि अनंत । दिसे स्वप्नीं परियेसा ।।३।। रूप दिसे सुषुप्तींत । जटाधारी भस्मांकित । व्याघ्रचर्म परिधानित । पीतांबर कांसे देखा ।।४।। येऊनि योगीश्वर जवळीं। भस्म लाविलें कपाळीं । आश्वासुनि तया वेळीं। अभयकर देतसे ।।५।। इतुकें देखोनि सुषुप्तींत । चेतन' झाला नामांकित। चारी दिशा अवलोकित । विस्मय करी तया वेळीं ।।६।। मूर्ति देखिली सुषुप्तींत । तेंचि ध्यातसे मनांत । पुढे निघाला मार्ग क्रमित । प्रत्यक्ष देखे तैसाचि ।।७।। देखोनिया योगीशातें । करिता झाला दंडवते। कृपा भाकी करुणवक्त्रं । माता पिता तूं म्हणतसे ।।८।। जय जयाजी योगाधीशा । अज्ञानतमविनाशा । तूं ज्योतिः प्रकाशा । कृपानिधि सिद्धमुनी ।।९।। तुझे दर्शने निःशेष । गेले माझे दुरितदोष। तूं तारक आम्हांस । म्हणोनि आलासि स्वामिया ।।१०।। कृपेनें भक्तालागुनी। येणें झालें कोठोनि । तुमचे नाम कवण मुनि। कवणे स्थानीं वास तुम्हां ।।११।। सिद्ध म्हणे आपण योगी। हिंडो तीर्थं भूमिस्वर्गी। प्रसिद्ध आमुचा गुरु जगीं। नृसिंहसरस्वती विख्यात ।।१२।। त्यांचे स्थान गाणगापूर । अमरजासंगम भीमातीर। त्रयमूर्तीचा अवतार । श्रीनृसिंहसरस्वती ।।१३।। भक्त तारावयालागीं । अवतार त्रयमूर्ति जगीं। सदा ध्याती अभ्यासयोगी । भवसागर तरावया ।।१४।। ऐसा श्रीगुरु कृपासिंधु। भक्तजनां सदा वरदु । अखिल सौख्य श्रियानंदु । देता होय शिष्यवर्गा ।।१५।। त्याचे भक्तां कैचें दैन्य। अखंड लक्ष्मी परिपूर्ण। धनधान्यादि गोधन। अष्टैश्वर्ये नांदती ।।१६।। ऐसें म्हणे सिद्ध मुनि । ऐकोनि विनवी नामकरणी । आम्ही असतों सदा ध्यानीं । तया श्रीगुरुयतीचे ।।१७।। ऐशी कीर्ति ब्रीद ख्याति ।सांगतसे सिद्ध यति । वंशोवंशी करितो भक्ति। कष्ट आम्हां केवी पाहे ।।१८।। तूं तारक आम्हांसी। म्हणोनि मातें भेटलासी । संहार करोनि संशयासी । निरोपावें स्वामिया ।।१९।। सिद्ध म्हणे तये वेळीं । ऐक शिष्या स्तोममौळी'। गुरुकृपा सूक्ष्मस्थूळीं । भक्तवत्सल परियेसा ।।२०।। गुरुकृपा होय ज्यासी। दैन्य दिसे कैचें त्यासी। समस्त देव त्याचे वंशीं । कळिकाळासी जिंके नर ।।२१।। ऐसी वस्तु पूजनी। दैन्यवृत्ति सांगसी झणीं। नसे तुझे निश्चय मनीं। म्हणोनि कष्ट भोगितोसी ।। २२ ।। त्रयमूर्ति श्रीगुरु । म्हणोनि जाणिजे निर्धारू । देऊ शकेल अखिल वरू । एका भावें भजावें ।।२३।। एखादे समयीं श्रीहरि । अथवा कोपे त्रिपुरारि। रक्षील श्रीगुरू निर्धारीं। आपुले भक्तजनांसी ।।२४।। आपण कोपे एखाद्यासी। रक्षं न शके व्योमकेशी। अथवा विष्णू परियेसीं। रक्षं न शके अवधारी ।।२५।। ऐसें ऐकोनि नामकरणी । लागे सिद्धाचिया चरणीं । विनवीतसे कर जोडुनि । भक्तिभावें करोनिया ।।२६।। स्वामी ऐसा निरोप देती। संदेह होता माझे चित्तीं। गुरु केवी झाले त्रिमूर्ति । ब्रह्मा विष्णु महेश्वर ।।२७।। आणीक तुम्हीं निरोपिलेंती। विष्णु रुद्र जरी कोपती। राखों शके गुरु निश्चिती। गुरु कोपलिया न रक्षी कोणी ।।२८।। हा बोल असे कवणाचा । कवण शास्त्रपुराणींचा। संदेह फेडीं गा मनाचा। जेणें मन दृढ होय ।।२९।। येणेंपरी नामकरणी । सिद्धांसी पुसे बंदोनि। कृपानिधि संतोषोनि । सांगतसे परियेसा ।। ३० ।। सिद्ध म्हणे शिष्यासी । तुवां पुसिलें आम्हांसी। वेदवाक्य साक्षीसी। सांगेन ऐका एकचित्तें ।। ३१।। वेद चारी उत्पन्न । झाले ब्रह्मयाचे मुखेंकरून । त्यापासाव पुराण। अष्टादश विख्यात ।।३२।। तया अष्टादशांत । ब्रह्मवाक्य असे ख्यात। पुराण ब्रह्मवैवर्त । प्रख्यात असे त्रिभुवनीं ।।३३।। नारायण विष्णुमूर्ति । व्यास झाला द्वापारांतीं। प्रकाश केला या क्षितीं । ब्रह्मवाक्यविस्तारे' ।। ३४।। तया व्यासापासूनी । ऐकिलें समस्त ऋषिजनीं । तेचि कथा विस्तारोनि। सांगेन ऐका एकचित्तें ।। ३५।। चतुर्मुख ब्रह्मयासी। कलियुग पुसे हर्षी। गुरुमहिमा विस्तारेंसी ब्रह्मदेव निरूपिला ।। ३६।। ऐसें म्हणतां नामकरणीं। पुनरपी सिद्धांसी नमुनी। विनवीतसे करद्वय जोडोनि । भावभक्ति करोनिया ।। ३७।। म्हणे सिद्धा योगीश्वरा। अज्ञानतिमिरभास्करा' । तूं तारक भवसागरा। भेटलासी कृपासिंधु ।। ३८।। ब्रह्मदेवें कलियुगासी । सांगितले केवी कार्यासी। आद्यंत विस्तारेंसी। निरोपिजे स्वामिया ।।३९।। ऐक शिष्या एकचित्ता। जीं प्रळय झाला होता। आदिमूर्ति निश्चिता। होते वटपत्रशयनीं ।।४०।। अव्यक्तमूर्ति नारायण । होते वटपत्रीं शयन। बुद्धि संभवे चेतन । आणिक सृष्टि रचावया ।।४१।। प्रपंच म्हणजे सृष्टिरचना । करणें म्हणोनि आलें मना। जागृत होय या कारणा। आदिपुरुष तये वेळीं ।।४२।। जागृत होवोनि नारायण । बुद्धि संभवे चेतन । कमळ उपजवी नाभीहून। त्रैलोक्याचें रचनाघर ।।४३।। तया कमळामधून । उदय झाला ब्रह्मा आपण । चारी दिशा पाहोन। चतुर्मुख झाला देखा ।।४४।। म्हणे ब्रह्मा तये वेळीं । समस्तांहुनी आपण बळी । मजहून आणिक बळी। कवण नाहीं म्हणतसे ।।४५।। हासोनिया नारायणु । बोले वाचें शब्दवचनु। आपण असे महाविष्णु । भजा म्हणे तया वेळी ।।४६ ।। देखोनिया श्रीविष्णूसी । नमस्कारी ब्रह्मा हर्षी । स्तुती केली बहुवर्सी । अनेक काळ परियेसा ।।४७।। संतोषोनि नारायण । निरोप दिधला अतिगहन। सृष्टि रचीं गा म्हणून । आज्ञा दिघली तये वेळीं ।।४८।। ब्रह्मा म्हणे विष्णूसी। नेणें सृष्टि रचावयासी। देखिली नाहीं कैसी। केवी रखूं म्हणतसे ।।४९।। ऐकोनि ब्रह्मयाचे वचन । निरोपि त्यासी महाविष्णु आपण । वेद असती हे घे म्हणोन। देता झाला तये वेळीं ।।५०।। सृष्टि रचावयाचा विचार। असे वेदांत सविस्तार । तेणेंचि परी रचुनी स्थिर। प्रकाश करी म्हणितलें ।।५१।। अनादि वेद असती जाण । असे सृष्टीचें लक्षण। जैसा आरसा असे खूण। सृष्टि रचावी तयापरी ।।५२।। या वेदमार्गे सृष्टीसी । रचीं गा ब्रह्मया अहर्निशीं। म्हणोनि सांगे हृषीकेशी। ब्रह्मा रची सृष्टि तेथे ।।५३।। सृजी प्रजा अनुक्रमें । विविध स्थावरजंगमें। स्वेदज' अंडज नामें । जारज उद्भिज उपजविले ।।५४।। श्रीविष्णूचे निरोपानें । त्रिजग रचिलें ब्रह्मयानें । ज्यापरी सृष्टिक्रमणें । व्यासें ऐसी कथियेलीं ।।५५।। सिद्ध म्हणे शिष्यासी । नारायण वेदव्यास ऋषि। विस्तार केला पुराणांसी। अष्टादश विख्यात ।। ५६।। तया अष्टादशांत । पुराण ब्रह्मवैवर्त । ऋषेश्वरासी सांगे सूत। तेंचि परी सांगतसे ।।५७।। सनकादिकांते उपजवोनि । ब्रह्मनिष्ठ निर्गुणी। मरीचादि ब्रह्म सगुणीं । उपजवी ब्रह्मा तये वेळीं ।। ५८ ।। तेथोनि देवदैत्यांसी। उपजवी ब्रह्मा परियेसी । सांगतो कथा विस्तारेंसी। ऐक आतां शिष्योत्तमा ।।५९।। कृत त्रेता द्वापार युग। उपजवी मग कलियुग। एकेकातें निरोपी मग । भूमीवरी प्रवर्तावया ।। ६० ।। बोलावूनि कृत युगासी। निरोपी ब्रह्मा परियेसीं । तुवां जावोनि भूमीसी । प्रकाश करी आपणातें ।। ६१।। ऐकोनि ब्रह्मयाचें वचन । कृतयुग आलें संतोषोन। सांगेन त्याचें लक्षण । ऐका श्रोते एकचित्तें ।।६२।। असत्य नेणे कधी वाचे। वैराग्यपूर्ण ज्ञानी साचें। यज्ञोपवीत आभरण' त्याचें । रुद्राक्षमाळा करीं कंकणें ।। ६३।। येणें रूपें युग कृत । ब्रह्मयासी असे विनवित। मातें तुम्ही निरोप देत। केवी जाऊं भूमीवरी ।। ६४।। भूमीवरी मनुष्य लोक। असत्य निंदा अपवादक' । मातें न साहवे तें ऐक। कवणें परी वर्तावें ।।६५।। ऐकोनि सत्ययुगाचें वचन । निरोपितो ब्रह्मा आपण । तुवां वर्तावें सत्त्वगुण । कचितकाळ येणेंपरी ।। ६६ ।। न करीं जड तूंतें जाण । आणिक युग पाठवीन। तुवां रहावें सावध होऊन । म्हणूनि पाठवी भूमीवरी ।। ६७।। वर्ततां येणेंपरी ऐका । झाली अवधि सत्याधिका। बोलावूनि त्रेतायुगा देखा। निरोपी ब्रह्मा परियेसा ।। ६८ ।। त्रेतायुगाचे लक्षण । ऐक शिष्या सांगेन। असे त्याची स्थूल तनु । हाती असे यज्ञसामग्री ।। ६९।। त्रेतायुगाचें कारण। यज्ञ करिती सकळ जन । धर्मशास्त्रप्रवर्तन । कर्ममार्ग ब्राह्मणांसी ।।७०।। हातीं असे कुश समिधा ऐसें । धर्मप्रवर्तक सदा वसे । ऐसें युग गेलें हर्षे । निरोप घेऊनि भूमीवरी ।।७१।। बोलावूनि ब्रह्मा हर्षी। निरोप देत द्वापारासी। सांगेन तयाचे रूपासी। ऐका श्रोते एकचित्ते ।। ७२।। खड्ग खट्ठांग धरोनि हातीं। धनुष्य बाण एके हातीं । लक्षण उग्र असे शांति। निष्ठुर दया दोनी असे ।। ७३ ।। पुण्य पाप समान देखा। स्वरूपें व्यापार असे निका। निरोप घेऊनि कौतुका । आला आपण भूमीवरी ।। ७४।। त्याचे दिवस पुरल्यावरी। कलियुगातें पाचारी । जावें त्वरित भूमीवरी । म्हणोनि सांगे ब्रह्मा देखा ।। ७५।। ऐसें कलियुग देखा। सांगेन लक्षणें ऐका। ब्रह्मयाचे सन्मुखां । केवी गेलें परियेसा ।। ७६ ।। विचारहीन अंतःकरण । पिशाचासारखे बदन । तोंड खालतें करून । ठायीं ठायीं पडतसे ।।७७।। वृद्ध आपण विरागहीन'। कलह द्वेष संगें घेऊन । वाम हाती धरोनि शिश्न्न । येत ब्रह्मयासन्मुख ।।७८।। जिव्हा धरोनि उजवे हातीं। नाचे केली अतिप्रीतीं। दोषोत्तरें करी स्तुति । पुण्यपापसंमिश्र ।। ७९।। हासे रडे वाकुल्या दावी । वाकुर्डे तोंड मुखीं शिवी । ब्रह्मयापुढे उभा राही। काय निरोप म्हणोनिया ।।८०।। देखोनिया तयाचे लक्षण । ब्रह्मा हासे अतिगहन। पुसतसे अतिविनयानें। लिंग जिव्हा कां धरिली ।।८१।। कलियुग म्हणे ब्रह्मयासी । जिंकीन समस्त लोकांसी। लिंग जिव्हा रक्षणारांसी। हारी असे आपणातें ।।८२।। याकारणें लिंग जिव्हा। धरोनि नाचें ब्रह्मदेवा। जेथे मी जाईन स्वभावा। आपण न भियें कवणातें ।।८३।। ऐकोनि कलीचे वचन । निरोप देत ब्रह्मा आपण । भूमीवरी जाऊन। प्रकाश करी आपुले गुणें ।।८४।। कलि म्हणे ब्रह्मयासी। मज पाठवितां भूमीसी । आपुले गुण तुम्हांसी। सांगेन एका स्वामिया ।।८५।। उच्छेद करीन धर्मासी। आपण असे निरंकुशी' । निरानंद परियेसीं । निंदा कलह माझेनी ।।८६।। परद्रव्यहारक परस्त्रीरत। हे दोघे माझे भ्रात। प्रपंच मत्सर दंभक। प्राणसखे माझे असती ।।८७।। बकासारिखे संन्यासी। तेचि माझे प्राण परियेसीं। छळण करोनि उदरासी । मिळविती पोषणार्थ ।।८८।। तेचि माझे सखे जाण । आणीक असतील पुण्यजन। तेचि माझे वैरी जाण । म्हणोनि विनवी ब्रह्मयासी ।।८९।। ब्रह्मा म्हणे हे कलियुगासी। सांगें तुज उपदेशीं। कलियुगीं आयुष्य नरासी । स्वल्प असे एक शत ।।९०।। पूर्व युगांतरीं देखा। आयुष्य बहु मनुष्यलोकां । तप अनुष्ठान ऐका । करिती अनेक दिवसवरी ।।९१।। मग होय तयांसी गती। आयुष्य असे अखंडिती। याकारणे क्षितीं कष्टती । बहु दिवसपर्यंत ।।९२।। तैसें नव्हेचि कलियुग जाण । स्वल्प आयुष्य मनुष्यपण। करिती तप अनुष्ठान। शीघ्र पावती परमार्था ।।९३।। जे जन असती ब्रह्मज्ञानी। पुण्य करितील जाणोनि । त्यांस तुवां साह्य होऊनि । वर्तत असें म्हणे ब्रह्मा ।।९४।। ऐकोनि ब्रह्मयाचे वचन । कली म्हणतसे नमोन । स्वामींनीं निरोपिलें जे जन । तेचि माझे वैरी असती ।।९५।। ऐसे वैरी जेथे असती। केवी जाऊं तया क्षितीं। ऐकतां होय मज भीति । केवी पाहूं तयांसी ।।९६।। पंचशत भूमंडळांत । भरतखंडीं पुण्य बहुत । मज मारितील देखत । कैसा जाऊं म्हणतसे ।। ९७।। ऐकोनि कलीचें वचन । ब्रह्मा निरोपी हांसोन । काळात्म्यातें' मिळोन । तुवां जावें भूमीसी ।।९८।। काळात्म्याचे ऐसे गुण। धर्मवासना करील छेदन। पुण्यात्म्याचें अंतःकरण । उपजेल बुद्धि पापाविषयीं ।।९९।। कली म्हणे ब्रह्मयासी । वैरी माझे परियेसी । वसतात भूमंडळासी । सांगेन स्वामी ऐकावें ।।१००।। उपद्रविती मातें बहुत । कृपा न ये मज देखत । जे जन शिवहरी ध्यात। धर्मरत मनुष्य देखा ।।१।। आणिक असती माझे वैरी। वास करिती गंगातीरीं । आणिक वाराणशीपुरीं। जाऊनि धर्म करिती देखा ।।२।। तीर्थे हिंडती जे चरणें । आणिक ऐकती पुराणें । जे जन करिती सदा दानें । तेचि माझे वैरी जाण ।।३।। ज्यांचे मनीं वसे शांति। तेचि माझे वैरी ख्याति । अदांभिकपणे पुण्य करिती । त्यांसी देखतां भीतसे ।।४।। नासाग्रीं दृष्टि ठेवुनी। जप करिती अनुष्ठानीं । त्यांसि देखतांचि नयनीं । प्राण माझा जातसें ।।५।। स्त्रियांपुत्रांवरी प्रीति। मायबापां अव्हेरिती । त्यांवरी माझी बहु प्रीति । परम इष्ट माझे जाणा ।।६।। वेदशाखांतें निंदिती। हरिहरांतें भेद पाहती। अथवा शिव विष्णु दूषिती । ते परम आप्त माझे जाणा ।।७।। जितेंद्रिय जे असती नर। सदा भजती हरिहर। रागद्वेषविवर्जित' धीर। त्यांसि देखोनि मज भय ।।८।। ब्रह्मा म्हणे कलियुगासी । तुझा प्रकाश बहुवसीं । तुवां जातांचि भूमीसी। तुझे इच्छे रहाटतील ।।९।। एखादा विरळागत । होईल नर पुण्यवंत। त्याते तुवां साह्य होत। वर्तावें म्हणे ब्रह्मा ।।११०।। ऐकोनि ब्रह्मयाचें वचन । कलियुग करीतसे नमन। करसंपुट जोडोन। विनवितसे परियेसा ।।११।। माझ्या दुष्ट स्वभावासी । केवी साह्य व्हावें धर्मासी । सांगा स्वामी उपायासी। कवणेपरी रहाटावें ।।१२।। कलीचें वचन ऐकोनि । ब्रह्मा हसे अतिगहनि । सांगतसे विस्तारोनि । उपाय कलीसी रहाटावया ।।१३।। काळ वेळ असती दोनी। तुज साह्य होऊनी। येत असती निर्गुणी । तेचि दाविती तुज मार्ग ।।१४।। निर्मळ असती जे जन । तेचि तुझे वैरी जाण। मळमूत्रे जयांसी वेष्टन । ते तुझे इष्ट परियेसी ।।१५।। याचि कारणें पापपुण्यासी। विरोध असे परियेसीं। जे अधिक पुण्यराशी । तेचि जिकिती तुज ।।१६।। या कारणें विरळागत। होतील नर पुण्यवंत । तेचि जिंकती निश्चित। बहुतेक तुज वश्य होती ।।१७।। एखादा विवेकी' जाण। राहे तुझे उपद्रव साहोन। जे न साहती तुझे दारुण। तेचि होती वश्य तुज ।।१८।। या कारणें कलियुगाभीतरी'। जन्म होतील येणेंपरी। जे जन तुझेचि परी। न होय त्यां ईश्वरप्राप्ति ।।१९।। ऐकोनि ब्रह्मदेवाचें वचन । कलियुग करितसे प्रश्न। कैसें साधूचें अंतःकरण। कवण असें निरोपावें ।।१२०।। ब्रह्मा म्हणे तये वेळीं । एकचित्तें ऐक कली। सांगेन ऐका श्रोते सकळी। सिद्ध म्हणे शिष्यासी ।।२१।। धैर्य धरोनि अंतःकरण । शुद्ध बुद्धी' वर्तती जन। दोष न लागती कधी जाण। लोभवर्जित नरांसी ।।२२।। जे नर भजती हरिहरांसी । अथवा असती काशीनिवासी । गुरु सेविती निरंतरेंसी। त्यांसी तुझा न लगे दोष ।।२३।। मातापिता सेवकांसी । अथवा सेवी ब्राह्मणासी। गायत्री कपिला घेनुसी। भजणारांसी न लगे दोष ।। २४।। वैष्णव अथवा शैवासी । जे सेविती नित्य तुळसीसी। आज्ञा माझी आहे ऐसी । तयांसी बाधू नको ।।२५।। गुरुसेवक असती नर । पुराण श्रवण करणार। सर्वसाधनधर्मपर। त्यांते तुवां न बाधावें ।। २६ ।। सुकृती शास्त्रपरायणासी। गुरूतें सेविती वंशोवंशी । विवेकें धर्म करणारांसी। त्यांते तुवां न बाधावें ।। २७।। कलि म्हणे ब्रह्मयासी । गुरुमहिमा आहे कैशी। कवण गुरुस्वरूपें कैसी। विस्तारावें मजप्रति ।।२८।। ऐकोनि कलीचें वचन । ब्रह्मा सांगतसे आपण । गकार म्हणजे सिद्ध जाण । रेफः पापस्य दाहकः ।।२९।। उकार विष्णुव्यक्त। त्रितयात्मा श्रीगुरु सत्य। पख्ब्रह्म गुरु निश्चित । म्हणोनि सांगे कलीसी ॥१३०।। श्लोक ।। गणेशो वाऽग्निना युक्तो विष्णुना च समन्वितः । वर्णद्वयात्मको मंत्रञ्चतुर्मुक्तिप्रदायकः ।।३१।। टीका ।। गणेशातें म्हणती गुरु । तैसाचि असे वैश्वानरू। ऐसाचि जाण शाङ्गधरू । गुरुशब्द वर्ते इतुके ठायीं ।।३२।। श्लोक ।। गुरुः पिता गुरुर्माता। गुरुरेव परः शिवः । शिवे रुष्टे गुरुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ।। ३३।। टीका ।। गुरु आपला मातापिता । गुरु शंकरू निश्चिता । ईश्वरु होय जरि कोपता। गुरु रक्षील परियेसा ।।३४।। गुरु कोपेल एखाद्यासी। ईश्वर न राखे परियेसी । ईश्वरू कोपेल ज्या नरासी। श्रीगुरु रक्षी निश्चये ।। ३५।। श्लोक ।। गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुरेकः परं ब्रह्म तस्माद्गुरुमुपाश्रयेत् ।। ३६ ।। टीका ।। गुरु ब्रह्मा सत्य जाण । तोचि रुद्र नारायण । गुरुचि ब्रह्म कारण । म्हणोनि गुरु आश्रावा ।। ३७।। श्लोक।। हरौ प्रसन्नेऽपि च वैष्णवा जनाः संप्रार्थयन्ते गुरुभक्तिमव्ययाम्। गुरौ प्रसन्ने जगदीश्वरः सदा जनार्दनस्तुष्यति सर्वसिद्धिदः ।। ३८।। टीका ।। ईश्वर जरी प्रसन्न होता । त्यासी गुरु होय ओळखविता । गुरु आपण प्रसन्न होतां । ईश्वर होय आधीन आपुल्या ।।३९।। श्लोक ।। गुरुः सदा दर्शयिता प्रवृत्तिं तीर्थं व्रतं योगतपादिधर्मान् । आचारवर्णादिविवेकयज्ञान् ज्ञानं परं भक्तिविवेकयुक्तम् ।।१४०।। टीका ।। गुरु भजे शास्त्रमार्ग वर्तोनि । तीर्थव्रतयोगतपादि मुनी। आचार वर्णादि ज्ञानी। ज्ञान परम भक्तिविवेकयुक्त ।।४१।। या कारणें श्रीगुरूसी । भजावें शास्त्रमार्गेसी । तीर्थव्रतयागतपासी । ज्योतिःस्वरूप असे जाणा ।।४२।। आचारधर्मवर्णाश्रमांसी। विवेकधर्ममार्गासी। भक्तिवैराग्ययुक्तांसी। गुरूचि मार्ग दाविणार ।।४३।। इतुकें ऐकोनि कलि आपण। विनवीतसे कर जोडून। गुरु सर्व देवांसमान। केवी झाला सांग मज ।।४४।। ब्रह्मा म्हणे कलीसी। सांगेन तुज विस्तारेंसी । एकचित्तें परियेसीं। गुरुवीण पार नाहीं ।।४५।। श्लोक ।। गुरुं विना न श्रवणं भवेत् कस्यापि कस्यचित्। विना कर्णेन शास्त्रस्य श्रवणं तत्कुतो भवेत् ।।४६।। टीका।। गुरुवीण समस्तांसी। श्रवण' कैचें परियेसीं । श्रवण होता मनुष्यांसी । समस्त शाखें ऐकती' ।।४७।। शास्त्र ऐकतां परियेसीं । तरतील संसारासी। या कारणें गुरुचि प्रकाशी । ज्योतिःस्वरूप जाणावा ।।४८।। गुरु सेवितां सर्व सिद्धि । होती परियेसा त्रिशुद्धि । कथा वर्तली अनादि। अपूर्व तुज सांगेन ।।४९।। पूर्वी गोदावरीचें तीरीं। आंगिरस ऋषींचा आश्रम थोरी। वृक्ष असती नानापरी । पुण्यनामें मृग वसती ।।१५०।। ब्रह्मऋषि आदिकरोनि । तप करिती तया स्थानी। तयांत वेदधर्म म्हणोनि । पैलपुत्र होता द्विज ।।५१।। तया शिष्य बहु असती। वेदशास्त्र अभ्यासिती । त्यांत दीपक म्हणोनि ख्याति । शिष्य होता परियेसा ।।५२।। होता शिष्य गुरुपरायण। केला अभ्यास शास्त्रपुराण । झाला असे अतिनिपुण । सेवा करितां श्रीगुरूची ।। ५३।। वेदधर्म एके दिनीं। समस्त शिष्यांसी बोलावुनी । पुसतसे संतोषोनि। ऐका श्रोते एकचित्तें ।।५४।। बोलावूनि शिष्यांसी। बोले गुरु परियेसी। प्रीति असेल आम्हांसी। तरी माझे वाक्य परियेसा ।।५५।। शिष्य म्हणती गुरूसी । जें जें स्वामी निरोपिसी। तूं तारक आम्हांसी। अंगिकारूं हा भरंवसा ।।५६।। गुरूचें वाक्य जो न करी। तोचि पडे रौरव घोरीं। अविद्या मायासागरीं। बुडोन जाय तो नर ।। ५७।। मग तया कैची गती। नरकीं पड़े तो सततीं। गुरु तारक हे ख्याति। वेदपुराणें बोलती ।।५८।। ऐकोनि शिष्यांची वाणी । तोषला वेदधर्म मुनी। संदीपकातें बोलावुनि । सांगतसे परियेसा ।।५९।। ऐका शिष्य सकळीक । आमचे पूर्वार्जित असे एक । जन्मांतरी सहस्राधिक। केलीं होतीं महापातकें ।।१६०।। आमुचे अनुष्ठान करितां । बहुत गेले प्रक्षाळितां । कांही शेष असे आतां। भोगिल्यावांचून न सुटे जाणा ।।६१।। तया सामर्थ्य उपेक्षा करितों। पापमोक्षा' आड रिघतों । याचि कारणें निष्कृति करितों । तया पाप घोरासी ।। ६२।। न भोगितां आपुले देहीं। आपले पापा निष्कृति नाहीं । हा निश्चय जाणोनि पाहीं। भोगावें आम्हीं परियेसा ।।६३।। या पापाचें निष्कृतीसी । जावें आम्हीं वाराणशीसी । जाईल पाप शीघ्रसी। प्रख्यात असे अखिल शास्त्रीं ।। ६४।। या कारणें आम्हांसी । न्यावें पुरी वाराणशीसी । पाप भोगीन स्वदेहासी । मातें तुम्हीं सांभाळावें ।।६५।। या समस्त शिष्यांत । कवण असे सामर्थ्यवंत। अंगिकारावें त्वरित । म्हणोनि पुसे शिष्यांसी ।। ६६ ।। तया शिष्यांमध्ये एक। नाम असे संदीपक । बोलतसे अतिविवेक। तया गुरूप्रति देखा ।। ६७।। दीपक म्हणे गुरूस। पाप करितां देहनाश। न करावा संग्रहो दुःखास । शीघ्र करा प्रतिकारू' ।।६८।। वेदधर्म म्हणे तयासी । दृढ देह असतां मनुष्यासी । क्षालन करावें पापांसी। पुढतीं वाढे विषापरी ।।६९।। अथवा तीर्थे प्रायश्चित्तें। आपुले देहीं भोगोनि त्वरितें। पापावेगळे न होतां निरुतें । मुक्ति नव्हे आपणांसी ।।१७०।। देव अथा ऋषेश्वरांसी। मनुष्यादि ज्ञानवंतांसी। क्षालन न होय पापासी । आपुलें आपण न भोगितां ।। ७१।। दीपक म्हणे गुरूसी। स्वामी निरोपावें आपणासी। सेवा करीन स्वशक्तीसी । न करितां अनुमान सांगिजे ।।७२।। ऐकोनि दीपकाचें वचन । वेदधर्म म्हणे आपण । कुष्ठं होईल अंग हीन । अंधक पांगुळ परियेसा ।।७३।। संवत्सर एकविंशत । मातें सांभाळावें बहुत । जरी असेल दृढ व्रत। अंगिकारावी तुम्ही सेवा ।। ७४।। दीपक म्हणे गुरूसी। कुष्ठी होईन आपण हर्षी। अंध होईन एकवीस वर्षी । पापनिष्कृति करीन ।।७५।। तुमचे पापाचे निष्कृति। मी करीन निश्चिती । स्वामी निरोपावें त्वरिती । म्हणोनि चरणांसी लागला ।। ७६।। ऐकोनि शिष्याची वाणी। संतोषला वेदधर्म मुनी। सांगतसे विस्तारोनि । तया पापलक्षणें ।।७७।। आपुले पाप आपणासी। ग्राह्य नव्हे पुत्रशिष्यांसी। न भोगितां स्वदेहासी। न वेंचे' पाप परियेसा ।।७८।। याकारणें आपण देखा। भोगीन आपुले पापदुःखा। सांभाळीं मज तूं संदीपका । एकवीस वर्षेपर्यंत ।।७९।। जे पीडिती रोगें देखा । प्रतिपाळणारासी कष्ट अधिका। मजहूनि संदीपका । तूंतें कष्ट अधिक जाण ।।१८०।। या कारणें आपुले देहीं। भोगीन पाप निश्चयीं। तुवां प्रतिपाळावें पाहीं। काशीपुरा नेऊनियां ।।८१।। तया काशीपुरी जाण । पापावेगळा होईन। आपण शाश्वतपद पावेन । तुजकरितां शिष्योत्तमा ।।८२।। दीपक म्हणे गुरूसी। अवश्य नेईन पुरी काशी। सेवा करीन एकवीस वर्षी । विश्वनाथासम तुमची ।।८३।। ब्रह्मा म्हणे कलियुगासी । कैसा होता शिष्य त्यासी । कुष्ठ होतांची गुरुसी। नेलें काशीपुरा ।।८४।। मणिकर्णिका उत्तरदेशी । कंबळेश्वर सन्निधेसी । राहिले तेथे परियेसीं। गुरु शिष्य दोघेजण ।।८५।। स्नान करूनि मणिकर्णिकेसी । पूजा करिती विश्वनाथासी । प्रारब्धभोग त्या गुरूसी। भोगीत होता तया स्थानीं ।।८६।। कुष्ठरोग झाला बहुत । अक्षहीन' अतिदुःखित । संदीपक सेवा करित। अतिभक्ती करूनियां ।।८७।। व्यापिला देह कुठे बहुत । पू कृमि पडे रक्त । दुःखें व्यापला अत्यंत । अपस्मारी झाला जाण ।।८८।। भिक्षा मागोनि संदीपक। गुरूसी आणोनि देत नित्यक । करी पूजा भावें एक । विश्वनाथस्वरूप म्हणतसे ।।८९।। रोगें करूनि पीडितां नरू। साधुजन होती क्रूरू। तोचि देखा द्विजवरू । होय क्रूर एखादे वेळीं ।।१९०।। भिक्षा आणितां एखादे दिवशीं। न जेवे श्रीगुरू कोपेंसी। स्वल्प आणिलें म्हणोनि क्लेशी। सांडोनि देत भूमीवरी ।।९१।। येरे' दिवसीं जाऊनि शिष्य। आणि अन्ने बहुवस। मिष्टान्नें न आणी म्हणोनि क्लेश'। करिता झाला परियेसा ।।१२।। परोपरीचें पक्वान्न। कां नाणिशी म्हणे जाण । कोपें मारूं येत आपण । शाका परोपरी मागतसे ।।९३।। जितुकें आणी मागोनिया। सर्वस्वे करीतसे वायां । कोपे देत शिविया । परोपरी परियेसा ।। ९४।। एखादे समयीं शिष्यासी । म्हणे ताता ज्ञानराशी। मजनिमित्त कष्टलासी । शिष्यराया शिखामणी ।।९५।। सर्वेचि म्हणत वचनें क्रूर। मातें गांजिले अपार । तूं आमुचे विष्ठामूत्र । क्षणक्षणां धूत नाही ।। ९६ ।। खाताती मज मक्षिका। कां न निवारिसी संदीपका। सेवा करितां म्हणे ऐका। भिक्षा नाणिशी म्हणतसे ।।९७।। या कारणें पापगुण। ऐसेची असती जाण । वोखट वाक्य निर्गुण । पाप म्हणोनि जाणावें ।।९८।। पाप असे जेथे बहुत । दैन्य' मत्सर वसे तेथ। शुभाशुभ नेणें कचित । पापरूपें जाणावें ।।९९।। एखादे दैन्यकासी । दुःखें प्राप्त होती कैसीं। अपस्मार होय जयासी । पापरूप तोचि जाणा ।।२००।। समस्त रोग असती देखा। कुष्ठ सोळा भाग नव्हे निका। वेदधर्म द्विज ऐका। कष्टतसे येणेंपरी ।।१।। ऐसे गुरूचे गुणदोष। मनांत न आणी तोचि शिष्य । सेवा करी एकमानस । तोचि ईश्वर मानोनि ।।२।। जैसें जैसें मागे अन्न। आणूनि देतसे परिपूर्ण। जैसा विश्वेश्वर नारायण। तैसा गुरु म्हणतसे ।।३।। काशीक्षेत्र थोर असतां । न करी कदा तीर्थयात्रा । न जाय देवदर्शना सर्वथा । गुरुसेवेवांचूनि ।।४।। ।। श्लोक ।। न तीर्थयात्रा न च देवयात्रा न देहयात्रा न च गेहयात्रा। अहर्निशं ब्रह्म हरिः सुबुद्धो गुरुः प्रसेव्यो न हि सेव्यमन्यत् ।।५।। टीका।। आपुलें देहसंरक्षण। कधीं न करी शिष्य जाण। लय लावूनि श्रीगुरुचरण । कवणासवें न बोलेची ।।६।। अहोरात्र येणेंपरी। ब्रह्मा शिव म्हणे हरी। गुरूचि होय निर्धारीं। म्हणोनि सेवा करीतसे ।।७।। गुरु बोलें निष्ठुरेंसी। आपण मनीं संतोषी। जें जें त्याचें मानसीं। पाहिजे तैसें वर्ततसे ।।८।। वर्ततां येणेंपरी देख। प्रसन्न होवोनि पिनाक' । उभा येऊनि सन्मुख । वर माग म्हणतसे ।।९।। अहो गुरुभक्त दीपका । महाज्ञानी कुलदीपका। तुष्टलों तुझे भक्तींसी ऐका। प्रसन्न झालों माग आतां ।। २१०।। दीपक म्हणे ईश्वरासी। हे मृत्युंजय व्योमकेशी। न पुसतां आम्हीं गुरूसी । वर न घे सर्वथां ।।११।। म्हणोनि गेला गुरुपासीं । विनवीतसे तयासी। विश्वनाथ आम्हांसी । प्रसन्न होवोनि आलासे ।।१२।। निरोप झालिया स्वामीचा। मागेन उपशम' व्याधीचा। वर होतां सदाशिवाचा । बरवें होईल म्हणतसे ।।१३।। ऐकोनिया शिष्याचें वचन । बोले गुरु कोपायमान। माझे व्याधिनिमित्त जाण । नको प्रार्थं ईश्वरासी ।।१४।। भोगिल्यावांचोनि पातकासी। निवृत्ति नव्हे गा परियेसीं। जन्मांतरीं बाधिती निश्चयेंसी। धर्मशास्त्रीं असे जाण ।।१५।। मुक्ति अपेक्षा ज्याचे मनीं । तेणें करावी पापधुणीं। शेष राहतां निर्गुणी। विघ्न करितील मोक्षासी ।।१६।। ऐशियापरी शिष्यासी। गुरु सांगे परियेसीं। निरोप मागोनि श्रीगुरूसी। गेला ईश्वरासन्मुख ।।१७।। जाऊनि सांगे ईश्वरासी। नलगे वर आपणासी। नये गुरूचे मानसीं । केवीं घेऊं म्हणतसे ।।१८।। विस्मय करोनि व्योमकेशी । गेला निर्वाणमंडपासी' । बोलावून समस्त देवांसी। सांगे वृत्तान्त विष्णूपुढें ।।१९।। श्रीविष्णु म्हणे शंकरास । कैसा गुरु कैसा शिष्य। कोठें त्यांचा रहिवास । सांगावें मज निर्धार ।। २२० ।। सांगे ईश्वर विष्णूसी । आश्चर्य देखिलें परियेसीं । दीपक शिष्य निश्वयेंसी। गुरुभक्त असे जाणा ।।२१।। गोदावरीतीरवासी। वेदधर्म म्हणिजे तापसी। त्याची सेवा अहर्निशीं । करितों भावें एकचित्तें ।।२२।। नाहीं त्रिलोकी देखिला कोणीं । गुरुभक्ति करणार निर्गुणी । त्यातें देखोनि माझें मनीं । अतिप्रीति वर्ततसे ।।२३।। वर देईन म्हणोनि आपण। गेलों होतों तयाजवळीं जाण । गुरूचा निरोप नाही म्हणोन । न घे वर परियेसा ।।२४।। अनेक दिव्यसहस्रवर्षी । तप करिती महाऋषि । वर मागती अहर्निशीं। नाना कष्ट करोनिया ।।२५।। तैसा तापसी योगीयांसी। नव्हे मज वर द्यावयासी। बलात्कारें देतां तयासी। वर न घे तो दीपक ।।२६।। तनमन अर्पूनि श्रीगुरूसी। सेवा करितो संतोषी । त्रयमूर्ती म्हणोनि गुरूसी । निश्चयें भजतसे ।।२७।। समस्त देव मातापिता । गुरूचि असे तत्त्वतां । निश्चय केला असे चित्ता। गुरु परमात्मा म्हणोनि ।।२८।। किती म्हणोनि वर्णं त्यासी। अविद्या-अंधकारासी। छेदिता दीपक परियेसीं। कुलदीपक नाम सत्य ।।२९।। धर्म ज्ञान सर्व एक। गुरूचि म्हणे कुलदीपक। चरणसेवा मनःपूर्वक । करितो गुरूची भक्तीनें ।। २३०।। इतुकें ऐकोनि शाङ्गधरू'। पहावया गेला शिष्यगुरू । त्यांचा भक्तिप्रकारू। पाहे तये वेळीं ।॥३१॥ सांगितले विश्वनार्थे। त्याहून दिसे आणिक तेथें । संतोषोनि दीपकातें । म्हणे विष्णु परियेसा ।।३२।। बोलावूनि दीपकासी। म्हणतसे हृषीकेशी। तुष्टलों तुझे भक्तीसी। वर माग म्हणतसे ।। ३३।। दीपक म्हणे विष्णूसी । काय भक्ति देखोनि आम्हांसी। वर देतोसी परियेसीं। कवण कार्या सांग मज ।। ३४।। लक्ष कोटी सहस्र वरुीं। तप करिती अरण्यवासी । त्यांसी करितोसी उदासी' । वर न देसी नारायणा ।। ३५ ।। मी तरी तुज भजत नाहीं। तुझे नाम स्मरत नाही। बलात्कारें येवोनि पाही । केवी देशी वर मज ।। ३६।। ऐकोनि दीपकाचे वचन । संतोषला नारायण। सांगतसे विस्तारोन। तया दीपकाप्रती देखा ।।३७।। गुरुभक्ति करिसी निर्वाणेंसी। म्हणोनि आम्ही जाहलों संतोषी । जे भक्ति केली त्वां गुरूसी । तेचि आम्हांसी पावली ।।३८।। जो नर असेल गुरुभक्त जाण । तोचि माझा जीवप्राण । त्यासी वश्य झालों आपण । जें मागेल ते देतों तया ।। ३९।। सेवा करी माता पिता । ती पावे मज तत्त्वतां । पतिसेवा खिया करितां । तेंही मज पावतसे ।।२४०।। एखाद्या भल्या ब्राह्मणासी। यती योगेश्वर तापसी। करिती नमन भक्तींसी। तेंचि मज पावे जाणा ।।४१।। ऐसे ऐकोनि दीपक। नमिता झाला आणिक । विनवीतसे देख । म्हणे सिद्ध नामधारका ।।४२।। ऐक विष्णु हृषीकेशी । निश्चय असो माझे मानसीं । वेदशास्त्रमीमांसादिकांसी। गुरु आम्हांसी देणार ।।४३।। गुरूपासूनि सर्व ज्ञान । त्रयमूर्ति होती आम्हां आधीन'। आमुचा गुरूचि देव जाण। अन्यथा नाहीं जाण पां ।।४४।। सर्व देव सर्व तीर्थ । गुरूचि आम्हां असे सत्य। गुरूवांचूनि आम्हां परमार्थ । काय दूर असे सांगा ।।४५।। समस्त योगी सिद्धजन। गुरुवांचूनि न होती सज्ञान। ज्ञान होतां ईश्वर आपण। केवी दूर असे सांगा ।।४६।। जो वर द्याल तुम्ही मज। श्रीगुरू देतो काय चोज। याकारणें श्रीगुरुराज। भजतसे परियेसा ।।४७।। संतोषोनि नारायण । म्हणे धन्य धन्य माझा प्राण । तूं शिष्य शिरोरत्न । बाळक तूंचि आमुचा ।।४८।। कांही तरी माग आतां । वर देईन तत्त्वतां । विश्वनाथ आला होता। दुसरेन' वर द्यावयासी मी आलों ।।४९।। आमचेनि मन संतोषी । वर माग जो तुझे मानसीं। तुज वश्य झालों निधरिंसी। जें पाहिजे तें देईन आतां ।। २५०।। दीपक म्हणें विष्णूसी । जरी वर आम्हां देसी। गुरुभक्ति होय अधिक मानसी। ऐसे मज ज्ञान द्यावें ।।५१।। गुरुचें रूप आपण ओळखें। ऐसें ज्ञान देई सुखें। यापरतें न मागें निकें। म्हणोनि चरणीं लागला ।।५२।। दिधला वर शाङ्गपाणी। संतोषोनि बोले वाणी । अरे दीपका शिरोमणी। तूं माझा प्राणसखा होसी ।।५३।। तुवां ओळखिलें गुरूसी । देखिलें दृष्टीं परब्रह्मासी । आणीक जरी आम्हां पुससी । सांगेन ऐक एकचित्तें ।।५४।। लौकिक सुबुद्धि होय जैशी । धर्माधर्मसुमनें' तैशीं । उत्कृष्टाहूनि उत्कृष्टेंसी। स्तुति करी गा अहर्निशीं ।।५५।। जे जे समयीं श्रीगुरूसी । तूं भक्तीनें स्तुति करिसी । तेणें होऊं आम्ही संतोषी । तेचि आमुची स्तुति जाण ।। ५६ ।। वेद वाचिती सांगेंसी । वेदान्त भाष्य अहर्निशीं । वाचिती जन उत्कृष्टेंसी। आम्हां पावें निर्धारीं ।।५७।। बोलती वेद सिद्धान्त । गुरुचि ब्रह्म असे म्हणत। याचि कारणें गुरु भजतां सत्य। सर्व देवता तुज वश्य ।। ५८।। गुरु म्हणजे अक्षर दोन । अमृताचा समुद्र जाण । तयामध्ये बुडतां क्षण। केवी होय परियेसा ।।५९।। जयाचें हृदयीं गुरुस्मरण । तोचि त्रिलोकीं पूज्य जाण । अमृतपान सदा सगुण । तोचि शिष्य अमर होय ।। २६०।। श्लोक ।। यदा मम शिवस्यापि ब्रह्मणो ब्राह्मणस्य हि । अनुग्रहो भवेन्नृणां सेव्यते सद्गुरुस्तदा ।। ६१।। टीका ।। आपण अथवा ईश्वरुः । ब्रह्मा जरी देता वरु । तद्वत् फलदाता गुरु। गुरु त्रैमूर्ति याचि कारणें ।। ६२ ।। ऐसा वर दीपकासी। दिधला विष्णूनें परियेसीं । ब्रह्मा सांगे कलीसी । एकचित्तें परियेसा ।। ६३।। वर लाधोनि दीपक। गेला गुरूचे सन्मुख । पुसतसे गुरु ऐक । तया शिष्या दीपकासी ।।६४।। ऐक शिष्या कुळदीपका। काय दिधलें वैकुंठनायका । विस्तारोनि सांगे निका। माझें मन स्थिर होय ।। ६५।। दीपक म्हणे गुरूसी। वर दिधला हृषीकेशीं। म्यां मागितलें तयासी । गुरुभक्ति व्हावी म्हणोनिया ।।६६।। गुरूची सेवा तत्परेंसी। अंतःकरण दृढेंसी। वर दिधला संतोषी। दृढभक्ति माझी तुमचे चरणीं ।। ६७।। संतोषोनि श्रीगुरु। प्रसन्न झाला साक्षात्कारू । जीवित्वें होय तूं स्थिरू । काशीपुरीं वास करीं ।। ६८ ।। तुझे वाक्य सर्वसिद्धि। तुझे घरीं नवनिधि । विश्वनाथ तुझे स्वाधीं। म्हणे गुरु संतोषोनि ।। ६९।। तुझे स्मरण जे करिती । त्यांचे कष्ट निवारण होती। श्रियायुक्त नांदती । तुझे स्मरणमात्रैसी ।। २७०।। येणेंपरी शिष्यासी । प्रसन्न झाला परियेसीं । दिव्यदेह झाला तत्क्षणेंसी । झाला गुरु वेदधर्म ।। ७१।। शिष्याचा भाव पहावयास । कुष्ठी झाला महाक्लेश । तो तापसी अतिविशेष। त्यासी कैचें पाप राहे ।।७२।। लोकानुग्रह करावयासी । गेला होता पुरीं काशीं। काशीक्षेत्रमहिमा ऐसी । पाप जाय सहस्र जन्मींचें ।। ७३ ।। तया काशीनगरांत । धर्म अथवा अधर्म-रत । वास करिती क्वचित । त्यांसि पुनर्जन्म नाहीं जाणा ।। ७४।। सूत म्हणे ऋषीश्वरासी । येणें प्रकारें कलीसी। सांगे ब्रह्मा परियेसीं । शिष्यदीपक आख्यान ।।७५।। सिद्ध म्हणे नामकरणी। दृढ मन असावें याचि गुणीं। तरीच तरेल भवार्णी' । गुरुभक्ति असे येणेंविधी ।।७६।। ।। श्लोक ।। यत्र यत्र दृढा भक्तिर्यदा कस्य महात्मनः । तत्र तत्र महादेवः प्रकाशमुपगच्छति ।।७७।। टीका ।। जरी भक्ति असे दृढेंसी । त्रिकरणसह मानसीं। तोचि लाधे ईश्वरासी । ईश्वर होय तया वश्य ।।७८।। गंगाधराचा नंदन । श्रोतयांसी करी नमन। न म्हणावें न्यून पूर्ण। माझे बोबडे बोलासी ।।२७९।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२॥
ओवीसंख्या २७९
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । येणेपरी सिद्ध मुनि । सांगता झाला विस्तारोनि । संतोषोनि नामकरणी । विनवितसे मागुती ।।१।। जय जयाजी सिद्ध मुनी । तारक तूं आम्हांलागुनी। संदेह होता माझे मनीं । आजि तुवां फेडिला ।।२।। तुझेनि सर्वस्व लाधलों । आनंदजळीं बुडालों । परम तत्त्व जोडलों । आजिचेनि दातारा ।।३।। ऐसें श्रीगुरुमहिमान । मज निरोपिलें त्वां ज्ञान । आनंदमय माझें मन । तुझेनि धर्में स्वामिया ।।४।। कवणे ठायीं तुमचा वास । नित्य तुम्हां कोठें ग्रास । होईन तुझा आतां दास । म्हणोनि चरणीं लागला ।।५।। कृपानिधी सिद्ध मुनी । तया शिष्या आलिंगोनि । आशीर्वचन देऊनि । सांगे आपला वृत्तान्त ।। ६ ।। जे जे स्थानीं होते गुरू । तेथें असतो चमत्कारू। पुससी जरी आम्हां आहारू । गुरुस्मरण नित्य जाणा ।।७।। श्रीगुरुचरित्र महिमान । तेंचि आम्हां अमृतपान । सदा सेवितों याचे गुण । म्हणोनि पुस्तक दाविलें ।।८।। भुक्ति मुक्ति परमार्थ । जें जें वांछिले मनांत । तें तें साध्य होय त्वरित । गुरुचरित्र ऐकतां ।।९।। धनार्थी यासी अक्षय धन । पुत्रपौत्रादि गोधन । कथा ऐकतां होय जाण । ज्ञानसिद्धी तात्काळ ।।१०।। जे भक्तीनें सप्तक एक । पढती ऐकती भक्त लोक । काम्य होय तात्कालिक । निपुत्रिकां पुत्र होती ।।११।। ग्रहरोगादिपीडन । न होती व्याधि कधीं जाण । जरी मनुष्यास असेल बंधन । त्वरित सुटे ऐकतां ।।१२।। ज्ञानवंत शतायुषी । ऐकतां होय भरंवसी। ब्रह्महत्यापापें नाशी । एकचित्तें ऐकतां ।।१३।। इतुकें ऐकोनि त्या अवसरीं । नामधारक नमस्कारी । स्वामी मातें तारीं तारीं । कृपानिधि सिद्ध मुनी ।।१४।। साक्षात्कारें गुरुमूर्ति । भेटलासी तूं जगज्ज्योती । होती वासना माझे चित्तीं । गुरुचरित्र ऐकावें ।।१५।। एखादा तृषेनें पीडित । जात असतां मार्गस्थ । त्या आणूनि देती अमृत । तयापरी तूं मज भेटलासी ।।१६।। गुरूचा महिमा ऐकों कानीं । सांगिजे स्वामी विस्तारोनि । अंधकार असतां रजनी । सूर्योदयापरी करीं ।।१७।। इतुकियाअवसरीं। सिद्ध योगी अभय' करी'। घरोनियां सव्य करीं। घेवोनि गेला स्वस्थाना ।।१८।। असे ठाव ज्ञानपंथीं । कल्पवृक्ष अश्वत्थीं । बैसोनि सांगे ज्ञानज्योती। ऐक शिष्या नामधारका ।।१९।। नेणती सोय गुरुदास्यका । याचि कारणें उपबाधका' । होती तुज अनेका। चिंता क्लेश घडती तुज ।।२०।। ओळखाया गुरुमूर्तीसी। आपुला आचार परियेसीं । दृढ भक्ति घरोनि मानसीं। ओळखिजे मग श्रीगुरु ।।२१।। ऐकोनि सिद्धाचें वचन । संतोषे नामधारक सगुण। क्षणक्षणा करी नमन। करुणावचनें करोनियां ।।२२।। तापत्रयाझींत पोळलों। मी संसारसागरी बुडालों । क्रोधादि जलचरी वेष्टिलों। अज्ञानजाळे वेष्टूनियां ।। २३।। ज्ञाननौकीं बसवूनि । कृपेचा वायु पालाणूनि' । देहा तारक करूनि। तारावें मातें स्वामिया ।।२४।। ऐशिया करुणावचनीं । विनवितसे नामकरणी। मस्तक सिद्धाचिया चरणीं । ठेविता झाला पुनः पुनः ।।२५।। तंव बोलिला सिद्ध मुनि । न घरी चिंता अंतःकरणीं । उठवीतसे आश्वासोनि । सांकडें फेडीन तुझे आतां ।। २६ ।। ज्यांसी नाहीं दृढ भक्ति। सदा दैन्यें कष्टती। श्रीगुरुवरी बोल ठेविती। अविद्यामाया वेष्टूनि ।। २७।। संशय धरोनि मानसी। श्रीगुरु काय देईल म्हणसी। तेणें गुणें हा भोग भोगिसी। नाना कष्टं व्याकुळित ।। २८ ।। सांडोनि संशय निर्धार। गुरुमूर्ति देईल अपार। ऐसा देव कृपासागर । तुज नुपेक्षी सर्वथा ।।२९।। गुरुमूर्ति कृपासिंधु । प्रख्यात असे वेदां बोधु। तुझे अंतःकरणी वेधु। असे तया चरणांवरी ।। ३० ।। तो दातार अखिल मही। जैसा मेघाचा गुण पाही। पर्जन्य पडतो सर्वां ठायीं। कृपासिंधु ऐसा असे ।।३१।। त्यांतचि पात्रानुसार। सांगेन साक्षी एक थोर। सखोल भूमि उदक स्थिर। उन्नतीं उदक नाहीं जाण ।।३२।। दृढ भक्ति जाणा सखोल भूमि। दांभिक ओळखा उन्नत तुम्ही। याचिया कारणें मनोकर्मी । निश्चयावें श्रीगुरुसी ।।३३।। म्हणोनि श्रीगुरुउपमा। ऐसा कवण असे महिमा। प्रपंच होय परब्रह्मा। हस्त मस्तकीं ठेवोनिया ।।३४।। कल्पतरूची द्यावी उपमा। कल्पिलें लाभे त्याचा महिमा। न कल्पितां पुरवी कामा । कामधेनु श्रीगुरु ।।३५।। ऐसा श्रीगुरु ब्रह्ममूर्ति । ख्याति असे श्रुतिस्मृतीं। संदेह सोडून एकचित्तीं। ध्याय पदांबुज श्रीगुरूचे ।। ३६।। इतकें परिसोनि नामधारक। नमन करूनि क्षणैक। करसंपुट' जोडोनि ऐक। विनवितसे सिद्धासी ।।३७।। श्रीगुरु सिद्ध योगेश्वरा। कामधेनु कृपासागरा। विनवितसे अवधारा। सेवक तुमचा स्वामिया ।।३८।। स्वामींनी निरोपिलें सकळ । झालें माझे मन निर्मळ । वेध लागला असे केवळ । चरित्र श्रीगुरुचें ऐकावया ।।३९।। गुरु त्रयमूर्ति ऐकों कानीं। कां अवतरलें मनुष्ययोनीं। सर्व सांगावें विस्तारोनि । म्हणोनि चरणीं लागला ।।४०।। मग काय बोले योगींद्र। बा रे शिष्या तूं पूर्णचंद्र। माझा बोधसमुद्र । कैसा तुवां उत्साहविला ।।४१।। तूंतें महासुख लाघलें । गुरुदास्यत्व फळलें । परब्रह्म अनुभवलें । आजिचेनि तुज आतां ।।४२।। हिंडत आलों सकळ क्षिति । कवणा नव्हे ऐशी मति। गुरुचरित्र न पुसती। तूंतें देखिलें आजि आम्हीं ।॥४३।। ज्यासी इहपरत्रींची चाड । त्यासी ही कथा असे गोड। त्रिकरणें' करोनियां दृढ। एकचित्तें ऐकिजे ।।४४।। तू भक्त केवळ श्रीगुरूचा । म्हणोनि भक्ति झाली उंचा। निश्चयो मानीं माझिया वाचा। लाघसी चारी पुरुषार्थ ।।४५।। धनधान्यादि संपत्ति । पुत्रपौत्र श्रुतिस्मृति। इह सौख्य आयुष्यगति । अंतीं गति असे जाणा ।।४६।। गुरुचरित्र कामधेनु । वेदशास्त्रसंमत जाणु । अवतरला त्रयमूर्ति आपणु। घरोनि नरवेष कलियुगीं ।।४७।। कार्याकारण अवतार । होऊनि येती हरिहर। उतरावया भूमिभार। भक्तजनातें तारावया ।।४८ ।। ऐकोनि सिद्धाचे वचन । प्रश्न करी शिष्यराणा । त्रयमूर्ति अवतार किंकारणा। देह घरोनि मानुषीं ।।५९।। विस्तारोनि तें आम्हांसी। सांगा स्वामी कृपेंसी । म्हणोनि लागला चरणासी। करुणावचनें करोनिया ।।५०।। सिंद्ध म्हणे नामधारका। त्रयमूर्ति तीन गुण ऐका। आदिवस्तु आपण एका । प्रपंच वस्तु तीन जाण ।।५१।। ब्रह्मयाचा रजोगुण। सत्त्वगुण विष्णु जाण। तमोगुण उमारमण'। मूर्ति एकचि अवधारा ।।५२।। ब्रह्मा सृष्टिरचनेसी। पोषक विष्णु परियेसीं । रुद्रमूर्ति प्रळयासी । त्रयमूर्तीचे तीन गुण ।।५३।। एका वेगळे एक न होती। कार्याकारण अवतार होती। भूमीचा भार फेडिती । प्रख्यात असे पुराणीं ।।५४।। सांगेन साक्ष आतां तुज ।। अंबरीष' म्हणिजे द्विज ।। एकादशीव्रताचिया काज ।। विष्णूसी अवतार करविले ।।५५।। अवतार व्हावया कारण। सांगेन तुज विस्तारून । मन करोनि सावधान । एकचित्तें परियेसा ।।५६।। द्विज करी एकादशीव्रत । पूजा करी अभ्यागत । निश्चयो करी दृढचित्त। हरिचिंतन सर्वकाळ ।।५७।। असो त्याचिया व्रतासी । भंग करावया आला ऋषि । अतिथि होऊनि हठेंसी। पावला मुनि दुर्वास ।।५८।। ते दिवशीं साधनद्वादशी घडी एक। आला अतिथि कारणिक अंबरीषास पडला धाक। केवी घडे म्हणोनिया ।।५९।। ऋषि आले देखोनि। अंबरीषानें अभिवंदोनि। अर्घ्य पाद्य देवोनि। पूजा केली उपचारें ।। ६०।। विनवितसे ऋषीश्वरासी । शीघ्र जावें स्नानासी। साधन आहे घटिका द्वादशी। यावें अनुष्ठान सारोनिया ।। ६१।। ऋषि जाऊनि नदीसी । अनुष्ठान करती विधींसी। विलंब लागतां तयासी। आली साधन घटिका ।। ६२।। व्रतभंग होईल म्हणोनि । पारणें केलें तीर्थ घेऊनि। नाना प्रकार पक्कानीं। पाक केला ऋषीतें ।।६३।। तंव आले दुर्वास देखा। पाहूनि अंबरीषाच्या मुखा । म्हणे भोजन केलेंसि का। अतिथीविण दुरात्मया ।। ६४।। शाप देतां ऋषीश्वर । राजें स्मरला शाङ्गधर । करावया भक्ताचा कैवार। टाकून आला वैकुंठा ।।६५।। भक्तवत्सल नारायण । शरणागताचें रक्षण । बिरूद बोलती पुराणें जाण । धावे धेनु वत्सासि जैसी ।। ६६ ।। शापिलें ऋषीनें द्विजासी । जन्मावें गा अखिल योनीसी । तंव पावला हृषीकेशी। येऊनि जवळी उभा ठेला ।। ६७।। मिथ्या नव्हे ऋषीचें वचन । द्विजें धरिले श्रीविष्णूचे चरण । भक्तवत्सल ब्रीद जाण । तया महाविष्णूचें ।। ६८।। विष्णू म्हणे दुर्वासासी । तुवां शापिलें अंबरीषासी । राखीन आपुल्या दासासी। शाप आम्हांसी तुम्ही द्यावा ।।६९।। दुर्वास ज्ञानी ऋषीश्वर । केवळ ईश्वर अवतार । फेडावयास भूमिभार। कारण असे पुढें म्हणतसे ।।७०।। जाणोनिज्ञानीशिरोमणी । म्हणे तप करितां युर्गे क्षोणीं। भेटी नव्हे हरिचरणीं। भूमीवरी दुर्लभ ।। ७१।। शापसंबंध अवतरोनि। येईल लक्ष्मी घेऊनि । तारावयालागोनी । भक्तजनां समस्ता ।।७२।। परोपकारसंबंधंसी । शाप द्यावा विष्णूसी । भूमिभार फेडावयासी । कारण असे म्हणोनियां ।।७३।। ऐसें विचारोनि मानसीं । दुर्वास म्हणे विष्णूसी। अवतरोनि भूमीसी । नाना स्थानीं जन्मावें ।। ७४।। प्रसिद्ध होसी वेळ दहा। उपर अवतार पूर्ण पहा। सहज तूं विश्वात्मा महा। स्थूलसूक्ष्मी वससी तूं ।।७५।। ऐसा कार्याकारणें शाप । अंगिकारी जगाचा बाप। दुष्टांवरी असे कोप। सृष्टिप्रतिपाळ करावया ।। ७६।। ऐसे दहा अवतार झाले। असें तुवां कर्णी ऐकिलें । महाभागवती विस्तारिलें । अनंतरूपी नारायण ।।७७।। कार्यकारण अवतार होती। क्वचित्प्रकट कचित गुप्ती। ते ब्रह्मज्ञानी जाणती । मूढमति काय जाणे ।।७८।। आणीक सांगेन तुज । विनोद झालासे सहज । अनसूया अत्रिऋषीची भाज'। पतिव्रताशिरोमणी ।।७९।। तिचे गृहीं जन्म जाहलें । त्रयमूर्ति अवतरले। कपटवेष धरोनि आले। पुत्र जाहले तियेचे ।।८०।। नामधारक पुसे सिद्धासी । विनोदकथा निरोपिलीसी। देव अतिप्रकट वेषीं। पुत्र जाहले कवणें परी ।।८१।। अत्रि ऋषि पूर्वी कवण । कवणापासूनि उत्पन्न । मूळ पुरुष होता कवण । विस्तारोनि मज सांगावें ।।८२।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर । पुढील कथेचा विस्तार । ऐकतां होय मनोहर । सकलांभीष्टे साधती ।।८३।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३॥
ओवीसंख्या ८३
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । ऐशी शिष्याची विनंती । ऐकोन सिद्ध काय बोलती। साधु साधु तुझी भक्ती। प्रीती पावो गुरुचरणीं ।।१।। ऐक शिष्यचूडामणी। धन्य धन्य तुझी वाणी। आठवतसे तुझ्या प्रश्नीं । आदिमध्यावसानक' ।।२।। प्रश्न केला बरवा निका। सांगेन आतां तुज विवेका। अत्रि ऋषीचा पूर्वका। सृष्टीपासोनि सकळ ।।३।। पूर्वी सृष्टि नव्हती कांहीं। जलमय होतें सर्वही । आपोनारायण' म्हणोनि पाहीं। वेद बोलती याची कारणें ।।४।। उदक आपोनारायण । सर्वां ठायीं वास पूर्ण। बुद्धिसंभवप्रपंचगुण' । हिरण्यगर्भ अंड निर्मिलें ।।५।। तेंचि ब्रह्मांड नाम जाहलें । रजो गुणें ब्रह्मयासी निर्मिलें। हिरण्यगर्भ नाम पावलें । देवतावर्ष एक होतें ।।६।। तेंचि ब्रह्मांड देखा । फुटोनि शकलें झालीं ऐका। एक शकल भूमिका। होऊनि ठेली शकलें दोनी ।।७।। ब्रह्मा तेथे उपजोन । रचिले चवदाही भुवन । दाही दिशा मानसवचन। काळ कामक्रोधादि सकळ ।।८।। सृष्टि रचावयासी। सप्त पुत्र उपजीं मानसीं । नामें सांगेन परियेसीं। सात जण ब्रह्मपुत्र ।।९।। मरीचि अत्रि आंगिरस । पुलस्त्य पुलह क्रतु वसिष्ठ । सप्त पुत्र जाहले श्रेष्ठ । सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जाण ।।१०।। सप्त ब्रह्मपुत्रांमधील अत्रि । तेथूनि पीठ गुरु-संतति । सांगेन ऐका एकचित्तीं । सभाग्य नामधारका ।।११।। ऋषि अत्रीची भार्या। नाम तिचें अनसूया। पतिव्रताशिरोममिया। जगदंबा तेचि जाणा ।।१२।। तिचें सौंदर्यलक्षण । वर्णं शके ऐसा कोम। जिचा पुत्र चंद्र आपण। तिर्चे रूप काय सांगों ।।१३।। पतिसेवा करी बहुत । समस्त सुरवर भयाभीत। स्वर्गेश्वर्य घेईल त्वरित । म्हणोनि चिंतिती मानसीं ।।१४।। इंद्रादि सुरवर मिळुनि । त्रयमूर्तीपासीं जाउनी। विनविताती प्रकाशोनी। आचार अत्रि ऋषीचा ।।१५।। इंद्र म्हणे स्वामिया । पतिव्रता स्त्री अनसूया। आचार तिचा सांगों काया। तुम्हांप्रती विस्तारोनि ।।१६।। पतिसेवा करी भक्तिसी । मनोवाक्कायमानसीं'। अतिथिपूजा महाहर्षी । विमुख नव्हे कवणे काळीं ।।१७।। तिचा आचार देखोनि । सूर्य भीतसे गगनीं। उष्ण तिजला होईल म्हणोनि । मंद मंद तपतसे ।।१८।। अग्नि झाला भयाभीत। शीतळ असे वर्तत । वायु झाला भयचकित । मंद मंद वर्ततसे ।।१९।। भूमि आपण भिऊनि देखा। नम्र जाहली तिचिये पादुका' । शाप देईल म्हणोनि ऐका। समस्त आम्ही भीतसों ।।२०।। नेणों घेईल कवण स्थान । कोण्या देवाचें हिरोन। एखाद्यातें वर देतां जाण। तोही आमुतें मारूं शके ।।२१।। यासि करावा उपाय। तूं जगदात्मा देवराय। जाईल आमुचा स्वर्गठाय । म्हणोनि आलों तुम्हां सांगों ।। २२।। न कराल जरी उपाय यासी। सेवा करूं आम्ही तिसीं । तिचे द्वारीं अहर्निशीं। राहूं चित्त धरोनिया ।।२३।। ऐसें ऐकोनि त्रयमूर्ति। महाक्रोधें कांपती। चला जाऊं पाहूं कैसी सती। म्हणती आहे पतिव्रता ।।२४।। व्रतभंग करूनि तिसी। ठेवूनि येऊं भूमीसी। अथवा वैवस्वतालयासी। पाठवू म्हणोनि निघाले ।।२५।। सत्त्व पहावया सतींचे । त्रयमूर्ति वेष भिक्षुकाचे। आश्रमा आले अत्रीचे । अभ्यागत होऊनिया ।। २६ ।। ऋषि करूं गेला अनुष्ठान। मार्गे आले त्रयमूर्ति आपण । अनसूयेसी आश्वासून । अतिथी आपण आलों म्हणती ।।२७।। क्षुधे बहु पीडोन । आम्ही आलों ब्राह्मण । त्वरित द्यावे सती अन्न । अथवा जाऊं आणिका ठायां ।।२८।। सदा तुमचे आश्रमांत । संतर्पण अभ्यागत । ऐकों आली कीर्ति विख्यात। म्हणोनि आलों अनसूये ।। २९ ।। इच्छाभोजनदान तुम्ही । देतां म्हणोनि ऐकिलें आम्हीं। ठाकोनि आलों याचि कामीं । इच्छाभोजन मागावया ।। ३० ।। इतुकें ऐकोनि अनसूया। नमन केलें तत्क्षणिया। बैसकार करूनियां । क्षालन केले चरण त्यांचे ।। ३१ ।। अर्घ्य पाद्य देऊनि त्यांसी। गंधाक्षतापुष्पेंसी। सर्वेच म्हणतसे हर्षी । आरोगण सारिजे ।।३२।। अतिथी म्हणे तये वेळीं। करोनि आलों आंघोळी। ऋषि येती बहुतां वेळीं । त्वरित आम्हां भोजन द्यावें ।। ३३।। वासना पाहोनि अतिथींते। काय केलें पतिव्रतें। ठाय' घातले त्वरितें । बैसकार केला देखा ।।३४।। बैसवोनिया पाटावरी। घृतेंसी पात्र अभिधारी। घेवोनि आली आपण क्षीरी। शाक पाक तये वेळीं ।। ३५।। तिसी म्हणती अहो नारी। आम्ही अतिथी आलों दुरी। देखोनि तुझे स्वरूप सुंदरी। अभीष्ट मानसी आणिक वसे ।। ३६ ।। नग्न होवोनि आम्हांसी। अन्न वाढावें परियेसी। अथवा काय निरोप देशी। आम्ही जाऊं नाहीं तरी ।। ३७।। ऐकोनि द्विजांचें वचन । अनसूया करी चिंतन । आले विप्र पहावया मन। कारणिक पुरुष होतील ।।३८।। पतिव्रताशिरोमणी। विचार करी अंतःकरणीं। अतिथी विमुख तरी हानि । निरोप केवीं उल्लंघूं ।।३९।। माझे मन असे निर्मळ । काय करील मन्मथ खळ । पतीचें असे तपफळ । तारील मज म्हणतसे ।।४०।। ऐसें विचारोनि मानसीं । तथास्तु म्हणे तयांसी। भोजन करावें स्वस्थ चित्तेंसी। नत्र वाढीन म्हणतसे ।।४१।। पाकस्थाना जाऊनि आपण । चिंतन करी पतीचे चरण। वस्त्र फेडोनि नग्न। म्हणे अतिथी बाळ माझें ।।४२।। नग्न होवोनि सती देखा । घेऊनि आली अन्नोदका । तंव तेचि झाले बाळका । ठायांपुढें लोळती ।।४३।। बाळें देखोनि अनसूया । भयचकित होवोनिया । पुनरपि वर्षे नेसोनिया। आली तया बाळकांजवळी ।।४४।। रुदन करिती तिन्ही बाळ । अनसूया रहावी वेळोवेळ । क्षुधार्त झाली केवळ । म्हणोनि कडिये घेतसे ।।४५।। कडिये घेवोनि बाळकांसी । स्तनपान करवी अतिहर्षी। एका सांडोनि एकाशीं। क्षुधा निवारण करितसे ।।४६।। पाहें पां नवल काय घडलें । त्रयमूर्तीची झाली बाळे । स्तनपानमात्रं तोषलें । तपफळ ऐसें पतिव्रतेचें ।। ४७।। ज्याचे उदरीं चौदा भुवन । सप्त समुद्र वडवाग्नि जाण । त्याची क्षुधा निवारण। पतिव्रतास्तनपानीं ।।४८।। चतुर्मुख ब्रह्मयासी । सृष्टि करणें अहर्निशीं । त्याची क्षुधा स्तनपानेंसी। केवी झाली निवारण ।।४९।। भाळाक्ष' कर्पूरगौर। पंचवक्त्र काळाग्निरुद्र। स्तनपान करवी अनसूया सुंदर। तपस्वी अत्री ऐसा ।।५०।। अनसूया अत्रिरमणी। नव्हती ऐशी कोणी । त्रयमूर्तीची झाली जननी। ख्याति झाली त्रिभुवनांत ।।५१।। कडिये घेवोनि बाळकांसी। खेळवीतसे तिघांसी । घालोनिया पाळण्यासी। पर्यंदें गाई तये वेळीं ।। ५२ ।। पर्यंदे गाय नानापरी । उपनिषदार्थ अतिकुसरीं । अतिउल्हासें सप्त स्वरीं । संबोखितसे त्रिमूर्तीसी ।।५३।। इतुकें होतां तये वेळीं । माध्याह्नवेळ अतिथिकाळीं। अत्रि ऋषि अतिनिर्मळीं। आला आपुले आश्रमा ।।५४।। घरामाजी अवलोकितां । तंव देखिली अनसूया गातां । कैंची बाळें ऐसें म्हणतां । पुसतसे स्त्रियेसी ।।५५।। तिणें सांगितला वृत्तान्त । ऋषि ज्ञानी असे पाहात । त्रयमूर्ति हेंचि म्हणत । नमस्कार करितसे ।।५६।। नमस्कारितां अत्रि देखा। संतोष विष्णुवृषनायका । आनंद झाला चतुर्मुखा । प्रसन्न झाले तये वेळीं ।। ५७।। बाळ राहिले पाळणेंसी। निजमूर्ति ठाकले सन्मुखेंसी । साधु साधु अत्रि ऋषि । अनसूया सत्य पतिव्रता ।।५८।। तुष्टलों तुझे भक्तीसी। माग मनीं वर जो इच्छिसी। अत्रि म्हणे सतीसी । जें वांछिसी माग आतां ।।५९।। अनसूया म्हणे ऋषीसी। प्राणेश्वरा तूंचि होसी । देव पातले तुमच्या भक्तीसी । पुत्र मागा तुम्ही आतां ।। ६० ।। तिघे बाळक माझे घरीं । रहावे माझे पुत्रापरी। हेंचि मागतों निर्धारीं । त्रयमूर्ति आपणां एकरूप ।। ६१।। ऐसें वचन ऐकोनि। वर दिधला मूर्ती तिन्ही । राहती बाळकें म्हणोनि । आपण गेले निजालयासी ।।६२।। त्रिमूर्ति राहिले त्यांचे घरीं। अनसूया पोशी बाळकापरी। नामें ठेविलीं प्रीतिकरीं । त्रिवर्गांचीं परियेसा ।। ६३।। ब्रह्मामूर्ति चंद्र झाला । विष्णुमूर्ति दत्त केवळा । ईश्वर तो दुर्वास नाम पावला। तिघे पुत्र अनसूयेचे ।। ६४।। दुर्वास आणि चंद्र देखा। उभे राहूनि मातेसन्मुखा । निरोप मागती कौतुका । जाऊं तपा निजस्थाना ।।६५।। दुर्वास म्हणे जननी। आम्ही ऋषि अनुष्ठानी। जाऊं तीर्थं आचरोनि । म्हणोनि निरोप घेतला ।।६६।। चंद्र म्हणे अहो माते। निरोप द्यावा आम्हां त्वरितें। चंद्रमंडळीं वास मातें । नित्य दर्शन तुमचें चरणी ।।६७।। तिसरा दत्त विष्णुमूर्ति । असेल तुमचे धरोनि चित्तीं । त्रयमूर्ति तोचि निश्चिती । म्हणोनि सांगती तियेसी ।।६८।। त्रयमूर्ति जाण तोचि दत्त । सर्व विष्णुमय जगत। राहील तुमचें धरोनि चित्त। विष्णुमूर्ति दत्तात्रेय ।।६९।। त्रयमूर्ति ऐक्य' होऊन । दत्तात्रेय राहिला आपण । दुर्वास चंद्र निरोप घेऊन। गेले स्वस्थाना अनुष्ठानासी ।।७०।। अनसूयेचे घरीं देखा। त्रयमूर्ति राहिली मूर्ति एका । नाम दत्तात्रेय एका । मूळपीठ श्रीगुरूचें ।।७१।। ऐशापरी सिद्ध देखा। कथा सांगे नामधारका । संतोषं प्रश्न करी अनेका। पुसतसे सिद्धासी ।।७२।। जय जय सिद्ध योगीश्वरा । भक्तजनमनोहरा । तारक संसारसागरा । ज्ञानमूर्ति कृपासिंधो ।। ७३ ।। तुझेनि प्रसादें मज । ज्ञान उपजलें सहज । तारक' आमुचा योगिराज। विनंती माझी परियेसा ।। ७४।। दत्तात्रेयाचा अवतारू । सांगितला पूर्वापारू । पुढें अवतार जाहले गुरु । कवणेंपरी निरोपिजे ।। ७५ ।। विस्तारूनि आम्हांसी। सांगा स्वामी कृपेंसी। अवतार त्रिमूर्तीसी। अनुक्रमें निरोपावें ।।७६।। म्हणे सरस्वतीगंगाधरू । पुढील कथेचा विस्तारू । ऐकतां होय मनोहरू । सकळाभीष्टें साधती ।।७७।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४॥
ओवीसंख्या ७७
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक भक्तासी । सांगे सिद्ध विस्तारेंसी। अवतार झाला मानुषीं । भक्तजन तारावया ।।१।। ऐक भक्ता नामधारका । अंबरीषाकारणें विष्णु देखा। अंगिकारिले अवतार ऐका। मानुषर्षी नाना रूप घेतसे ।।२।। मत्स्य कूर्म वराह देख । नराचा देह सिंहाचें मुख । वामनरूप झाला भिक्षुक। झाला ब्राह्मण क्षेत्रकर्मी ।।३।। दशरथाचे कुळीं जन्म । प्रख्यात अवतार श्रीराम। राजा होऊनि मागुती जन्म। गौळियाघरीं गुरे राखी ।।४।। वर्षे फेडूनि झाला नग्न। बौद्धरूपी झाला आपण । होऊनि कलंकी अवतार जाण । तुरंगारूढ काय आवडी ।।५।। नाना प्रकार नाना वेष । अवतार धरी हृषीकेश । तारावया भक्तजनास । दुष्टहनन करावया ।।६।। द्वापारांतीं झाला कली। अज्ञान लोक ब्राह्मणकुळीं । आचारहीन होऊनि प्रबळीं । वर्तती महिमा कलियुगीं ।।७।। भक्तजनतारणार्थ । अवतार धरी श्रीगुरुनाथ। सगराकारणें भगीरथ। आणी गंगा भूमंडळीं ।।८।। तैसें एक विप्रवनिता'। आराधी श्रीविष्णु दत्ता । तिचे उदरी अवतार धरितां। आश्चर्य झालें परियेसा ।।९।। पिठापूर पूर्वदेशीं। होता ब्राह्मण उत्तमवंशी । आपस्तंब शाखेसी । नाम आपळराजा जाण ।।१०।। तयाची भार्या सुमता। असे आचार पतिव्रता। अतिथि आणि अभ्यागता । पूजा करी भक्तिभावें ।।११।। ऐसें असतां वर्तमानीं । पतिसेवा एकमनी। अतिथिपूजा सगुणी । निरंतर करीतसे ।।१२।। वर्ततां ऐसें एके दिवशीं। आला दत्त अतिथिवेषीं। श्राद्ध होतें अमावास्येसी । विप्राघरीं तैं देखा ।।१३।। न जेवितां ब्राह्मण घरीं। दत्ता भिक्षा घाली ते नारी। दत्तात्रेय साक्षात्कारी । प्रसन्न झाला तये वेळीं ।।१४।। त्रैमूर्तीचें रूप घेऊनि । स्वरूप दावियेलें अतिगहनी। पतिव्रता धावोनि चरणीं । नमस्कारी मनोभावें ।।१५।। दत्तात्रेय म्हणे तियेसी । माग माते इच्छिसी। जे जे वासना तुझे मानसीं। पावसी त्वरित म्हणतसे ।।१६।। ऐकोनि स्वामींचें वचन। विप्रवनिता करी चिंतन । विनवीतसे करद्वय जोडून । नानापरी स्तवोनिया ।।१७।। म्हणे जय जय जगन्नाथा । तूं तारक भवासी तत्त्वता। माझे मनीं असे जे अर्ता'। पुरवावी ते देवराया ।।१८।। तूं कृपाळ सर्वां भूर्ती । वेदपुराणें वाखाणिती । केवी वर्णावी तुझी कीर्ती। भक्तवत्सला कृपानिधी ।।१९।। मिथ्या नोहे तुझा बोल। जे का ध्रुवासी दिधलें पद अढळ । बिभीषणासी लंकास्थळ । देऊनि राज्य समर्पिलें ।।२०।। भक्तजनां तूं आधार । तयालागीं धरिसी अवतार । ब्रीद असे चराचर । चौदा भुवनांमाझारी ।।२१।। आतां मातें वर देसी । वासना असे माझे मानसीं । न व्हावें अन्यथा बोलासी । कृपानिधि देवराया ।।२२।। माझे मनींची वासना । पुरवावी जगज्जीवना । अनाथरक्षका नारायणा । म्हणोनि चरणा लागतसे ।।२३।। ऐकोनि तियेचें करुणा वचन । संतोषला त्रयमूर्ति आपण । कर धरिला आश्वासोन। सांग जननी म्हणतसे ।।२४।। तंव बोलिली पतिव्रता । स्वामी जें निरोपिलें आतां । जननी नाम मज ठेवितां । करा निर्धार याच बोला ।। २५।। मज पुत्र झाले बहुत । नव्हेत स्थिर उपजतमृत । जे वांचले आतां असत। अक्षहीन पादहीन' ।। २६ ।। योग्य झाले नाहीं कोणी। काय करावें मूर्ख प्राणी । असोनि नसती येणें गुणी। पुत्रावीण काय जन्म ।। २७।। व्हावा पुत्र मज ऐसा। ज्ञानवंत पुराणपुरुषा । जगद्वंद्य वेदसदृशा । तुम्हां सारिखा दातारा ।। २८।। ऐकोनि तियेचें वचन । प्रसन्न झाला दत्त आपण । पुढें असे कार्यकारण । दीक्षार्थ भक्तजनांसी ।। २९।। तापसी म्हणे तियेसी । पुत्र होईल परियेसीं। उद्धरील तुझे वंशासी । ख्यातिवंत कलियुगीं ।।३०।। असावें तुम्ही त्याचे बोलीं। येन्हवीं न राहे तुम्हांजवळी । ज्ञानमार्गी अतुर्बळी" । तुमचें दैन्य हरील ।।३१।। इतुकें सांगोनि तापसी । अदृश्य झाला परियेसीं। विस्मय करितसे मानसीं। विप्रवनिता तये वेळीं ।।३२।। विस्मय करोनि मनांत । पतीसी सांगे वृत्तान्त। दोघे हर्षे निर्भर होत। म्हणती दत्तात्रेय होईल ।।३३।। माध्याह्नसमयीं अतिथिकाळीं । दत्त येताती तये वेळीं। विमुख न होतां तये काळीं । भिक्षा मात्र घालिजे ।।३४।। दत्तात्रेयाचें स्थान । माहूर करवीर क्षेत्र खूण । तयाचा वास सदा जाण। पांचाळेश्वर नगरांत ।। ३५।। नाना वेष भिक्षुकरूप। दत्तात्रेय येती साक्षेप। न पुसतां मज निरोप। भिक्षा घाली म्हणतसे ।। ३६ ।। विप्रत्री म्हणे पतीसी । आजि अवज्ञा केली तुम्हांसी। ब्राह्मण न जेविता आपण त्यासी। भिक्षा पावली म्हणतसे ।।३७।। ऐकोनि सतीच्या बोला। विप्र मनीं संतोषला । म्हणे पतिव्रते लाभ झाला। पितर माझे तृप्त झाले ।।३८।। करावें कर्म पितरांच्या नामीं। समर्पार्वे विष्णूसी आम्हीं। साक्षात्कारें येऊनि स्वामी। भिक्षा केली आम्हां घरीं ।। ३९।। कृतार्थ झाले पितृगण समस्त । निधरिं झाले स्वर्गस्थ । साक्षात् विष्णु भेटले दत्त । त्रैमूर्तिअवतार ।।४० ।। धन्य तुझी मातापिता। जे वर लाधलीस मुख्य आतां। पुत्र होईल निभ्रांता। न धरीं चिंता मानसीं ।।४१।। हर्षे निर्भर होवोनि। राहिलीं दोघे निश्चित मनीं। होती जाहली गर्भिणी। विप्रत्री परियेसा ।।४२।। ऐसे नव मास क्रमोनि । प्रसूत जाहली शुभदिनी। विप्रं स्नान करूनि । केलें जातकर्म तये वेळीं ।॥४३।। मिळोनि समस्त विप्रकुळी । जातक वर्तविती तये वेळीं । म्हणती तपस्वी होईल बळी। दीक्षाकर्ता जगद्गुरु ।।४४।। ऐकोनि म्हणती मातापिता । हो कां आमुचा कुळ उद्धरिता। आम्हां वर दिधला दत्ता। म्हणोनि ठेविती तया नांव ।।४५।। श्रीपाद म्हणोनि या कारण। नाम ठेवी तो ब्राह्मण। अवतार केला त्रैमूर्ति आपण। भक्तजन तारावया ।।४६ ।। वर्तत असतां त्याचे घरीं । झालीं सात वर्षे पुरीं। मौजीबंधन ते अवसरीं। करिता झाला द्विजोत्तम ।।४७।। बांधितां मौंजी ब्रह्मचारी । म्हणता झाला वेद चारी। मीमांसा तर्क अतिविस्तारीं। म्हणों लागला तये वेळीं ।।४८।। ऐकोनि समस्त नगरलोक । विस्मय करिती सकळिक । होईल अवतार कारणिक । म्हणोनि बोलती आपणांत ।।४९।। आचार व्यवहार प्रायश्चित्त । समस्तांसी आपण बोलत। वेदान्तभाष्यवेदार्थ। सांगतसे द्विजवरांसी ।।५०।। वर्ततां ऐसें तयासी । झालीं वर्षे शोडशी । विवाह करूं म्हणती पुत्रासी। मातापिता अवधारा ।।५१। विचार करिती पुत्रासवें । बा रे लग्न तुवां करावें । श्रीपाद म्हणे ऐका भावें। माझी वांछा सांगेन ।। ५२।। कराल विवाह माझा तुम्ही । सांगों ऐका विचार आम्ही । वैराग्यखीसंगें' असेन मी। काम्य आमुचें तियेजवळीं ।।५३।। ते खियेंवाचूनि आणीक नारी । समस्त जाणा मातेसरी' । जरी आणाल ते सुंदरी। वरीन म्हणे तये वेळीं ।।५४।। आपण तापसी ब्रह्मचारी । योगस्त्रियेवांचोनि नारी। बोल धरा निर्धारीं। श्रीवल्लभ नाम माझें ।।५५।। श्रीपाद श्रीवल्लभ नाम ऐसें । झाले त्रिमूर्ति कैसें । पितयातें म्हणतसे। जाऊं उत्तरपंथासी ।। ५६ ।। ऐकोनि पुत्राचें वचन । आठविलें पूर्वसूचन । भिक्षुकें सांगितली जे खूण । सत्य झाली म्हणतसे ।।५७।। आतांच या बोलासी। मोडा घालितां परियेसीं। विघ्न होईल त्वरितेंसी । म्हणोनि विचारिती तये वेळीं ।।५८।। न म्हणावे पुत्र यासी। अवतारपुरुष तापसी। जैसें याचे वसे मानसीं। तैसें करावें म्हणती दोघे ।।५९।। निश्चय करूनि आपुले मनीं । पुत्राभिमुख जनकजननी। होती आशा आम्हांलागुनी। प्रतिपाळिसी म्हणोनिया ।।६०।। ऐशी मनीं व्याकुळित । डोळां निघती अश्रुपात । माता पडली मूर्च्छागत । पुत्रस्नेहें करोनिया ।। ६१।। देखोनि मातेचें दुःख । संबोखित परमपुरुष । उठवूनि स्वहस्तें देख । अश्रुपात पुशितसे ।।६२।। न करीं चिंता अहो माते। जें मागसी तें देईन तूंते। दृढ करूनि चित्तातें। रहा सुर्खे म्हणतसे ।। ६३।। बा रे तुजकरितां आपण । दुःख विसरलें संपूर्ण। रक्षिसी आम्हां वृद्धांलागून । दैन्यावेगळे करोनि ।।६४।। पुत्र असती आपणा दोन। पाय पांगुळ अक्षहीन । त्यांतें पोशील आतां कोण । आम्हां कवण रक्षील ।।६५।। ऐकोनि जननीचें वचन । अवलोकी अमृतदृष्टींकरून । पुत्र दोघेही झाले सगुण । आली दृष्टिचरणादिक ।।६६।। वेदशास्त्रादि व्याकरण। सर्व म्हणती तत्क्षण। दोघे येऊनि धरिती चरण। कृतार्थ झालो म्हणोनिया ।। ६७ ।। चिंतामणीचा होतां स्पर्श । सुवर्ण करी लोहास। तैसें महात्मदृष्टीने तयांस । योग्यता आली तत्काळीं ।।६८।। आश्वासन तया वेळीं । दिधला वर तत्काळीं । पुत्रपौत्रीं नांदा प्रबळीं । श्रियायुक्त सनातन' ।।६९।। सेवा करा जनकजननी । पावा सुख महाज्ञानी। इह सौख्य पावोनि। व्हाल मुक्त हैं निश्चयें ।।७०।। ऐसें बोलोनि तयांसी । संबोधितसे मातेसी। पाहोनिया दोघां पुत्रांसी। राहतां सुख पावाल ।। ७१।। पुत्र दोघे शतायुषी । निश्चय धरीं वो मानसीं । कन्या पुत्र होतील यांसी। तुम्ही नेत्रीं देखाल ॥ ७२।। अखंड लक्ष्मी यांचे घरीं । यांचे वंशपरंपरीं । कीर्तिवंत सचराचरीं। संपन्न होतीं वेदशाखें ।। ७३।। आमची अवज्ञा न करितां । निरोप द्यावा आम्हां त्वरिता । जाणें असे उत्तरपंथा। दीक्षा द्यावया साधुजनां ।।७४।। सांगोनि मातापित्यासी । अदृश्य झाला परियेसीं । पावला त्वरित पुरी काशी। गुप्तरूपें होता तेथें ।। ७५।। निघाला तेथूनि बदरीवना। भेटी घेऊनि नारायणा । अवतार असे आपणा । कार्याकारण मनुष्यदेहीं ।। ७६।। दीक्षा करावया भक्तजनां । तीर्थे हिंडणें आपणा। मनोवेगें मार्गक्रमणा। आले तीर्थ गोकर्णासी ।। ७७ ।। ऐकोनि सिद्ध मुनींचें वचन । विनवी नामधारक आपण। तें परिसा श्रोतेजन । म्हणे सरस्वतीगंगाधरू ।।७८।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥५॥
ओवीसंख्या ७८
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक म्हणे सिद्धासी । स्वामी तूं ज्योति अंधकारासी । प्रकाश केला जी आम्हांसी । गुरुपीठ आद्यंत ।।१।। त्रैमूर्ति होऊनि आपण। तीर्थे करावीं किंकारण। विशेष असे काय गोकर्ण । म्हणोनि गेले तया स्थाना ।।२।। तीर्थे असती अपरंपारी। समस्त सांडूनि प्रीती करी। कैसा पावला दत्तात्री। अवतारी श्रीपाद श्रीवल्लभ ।।३।। ऐक शिष्या शिखामणी । तुवां पुशिलें जें कां प्रश्नीं। संतोष झाला अंतःकरणीं। सांगेन चरित्र श्रीगुरुचें ।।४।। विस्तारोनि आम्हांसी। सांगा स्वामी कृपेंसी। म्हणोनि लागला चरणांसी। नामधारक प्रीतिकारें ।।५।। ऐकोनि नामधारकाचें वचन । संतोषलें सिद्धाचें मन। सांगतसे विस्तारोन । गुरुचरित्र परियेसा ।।६।। तुजकरितां आम्हांसी। लाभ झाला असे मानसीं । गुरुचरित्र सांगावयासी। उत्कंठा मानसीं होय ते ।।७।। म्हणे त्रैमूर्ति अवतरोन । तीर्थे हिंडे केवी आपण। विशेष पावला गोकर्ण। म्हणोनि पुससी आम्हांते ।। ८ ।। दत्तात्रेय आपण । तीर्थे हिंडे। तयाचें कारण। भक्तजनहितार्थ दीक्षेस्तव जाण । उपदेश करावया ।।९।। विशेष तीर्थे आपुलें स्थान । गोकर्णी शंकर असे जाण। याच कारणें निर्गुण । त्रैमूर्ति वसती तया ठायीं ।।१०।। गोकर्णीचे माहात्म्य। सांगतसे अनुपम्य । एकचित्त करूनि नेम। ऐक शिष्या नामधारका ।।११।। त्या तीर्थाचे आदि अंतीं । सांगेन तुम्हां विस्तृतीं । जे पूर्वी वर लाधले असती। अपूर्व असे ऐकतां ।।१२।। महाबळेश्वर लिंग देखा। स्वयंभू शिव असे ऐका । आख्यान त्याचें ऐका। लंबोदरे प्रतिष्ठिलें तें ।।१३।। शिष्य म्हणे सिद्धासी। तीर्थमहिमा वानिसी। विघ्नेश्वरें प्रतिष्ठिलें तयासी । विस्तारोनि सांग मज ।।१४।। ऐसें शिष्य विनवीत । ऐकोनि बहु संतोषत । निरोपित आद्यंत । महाबळेश्वरचरित्र ।।१५।। पुलस्त्य ब्राह्मणाची भार्या। नाम तियेचें कैकया। ईश्वरभक्ति अतिप्रिया । शिवपूजा सर्वकाळ ।।१६।। नित्य करी शिवपूजन। पूजेवीण न घे अन्न। ऐसें करितां एक दिन । न मिळे लिंग पूजेसी ।।१७।। व्रतभंग होईल म्हणोनि । मृत्तिकालिंग करूनि । पूजी अति संतोषोनि। भक्तिपूर्वक अवधारा ।।१८।। तिचा पुत्र अतिक्रूर। नाम तया दशशिर । आला तेथे वेगवत्तर । मातृदर्शन करावया ।।१९।। नमिता झाला मातेसी । पुसे पूजा काय करिसी। माता सांगे विस्तारेंसी। लिंग पूजिलें मृत्तिकेचें ।। २० ।। रावण म्हणे जननीसी । माझी माता तूं म्हणविसी । मृत्तिकेचें लिंग पूजेसी। अभाग्य आपुलें म्हणतसे ।।२१।। मागुती म्हणे तियेसी । पूजितां फळ काय यासी। कैकया सांगे पुत्रासी । कैलासपद पाविजे ।।२२।। रावण म्हणे मातेसी । कैलास आणुनी तुजपासीं। देईन हें निश्चयेंसी। सायास कां वो करित्येसी ।।२३।। ऐसें बोले तो रावण । मातेसवे करी पण। आणीन त्वरित उमारमण । कैलासासहित लंकेसी ।। २४।। पूजा करीं वो स्वस्थ चित्तेंसी। मृत्तिकालिंग कां करिसी। म्हणोनि निघाला त्वरितेंसी । मनोवेगें निशाचर ।।२५।। पावला त्वरें शिवपुरासी । शुभ्र रम्य पर्वतासी । धरोनि हालवी क्रोधेंसी । वीस बाहु भुजाबळें ।। २६ ।। आंदोळलें कैलासभुवन । उपटीतसे तो रावण । दाही शिरें टेकून । उचलीन म्हणे उल्हासें ।।२७।। शिर लावून पर्वतासी। कर टेकून मांडीसी। उचलिता झाला प्राणेंसी। सप्तपाताळ आंदोळलें ।।२८।। फणा चुकवी शेष आपण । कूर्म भ्याला कांपोन। भयचकित देवगण । अमरपुर कांपतसे ।।२९।। कंप झाला स्वर्गभुवन । सत्यलोक विष्णुभुवन। येरू पडतसे गडबडोन। म्हणती प्रळय मांडला ।। ३० ।। कैलासपुरींचे देवगण । भयाभीत झाले कंपायमान । भयाभीत गिरिजा आपण । होऊनि गेली शिवापासीं ।।३१।। पार्वती विनवी शिवासी। काय झालें कैलासासी । आंदोळतसे सभेसी। पडों पहात निधरिं ।।३२।। नगरांत झाला आकान्त । बैसलेती तुम्ही स्वस्थ । करा प्रतिकार त्वरित । म्हणोनि चरणां लागली ।।३३।। ईश्वर म्हणे गिरिजेसी । न करीं चिंता मानसीं। रावण माझा भक्त परियेसीं । खेळतसे भक्तीनें ।। ३४।। ऐसें वचन ऐकोनि । विनवी गिरिजा नमोनि । रक्ष रक्ष शूलपाणी । समस्त देवगणांतें ।। ३५ ।। ऐकोनि उमेची विनंती। शंकरें चेपिला वामहस्तीं । दाही शिरें भुजांसहिती। दडपलासे गिरीच्या तळीं ।। ३६ ।। चिंता करी मनीं बहुत । शिव शिव ऐसें उच्चारित। ध्यातसे स्तोत्र करीत। शरणागता रक्ष म्हणोनि ।। ३७ ।। त्राहि त्राहि पिनाकपाणी। जगद्रक्षकशिरोमणी'। शरण आलों तुझे चरणीं । मरण कैचें भक्तासी ।। ३८ ।। शंकर भोळा चक्रवर्ती । ऐकोनि त्याची विनंती । चेपिलें होतें वामहस्तीं। काढिलें त्वरित कृपेनें ।। ३९।। सुटला तेथूनि लंकेश्वर। स्तोत्र करीतसे अपार। स्वशिरें छेदोनि परिकरें। तंतु लाविलें निज अंत्र ।।४०।। वेद सहस्र एकवचनी । वर्णक्रमादि विस्तारोनि । सामवेद अतिगायनीं। समस्त रागें गातसे ।।४१।। गण रसस्वरयुक्त । गायन करी लंकानाथ । तयांची नामें विख्यात । सांगेन ऐका एकचित्तें ।।४२।। आठही गण प्रख्यात । उच्चारीतसे लंकानाथ। मगण ब्राह्मण प्रख्यात । नगण क्षत्री विशेष ।।४३।। भगण वैश्य ध्यानेंसी। तगण शूद्रवर्णेसी । जगण दैत्य परियेसीं। गण प्रत्यक्ष च्यूतगुणें ।।४४।। सगण तुरंगपेंसी । यगण युद्ध परियेसी। विस्तारित गायनेंसी। लंकापति रावण ।।४५।। गायन करीत नवरसेंसी । नांवे सांगेन परियेसीं । शांत भयानक अद्भुतेसीं। शृंगार हास्य करुणरसें ।।४६।। रौद्र वीर बीभत्सेंसी। गायन करी अति उल्हासीं । वेणू वाजवी सप्तस्वरेंसी। ध्यानपूर्वक विधीनें ।।४७।। जंबुद्वीप वास ज्यासी । षड्जस्वर नाम परियेसीं । कंठीहूनि उपज ज्यासी। मयूरस्वर आलापित ।।४८।। उत्तमवंशीं उपज ज्यासी । गीर्वाणकुळीं ब्रह्मवंशीं। पद्मपत्र वर्ण परियेसीं। वन्हि देवता शृंगारसें ।।४९।। द्वितीय स्वर ऋषभासी । जन्म प्लक्ष द्वीपासी । उपज हृदयस्थानेंसी । चापस्वर आलापित ।।५०।। प्रख्यात जन्म क्षत्रवंशीं । विराजवर्ण यमदेवतेसी । क्रीडा अद्भुत रस ऐसी । वीणा वाजवी रावण ।।५१।। तृतीय स्वर गांधारेंसी। गायन करी रावण परियेसीं । कुशद्वीप वास ज्यासी । नासिकस्थान अवधारा ।।५२।। अजस्वर आलापत्यासी। गीर्वाण कुल वैश्यवंशीं। सुवर्णवर्ण कांतीसी । चंद्रदेवता अद्भुत रखें ।। ५३।। मध्यमस्वर चातुर्थक । क्रौचद्वीप वास ऐक। उरस्थान उक्त उच्चारी मुखें । क्रौंचस्वरें आलापित ।।५४।। गीर्वाणकुळ ब्रह्मवंश । कुंदवर्ण रूप सुरस। ध्यान करी लंकाधीश । लक्ष्मी देवता करुणा रस ।।५५।। शाल्मली द्वीप भूमीसी। जन्म पंचमस्वरासी। कंठीं उपजोनि नादासी । कोकिळास्वरें गातसे ।।५६।। ध्यान करी तया स्वरासी। उपज झाला पितृवंशीं । कृष्णवर्ण रूप त्यासी। गणनाथ देव हास्यरसें ।।५७।। श्वेतद्वीप जन्म ख्यात । स्वर असे नाम धैवत । ललाट स्थान नाद व्यक्त । दर्दुरस्वरें आलापी देखा ।।५८।। ऐसा धैवत स्वरासी। बीभत्स रस अतिउल्हासीं। गाय रावण परियेसीं । ईश्वर प्रती भक्तीनें ।। ५९।। पुष्कर द्वीप उपजे त्यासी। निषाद स्वर नाम परियेसीं । उत्पत्ति तालव्य संधीसी। हस्तिस्वरें गातसे ।। ६० ।। असुरवंश वैश्यकुळीं । कल्प शुद्ध वर्ण पाटली। तुंबर मुनि देवता जवळी । सूर्य देवता अवधारीं ।।६१।। भयानक रस देखा । चर्ची व्याकुळ असे निका। येणेंपरी सप्त स्वरिका। गायन करी लंकानाथ ।। ६२।। रागसहित रागिणींसी। गायन करी सामवेदासी। श्रीरागादि वसंतासी । आलाप करी दशशिर ।।६३।। भैरवादि पंचमरागी । नटनारायण मेघरागीं। गायन करी अभ्यासयोगी। लंकानाथ शिवाप्रति ।।६४।। गौडी कोल्हाळ आंधळी । द्राविडरागी कौशिकमाळी। देवगांधार आनंदलिळी। गायन करी लंकानाथ ।। ६५।। धनाश्रिया वराडीसी । रामकलि मंजिरेंसी । गौडी दशाक्षी हारिसी। गायन करी लंकेश्वर ।। ६६ ।। भैरवी गुर्जरीसहित । वेळावली राग ललित । कर्नाटकी हंसयुक्त। गायन करी दशशिर ।। ६७ ।। त्राटकी मोटकी देखा। टंकाक्षी सुधा नाटका। सैंधवा माळाकी ऐका । गायन करी लंकानाथ ।।६८।। बंगाली राग सोरटींसी। कामबोध मधुमाधवींसी । देव क्रिया भूपाळीसी । गायन करी दशानन ।।६९।। रागवल्लभ माधुरीसी। राव्हेरी राग हर्षी। विहंगदात्री चंडीसी। वसवीजादि रागानें ।।७०।। शिर कापून आपुलेदेखा। यंत्र केलें करकमळिका। शिरा काढून तंतुका। रावणेश्वर गातसे ।।७१।। समयासमयीं आलापन । करी दशशिर आपण । प्रातःकाळीं करी गायन । अष्टराग परियेसा ।।७२।। ललिता गुर्जरासी । गौडाक्री आहिरी कौशिकेसी । माध्याह्नसमयीं गायनासी। रावण करी परियेसा ।।७४।। कुरंजी तोडी मालश्रियेसी। दशांक पंचम परियेसीं। अपराह्न वेळ अतिहर्षी। ईश्वराप्रती गातसे ।।७५।। चारी प्रकार गौडियेसी । रामकली श्रीरागासी। देवकीपट मंजिरेंसीं । वसंतुरागें ऋतुकाळीं ।। ७६ ।। ऐसें छत्तीस रागेंसी। गायन करी सामवेदासी। निर्वाणरूप भक्तीसी। चंद्रमौळी सांबाचिये ।। ७७।। रावणाचे भक्तीसी । प्रसन्न ईश्वर त्वरितेंसी । निजरूप अतिहर्षी। उभा राहिला सन्मुख ।। ७८ ।। पंचवक्त्र त्रिनेत्रंसी। उभा राहोनि संतोषीं । काय इच्छा तुझे मानसीं । माग वर म्हणतसे ।। ७९।। म्हणे रावण शिवासी। काय मागावें तुजपासीं । लक्ष्मी माझे घरची दासी । आठ निधि माझे घरीं ।।८० ।। चतुरानन' माझा जोशी। तेहेतीस कोटी देव हर्षी । सेवा करिती अहर्निशीं । सूर्य चंद्र वरुण वायू ।।८१।। अग्नि सारिखा सेवा करी। वखें धूत अतिकुसरीं । यम माझा आज्ञाधारी। निरोपावेगळा न मारी कवणा ।।८२।। इंद्रजितासारिखा पुत्र । कुंभकर्णाऐसा भ्रात्र। स्थान समुद्रामाजी पवित्र । कामधेनु माझे घरीं ।।८३।। सहस्र कोटी आयुष्य मज। हैं सांगणे नलगे तुज । आलों असें जें काज । कैलास नेईन लंकेसी ।।८४।। व्रत असे जननीसी। नित्य पूजन तुम्हांसी। मनोरथ पुरवावे भक्तींसी। कृपासिंधु दातारा ।।८५।। ईश्वर म्हणे रावणासी। जरी चाड असे पूजेसी। काय करिसी कैलासासी । आत्मलिंग तुज देतों आतां ।।८६।। जे जे मनींची वासना। पुरेल त्वरित ऐक जाणा। लिंग असे प्राण आपणा । म्हणोनि दिधलें रावणासी ।।८७।। पूजत करी वेळ तिन्ही । अष्टोत्तर शत जप करोनि। रुद्राभिषेकें अभिषेकोनि। पूजा करावी एकचित्तें ।।८८।। वर्षे तीन जे पूजिती । तेचि माझे स्वरूप होती। जें जें मनीं इच्छिती। तें तें पावती अवधारा ।।८९।। हैं लिंग असे जयापासी। मृत्यु नाहीं गा परियेसीं । दर्शनमात्रे महादोषी। उद्धरतील अवधारा ।।९०।। ठेवू नको भूमीवरी। जॉवरी पावे तुझी नगरीं । वर्षे तीन पूजा करीं। तूंचि ईश्वर होशील ।।९१।। वर लाधोनि लंकेश्वर। निरोप देत कर्पूरगौर । करूनि साष्टांग नमस्कार। निघाला त्वरित लंकेसी ।।९२।। इतुका होता अवसर। नारद होता ऋषीश्वर । निघोनि गेला वेगें सत्वर । अमरपुरा इंद्रभुवना ।।९३।। नारद म्हणे इंद्रासी । काय स्वस्थ चित्तें बैसलासी । अमरत्व दिधलें रावणासी। लक्ष्मी गेली आजि तुमची ।।९४।। चिरायु झाला लंकेश्वर । प्राणलिंग देत कर्पूरगौर। आणिक दिधला असे वर । तूंचि ईश्वर होशील ।।९५।। वर्षे तीन पूजिलियासी। तूंचि माझे स्वरूप होसी । तुझें नगर कैलासी । मृत्यु नाहीं कदा तुज ।।९६।। ऐसा वर लाधोनि । गेला रावण संतोषोनि । तेहतीस कोटी देव कोठूनि । सुटती आतां तुम्हांसी ।।९७।। जावें त्वरित तुम्हीं आता। सेवा करावी लंकानाथा । उर्वशी रंभा मेनका त्वरिता । भेटीस न्याव्या रावणाचे ।।९८।। ऐसें वचन ऐकोनि । इंद्र भयभीत मनीं। नारदा विनवी कर जोडूनि । काय करावें म्हणतसें ।। ९९।। नारद म्हणे इंद्रासी। उपाय काय त्वरितेंसी। जावें तुम्हीं ब्रह्मयापासीं । तयासी उपाय करील ।।१००।। इंद्र नारदासमवेत। गेले ब्रह्मलोका त्वरित । विस्तारोनिया वृत्तान्त । सांगे इंद्र ब्रह्मयासी ।।१।। ब्रह्मा म्हणे इंद्रासी । जावें त्वरित वैकुंठासी। दैत्यवैरी हृषीकेशी। उपाय करील निर्धारं ।।२।। म्हणोनि निघाले तिघेजण । पावले त्वरित वैकुंठभुवन। भेटला तत्काळ नारायण। सांगती वृत्तान्त रावणाचा ।।३।। विरिंचि म्हणे विष्णूसी । प्रतिकार करावा वेगेंसी। कारण असे तुम्हांसी। राम अवतारी परियेसा ।।४।। तेहतीस कोटी देवांसी। घातले असे बंदीसी। याचि कारणें तुम्हांसी। करणें असे अवधारा ।।५।। ईश्वराचें प्राणलिंग । घेऊनि गेला राक्षस चांग । आता रावणा नाहीं भंग। तोचि होईल ईश्वर ।।६।। त्वरित उपाय करावा यासी । पुढें जड होईल तुम्हांसी। निर्दाळावया राक्षसांसी। अवतरोनि तुम्हींच यावें ।।७।। ऐसें विनवी चतुरानन। मग कोपोन नारायण। कार्य नासेल म्हणोन । निघाला झडकर कैलासा ।।८।। विष्णु आला ईश्वरापाशीं । म्हणे शंकरा परियेसीं । प्राणलिंग रावणासी । द्यावया कारण तुम्हां काय ।।९।। रावण क्रूर महादैत्य । सुरवर सकळ त्याचे भृत्य' । कारागृहीं असती समस्त । केवी सुटती सांग आम्हां ।।११०।। ऐसें दुराचारियासी । वर देतां उल्हासीं । देवत्व गेलें त्याचे घरासी। घेईल स्वर्ग निधारें तो ।।११।। ईश्वर म्हणे विष्णूसी । तुष्टलों तयाचे भक्तीसी। विसर पडला आम्हांसी । संतोष दिधलें प्राणलिंग ।।१२।। आपलें शिर छेदोनि देखा। वीणा केला स्वहस्तका । सप्तस्वर वेदादिका। गायन केलें संतोषं ।।१३।। जरी मागता पार्वतीसी । देतों सत्य परियेसी । भुली पडली भक्तीसी। लिंग नेलें प्राण माझा ।।१४।। विष्णु म्हणे उमाकांता । तुम्ही ऐसा वर देतां । आम्हां सायास होय तत्त्वतां । दैत्य उन्मत्त होताती ।।१५।। देवद्विज लोकांसी। पीडा करिती बहुवशीं। याचि कारणें आम्हांसी। अवतार धरणें घडतें देखा ।।१६।। कधीं दिलें लिंग त्यासी। नेलें असेल लंकेसी। शंकर म्हणे विष्णूसी। पांच घटी झाल्या आतां ।।१७।। ऐकतांच शिववचन। उपाय करी नारायण। धाडिलें चक्र सुदर्शन। सूर्याआड व्हावया ।।१८।। बोलावूनि नारदासी। सांगतसे हृषीकेशी। तुम्ही जावें त्वरितेंसी । रावण जातो लंकेसी देखा ।।१९।। मार्गी जाऊनि तयासी। विलंब करावा परियेसीं । जाऊं न द्यावें लंकेसी । त्वरित जावें म्हणतसे ।।१२०।। चक्र झालें सूर्याआड । स्नानसंध्या रावणा चाड । तुम्ही जाऊनियां दृढ । विलंब करावा तयासी ।।२१।। ऐकोनिया श्रीविष्णूच्या बोला। नारद त्वरित निघोन गेला । मनोवेगें पावला । जेथें होता लंकानाथ ।।२२।। नारदातें पाठवूनि । विष्णू विचारी आपुल्या मनीं । गणेशासी बोलावूनि । पाठवू म्हणे विघ्नासी ।।२३।। बोलावूनि गणेशासी । सांगे विष्णु परियेसीं। कैसा रावण तुजसी । सदा उपेक्षितो ।।२४।। सकळ देव तुज वंदिती । त्याचे मनोरथ पुरती । तुज जे कां उपेक्षिती। विघ्नें बाधती तयांसी ।।२५।। तुज नेणतां रावण देखा। घेऊनि गेला निधान ऐका। प्राणलिंगा अतिविशेखा। नेलें शिवाजवळोनि ।।२६।। आतां त्वां करावें एक । रावणापाशीं जाऊनि देख । कपटरूपें कुब्जक। बाळवेष धरोनिया ।। २७।। वाटेसि होईल अस्तमान । रावण करील संध्यावंदन। नारद गेला याचि कारण। विलंब करावया दैत्यासी ।।२८।। आज्ञा शिवाची रावणासी। न ठेवीं लिंग भूमीसी। शौचाचमनसमयासी । आपणाजवळीं न ठेविजे ।।२९।। बाळवेर्षे तुवां जावें । शिष्यरूप करुणाभावें । सूक्ष्मरूप दाखवावें । लिंग घ्यावें विश्वासुनी ।।१३०।। संध्यासमयीं तुझें हातीं । लिंग देईल विश्वासरीतीं । तुवां ठेवावें तत्काळ क्षितीं। लिंग राहील तेथेंची ।।३१।। येणेंपरी गणेशासी। शिकवी विष्णु परियेसीं । संतोषोनि हर्षी। भातुके मागे तये वेळीं ।।३२।। लाडू तिळव पंचखाद्य । इक्षु खोबरें दालिम आद्य। शर्करा घृत क्षीर सद्य । द्यावें त्वरित आपणासी ।। ३३।। चणे भिजवून आपणासी । तांदूळ लाह्या साखरेंसी । त्वरित भक्षण करावयासी । द्यावें स्वामी म्हणतसे ।। ३४।। जें जें मागितलें विघ्नेश्वरें । त्वरित दिधलें शार्ङ्गधरें । भक्षित निघाला वेगवक्त्रं । ब्रह्मचारीवेष धरूनि ।। ३५।। गेला होता नारद पुढें । ब्रह्मऋषि महात्म्य गाढें । उभा ठाकला रावणापुढें । कवण कोठूनि आलासी ।। ३६।। रावण म्हणे नारदासी । गेलो होतों कैलासासी । केलें उत्कृष्ट तपासी । तोषविलें तया शिवा ।। ३७।। तेणें प्रसन्न होऊनि आम्हांसी। लिंग दिधलें परियेसीं । आणिक सांगितलें संतोषीं। लिंगमहिमा अपार ।। ३८।। नारद म्हणे लंकानाथा । दैव थोर तुझे आतां। लिंग लाधलासी अद्भुता । जाणों आम्हीं आद्यंत ।। ३९।। दाखवीं लिंग आम्हांसी। खुणें ओळखूं परियेसीं । लिंगलक्षण विस्तारेंसी । सांगू आम्ही तुजलागीं ।।१४०।। नारदाचिया वचनासी। न करी विश्वास परियेसीं । दाखवीतसे दुरोनि लिंगासी। व्यक्त करोनि त्या समयीं ।।४१।। नारद म्हणे लंकेशा। लिंगमहिमेचा प्रकार ऐसा । सांगेन तुज बहु सुरसा । बैसोनि ऐकें स्वस्थ चित्तें ।।४२।। लिंग उपजलें कवणे दिवशीं। पूर्वी जाणिलें तयासी । एकचित्तें परियेसी । कथा असे अतिपूर्व ।।४३।। गिळूनि सकळ सौरभासी। मृग एक काळाग्निसमेसी । ब्रह्मांडखंड परियेसीं । पडिला होता तो मृग ।।४४।। ब्रह्माविष्णुमहेश्वरांसी। गेले होते पारधियेसी । मृग मारिले परियेसीं । भक्षिलें मेद' तये वेळीं ।।४५।। तयासी होती तीन शृंगें। खालीं असती तीन लिंगें । तिघीं घेतली तीन भागें । प्राणलिंगें परियेसा ।।४६ ।। लिंगमहिमा ऐक कानीं। जे पूजिती वर्षे तिनी। तेचि ईश्वर होती निर्गुणी । वेदमूर्ति तेचि होय ।।४७।। लिंग असे जये स्थानीं। तोचि कैलास जाण मनीं। महत्त्व असे याच गुणीं। ब्रह्माविष्णुमहेश्वरांसी ।।४८।। असे आणिक एक बरवें । सांगेन ऐक एकभावें। रावण म्हणे आम्हां जाणें । असे त्वरित लंकेसी ।।४९।। म्हणोनि निघाला महाबळी। नारद म्हणे तये वेळीं। सूर्यास्त आहे जवळी । संध्याकाळ ब्राह्मणासी ।।१५०।। सहस्रवेद आचरसी। संध्याकाळीं मार्ग क्रमिसी । वाटेस होईल तुज निशी । संध्यालोप होईल ।।५१।। आम्ही जाऊं संध्यावंदनासी । म्हणोनि नारद विनयेंसी। पुसोनिया रावणासी। गेला नदीतीरा ।।५२।। इतुकिया अवसरीं । पातला गणेश ब्रह्मचारी। रावणापुढें चांचरीं। समिधा तोडी कौतुकें ।।५३।। रावण चिंती मानसीं। व्रतभंग होईल आपणासी। संध्या करावी त्रिकाळेंसी। संदेह घडला म्हणतसे ।।५४।। ईश्वरें सांगितलें आम्हांसी। लिंग न ठेवावें भूमीसी । संध्यासमयी झाली निशी । काय करूं म्हणतसे ।।५५।। तंव देखिला ब्रह्मचारी। अति सुंदर बाळकापरी। हिंडतसे नदीतीरीं। देखिला रावणें तये वेळीं ।।५६।। मनीं विचारी लंकानाथ । ब्रह्मचारी कुमार दिसत। न करी आमुचा विश्वासघात । लिंग देऊं तया हातीं ।।५७।। संध्या करूं स्वस्थचित्तेंसी। लिंग असे तयापाशीं । बाळक असे हैं निश्चयेंसी। म्हणोनि गेला तयाजवळी ।।५८।। देखोनिया दशशिर । पळतसे लंबोदर । रावण झाला द्विजवर। अभय देऊनि गेला जवळीं ।।५९।। रावण म्हणे तयासी । तूं कवण बा सांग आम्हांसी। मातापिता कवण तुजसी। कवण कुळीं जन्म तुझा ।।१६०।। ब्रह्मचारी म्हणे रावणा । इतुकें पुससी कवण्या कारणा। आमुच्या बापें तुझ्या ऋणा। कायद्यानें सांग मज ।।६१।। हासोनिया लंकेश्वर। लोभें धरिला त्याचा कर। सांग बाळका कवणाचा कुमर। प्रीतिभावें पुसतों मी ।।६२।। ब्रह्मचारी म्हणे रावणासी। आमुचा पिता काय पुससी। जटाधारी भस्मांगासी। रुद्राक्ष माळा असती देखा ।। ६३।। शंकर म्हणती तयासी । भिक्षा मागणें अहर्निशीं । वृषभारूढ उमा सरसी। जननी ते जगन्माता ।।६४।। इतुकें आम्हांसी पुसतोसी । तुज देखतां भय मानसीं । बहुत वाटे परियेसीं । सोड हात जाऊं दे ।। ६५।। रावण म्हणे ब्रह्मचारी । तव पिता असे दरिद्री। भिक्षा मागे घरोघरीं। सौख्य तुज कांहीं नसे ।। ६६ ।। आमुचें नगर लंकापुर । रत्नखचित असे सुंदर । आम्हांसवें चाल सत्वर । देवपूजा करीत जाई ।। ६७।। जें जें मागसी आम्हांसी। सकळ देईन परियेसीं । सुखें रहावें मजपासीं । म्हणे रावण तये वेळीं ।। ६८।। ब्रह्मचारी म्हणे त्यासी । लंकेसी बहुत राक्षसी । आम्ही बाळक अरण्यवासी। खातील तेथे जातांची ।। ६९।। न येऊं तुझिया नगरासी। सोड जाऊं दे घरासी । क्षुधे पीडतों बहुवसीं । म्हणोनि भक्षितों भातुकें ।।१७०।। इतुकें ऐकोनि लंकानाथ । त्या बाळका संबोधित । लिंग घरीं ऐसें म्हणत । मी संध्या करीन तोंवरी ।। ७१।। बाळक विनवी तयासी। न धरीं लिंग परियेसीं । मी ब्रह्मचारी अरण्यवासी । उपद्रवू नको म्हणतसे ।।७२ ।। तव लिंग असे जड। मी पण बाळ असें वेड। न घे लिंग जाऊं दे सोड । धर्म घडेल तुजलागीं ।। ७३।। नानापरी संबोधित । लिंग देत लंकानाथ । संध्या करावया आपण त्वरित। समुद्रतीरीं बैसला ।।७४।। ब्रह्मचारी तयासी । उभा विनवीतसे रावणासी । जड झालिया आपणासी । ठेवीन त्वरित भूमीवरी ।।७५।। वेळ तीन परियेसीं । बोलवीन तुम्हांसी। वेळ लागलिया परियेंसी। आपण ठेवीन भूमीवरी ।। ७६।। ऐसा निर्धार करोनि। उभा गणेश लिंग घेऊनि । समस्त देव विमानीं । बैसोनि पाहती कौतुक ।।७७।। अर्घ्यसमयीं रावणासी । बोलवी गणेश परियेसीं। जड झालें लिंग आम्हांसी। सत्वर घे गा म्हणतसे ।।७८।। न्यासपूर्वक अर्घ्य देखा। रावण करी अति विवेका। हाता दाखवी बाळका। येतों राहें म्हणोनि ।। ७९।। आणिक क्षणभर राहोनि। गणेश बोले वेळ दोनी। जड झालें म्हणोनि । शीघ्र यावें म्हणतसे ।।१८०।। न ये रावण ध्यानस्थ । गणेश असे विचारीत । समस्त देवांतें साक्षी करीत । लिंग ठेवीत भूमीवरी ।।८१।। श्रीविष्णूतें स्मरोनि । लिंग ठेविलें स्थापोनि । संतोष जाहला गगनीं। पुष्पें वर्षती सुरवर ।।८२।। अर्घ्य देवोनि लंकेश्वर । निघोनि आला सत्वर । लिंग देखिले भूमीवर । मनीं विकळ जाहला ।।८३।। आवेशोनि' रावण देखा। ठोसे मारी गणनायका। हास्यवदनें रडे तो ऐका । भूमीवरी लोळतसे ।।८४।। म्हणे माझिया पित्यासी । सांगेन आता त्वरितेसी । कां मारिलें मज बाळकासी । म्हणोनि रडत निघाला देखा ।।८५।। मग रावण काय करी। लिंग धरोनिया दृढ करी। उचलूं गेला नानापरी । भूमीसहित हालतसे ।।८६।। कांपे धरणी तये वेळीं। रावण उचली महाबळी। न ये लिंग शिर आफळी। महाबळी राहिला ।।८७।। नाम पावला याचि कारणें। महाबळेश्वर लिंग जाणें। मुरडोनि ओढितां रावणें। गोकर्णाकार जाहलें ।।८८।। ऐसें करितां लंकानाथ। मागुती गेला तपार्थ। ख्याती झाली गोकर्णांत । समस्त देव तेथें आलें ।।८९।। आणिक असे अपार महिमा। सांगतसे अनुपमा। स्कंदपुराणीं वर्णिली सीमा । प्रख्यात असे परियेसा ।।१९०।। ऐकोनि सिद्धाचें वचन । नामधारक संतोषोन। पुनरपि चरणा लागे जाण । म्हणे सरस्वतीगंगाधरू ।।१९१।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥६॥
ओवीसंख्या १९१
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक म्हणे सिद्धासी । गोकर्णमहिमा आम्हांसी। निरोपिजे स्वामी कृपेंसी। पूर्वी कवणा साक्ष झाली ।।१।। समस्त तीर्थं सांडुनी। श्रीपाद गेले किंकारणीं। पूर्वी आधार केला कवणीं। पुराण' कथा सांगा मज ।।२।। ज्यावरी असेल गुरूची प्रीति । तीर्थमहिमा ऐकणें चित्तीं। वांछा होतसे ज्ञानज्योती । कृपासिंधु गुरुराया ।।३।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। गोकर्णमहिमा मज पुससी। सांगेन तुज विस्तारेंसी । एकचित्तें परियेसा ।।४।। पूर्वयुगीं इक्ष्वाकुवंशीं । मित्रसह राजा परियेसीं। प्रतापवंत क्षत्रियराशी। सर्वधर्मरत देखा ।।५।। राजा सकळशास्त्रज्ञ। विवेकी असे श्रुतिनिपुण । बलाढ्य शूर महाभीम। विद्योद्योगी दयानिधि ।।६।। असतां राजा एके दिवशीं । विनोदें निघाला पारधीसी। प्रवेशला महावनासी। वसती शार्दूल सिंह जेथें ।।७।। निर्मनुष्य अरण्यांत । राजा पारधी खेळत । भेटला तेथें अद्भुत । दैत्य ज्वाळाकार भयानक ।।८।। राजा देखोनि तयासी। वर्षता शर झाला कोपेंसी। मूर्छना येऊनि धरणीसी। पडला दैत्य तया वेळीं ।।९।। होता तयाचा बंधु जवळी । आक्रंदतसे प्रबळी। पाषाण हाणी कपाळीं । बंधुशोकें करोनिया ।।१०।। प्राण त्यजितां निशाचर । बंधूसी म्हणतसे येर। जरी तूं होसी माझा सहोदर। सूड घेईं माझा तूं ।।११।। ऐसें बोलोनि बंधूसी। दैत्य पावला पंचत्वासी । अनेक मायापाशीं । नररूप धरिलें तया वेळीं ।।१२।। रूप धरोनि मानवाचें । सौम्य वाणी बोले वाचें। सेवकत्व करी राजयाचें। अतिनम्रत्वें बोलोनिया ।।१३।। सेवा करी नानापरी। सेवकाचें सारखें मन धरी । कितीक दिवसांवरी। वनांतरीं राजा होता देखा ।।१४।। समस्त मृग जिंकूनि। दुष्ट जीवांतें वधोनि । राजा आला परतोनि । आपुल्या नगरा परियेसा ।।१५।। ऐसें असतां एके दिवशीं । पितृश्राद्ध आले परियेसी । आमंत्रण सांगे ऋषर्षीसी। वसिष्ठादिकां परियेसा ।।१६।। ते दिवशीं राजा नेमें स्वयंपाक । करवीतसे सविवेक । कापट्यें होता तो सेवक । तया स्थानीं ठेविला ।।१७।। राजा म्हणे तयासी । पाकस्थानीं तूं वससी । जें जें मागेल भाणवसीं । सर्व आणूनि त्वां द्यावें ।।१८।। अंगिकारोनि तो सेवक । नरमांस आणोनि देख । कापट्यभावें करवी पाक। केली शाक तया वेळीं ।।१९।। ठाय घालितां ऋषेश्वरांसी। पहिलेंच वाढिलें नरमांसासी । पाहतां कोप आला वसिष्ठासी। दिधला शाप तये वेळीं ।।२०।। वसिष्ठ म्हणे रायासी। नरमांस वाढिलें आम्हांसी । त्वरित ब्रह्मराक्षस होसी । म्हणोनि शाप दिधला ।। २१ ।। शाप देतां तये काळीं। राजा कोपला तत्काळीं । अपराध नसतां प्रबळीं । वायां मज कां शापिलें ।।२२।। नेणें मांसपाक कोणीं केला। माझा निरोप' नाही झाला। वृथा आमुतें शाप दिधला । आपण शापीन म्हणतसे ।।२३।। उदक घेऊनि अंजुळीं । शापावया सिद्ध झाला तये काळीं । तंव राजपत्नी येऊनि जवळी । वर्जी' आपुले पतीतें ।। २४।। पतीसी म्हणे ते नारी। गुरूसी शापितां दोष भारी। वंदुनी तयाचे चरण धरीं । तेणें भवसागर तरशील ।।२५।। मदयंती सतीचें वचन । मानिता झाला राजा आपण । अंजुळीचें उदक जाण । टाकी आपुले चरणावरी ।।२६।। शाप देतां कल्मषपाणी। पडलें राजाचें चरणी। कल्मषपाद' नाम म्हणोनि । ब्रह्मराक्षस झाला तो राव ।।२७।। राजपत्नी येऊनि परियेसीं । लागली वसिष्ठचरणांसी । उद्धरीं स्वामी बाळकासी । एवढा कोप काय काज ।।२८।। करुणावचन ऐकोनि । शांत झाला वसिष्ठ मुनि । वर्षे बारा क्रमोनि । पुनरपि राजा होशील ।।२९।। उःशाप देऊनि वसिष्ठ ऋषि । गेला आपुले स्थानासी। ब्रह्मराक्षस राजा परियेसीं । होउनी गेला वनांतरा ।। ३० ।। निर्मनुष्य अरण्यांत । राजा राहिला प्रख्यात । भक्षीतसे अनेक जंत । पशुमनुष्य आदिकरूनि ।।३१।। ऐसें क्रमितां तये वनीं। मार्गस्थ दंपत्यें दोनीं। ब्राह्मण जातां मार्ग क्रमुनी। देखिला राक्षस भयासुर ।।३२।। येऊनि धरी ब्राह्मणासी। व्याघ्र जैसा पशूसी। घेऊनि गेला भक्षावयासी। विप्रस्त्री समागमें ।।३३।। अतिशोक करी ब्राह्मणी। जाऊनि लागे राक्षसचरणीं । राखें मजला अहेवपणीं। प्राणेश्वरातें सोडीं पितया ।।३४।। न भक्षीं गा माझा पति । माझी तयावरी अतिप्रीति। मज भक्षीं गा म्हणे सुमति । वल्लभातें सोडोनिया ।। ३५।। पतीविण राहतां नारी। जन्म वृथाचि दगडापरी। पहिलें मातें स्वीकारीं। प्राण राखें पतीचे ।। ३६ ।। पति लावण्य पूर्ववयेंसी। वेदशास्त्रपारंगेसी'। याचा प्राण जरी तूं रक्षिसी। जगीं होईल तुज पुण्य ।। ३७।। कृपा करीं गा आम्हांवरी। होईन तुझी कन्या कुमारी। मज पुत्र होतील जरी। नाम वाढवीन तुझें मी ।।३८।। ऐसें नानापरी देखा। विप्रस्त्री करी महादुःखा। बोल न मानोनि राक्षसें ऐका । त्या ब्राह्मणातें भक्षिलें ।।३९।। पतीतें भक्षिलें देखोनि। शाप वदली ते ब्राह्मणी। म्हणे राक्षसा ऐक कानीं। शाप माझा निधरिं ।।४०।। तूं राजा सूर्यवंशी । शापास्तव राक्षस झालासी । पुढें मागुती राजा होसी । द्वादश वर्षे क्रमोनि ।।४१।। परी रमतां स्त्रियेसवें । प्राण जाईल स्वभावें। अनाथा भक्षिलें दुष्ट भावें। दुरात्म्या तूं राक्षसा ।।४२।। शाप देऊनि तया वेळीं। पतीच्या अस्थि मिळवूनि जवळीं । काष्ठं घालोनिया प्रबळी। अग्निप्रवेश केला तिनें ।।४३।। ऐसें असतां राव देखा । क्रमी बारा वर्षे निका। पुनरपि राजा होऊनि ऐका। आला आपुले नगरासी ।।४४।। विप्रस्त्रियेचें शापवचन । स्त्रियेसी सांगितली खूण म्हणे संग करिता तत्क्षण । मृत्यु असे आपणासी ।।४५।। ऐकोनि पतीचें वचन । मदयंती दुःख करी आपण । मन करूनि निर्वाण' । त्यजावया प्राण पहातसे ।।४६।। मदयंती म्हणे रायासी। संतान नाहीं तुमचें वंशासी। वनीं कष्टलां बारा वर्षी। आपुलें कर्म न चुकेची ।।४७।। ऐकोनि सतीचें वचन। शोकें दाटला अतिगहन । अश्रु आले नेत्रांतून । काय करूं म्हणतसे ।।४८।। मंत्रीवृद्धपुरोहितांसीं । बोलाविले परियेसीं । ब्रह्महत्या घडली आम्हांसी। विमोचन' होय कवणेंपरी ।।४९।। मंत्रीवृद्धपुरोहित। तयासी म्हणती ऐका मात। तीर्थे आचरावीं समस्त । तेणें पुनीत व्हाल तुम्ही ।।५०।। करोनि ऐसा विचार । राजा निघे तीर्धा साचार। सर्व तीर्थपरिकर। विधिपूर्वक करीतसे ।।५१।। ज्या ज्या तीर्था जाय आपण । अनेक पुण्य करी जाण । यज्ञादिक कर्म अन्नदान । ब्राह्मणादिकां देतसे ।।५२।। ऐसी नाना तीर्थे करीत। परी ब्रह्महत्या सवेंचि येत। अघोररूपीं असे दिसत । कवणेंपरी न जायची ।।५३।। कष्टोनि राजा बहुतांपरी । निर्वाण होऊनि मनाभीतरीं। हिंडत पातला मिथिलापुरीं। चिंताग्रस्त होवोनियां ।।५४।। नगरा-बाह्यप्रदेशीं। श्रमोनि राजा परियेसीं। चिंता करी मानसीं। वृक्षच्छाये बैसलासे ।। ५५।। ऋषेश्वरासमवेत । जैसा रुद्र प्रकाशित । गौतम ऋषि अवचित । तया स्थानासि पातला ।।५६।। राजा देखोनि गौतमासी । चरणीं लोळे संतोषी। नमन करी साष्टांगेंसी। भक्तिभावें करोनियां ।।५७।। आश्वासूनि तये वेळीं। गौतम पुसे करुणाबहाळीं । क्षेमसमाधान सकळी । पुसता झाला वृत्तान्त ।।५८।। काय झालें तुझें राज्य । अरण्यवासाचे काय काज । चिंताकुलित मुखांबुज । कवण कार्य घडलें असे ।।५९।। ऐकोनि ऋषीचे वचन । राजा सांगे विस्तारोन । शाप जाहला ब्रह्मवचन । ब्रह्महत्या घडली मज ।।६०।। प्रायश्चित्तें सकळिक । यज्ञादि कर्मे धर्मादिक। सुक्षेत्रं अपार तीर्थे देख । आपण सकळ आचरलीं ।।६१।। शमन न होय महादोष । सवेंचि येत अघोर वेष । व्रतें आचरलों कोटीश । न जाय दोष सर्वथा ।।६२।। आजिचेनि माझें सफळ जनन । दर्शन जालें जी तुमचे चरण। होतील माझे कष्ट निवारम। म्हणोनि चरणां लागलो ।। ६३ ।। ऐकोनि रायाचें वचन । करुणासागर गौतम आपण म्हणे भय सांडी गा निर्वाण वचन । तारील शंकर मृत्युंजय ।। ६४।। तुझे पापनिवारणासी। सांगेन तीर्थविशेषर्षी। महापातक संहारावयासी। गोकर्ण क्षेत्र असे भलें ।। ६५।। स्मरण करितां गोकर्णासी । ब्रह्महत्यादि पाप नाशी। तेथे ईश्वर सदा निवासी । मृत्युंजय सदाशिव ।।६६।। जैसे कैलासाचें शिखर । अथवा स्वर्धनीमंदिर । निश्चय वास कर्पूरगौर। गोकर्णक्षेत्रीं परियेसा ।।६७।। जैसी अंधकाररजनी। प्रकाश वया जेवीं अग्नि। चंद्रोदय जरी होय निर्वाणीं। तरी सूर्यप्रकाशवीण गति नव्हे ।। ६८ ।। तैसें समस्त तीर्थानें। पाप नच जाय याचि कारणें। सूर्योदयी तमहरणें । तैसें गोकर्णदर्शनें होय ।।६९।। सहस्र ब्रह्महत्या जरी। घडल्या असती या शरीरीं। प्रवेश होतां गोकर्णक्षेत्रीं। शुद्धात्मा होय परियेसा ।।७०।। रुद्रोपें 'द्रविरिंचि' देखा। जाऊनि तया स्थानीं ऐका। तप केलें हो सकळिकां। कार्यसिद्धि होय त्यांप्रती ।।७१।। भक्तिपूर्वक तया स्थानीं। जप व्रत करिती जाणोनि । फळ होय त्यां लक्षगुणीं। असे पुण्यक्षेत्र ऐसें ।।७२।। जेथें ब्रह्मा विष्णु देखा । इंद्रादि देवां सकळिकां। साध्य झालें तप ऐका। यावेगळे काय सांगू ।।७३।। जाणा तो साक्षात् ईश्वर । गोकर्णक्षेत्र कैलासपुर । प्रतिष्ठा करी विघ्नेश्वर । विष्णुनिरोपें विनयार्थ ।। ७४।। समस्त देव तेथे येती । पुण्यक्षेत्रीं वास करिती । ब्रह्मा विष्णु इंद्रासहिती। विश्वेदेव मरुद्गण ।। ७५।। चंद्र सूर्य वस्वादिक । पूर्वद्वारीं राहिले ऐक । प्रीति करी भक्तिपूर्वक । बैसले असती तये स्थानीं ।। ७६।। अग्नि यम चित्रगुप्त । एकादश रुद्र पितृदैवत । दक्षिणद्वारीं वास करित। संतोष राहिले असती ।। ७७ ।। वरुणासहित गंगा सकळी। राहती पश्चिमद्वारस्थळीं । प्रीति करी चंद्रमौळी । तया सकळां परियेसा ।।७८।। कुबेर वायु भद्रकाळी। मातृदेवता चंडी सकळी। उत्तरवास त्रिकाळीं । पूजा करिती महाबळेश्वराची ।। ७९ ।। चित्ररथादि विश्वावसु परियेसीं। चित्रसेन गंधर्व सुरसी । पूजा करिती सदाशिवासी । सदा वसोनि तया ठायीं ।।८०।। घृताची रंभा मेनका । तिलोत्तमा उर्वशी ऐका। नित्य नृत्य करिती देखा । महाबळेश्वराचे सन्मुख ।।८१।। वसिष्ठ कश्यप कण्व ऋषि। विश्वामित्र महातापसी । भरद्वाज जैमिनी जाबाल ऋषि । पूजा करिती सदा तेथे ।।८२।। कृतयुगीं ब्रह्म ऋषि। आचार करिती महातापसी । महाबळेश्वराचे भक्तिसी । राहिले गोकर्णक्षेत्रांत ।।८३।। मरीचि नारद अत्रि ऋषि। दक्षादि ब्रह्म ऋषि परियेसी । सनकादिक महातापसी । उपनिषदार्थ उपासिती ।।८४।। अनेक सिद्ध साध्य जाण । मुनीश्वर अजिनधारण। दंडधारी संन्यासी निर्गुण । ब्रह्मचारी तेथे वसती ।।८५।। त्वगस्थिमात्रशरीरेंसी । अनुष्ठिती महातापसी । पूजा करिती भक्तीसी । चंद्रमौळीची परियेसा ।।८६।। गंधर्वादि समस्त देव । पितर सिद्ध अष्टवसव । विद्याधर किंपुरुष सर्व । सेवेसी जाती निरंतर ।।८७।। गुह्यक किन्नर स्वर्गलोक । शेषादि नाग तक्षक। पिशाच वेताळ सकळिक। जाती पूजेसी तया स्थानीं ।।८८।। नाना शृंगार करूनि । अनेक भूषणें विराजमानी। सूर्यशशी विमानीं। वहनीं येतीं वळंघोनिया ।।८९।। स्तोत्रे गायन करिती देखा । नमिती नृत्य करिती अनेका। पूजाकारणें येती सकळिका । महाबळेश्वरलिंगासी ।।९०।। जे जे इच्छिती मनकामना । पावती त्वरित निधर्धारं जाणा। समान नाहीं क्षेत्र गोकर्णा। या ब्रह्मांडगोलकांत ।।९१।। अगस्त्यादि सनत्कुमार । प्रियव्रतादि राजकुमार। अग्निदेवदानवादि येर। वर लाधले सर्व तया ठायीं ।।९२।। शिशुमारी भद्रकाळी । पूजा करिती त्रिकाळीं । नागातें गरुड न गिळी । महाबळेश्वरदर्शनें ।।९३।। रावणादि राक्षसकुळीं । कुंभकर्ण येर सकळीं। वर लाधले ये स्थळीं । बिभीषण पूजीतसे ।।९४।। ऐसें समस्त देवकुळ । सिद्धदानवादि सकळ । गोकर्णक्षेत्रा जाऊनि प्रबळ । आराधिती नानापरी ।।९५।। लिंग स्थापिती आपुले नामीं। असे ख्याति तया नामीं। वर लाधले अनेक कामीं। चतुर्विध पुरुषार्थ ।। ९६।। ब्रह्मा विष्णु आपण देखा। कार्तवीर्य विनायका। आपुले नामीं लिंग देखा। प्रतिष्ठा केली तये ठायीं ।। ९७।। धर्मक्षेत्रपाळादी। दुगदिवीशक्तिवृंदीं। लिंग स्थापिलें आपुले नामीं। ज्या गोकर्णक्षेत्रांत ।।९८।। गोकर्णक्षेत्र असे गहन । लिंग तीर्थे असंख्य जाण। पदोपदीं असे निर्गुण । ऐसें क्षेत्र अनुपम असे ।।९९।। सांगों किती विस्तारोन। असंख्यात तीर्थे जाण । पाषाण समस्त लिंग खूण। समस्त उदकें जाणावीं तीर्थे ।।१००।। कृतयुगीं महाबळेश्वर श्वेत । त्रेतायुगीं लोहित' । द्वापारी सुवर्णपीत' । कलियुगीं कृष्णवर्ण जाहला ।।१।। सप्त पाताळ खोलावोन । उभे असे लिंग आपण । कलियुगी मृदु होऊन । दिसे सूक्ष्मरूपार्ने ।।२।। पश्चिम समुद्रतीरासी । गोकर्णक्षेत्रविशेषीं। ब्रह्महत्यादि पातकें नाशी । काय आश्चर्य परियेसा ।।३।। ब्रह्महत्यादि महापापें । परदारादि षट् पायें। दुःशील दुराचारी पायें। जाती गोकर्णदर्शनें ।।४।। दर्शनमात्रै पुनीत होती। समस्त काम्यार्थ साधती । अंतीं होय तयांसी गति । गोकर्णलिंगदर्शनें ।।५।। तये स्थानीं पुण्यदिवशीं । जे जे अर्चिती भक्तीसी। तेचि जाणा रुद्रवंशी। रायासी म्हणे गौतम ।।६।। एखादे समयीं गोकर्णासी। जाय भक्तीनें मानुषी । पूजा करितां सदाशिवासी । शिवपद निश्चयें पावे जाणा ।।७।। आदित्य सोम बुधवारी । अमावास्यादि पर्वांभीतरीं । स्नान करूनि समुद्रतीरीं । दानधर्म करावा ।।८।। शिवपूजा व्रत हवन । जप ब्राह्मणसंतर्पण । किंचित् करितां अनंत पुण्य। गौतम म्हणे रायासी ।।९।। व्यतिपातादि पर्वणीसी । सूर्यसंक्रांतीचे दिवशीं । महाप्रदोष त्रयोदशी । पूजितां पुण्य अगण्य ।।१०।। काय सांगों त्याचा महिमा। निवाडा होय अखिल कर्मा । ईश्वर भोळा अनंतमहिमा। पूजनमात्रं तुष्टतसे ।।११।। असित पक्ष माघमासीं । शिवरात्रीं चतुर्दशीसी। बिल्वपत्र वाहिलें यासी। दुर्लभ असे त्रिभुवनांत ।।१२।। ऐसें अनुपम स्थान असतां । न जाती मूर्ख लोक ऐकतां । शिवतीर्थ असे दुर्लभता । नेणती मूढ बधिर जाणा ।।१३।। उपोषणादि जागरण। लिंग सन्निध गोकर्ण। स्वर्गासि जावया सोपान । पद्धति असे परियेसा ।।१४।। ऐसें या गोकर्णस्थानासी। जे जाती जन यात्रेसी। चतुर्विध पुरुषार्थांसी। लाधती लोक अवधारा ।।१५।। स्नान करूनि समस्त तीर्थी। महाबळेश्वरलिंगार्थी। पूजा करावी भक्तार्थी । पातकाव्यतिरिक्त होय जाणा ।।१६।। ऐशापरी गोकर्णमहिमा। प्रकाश केला ऋषी गौतमां। राजा ऐकोनि अतिप्रेमां। पुसता झाला ते वेळीं ।।१७।। राजा म्हणे गौतमासी। गोकर्णस्थान निरोपिलेंसी । पूर्वी पावला कोण यापासीं । साक्ष झाली असेल ।।१८।। विस्तारोनि तें आम्हांसी। सांगावें स्वामी करुणेंसी। म्हणोनि लागला चरणांसी। अतिभक्ति करोनिया ।।१९।। म्हणे गौतम तये वेळीं। गोकर्णक्षेत्र महाबळी। जाणों आम्ही बहुकाळीं । अपार साक्षी देखिली असे ।।१२०।। गेलो होतो आम्ही यात्रे। देखिला दृष्टान्त विचित्र । आले होते तेथे जनमात्र । यात्रारूपें करोनिया ।।२१।। माध्याह्नकाळीं आम्ही तेथें । बैसलों होतों वृक्षच्छायेतें । दुरोनि देखिलें चांडाळीतें । वृद्ध अंध महारोगी ।।२२।। शुष्कमुखी निराहारी । कुष्ठ सर्वांगशरीरीं। कृमि पडले अघोरी। पूय' शोणित' दुर्गंधी ।।२३।। कुक्षिरोगी गंडमाळा । कफें दाटला असे गळा । दंतहीन अतिविव्हळा । वख नाहीं परिधाना ।।२४।। चंद्रसूर्यकिरण पडतां । प्राण जाय कंठगता । शौचव्याधी असे बहुता । सर्वांगशूळ महादुःखी ।।२५।। विधवा आपण केशवपनीं । दिसे जैशी मुखमरणी। क्षणक्षणा पडे धरणीं । प्राणत्याग करूं पाहे ।। २६ ।। ऐशी अवस्था चांडाळीसी । आली वृक्षच्छायेसी। देह टाकिला धरणीसी । त्यजूं पाहे प्राण आपुला ।। २७।। प्राण त्यजितां तये वेळीं । विमान उतरे तत्काळीं । शिवदूत अतिबळी । त्रिशूळ खट्ठांग धरूनियां ।। २८ ।। टंकायुधे चंद्र भाळीं। दिव्यकांति चंद्रासारखी केवळी । किरीटकुंडलें मिरवलीं । चतुर्वर्ग येणेंपरी ।।२९।। विमानीं सूर्यासारिखे तेज। अतिविचित्र दिसे विराज । आलें चांडाळियेकाज । अपूर्व वर्तलें तये वेळीं ।। १३०।। आम्ही पुशिलें शिवदूतांसी। आलेति कवण्या कार्यासी। दूत म्हणती आम्हांसी । न्यावया आलों चांडाळीतें ।।३१।। ऐकोनि दूतांचे वचन । विस्मित झालें आमुचें मन। पुनरपि केला त्यासी प्रश्न । ऐक राया तूं एकचित्तें ।।३२।। ऐशिया चांडाळी पापिणीसी। कैसी योग्य विमानेसी। नेऊनिया श्वानासी । सिंहासनीं कैसें योग्य ।।३३।। या जन्मादारभ्य इसी। पापें पापसंग्रहासी। ऐशी पापीण दुर्वृत्त इसी । केवी न्याल कैलासा ।।३४।। नाहीं इसी शिवज्ञान। न करीच हे तपसाधन। दया सत्य कदा नेणे। इसी कैसें न्याल तुम्ही ।।३५।। पशुमांस आहार इसी । सदा करी जीवहिंसी। ऐशिया दुष्ट कुष्ठी पापिणीसी। केवी नेतां स्वर्गभुवना ।। ३६।। अथवा कधीं शिवपूजन । न करी पंचाक्षरीजपन'। नाहीं केलें शिवस्मरण। इसी कैसें न्याल तुम्ही ।। ३७।। शिवरात्रीं उपोषण। नाहीं केले पुण्यदान । यज्ञयागादि साधन। नाहीं केलें इणें कीं ।। ३८।। न करी स्नान पर्वकाळीं । नेणें तीर्थ कवणे वेळीं । अथवा व्रतादि सकळीं। केलें नाहीं इणें कधीं ।।३९।। सर्वांगीं पूय शोणित। दुर्गंधी असे बहुत । ऐशी चांडाळी दुर्वृत्त । कैसी विमानीं बैसवाल ।।१४०।। अर्चन जन्मांतरींचे म्हणा। कुष्ठ सर्वांग तेचि खुणा । कृमि निघती मुखांतून। पूर्वार्जित काय केलें ।।४१।। ऐशी पापिणी दुराचारी। केवी नेतां कैलासपुरीं। योग्य नव्हे चराचरीं । तुम्ही केवी न्याल इसी ।।४२।। गौतम म्हणे रायासी। ऐसें पुशिलें दूतांसी। त्यांणीं सांगितला आम्हांसी । आद्यंत तये चांडाळीचा ।।४३।। म्हणे गौतम ऋषेश्वर। चांडाळीचें पूर्वापार । सांगेन तुम्हांस सविस्तर । असे आश्चर्य परियेसा ।।४४।। पूर्वी इचें जन्मस्थान । ब्राह्मणकन्या असे जाण। सौदामिनी नाम असे पूर्ण। सोमबिंबासारखें मुख ।।४५।। अतिसुंदर रूप इसी। उपवर जाहली पितृगृहासी। न मिळे वर तियेसी । चिंता करी मातापिता ।।४६।। न मिळे वर सुंदर तिसी। उन्मत्त जाहली दहा वरुषी । मिळवूनि एका द्विजासी । गृह्योत्र्केसी लग्न केलें ।।४७।। विवाह झालियावरी । होती तया पतीचे घरीं। क्वचित्काळ येणेंपरी। होती नारी परियेसा ।।४८।। वर्ततां असे पुढें देख । तिचे पतीस झालें दुःख । पंचत्व पावला तात्काळिक । विधिलेखें करूनिया ।।४९।। ऐकोनि तिचे मातापिता । कन्या आपुले घरा आणिती तत्त्वतां । पतीचे दुःखें दुःखिता। खेद करी ते नारी ।।१५०।। अतिसुंदर पूर्ववयासी। मदें व्याप्त प्रतिदिवसीं । चंचळ होय मानसीं। परपुरुषातें देखोनियां ।। ५१।। गुप्तरूपें क्वचित्काळीं । जारकर्म करी ते बाळी । प्रगट जाहलें तत्काळीं । गौप्य नोहे पातक ।।५२।। आपण विधवा असे नारी । पूर्ववयासी अतिसुंदरी । विषयीं प्रीति असे भारी। स्थिर नोहे तिचें मन ।।५३।। ऐसें तिचिया पातकासी । विदित जाहलें सर्वांसी । वाळीत केलें तियेसी । मातापिताबंधुवर्गी ।।५४।। माता पिता बंधुजन। तीतें त्यजिती निर्भत्सोंन । आपण प्रायश्चित्त घेऊन । शुद्ध जाले परियेसा ।।५५।। शंका होती पहिली तिसी। निःशंक झाली व्यभिचारासी । प्रकटरूप अहर्निशीं । रमों लागली नगरांत ।। ५६ ।। तिये नगरीं एक वाणी। रूपें होता अतिलावण्यगुणी । त्यासी तिर्णे पूर्ववयस देखोनि । झाली त्याची कुलस्खी ।।५७।। तया शूद्राचिया घरीं। वर्ततसे ते नारी। ऐसी पापिणी दुराचारी । कुळवैरीण बेचाळीस ।।५८।। श्लोक ।। स्त्रियः कामेन नश्यन्ति ब्राह्मणो हीनसेवया । राजानो ब्रह्मदंडेन यतयो भोगसंग्रहात् ।।५९।। टीका ।। खिया नासती कामवेगें। ब्राह्मण नासती हीनसेवें। राज्य जाय द्विजक्षोभें। यति' नासे विषयसेवनें ।।१६०।। शूद्रासवें अहर्निशीं। रमत होती अतिहर्षी। पुत्र जाहला तियेसी । शूद्रगृहीं असतां ।। ६१।। नित्य मांस आहार तिसी । मद्यपान उन्मत्तेसी। होऊनि तया शूद्रमहिषी। होती पापिणी दुराचारी ।। ६२।। वर्ततां एके दिवसीं। उन्मत्त होवोनि परियेसीं । छेदिलें वासरू आहारासी। मेष' म्हणोनि पापिणीनें ।। ६३ ।। छेदोनि वत्स परियेसीं। पाक केला विनयेंसी । शिर ठेविलें शिंकियासी । दुसरे दिवशीं भक्षावया ।।६४।। आपण भ्रमित मद्यपानीं । जागृत जाहली अस्तमानीं । पाहे जावोनि। धेनु दोहावयालागीं ।। ६५।। वत्सस्थानी असे मेष। भ्रमित जाहली अतिक्लेश । घरीं पाहातसे शिरास । स्पष्ट दिसे वासरूं ।। ६६।। अनुतप्त होवोनि तये वेळीं। शिव शिव म्हणे चंद्रमौळी। अज्ञानानें ऐशीं पापें घडलीं। म्हणोनि चिंती दुरात्मिणी ।।६७।। तया वत्सशिरासी । निक्षेप केला भूमीसी । पति कोपेल म्हणोनि परियेसीं । अस्थिचर्म निक्षेपिलें ।। ६८।। जाऊनि सांगे शेजार लोकां । व्याघ्रं वत्स नेलें ऐका । भक्षिलें म्हणोनि रडे देखा। पतीपुढे येणेंपरी ।। ६९।। ऐसी कितीक दिवसांवरी। नांदत होती शूद्राघरीं । पंचत्व पावली पशुमांस आहार इसी । सदा करी जीवहिंसी। ऐशिया दुष्ट कुष्ठी पापिणीसी। केवी नेतां स्वर्गभुवना ।। ३६।। अथवा कधीं शिवपूजन । न करी पंचाक्षरीजपन'। नाहीं केलें शिवस्मरण। इसी कैसें न्याल तुम्ही ।। ३७।। शिवरात्रीं उपोषण। नाहीं केले पुण्यदान । यज्ञयागादि साधन। नाहीं केलें इणें कीं ।। ३८।। न करी स्नान पर्वकाळीं । नेणें तीर्थ कवणे वेळीं । अथवा व्रतादि सकळीं। केलें नाहीं इणें कधीं ।।३९।। सर्वांगीं पूय शोणित। दुर्गंधी असे बहुत । ऐशी चांडाळी दुर्वृत्त । कैसी विमानीं बैसवाल ।।१४०।। अर्चन जन्मांतरींचे म्हणा। कुष्ठ सर्वांग तेचि खुणा । कृमि निघती मुखांतून। पूर्वार्जित काय केलें ।।४१।। ऐशी पापिणी दुराचारी। केवी नेतां कैलासपुरीं। योग्य नव्हे चराचरीं । तुम्ही केवी न्याल इसी ।।४२।। गौतम म्हणे रायासी। ऐसें पुशिलें दूतांसी। त्यांणीं सांगितला आम्हांसी । आद्यंत तये चांडाळीचा ।।४३।। म्हणे गौतम ऋषेश्वर। चांडाळीचें पूर्वापार । सांगेन तुम्हांस सविस्तर । असे आश्चर्य परियेसा ।।४४।। पूर्वी इचें जन्मस्थान । ब्राह्मणकन्या असे जाण। सौदामिनी नाम असे पूर्ण। सोमबिंबासारखें मुख ।।४५।। अतिसुंदर रूप इसी। उपवर जाहली पितृगृहासी। न मिळे वर तियेसी । चिंता करी मातापिता ।।४६।। न मिळे वर सुंदर तिसी। उन्मत्त जाहली दहा वरुषी । मिळवूनि एका द्विजासी । गृह्योत्र्केसी लग्न केलें ।।४७।। विवाह झालियावरी । होती तया पतीचे घरीं। क्वचित्काळ येणेंपरी। होती नारी परियेसा ।।४८।। वर्ततां असे पुढें देख । तिचे पतीस झालें दुःख । पंचत्व पावला तात्काळिक । विधिलेखें करूनिया ।।४९।। ऐकोनि तिचे मातापिता । कन्या आपुले घरा आणिती तत्त्वतां । पतीचे दुःखें दुःखिता। खेद करी ते नारी ।।१५०।। अतिसुंदर पूर्ववयासी। मदें व्याप्त प्रतिदिवसीं । चंचळ होय मानसीं। परपुरुषातें देखोनियां ।। ५१।। गुप्तरूपें क्वचित्काळीं । जारकर्म करी ते बाळी । प्रगट जाहलें तत्काळीं । गौप्य नोहे पातक ।।५२।। आपण विधवा असे नारी । पूर्ववयासी अतिसुंदरी । विषयीं प्रीति असे भारी। स्थिर नोहे तिचें मन ।।५३।। ऐसें तिचिया पातकासी । विदित जाहलें सर्वांसी । वाळीत केलें तियेसी । मातापिताबंधुवर्गी ।।५४।। माता पिता बंधुजन। तीतें त्यजिती निर्भत्सोंन । आपण प्रायश्चित्त घेऊन । शुद्ध जाले परियेसा ।।५५।। शंका होती पहिली तिसी। निःशंक झाली व्यभिचारासी । प्रकटरूप अहर्निशीं । रमों लागली नगरांत ।। ५६ ।। तिये नगरीं एक वाणी। रूपें होता अतिलावण्यगुणी । त्यासी तिर्णे पूर्ववयस देखोनि । झाली त्याची कुलस्खी ।।५७।। तया शूद्राचिया घरीं। वर्ततसे ते नारी। ऐसी पापिणी दुराचारी । कुळवैरीण बेचाळीस ।।५८।। श्लोक ।। स्त्रियः कामेन नश्यन्ति ब्राह्मणो हीनसेवया । राजानो ब्रह्मदंडेन यतयो भोगसंग्रहात् ।।५९।। टीका ।। खिया नासती कामवेगें। ब्राह्मण नासती हीनसेवें। राज्य जाय द्विजक्षोभें। यति' नासे विषयसेवनें ।।१६०।। शूद्रासवें अहर्निशीं। रमत होती अतिहर्षी। पुत्र जाहला तियेसी । शूद्रगृहीं असतां ।। ६१।। नित्य मांस आहार तिसी । मद्यपान उन्मत्तेसी। होऊनि तया शूद्रमहिषी। होती पापिणी दुराचारी ।। ६२।। वर्ततां एके दिवसीं। उन्मत्त होवोनि परियेसीं । छेदिलें वासरू आहारासी। मेष' म्हणोनि पापिणीनें ।। ६३ ।। छेदोनि वत्स परियेसीं। पाक केला विनयेंसी । शिर ठेविलें शिंकियासी । दुसरे दिवशीं भक्षावया ।।६४।। आपण भ्रमित मद्यपानीं । जागृत जाहली अस्तमानीं । वासरूं पाहे जावोनि। धेनु दोहावयालागीं ।। ६५।। वत्सस्थानी असे मेष। भ्रमित जाहली अतिक्लेश । घरीं पाहातसे शिरास । स्पष्ट दिसे वासरूं ।। ६६।। अनुतप्त होवोनि तये वेळीं। शिव शिव म्हणे चंद्रमौळी। अज्ञानानें ऐशीं पापें घडलीं। म्हणोनि चिंती दुरात्मिणी ।।६७।। तया वत्सशिरासी । निक्षेप केला भूमीसी । पति कोपेल म्हणोनि परियेसीं । अस्थिचर्म निक्षेपिलें ।। ६८।। जाऊनि सांगे शेजार लोकां । व्याघ्रं वत्स नेलें ऐका । भक्षिलें म्हणोनि रडे देखा। पतीपुढे येणेंपरी ।। ६९।। ऐसी कितीक दिवसांवरी। नांदत होती शूद्राघरीं । पंचत्व पावली पशुमांस आहार इसी । सदा करी जीवहिंसी। ऐशिया दुष्ट कुष्ठी पापिणीसी। केवी नेतां स्वर्गभुवना ।। ३६।। अथवा कधीं शिवपूजन । न करी पंचाक्षरीजपन'। नाहीं केलें शिवस्मरण। इसी कैसें न्याल तुम्ही ।। ३७।। शिवरात्रीं उपोषण। नाहीं केले पुण्यदान । यज्ञयागादि साधन। नाहीं केलें इणें कीं ।। ३८।। न करी स्नान पर्वकाळीं । नेणें तीर्थ कवणे वेळीं । अथवा व्रतादि सकळीं। केलें नाहीं इणें कधीं ।।३९।। सर्वांगीं पूय शोणित। दुर्गंधी असे बहुत । ऐशी चांडाळी दुर्वृत्त । कैसी विमानीं बैसवाल ।।१४०।। अर्चन जन्मांतरींचे म्हणा। कुष्ठ सर्वांग तेचि खुणा । कृमि निघती मुखांतून। पूर्वार्जित काय केलें ।।४१।। ऐशी पापिणी दुराचारी। केवी नेतां कैलासपुरीं। योग्य नव्हे चराचरीं । तुम्ही केवी न्याल इसी ।।४२।। गौतम म्हणे रायासी। ऐसें पुशिलें दूतांसी। त्यांणीं सांगितला आम्हांसी । आद्यंत तये चांडाळीचा ।।४३।। म्हणे गौतम ऋषेश्वर। चांडाळीचें पूर्वापार । सांगेन तुम्हांस सविस्तर । असे आश्चर्य परियेसा ।।४४।। पूर्वी इचें जन्मस्थान । ब्राह्मणकन्या असे जाण। सौदामिनी नाम असे पूर्ण। सोमबिंबासारखें मुख ।।४५।। अतिसुंदर रूप इसी। उपवर जाहली पितृगृहासी। न मिळे वर तियेसी । चिंता करी मातापिता ।।४६।। न मिळे वर सुंदर तिसी। उन्मत्त जाहली दहा वरुषी । मिळवूनि एका द्विजासी । गृह्योत्र्केसी लग्न केलें ।।४७।। विवाह झालियावरी । होती तया पतीचे घरीं। क्वचित्काळ येणेंपरी। होती नारी परियेसा ।।४८।। वर्ततां असे पुढें देख । तिचे पतीस झालें दुःख । पंचत्व पावला तात्काळिक । विधिलेखें करूनिया ।।४९।। ऐकोनि तिचे मातापिता । कन्या आपुले घरा आणिती तत्त्वतां । पतीचे दुःखें दुःखिता। खेद करी ते नारी ।।१५०।। अतिसुंदर पूर्ववयासी। मदें व्याप्त प्रतिदिवसीं । चंचळ होय मानसीं। परपुरुषातें देखोनियां ।। ५१।। गुप्तरूपें क्वचित्काळीं । जारकर्म करी ते बाळी । प्रगट जाहलें तत्काळीं । गौप्य नोहे पातक ।।५२।। आपण विधवा असे नारी । पाठविलें आम्हांसी ।।४।। ऐसें म्हणती शिवदूत । तियेवरी शिंपूनियां अमृत । दिव्यदेह पावूनि त्वरित । गेली ऐका शिवलोका ।।५।। ऐसें गोकर्ण असे स्थान। गौतम सांगे विस्तारोन। रायासि म्हणे तूं निघोन। त्वरित जाईं गोकर्णासी ।।६।। जातांचि तुझीं पापें जाती। इह सौख्य परत्र उत्तम गति। संशय न घरीं गा चित्तीं। म्हणोनि निरोपी रायासी ।।७।। परिसोनि गौतमाचें वचन । राजा मनीं दृढ संतोषोन। त्वरित पावला क्षेत्र गोकर्ण । पापावेगळा जाहला तो ।।८।। ऐसें पुण्यपावन स्थान। म्हणोनि राहिले श्रीपाद आपण । सिद्ध म्हणे ऐक कथन । नामधारका एकचित्तें ।।९।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधरू । सांगे गुरुचरित्र विस्तारू । श्रोते करूनि निर्धारू । एकचितें परियेसा ।।२१०।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥७॥
ओवीसंख्या २१०
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक म्हणे सिद्धासी । गोकर्णमहिमा निरोपिलासी। श्रीगुरु राहिले किती दिवसीं । वर्तलें पुढें काय सांग ।।१।। श्रीगुरुमूर्ति कृपासिंधु । माझे मनीं लागला वेधु। चरित्र ऐकतां महानंदु । अतिउल्हास होतसे ।।२।। परिसोनि शिष्याचें वचन । संतोषे सिद्ध अतिगहन । सांगता झाला विस्तारोन । श्रोते तुम्ही अवधारा ।।३।। गोकर्णक्षेत्रीं श्रीपाद यति । राहिले वर्षे तीन गुप्तीं। तेथोनि श्रीगिरिपर्वता येती । लोकानुग्रहाकारणें ।।४।। जयाचें करितां चरणदर्शन। समस्त तीर्थांसमान जाण । 'चरणं पवित्रं विततं पुराणं' । वेदश्रुति ऐसें बोलतसे ।।५।। समस्त तीर्थे गुरुचरणीं । तो कां हिंडे तीर्थभवनीं। लोकानुग्रहालागुनी। जात असे परियेसा ।।६।। मास चारी क्रमोनि तेथें । आले निवृत्तिसंगमातें । दर्शन देती साधुभक्तांतें । पातले तया कुरवपुरा ।।७।। कुरवपूर महाक्षेत्र। कृष्णा गंगा वाहे नीर। महिमा तेथील सांगतां अपार । भूमंडळांत दुर्लभ ।।८।। तेथील महिमा सांगतां । विस्तार होईल बहुत कथा । पुढें असे चरित्र अमृता। सांगेन ऐका एकचित्तें ।।९।। श्रीपाद राहिले कुरवपुरीं। ख्याति राहिली भूमीवरी । प्रगटे महिमा अपरंपारीं। सांगतां विस्तार असे देखा ।।१०।। जे जन भजती भक्तांसी । सौख्य पावती अप्रयासीं । कन्या पुत्र लक्ष्मीसी। चिंतिलें फळ पावती ।।११।। समस्त महिमा सांगावयासी । विस्तार होईल बहुवसीं । नामधारका स्वस्थ परियेसीं । सांगेन किंचित् तुज आतां ।।१२।। पुढें अवतार व्हावया गति । सांगेन ऐका एकचित्तीं । श्रीपाद कुरवपुरा असती। कार्यकारण मनुष्यदेही ।।१३।। अवतार व्हावयाचें कारण । सांगेन त्याचे पूर्वकथन । वेदशास्त्रसंपन्न ब्राह्मण। होता तया ग्रामी ।।१४।। त्याची भार्या होती देखा। नाम तियेचें अंबिका । सुशील आचार पतिसेविका । महापुण्य सती देखा ।।१५।। तियेसी पुत्र होऊनि मरती। पूर्वकर्मफळ अर्जिती । अनेक तीर्थे आचरती। तिणें केलीं परियेसा ।।१६।। ऐसें असतां जे होणार गति । पुत्र जाहला मंदमति। माता स्नेह करी भक्तीं। अपूर्व आपणासी म्हणोनि ।।१७।। वर्धतां मातापित्याघरीं । विप्रात्मज वाढला प्रीतिकरी । व्रतबंध' करिती कुळाचारीं। वेदाभ्यास करावया ।।१८।। विद्या नये तया कुमारा । मंदमति अज्ञान बहिरा । चिंता वर्ते त्या द्विजवरा। म्हणे पुत्र मंदमति ।।१९।। अनेक देव आराधोनि । पुत्र लाधलों कष्टोनि । प्राचीन कर्म न सुटे म्हणोनि । चिंता करी अहोरात्र ।।२०।। अनेक प्रकारें शिकवी त्यासी । ताडन करी बहुवसीं । होतसे दुःख जननीसी। वर्जी आपुले पतीतें ।।२१।। पतीसी म्हणे ते नारी। पुत्र नाहींत आम्हां घरीं । कष्ट करोनि नानापरी । पोसिलें एका बाळकासी ।।२२।। विद्या न येचि वेद त्यासी। वायां मारून कां कष्टसी । प्राचीन कर्म न सुटे त्यासी। कीं मूढ होऊनि उपजावें ।।२३।। आतां जरी तुम्ही यासी। ताडन कराल अहर्निशीं। प्राण त्यजीन मी भरंवसीं । म्हणोनि विनवी पतीतें ।। २४।। खियेचें वचन ऐकोनि। विप्र राहिला निचिंत मनीं । ऐसा कांहीं काळ क्रमोनि। होती तया ग्रामांत ।। २५ ।। वर्ततां ऐसें तया स्थानीं । विप्र पडला असमाधानीं । दैववशेंकरूनि । पंचत्व पावला परियेसा ।।२६।। मग पुत्रासहित ते नारी। होती तेथे कुरवपुरीं। याचूनि आपुलें उदर भरी। येणेंपरी जीवित्व रक्षी ।।२७।। विप्रस्त्रियेचा पुत्र देखा। विवाहयोग्य झाला निका। निंदा करिती सकळिका । मतिहीन म्हणोनिया ।। २८।। कन्या न देती तयासी कोणी। म्हणती काष्ठं वाहतो का पाणी। समस्त म्हणती असे दूषणी । उदर भरी येणें विद्ये ।।२९।। समस्त लोक म्हणती त्यासी। तूं दगडापरी व्यर्थ जन्मलासी । लांछन लाविलें वंशासी । अरे मूर्खा कुळनाशका ।। ३० ।। तुझ्या पितयाचा आचार। ख्याति असे चारी राष्ट्र । जाणे धर्म वेद शास्त्र । त्याचे पोटीं अवतरलासी ।।३१।। बोल आणिलासी तुवां पितरांसी। घातलें तया अधोगतीसी । भिक्षा मागोनि उदर भरिसी। लाज कैसी तुज न वाटे ।।३२।। जन्मोनिया संसारी। काय व्यर्थ पशूचिये परी। अथवा गंगेंत प्रवेश करी । काय जन्मोनि सार्थक ।।३३।। ऐसें ऐकोनि ब्रह्मचारी । दुःख करीत नाना प्रकारों । मातेसि म्हणे ते अवसरीं । प्राण त्यागीन मी आतां ।। ३४।। निंदा करिती सर्वही मज। असोनि देह कवण काज । पोसू न शके माते तुज । जाईन अरण्यवासासी ।। ३५ ।। ऐकोनि पुत्राचें वचन। माता करी चिंता गहन । शोकदुःखेंकरून । विलाप करी ते नारी ।। ३६ ।। माता सुत दुःख करीत । गेली गंगाप्रवाहांत। तेथे देखिले जगदुद्धरित। श्रीपाद योगी स्नान करितां ।।३७।। जाऊनि दोघे लागती चरणीं । विनविताती कर जोडुनी। वासना असे आमुचे मनीं। प्राण त्यजावा गंगेत ।। ३८।। निरोप द्यावा जी आम्हांसी। सद्गति व्हावया कारणासी। आत्महत्या महादोषी। म्हणोनि विनवितों कृपासिंधु ।।३९।। ऐकोनि विप्रसतीचें वचन । पुसती श्रीपाद कृपायमान । कां संकटीं तुमचें मन। त्यजितां प्राण काय निमित्त ।।४०।। विप्रत्री तया वेळां । सांगतसे दुःखा सकळा । म्हणे स्वामी भक्तवत्सला । तारावें आम्हां बाळकांतें ।।४१।। पुत्रावीण कष्ट भारी। अनेक तीर्थे पादचारी। केलें व्रत पूजा जरी। सकळ देव आराधिले ।।४२।। व्रतें उपवास सांगूं किती । करिते झाले अपरिमिती। झाला पुत्र हा दुर्मति। निंदा करिती सकळ जन ।।४३।। वेदशास्त्रसंपन्न । पति माझा होता ब्राह्मण । त्याचिये पोटीं झाला हीन। मंदमति दुरात्मा हा ।।४४।। कृपा करीं गा श्रीपाद यति। जन्मोजन्मीं दैवगति । पुत्र न व्हावा मंदमति । ऐसा प्रकार सांगावा ।।४५।। कृपासागर दैन्यहरण । म्हणोनि धरिले तुझे चरण । शरणागताचें करावया रक्षण। आलासि आजि कृपासिंधु ।।४६ ।। जन्मोनिया संसारीं। कष्ट केले नानापरी। न देखेंचि सौख्यकुसरी' । परी जाहले पुत्र न राहती ।।४७।। वांचोनिया हा एक सुत। शेळीचे गळां स्तन लोंबत। वृथा जन्मला म्हणत । विनवीतसे श्रीगुरुसी ।।४८।। देवा आतां ऐसें करणें। पुढील जन्मीं मनुष्यपणें । पूज्यमान पुत्र पावणें। जैसा पूज्य तूं जगत्त्रयासी ।।४९।। सकळ लोक ज्यासि वंदिती। ऐसा पुत्र व्हावा म्हणे ती। उपाय सांगा श्रीगुरु यती। म्हणोनि चरणां लागली ।।५०।। त्याचेनि मातें उद्धारगति। मागुतीं न होय पुनरावृत्ति'। पितरां सकळां स्वर्गप्राप्ति। लाधे ऐसें निरोपावें ।।५१।। वासना असे माझे मनीं। पुत्र व्हावा ब्रह्मज्ञानी। बाळपणींच पाहों नयनीं। पूज्यमान समस्तांसी ।।५२।। ऐकोनि तियेचें वचन। सांगती कृपा भक्ति पाहोन। करीं वो ईश्वरआराधन। पुत्र होईल श्रीहरीऐसा ।।५३।। गौळियाचे घरीं देखा । कृष्ण उपजला कारणिका' । व्रत केलें गौळीं ऐका। ईश्वराची आराधना ।।५४।। तैसा तूं आराधी ईश्वर । पुत्र पावशील हा निर्धार। तुझा मनोरथ साचार। पावेल सिद्धि श्रीपाद म्हणती ।।५५।। विप्रस्त्री म्हणे ते वेळीं । कैसें व्रत आचरलें गौळीं। कैसा पूजिला चंद्रमौळी । विस्तारावें मजप्रती ।। ५६।। तैसेंच व्रत करीन आपण। म्हणोनि धरी सदुरुचरण । कृपामूर्ति सदूरु जाण । सांगतां झाला ते वेळीं ।।५७।। म्हणती श्रीपाद यति तियेसी । ईश्वर पूजीं हो प्रदोषी। मंदवारों तूं विशेषीं। पूजा करी भक्तीनें ।। ५८।। पूजा करी जे गौळणी । विस्तार असे स्कंदपुराणीं। कथा सांगेन ऐक कानीं। म्हणती श्रीगुरु तियेसी ।।५९।। ऐकोन श्रीगुरूचे वचना । संतोषली विप्रांगना । पुढर्ती घाली लोटांगणा । तया श्रीपाद श्रीगुरुप्रती ।।६०।। विप्रस्त्री म्हणे स्वामीसी । अभिनव' मातें निरोपिलेंसी। देखतां पूजा प्रदोर्षी। पुत्र झाला कृष्ण ऐसा ।। ६१।। आपण केलिया पूजा जरी । फळ पावेन निर्धारीं। पूर्वी झालें कवणें परी। विस्तारार्वे दातारा ।। ६२।। श्रीगुरु सांगती तियेसी । सांगेन ऐक एकचित्तेंसी । उज्जनी नाम नगरीसी। जाहलें विचित्र परियेसा ।।६३।। तया नगरीं चंद्रसेन । राजा होता धर्मपरायण । त्याचा सखा असे प्राण। मणिभद्र नामें परियेसा ।। ६४।। सदा ईश्वरभक्ति करी। नाना प्रकारें अपरंपारी । भोळा देव' प्रसन्न करी। दिधला चिंतामणि एक ।। ६५।। कोटिसूर्यांचा प्रकाश । माणिक शोभे महासरस । कंठीं घालितां महाहर्ष । तया मणिभद्ररायासी ।। ६६।। तया मण्याचें लक्षण । सुवर्ण होय लोह पाषाण। तेज फाकलें ज्यावरी जाण। तें कनक होय परियेसा ।। ६७।। जें जें चिंतीत मानसीं। तें तें पावत त्वरितेंसी। ऐशी ख्याति माणिकासी । समस्त राजे कांक्षा करिती ।। ६८।। इष्टत्वें मागती किती एक। मागो पाठविती तें माणिक । बलात्कारें इच्छिती एक। राजे वांछिती परियेसा ।। ६९।। म्हणती विक्रय करूनि देखा। आपणा द्यावें तें माणिका । जरी न देशी स्वाभाविका। तरी युद्धालागीं येऊं म्हणती ।। ७० ।। राजे समस्त मिळोनि । पातले नगरातें उज्जनी । अपार सैन्य मिळवूनि । वेढिलें तया नगरासी ।।७१।। ते दिवशीं शनिवार त्रयोदशी। राजा बैसला पूजनासी। शंका न धरितां मानसीं । एकचित्तें पूजीतसे ।।७२।। महाबळेश्वर लिंगासी। पूजा करी तो राजा हीं। गौळियाचा कुमर पहावयासी । आला तया शिवालया ।। ७३।। पूजा पाहोनि शिवाची। मुलें म्हणती गौळियांचीं। खेळू चला आम्ही असेची। लिंग करूनि पूजूं आतां ।।७४।। म्हणोनि विनोदेंकरूनि । आपुले गृहासन्निधानीं । एकवटोनि पाषाणीं । कल्पिलें तेथें शिवालया ।। ७५।। पाषाणाचें करूनि लिंग। पूजा करीत बाळके चांग । नानापरीची पत्री सांग । कल्पिली तेथे पूजेसी ।। ७६।। षोडशोपचारें पूजा करिती। उदक नैवेद्य समर्पिती । ऐसें कौतुकें खेळती । गोपकुमार तये वेळीं ।।७७।। गोपिका स्त्रिया येउनी। पुत्रांतें नेती बोलावुनी। भोजनाकारणें म्हणोनि । गेले सकळही बाळक ।। ७८ ।। त्यांतील एक गोपीसुत। लिंगभुवन' न सोडित। त्याची माता जवळी येत। मारी आपुले पुत्रासी ।। ७९।। म्हणे कुमारा भोजनासी। चाल गृहासी झाली निशीं । कांहीं केल्या न जाय परियेसीं। तो गोपकुमारक ।।८०।। कोपेंकरून ते गौळिणी। मोडी पूजाखेळ अंगणीं। पाषाण दूर टाकूनी । गेली आपुले सदनासी ।।८१।। पूजा मोडितां तो बाळक । प्रलाप करी अनेक । मूर्च्छा येऊनि क्षणेक। पडिला भूमीं अवधारा ।।८२।। लय लावूनि लिंगस्थानीं। प्राण त्यजूं पाहे निर्वाणीं। प्रसन्न झाला शूलपाणी । तया गोपसुताकारणें ।।८३।। शिवालय रत्नखचित । सूर्यासमान प्रभावंत । लिंग दिसे रत्नखचित । जागृत झाला तो बाळ ।।८४।। निजरूप धरी गौरीरमण। उठवी बाळ करीं धरून। वर माग म्हणे मी झालों प्रसन्न। देईन जें वांछिसी तें ।।८५।। बाळकें नमिलें ईश्वरासी। कोप न करावा मातेसी। पूजा बिघडली तव प्रदोषीं । क्षमा करणें म्हणतसे ।।८६।। ईश्वर भोळा चक्रवर्ती । वर दिधला बहुप्रीतीं। प्रदोषसमयीं पूजा देखती । गौळिणी होय देवजननी ।।८७।। तिचे पोटीं होईल सुत। तोचि विष्णु अवतार ख्यात । न करीं पूजा पहिली म्हणत । पोषील आपुले पुत्रासी ।।८८।। जें जें मानसीं तूं इच्छिसी। पावेल तें तें धरीं मानसीं। अखिल सौख्य तुझिया वंशासी। पुत्रपौत्रेसी नांदसील ।।८९।। प्रसन्न होवोनि गिरिजापती। गेले लिंगालयीं गुप्ती। लिंग राहिलें रत्नखचिती । गौळीयाघरीं याचिपरी ।।९०।। कोटिसूर्यप्रकाश । शिवालय दिसे अति सुरस। लोक म्हणती काय प्रकाश । उदय झाला दिनकरा ।।९१।। आले होते परराष्ट्रराजे । विस्मय करिती चोजें। सांडूनि द्वेष बोलती सहजें। भेटू म्हणती रायासी ।।९२।। पाहें या पवित्र नगरांत। सूर्य झाला असे उदित। राजा असे बहु पुण्यवंत । ऐसियासी विरोध न करावा ।।९३।। म्हणोनि पाठविती सेवकासी । भेटू म्हणती रायासी। राजा बोलवी तयांसी। आपुले गृहासी नगरांत ।।९४।। इतुकें होतां तें अवसरीं। राजा पुसतसे प्रीतिकरीं। रात्रीं असतां अंधकारी। उदय पावला केवी सूर्य ।।९५।। राजा चंद्रसेनसहित । पाहावया येती कौतुकार्थ। दिसे विचित्र रत्नखचित । शिवालय अनुपम ।।९६।। येणेंचि परी गौळ्याचें सदन । अतिरम्य विराजमान । पुसता झाला आपण । तया गौळीकुमारकातें ।।९७।। सांगितला सकळ वृत्तान्त । संतोष करिती राजे समस्त । गौळियांत राजा तूं म्हणत । देती नानादेशसंपदा ।।९८।। निघोनि गेले राजे सकळ । राहिला चंद्रसेन निर्मळ । शनिप्रदोष पूजा सफळ । भय कैचें तया राजा ।।९९।। गौळीकुमार येऊनि घरा। सांगे माते विस्तारा। पुढें येईल तुझ्या उदरा। नारायण अवतरोनि ।।१००।। ऐसा ईश्वरें दिधला वर । संशय न करीं तूं निर्धार। संतोषला कर्पूरगौर। देखिली पूजा प्रदोषाची ।।१।। मोडिली पूजा म्हणोनि । म्यां विनविला शूलपाणी'। क्षमा करूनि घेतलें म्हणोनि । सांगे वृत्तान्त मातेसी ।।२।। ऐसा ईश्वर प्रसन्न झाला । प्रदोषपूजनें तया फळला। श्रीपाद सांगती तया वेळां। विप्रस्त्रियेकारणें ।।३।। तुझे मनीं असेल जरी। होईल पुत्र मजसरी' । संशय सांडूनि निर्धारीं। शनिप्रदोषर्षी पूर्जी शंभू ।।४।। ऐसें म्हणोनि श्रीपाददेव । चक्रवर्ती भोळा शिव । विप्रस्त्रियेचा पाहोनि भाव । प्रसन्न होत तया वेळीं ।।५।। बोलावूनि तिचे कुमारासी । हस्त ठेविती मस्तकेंसी । ज्ञान जाहलें तत्काळेंसी । त्रिवेदी झाला तो ब्राह्मण ।।६।। वेदशास्त्रादि तर्कभाषा । म्हणता झाला अतिप्रकाशा । विस्मय झाला असे सहसा । विप्र म्हणती आश्चर्य ।।७।। विस्मय करोनि विप्रवनिता । म्हणे ईश्वर हाचि निश्चिता । कार्याकारणें अवतार होता। आला नरदेह धरोनि ।।८।। पूर्वजन्मींचें पुण्यार्जित । जोडला आम्हां हा निश्चित। भेटला असे श्रीगुरुनाथ । म्हणोनि नमिती क्षणोक्षणां ।।९।। म्हणे ईश्वर तूंचि होसी। पूजा करीन तुझी मी प्रदोषीं। मिथ्या नोहे तुझे वाक्यासी। पुत्र व्हावा तुजऐसा ।।११०।। ऐसा निश्चय करोनि। पूजा करिती नित्य येऊनि । प्रदोषपूजा अति गहनी । करी श्रीपादरायासी ।।११।। पुत्र तिचा झाला ज्ञानी। वेदशास्त्रार्थसंपन्नी। पूज्य जाहला सर्वांहूनि । ब्रह्मवृंद मानित ।।१२।। विवाह झाला मग यासी। पुत्रपौत्रीं नांदे हीं। श्रीगुरुकृपा होय ज्यासी। ऐसें होय अवधारा ।।१३।। ऐसा श्रीगुरु कृपावंत । भक्तजना असे संरक्षित । ऐक शिष्या एकचित्त । नामधारका श्रीमता ।।१४।। नामधारक भक्तासी । सांगे सिद्ध विस्तारेंसी। परियेसा समस्त अहर्निशीं । म्हणे सरस्वतीगंगाधरू ।।११५।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥८॥
ओवीसंख्या ११५
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः ।। ऐकोनि सिद्धाचें वचन । नामधारक करी नमन । विनवीत कर जोडून । भक्तिभावें करोनिया ।।१।। श्रीपाद कुरवपुरीं असतां । पुढें वर्तली कैसी कथा। विस्तारोनि सांग आतां । कृपामूर्ति दातारा ।।२।। सिद्ध म्हणे नामधारका । पुढें कथा अपूर्व देखा। तया ग्रामीं रजक' एका। सेवक झाला श्रीगुरुचा ।।३।। भक्तवत्सल श्रीगुरुराव। जाणोनि शिष्याचा भाव । विस्तार करोनि भक्तीस्तव । निरोपित गुरुचरित्र ।।४।। नित्य श्रीपाद गंगेसी येती । विधिपूर्वक स्नान करिती। लोकवेव्हार संपादिती । त्रयमूर्ति आपण ।।५।। ज्याचें दर्शन गंगास्नान । त्यासी कायसें आचरण। लोकानुग्रहाकारण। स्नान करीत परियेसा ।। ६ ।। वर्ततां ऐसें एके दिवशीं। श्रीपाद यति येती स्नानासी। गंगा वाहत असे दशदिशीं। मध्ये असती आपण ।।७।। तया गंगातटाकांत' । रजक असे वस्खें धूत । नित्य येऊनि असे नमित। श्रीपाद्गुरुमूर्तीसी ।।८।। नित्य त्रिकाळ येवोनिया । दंडप्रमाण करोनिया । नमन करी अतिविनया। मनोवाक्कायकर्मे ।।९।। वर्ततां ऐसें एक दिवशीं। आला रजक नमस्कारासी। श्रीपाद म्हणती तयासी । एकचित्तें परियेसा ।।१०।। श्रीपाद म्हणती रजकासी। कां नित्य कष्टतोसी । तुष्टलों मी तुझ्या भक्तीसी । सुखें राज्य करीं आतां ।।११।। ऐकतां गुरूचे वचन । गांठी बांधी पल्लवीं शकुन । विनवीतसे कर जोडून । सत्यसंकल्प गुरुमूर्ति ।।१२।। रजक सांडी संसारचिंता । सेवक जाहला एकचित्ता । दुरोनि करी दंडवता । मठा गेलिया येणेंचि परी ।।१३।। ऐसे बहुत दिवसांवरी। रजक तो सेवा करी। आंगण झाडी प्रोक्षी वारी । नित्य नेमें येणें विधी ।।१४।। असतां एके दिवशीं देखा। वसंतऋतु वैशाखा । क्रीडा करीत नदीतटाका। आला राजा म्लेंच्छ एक ।।१५।। खियांसहित राजा आपण । अलंकृत आभरण। क्रीडा करीत स्त्रिया आपण । गंगेमधून येतसे ।।१६।। सर्व दळ' येत दोनी थीं। अमित' असती हस्ती घोडीं। मिरविताती रत्नकोडी । अलंकृत सेवकजन ।।१७।। ऐसा गंगेच्या प्रवाहांत। राजा आला खेळत । अनेक वाद्यनाद गर्जत। कृष्णावेणी थडियेसी ।।१८।। रजक होता नमस्कारित । शब्द झाला तो दुश्चित । असे गंगेत अवलोकित । समारंभ राजयाचा ।।१९।। विस्मय करी बहु मानसीं । जन्मोनिया संसारासी। जरी न देखिजे सौख्यासी । पशुसमान देह आपुला ।।२०।। धन्य राजयाचें जिणें। ऐसें सौख्य भोगणें। स्त्रिया वस्खें अनेक भूषणें । कैसा भक्त ईश्वराचा ।।२१।। कैसें याचें आर्जव फळलें । कवण्या देवा आराधिलें। कैसे श्रीगुरु असती भेटले । मग पावला ऐसी दशा ।।२२।। ऐसें मनीं चिंतित । करीतसे दंडवत । श्रीपादराय कृपावंत । वळखिली वासना तयाची ।।२३।। भक्तवत्सल श्रीगुरुमूर्ति। जाणोनि अंतरीं त्याची स्थिती। बोलावूनिया पुसती । काय चितिसी मर्नात ।।२४।। रजक म्हणे स्वामीसी । देखिलें दृष्टीं रायासी । संतोष झाला मानसीं । केवळ दास श्रीगुरूचा ।।२५।। पूर्वी आराधोनि देवासी। पावला आतां या पदासी। म्हणोनि चिंतितों मानसीं । कृपासिंधु दातारा ।। २६ ।। ऐसें अविद्यासंबंधेंसी । नाना वासना इंद्रियांसी। चाड' नाही या भोगासी। चरणीं तुझे मज सौख्य ।।२७।। श्रीपाद म्हणती रजकासी । जन्मादारभ्य' कष्टलासी । वांछा असे भोगावयासी । राज्यभोग तमोवृत्ति' ।। २८।। निववीं इंद्रियें सकळ । नातरी मोक्ष नव्हे निर्मळ । बाधा करिती पुढे केवळ । जन्मांतरीं परियेसीं ।।२९।। तुष्टवावया इंद्रियांसी । तुवां जावें म्लेंछवंशासी। आवडी जाहली तुझे मानसीं। राज्य भोगीं जाय त्वरित ।। ३० ।। ऐकोनि स्वामीचें वचन । विनवी रजक कर जोडून । कृपासागरू तूं गुरुराज पूर्ण। उपेक्षू नको म्हणतसे ।।३१।। अंतरतील तुझे चरण । द्यावें मातें पुनर्दर्शन। तुझा अनुग्रह असे कारण। ज्ञान द्यावें दातारा ।।३२।। श्रीगुरु म्हणती तयासी । वैदुरानगरी जन्म घेसी । भेटी देऊं अंतकाळासी। कारण असे येणें आम्हां ।। ३३।। भेटी होतांचि आम्हांसी । ज्ञान होईल तुझे मानसीं। न करीं चिंता भरंवसीं । आम्हां येणें घडेल ।। ३४।। आणिक कार्यकारणासी । अवतार घेऊं परियेसीं । वेष धरोनि संन्यासी। नाम नृसिंहसरस्वती ।। ३५।। ऐसें तया संबाधूनि । निरोप देती जाय म्हणोनि । रजक लागला तये चरणीं । नमस्कारीत तये वेळीं ।।३६।। देखोनि श्रीगुरु कृपामूर्ति । रजकासी जवळी पाचारिती। इह भोगिसी की पुढतीं। राज्यभोग सांग मज ।। ३७ ।। रजक विनवीत श्रीपादासी। झालों आपण वृद्धवयेसी । भोग भोगीन बाळाभ्यासी । यौवनगोड' राज्यभोग ।। ३८।। ऐकोनि रजकाचें वचन । निरोप देती श्रीगुरु आपण । त्वरित जाई रे म्हणोन । जन्मांतरीं भोगीं म्हणती ।। ३९ ।। निरोप देतां तया वेळीं। त्यजिला प्राण तत्काळीं । जन्मता झाला म्लेंछकुळीं । वैदुरानगरीं विख्यात ।।४०।। ऐसी रजकाची कथा । पुढें सांगेन विस्तारता । सिद्ध म्हणे नामधारका आतां। चरित्र पुढतीं अवधारी ।।४१।। ऐसें झालिया अवसरी। श्रीपादराय कुरवपुरीं। असतां महिमा अपरंपारी। प्रख्यात असे परियेसा ।।४२।। महिमा सकळ सांगतां । विस्तार होईल बहुकथा । पुढील अवतार असे ख्याता। सांगेन ऐक नामधारका ।।४३।। महत्त्व वर्णावया श्रीगुरूचें । शक्ति कैची या वाचे। नवल है अमृतदृष्टीचें। स्थानमहिमा ऐसा ।।४४।। श्रीगुरु राहती जे स्थानीं। अपार महिमा त्या भुवनीं। विचित्र जयाची करणी । दृष्टान्तें तुज सांगेन ।।४५।। स्थानमहिमाप्रकार। सांगेन ऐक एकाग्र । प्रख्यात असे कुरवपूर । मनकामना पुरती तेथें ।।४६।। ऐसें कित्येक दिवसांवरी। श्रीपाद होते कुरवपुरीं। कारण असे पुढें अवतारीं। म्हणोनि अदृश्य होते तेथें ।।४७।। आश्विन वद्य द्वादशी । नक्षत्र मृगराज परियेसीं। श्रीगुरु बैसले निजानंदेंसी । अदृश्य झाले गंगेत ।।४८। लौकिकीं दिसती अदृश्य जाण। कुरवपुरीं असती आपण । श्रीपादराव निर्धार जाण । त्रयमूर्तीचा अवतार ।।४९।। अदृश्य होवोनि तया स्थानीं । श्रीपाद राहिले निर्गुणीं। दृष्टान्त सांगेन विस्तारोनि । म्हणे सरस्वतीगंगाधरू ।। ५०।। जे जन असती भक्त केवळ । त्यांसी दिसती श्रीगुरु निर्मळ । कुरवपूर क्षेत्र अपूर्व स्थळ । असे प्रख्यात भूमंडळीं ।।५१।। सिद्ध सांगे नामधारकासी । तेचि कथा विस्तारेंसी । सांगतसे सकळिकांसी । गंगाधराचा आत्मज ।।५२।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥९॥
ओवीसंख्या ५२
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । ऐकोनि सिद्धाचें वचन । नामधारक विनवी जाण । कुरवपुरींचे महिमान। केवी जाहले परियेसा ।।१।। म्हणती श्रीपाद नाहीं गेले। आणि म्हणती अवतार झाले। विस्तार करोनिया सगळें। निरोपावें म्हणतसे ।।२।। सिद्ध सांगे नामधारकासी । श्रीगुरुमहिमा काय पुससी। अनंतरूपें होती परियेसीं। विश्वव्यापक परमात्मा ।।३।। पुढें कार्यकारणासी। अवतार झाले परियेसीं। राहिले आपण गुप्तवेषीं। तया कुरवक्षेत्रांत ।।४।। पाहें पां भार्गवराम देखा। अद्यापवरी भूमिका। अवतार झाले अनेका। त्याचेच एकीं अनेक ।।५।। सर्वां ठायीं वास आपण । मूर्ति एक नारायण। त्रिमूर्तीचे तीन गुण । उत्पत्ति स्थिति आणि प्रलय ।।६।। भक्तजनां तारावयासी। अवतरतो हृषीकेशी । शाप देत दुर्वासऋषि। कारण असे तयाचें ।।७।। त्रयमूर्तीचा अवतार । याचा कवण न कळे पार । निधान तीर्थ कुरवपूर । वसे तेथें गुरुमूर्ति ।।८।। जें जें चिंताबें भक्तजनें । तें तें पावे गुरुदर्शनें । श्रीगुरु वसावयाची स्थानें । कामधेनु असे जाणा ।।९।। श्रीपादवल्लभस्थानमहिमा । वर्णावया अनुपमा । अपार असे सांगतों तुम्हां । दृष्टान्तेंसी अवधारा ।।१०।। तुज सांगावया कारण। गुरुभक्ति वृथा नव्हे जाण। सर्वथा न करी निर्वाण । पाहे वाट भक्तांची ।।११।। भक्ति करावी दृढतर। गंभीरपणें असावें धीर। तरीच उतरिजे पैलपार । इहपरत्रीं सौख्य पावे ।।१२।। याचि कारणें दृष्टान्तें तुज । सांगेन ऐक वर्तलें सहज । काश्यपगोत्रीं होता द्विज । नाम तया वल्लभेश ।।१३।। सुशील द्विज आचारवंत । उदीम करूनि उदत भरीत। प्रतिसंवत्सरीं यात्रेस येत । तया श्रीपादक्षेत्रासी ।।१४।। असतां पुढें वर्तमानीं । उदीमा निघाला तो धनी। नवस केला अतिगहनीं । संतर्पार्वे ब्राह्मणासी ।।१५।। उदीम आलिया फळासी। यात्रेसी येईन विशेषी। सहस्र संख्या ब्राह्मणांसी। इच्छाभोजन देईन म्हणे ।।१६।। निश्चय करोनि मानसीं । निघाला उदीमासी। चरण ध्यातसे मानसीं। सदा श्रीपादवल्लभाचे ।।१७।। जे जे ठायीं जाय देखा । अनंत संतोष पावे निका। शतगुर्णे लाभ झाला ऐका। परमानंद प्रवर्तला ।।१८।। लय लावूनि श्रीपादचरणीं । यात्रेसि निघाला ते क्षणीं। वेंचावया ब्राह्मणसंतर्पर्णी । द्रव्य घेतलें समागमें ।।१९।। द्रव्य घेऊनि द्विजवर। निघतां देखती तस्कर। कापट्यवेर्षे सत्वर। तेही सांगते निघाले ।।२०।। दोन तीन दिवसांवरी। तस्कर असती संगिकारी । एके दिवसीं मार्गी रात्रीं। जात असतां मार्गस्थ ।। २१ ।। तस्कर म्हणती द्विजवरासी । आम्ही जाऊं कुरवपुरासी । श्रीपादवल्लभदर्शनासी। प्रतिवर्षी नेम असे ।।२२।। ऐसें बोलती मार्गासी । तस्करीं मारिलें द्विजासी । शिर छेदूनियां परियेसीं । द्रव्य घेतलें सकळिक ।।२३।। भक्तजनांचा कैवारी। श्रीपादराव कुरवपुरीं । पातला त्वरित वेषधारी। जटामंडित भस्मांकित ।। २४।। त्रिशूळ खट्ठांग घेऊनि हातीं । उभा ठेला तस्करांपुढतीं। वधित झाला तयांप्रती । त्रिशूळेकरूनि तात्काळ ।।२५।। समस्त तस्करां मारितां । एक तस्कर येऊनि विनविता। कृपाळुवा जगन्नाथा । निरपराधी आपण असे ।। २६ ।। नेणें यातें वधितील म्हणोनि । आलों आपण संगीं होऊनि। तूं सर्वोत्तमा जाणसी मनीं । विश्वाची मनवासना ।। २७।। ऐकोनि तस्कराची विनंती । श्रीपाद त्यातें बोलाविती। हातीं देऊनिया विभूति । विप्रावरी प्रोक्षीं म्हणे ।।२८।। मन लावूनि तया वेळां । मंत्रोनि लाविती विभूति गळां। सजीव जाहला तात्काळा। ऐक वत्सा एकचित्तें ।।२९।। इतुकें वर्ततां परियेसीं। उदय जाहला दिनकरासी । श्रीपाद जाहले गुप्तेसी । राहिला तस्कर द्विजाजवळीं ।। ३० ।। विप्र पुसतसे तस्करासी । म्हणे तूं मातें कां धरिलेंसी। कवणें वधिलें तस्करासी। म्हणोनि पुसे तया वेळीं ।। ३१।। तस्कर सांगे द्विजासी । आला होता एक तापसी । जाहलें अभिनव परियेसीं । वधिले तस्कर त्रिशूळें ।।३२।। मज रक्षिलें तुजनिमित्तें। धरोनि बैसविलें स्वहस्तें । विभूति लावूनि मग तूंतें। सजीव केला तव देह ।।३३।। उभा होता आतां जवळी । अदृश्य जाहला तत्काळीं । न कळे कवण मुनि बळी। तुझा प्राण रक्षिला ।। ३४।। होईल ईश्वर त्रिपुरारि । भस्मांगी होय जटाधारी । तुझीं भक्ति निर्धारीं। म्हणोनि आला ठाकोनिया ।।३५।। ऐकोनि तस्कराचें वचन । विश्वासला तो ब्राह्मण। तस्कराजबळील द्रव्य घेऊन । गेला यात्रेसी कुरवपुरा ।। ३६।। नानापरी पूजा करी। ब्राह्मणभोजन सहस्र चारी । अनंतभक्तीं प्रीतिकरीं । पूजा करी श्रीपादुकांची ।। ३७।। ऐसे अनंत भक्तजन । मिळून सेविती श्रीपादचरण। कुरवपूर प्रख्यात जाण । अपार महिमा ।।३८।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी । संशय न धरी तूं मानसीं। श्रीपाद आहेती कुरवपुरासी । अदृश्यरूप होऊनिया ।।३९।। पुढें अवतार असे होणें । गुप्त असती याचि गुणें । म्हणती अनंतरूप नारायण। परिपूर्ण सर्वांठायीं ।।४०।। ऐसी श्रीपादवल्लभमूर्ति। लौकिकीं प्रगटली ख्याति । झाला अवतार पुढतीं। नृसिंहसरस्वती विख्यात ।।४१। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधरू। सांगत कथेचा विस्तारू । ऐकतां होय मनोहरू । सकळाभीष्ट साधती ।।४२।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१०॥
ओवीसंख्या ४२
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक म्हणे सिद्धासी । पुढें अवतारपरंपरा कैसी । विस्तारोनि आम्हांसी। सांगा स्वामी कृपासिंधु ।।१।। सिद्ध म्हणे ऐक वत्सा। अवतार झाला श्रीपाद कैसा । पूर्वी वृत्तान्त ऐसा। कथा सांगितली विप्रस्त्रियेची ।।२।। शनिप्रदोषीं सर्वेश्वरासी । पूजित होती गुरुउपदेशीं । देहवासना असता तियेसी । पंचत्व पावली तत्काळ ।।३।। जन्म झाला पुढें तिसी। करंजनगर उत्तरदेशीं। वाजसनेय शाखेसी । विप्रकुळीं जन्मली ।।४।। जातक वर्तलें तियेसी । नामें अंबा भवानीऐसी । आरोपिती स्नेहासी । मातापिता परियेसा ।।५।। वर्ततां मातापितयागृहीं । वाढली कन्या अतिस्नेहीं। विवाह करिती महोत्साहीं । देती विप्रासी त्याचि ग्रामीं ।। ६ ।। शिवव्रती असे तो ब्राह्मण। नाम तया माधव जाण । तयासी दिधली कन्या दान। अतिप्रीति करोनिया ।।७।। तया माधवविप्राघरीं । शुभाचारें होती नारी । वासना तिची पूर्वापरीं। ईश्वरपूजा करीतसे ।।८।। पूजा करी ईश्वरासी। दंपत्य उभय मनोमानसीं। प्रदोषपूजा अतिहर्षी । करिती भक्तिपुरःसर ।।९।। मंदवारीं त्रयोदशीसी। पूजा करिती अतिविशेषीं । संवत्सरें झालीं षोडशी । अंतर्वत्नी झाली ऐका ।।१०।। तृतीय हो पांचवे मासीं। उत्साह करिती बहुहर्षी। उत्तम डोहळे होती तियेसी । ब्रह्मज्ञान बोलतसे ।।११।। उत्साह करिती माससातीं । द्विजवर करी सीमंती। अक्षयवाणें वोवाळिती आरती। सुवासिनी मिळूनिया ।।१२।। ऐसें क्रमितां नवमासीं । प्रसूत झाली शुभ दिवशीं। पुत्र जाहला म्हणून हर्षी । निर्भर झालीं मातापिता ।।१३।। जन्मतांच तो बाळक । ॐकार शब्द म्हणतसे ऐक । पाहूनि झाले तटस्थ लोक । अभिनव म्हणती ते वेळीं ।।१४।। जातकर्म करी ब्राह्मण। विप्रासी दक्षिणा देत आपण । ज्योतिषी सांगती तयाचें लक्षण । लग्न सत्वर पाहोनिया ।।१५।। सांगती ज्योतिषी त्या द्विजासी। मुहूर्त बरवा असे विशेषीं। कुमार होईल कारुण्यऋषि । गुरु सकळांचा निश्चयें ।।१६।। याचा अनुग्रह' होईल ज्यासी । तो वंद्य होईल विश्वासी । याचें वाक्य प्रमाणेंसी। चिंतामणी याचे चरण ।।१७।। अष्ट सिद्धि याचे द्वारीं। वोळंगत राहतील निरंतरीं । नव निधि याचे घरीं। राहतील ऐक द्विजोत्तमा ।।१८।। न होती तयासी गृहिणी सुत। पूज्य होईल त्रिभुवनांत । याचे दर्शनमात्रै पतित । पुनीत होती परियेसीं ।।१९।। होईल अवतारी पुरुष। माना निश्चयें विश्वास । संदेह न धरावा यास । म्हणोनि करिती नमस्कार ।। २० ।। ऐसें म्हणती द्विजवर । सांगती जनकासी विचार । याचेनि महादैन्य हरे । भेणें नलगे कळिकाळा ।।२१।। जे जे वासना तुमचे मनीं। सर्व साधेल याचेनि । याचिया पालनपोषणीं । निधान आलें तुमचे घरा ।।२२।। ऐसें जातक वर्तवोन । सांगता झाला ब्राह्मणस्तोम' । जनकजननी संतोषोन । देती वखें आभरणें तयां ।।२३।। सांगोनि गेले ब्राह्मण । मातापिता आनंदघन । दृष्टि लागेल म्हणून । निंबलोण वोवाळिती ।। २४।। वार्ता गेली नगरांत। अभिनव आज देखिलें म्हणत । उपजत बाळ ॐकार जपत । आश्चर्य करिती सकळ जन ।।२५।। नगरलोक इष्ट मित्र। पहावया येती विचित्र । दृष्टि लागेल म्हणोनि पळमात्र । न दाविती कवणापुढें ।। २६ ।। मायामोहें जनकजननी। बाळासी दृष्टि लागेल म्हणोनि । अंगारा लाविती मंत्रोनि । रक्षा बांधिती कृष्णसुतें ।।२७।। परमात्मा अवतरे। दृष्टि केवी संचरे। लौकिकधर्म चमत्कारें । मातापिता संरक्षिती ।।२८।। वर्ततां बाळ येणेंपरी। दिवस दहा झालियावरी। नामकरण परस्परीं। करी जनक द्विजोत्तम ।।२९।। शालिग्रामदेव म्हणत । जन्मनाम विख्यात । नाम नरहरी ऐसे म्हणत । उच्चार केला धर्मकर्मे ।।३०।। ममत्व थोर बाळकावरी। प्रतिपाळिती प्रीतिकरीं। माता म्हणतसे अवसरीं। न पुरे क्षीर बाळकासी ।।३१।। पतीसी म्हणे ते वेळां। स्तनीं दुग्ध थोडें बाळा । मेळवा एखादी अबला । स्तनपान द्यावया ।। ३२ ।। अथवा आणा अजा एक। आपुले स्तनें न शमे भूक। ऐकोनि हासे बाळक। स्पर्श स्तन सव्यकरें ।। ३३ ।। स्तनास स्पर्शतां कर। बत्तीस धारा वाहे क्षीर। वखें भिजोनि विचित्र । वाहों लागलें भूमीवरी ।। ३४।। विस्मय करिती जनकजननी । प्रकट न करी गौप्यगुणी। नमन करिती बाळकाचरणीं । माता होय खेळविती ।।३५।। पाळण्या घालोनि बाळकासी । पर्यंदगायन अतिहर्षी। न राहे कुमार पाळणेंसी। सदा खेळे भूमीवरी ।। ३६।। वर्धतां बाळ येणेंपरी । माता पिता नमस्कारी। बाळ झाला संवत्सरीं। न बोले आतां काय करूं ।। ३७ ।। माता बोलवी कुमारासी । बोले शब्द ॐकारेंसी। चिंता करीतसे मानसीं । मुकें झालें दैवयोगें ।। ३८ ।। पुसती जाण जोशीयासी। या बाळका बोलावयासी। काय उपायविशेषी । म्हणोनि पुसती वेळोवेळां ।। ३९।। जोशी सांगती तयासी । आराधावें कुळदेवतेसी । अर्कवारीं अश्वत्थपणेंसी। अन्न घाली हो तीन वेळां ।।४० ।। एक म्हणती होईल मुकें। त्यासि शिकवावें विवेकें। बाळबोल बोलविती निके। परि तो बाळ न बोलेचि ।।४१।। हासोनि ॐकार उच्चारी तो बाळ । आणिक नेणें बोल केवळ । विस्मय करिती लोक सकळ । ॐकार शब्द ऐकोनियां ।।४२।। एक म्हणती नवल झालें । सर्व ज्ञान असे भलें। श्रवणीं ऐकतां बोल सगळे । जाणूनि न बोले काय गुणें ।।४३।। कांहीं केल्या न बोले सुत। चिंता करिती मातापिता। वर्षे सात झालीं तत्त्वतां । मुका झाला दैवयोगें ।।४४।। सात वर्षे कुमारासी । योग्य झाला मुंजीसी । पुसते झाले ब्राह्मणासी। केवी करावें म्हणोनिया ।।४५।। विप्र म्हणती तया वेळां । संस्कारार्वे ब्राह्मणकुळा । उपनयनावेगळा केवळा । अष्टवरुर्षे होऊनिया ।।४६।। मातापिता चिंता करिती। उपदेशावें कवर्णे रीतीं । मुका असे हा निश्चितीं । कैसें अदृष्ट झालें आम्हां ।।४७।। कैसें अदृष्ट आपुलें। ईश्वरगौरी आराधिले । त्रयोदशीस शिवा पुजिलें । वायां झालें म्हणतसे ।।४८।। ईश्वरें तरी दिधला वरू। सुलक्षण झाला कुमरू । न बोले आतां काय करूं । म्हणोनि चिंती शिवासी ।।४९।। एकचि बाळ आमुचे कुशीं। आणिक न देखों स्वप्नेंसी। वेष्टिलों होतों आम्ही आशेसी। आमुतें रक्षील म्हणोनिया ।।५०।। नव्हेच माझे मनींची आस। अपुत्र झाला निर्वाणवेष । काय वर देत महेश । शनिप्रदोष पूजितां म्यां ।।५१।। ऐसें नानापरी ती देख। जननी करी महादुःख । जवळी येवोनि बाळक । संबोखित मातेसी ।। ५२।। घरांत जाऊनि तये वेळां । घेऊनि आणी लोखंड सबळा। हातीं धरितांचि निर्मळा । झालें सुवर्ण बावनकशी ।।५३।। आणोनि देत असे मातेसी । विस्मय करी बहुवसीं । बोलावूनिया पतीसी। दाविती झाली ते वेळां ।।५४।। गौप्य करूनि तये वेळां । गृहांत नेलें तया बाळा । पाहती त्याची बाळलीला । आणिक लोह देती हातीं ।।५५।। अमृतदृष्टीं पाहतां । लोह सुवर्ण होय तत्त्वतां । विश्वासोनि म्हणती हा सर्वथा । होईल पुरुष कारणिक' ।।५६।। मग पुत्रातें आलिंगोनि । विनविताती जनकजननी । तूं तारक बा शिरोमणी । कारणिक पुरुष कुळदीपक ।।५७।। तुझेनि सर्व सौख्य लाधलों। मुका म्हणोनि निर्बुजलों । अज्ञान-आवरणें वेष्टलों । जनीं मुका म्हणती तुज ।।५८।। आमुचे मनींची वासना। तुवां पुरवावी नंदना । तुझे बोबडे शब्द आपणा । ऐकावे वाटे पुत्रराया ।।५९।। हास्यवदनें तये वेळां । दावी यज्ञोपवीत गळां । कीं बांधावी मौंजीमेखळा। खूण दाखवी मातेसी ।।६०।। संज्ञा करोनि मातेसी। बाळ दाखवी संतोषीं। मौंजीं बांधितां आपणासी । येतील म्हणे बोल सकळ ।।६१।। मातापिता संतोषती । विद्वान ज्योतिषी पाचारिती । व्रतबंधमुहूर्त पाहती। सर्व आयती करिते झाले ।।६२।। केली सामग्री बहुतांपरी । रत्नखचित अळंकारीं। मायामोहें प्रीतिकरीं। समारंभ करिताती ।।६३।। चतुर्वेदी ब्राह्मण येती । शाखापरत्वें वेद पढती। इष्ट सोयरे दाईज गोती। समस्त आले तया भवना ।।६४।। नानापरींचे शृंगार । उभारिले मंडप अपार । आनंद करितसे द्विजवर । अपार द्रव्य वेंचता होय ।।६५।। नगरलोक विस्मय करिती। मुक्या पुत्रासी येवढी आयती । द्विजालागीं असे भ्रांति। द्रव्य वेंची वृथा आपुलें ।।६६।। इतुकें वेंचूनि पुत्रासी। व्रतबंध करील परियेसीं। गायत्री केवी उपदेशी। करील आचार कवणेपरी ।। ६७।। एक म्हणती हो कां' भलतें । मिष्टान्न स्वेच्छा आम्हां मिळतें। देकार' देईल हिरण्य वस्खें। चाड नाहीं त्याच्या मंत्रा ।।६८।। ऐसें नानापरी लोक। विचार करिती अनेक । मातापित्यांस अत्यंत सुख । देवदेवक करिताती ।। ६९।। चौलकर्म येरे दिवसीं । भोजन चौलमणीसी। पुनरपि अभ्यंग करूनि हर्षी। यज्ञोपवीत धारण केलें ।।७०।। मंत्रपूर्वक यज्ञोपवीत । धारण करविती समस्त । सहभोजन करावया गृहांत। घेऊनिया गेली माता ।। ७१।। भोजन करी मातेसवें। निरोप घेत एका भावें। मौंजीबंधन असें करावें। म्हणोनि आला पित्याजवळी ।।७२।। विधियुक्तमार्गे मौंजी देखा। बंधन केलें त्या बाळका । सुमुहूर्त आला तात्काळिका । मंत्रोपदेश करिता झाला ।।७३।। गायत्रीमंत्र अनुक्रर्मेसी। उपदेश देतां परियेसीं। बाळ उच्चारी मनोमानसीं। व्यक्त न बोले कवणापुढें ।।७४।। गायत्रीमंत्र कुमारासी होतां । भिक्षा घेऊनी आली माता । वस्खें आभरणें रत्नखचिता । देती झाली तया वेळीं ।।७५।। पहिली भिक्षा घेऊनि करीं। आशीर्वचन देती नारी। बाळ ऋग्वेद म्हणोनि उच्चारी। आचारधर्मे वर्ततसे ।। ७६ ।। पहिली भिक्षा येणेंपरी। देती झाली प्रीतिकरीं। अग्निमीळे म्हणोनि उच्चारी। ब्रह्मचारी तये वेळीं ।। ७७।। दुसरी भिक्षा देत माता। उच्चार केला यजुर्वेद इषेत्वा । लोक समस्त तटस्था । माथा तुकिती तये वेळीं ।। ७८ ।। तिसरी भिक्षा देत माता। होय सामवेद पढता । अग्नऽआयाहि गायन करितां । वेद तीन म्हणतसे ।।७९।। सभा समस्त विस्मय करी। पिता हर्षनिर्भरीं। मुका बोले वेद चारी। म्हणती होईल कारणिक ।।८०।। यातें म्हणों नये नर । होईल देवाचा अवतार । म्हणोनि करी नमस्कार। जगद्गुरूसी ते समयीं ।।८१।। इतुक्यावरी तो बाळक । मातेसी म्हणतसें ऐक । तुवां उपदेश केला एक । भिक्षा माग म्हणोनि ।।८२।। नव्हेचि बोल तुझा मिथ्या। निरोप द्यावा आम्हां त्वरिता । निर्धार झाला माझिया चित्ता। जाऊं तीर्थं आचरावया ।।८३।। आम्हां आचार ब्रह्मचारी । भिक्षा करावी घरोघरीं । वेदाभ्यास मनोहारी। करणें असे परियेसा ।।८४।। ऐकोनि पुत्राचे वचन । दुःखें दाटली अतिगहन । उदकें भरले अडती नयन। आली मूर्छना तया वेळीं ।।८५।। निर्जीव होऊनि क्षणैक । करिती झाली महाशोक । पुत्र माझा तूं रक्षक। केली आशा बहु मनीं ।। ८६ ।। आमुर्ते रक्षिसी म्हणोनि । होती आशा फार मनीं । न बोलसी आमुचिया गुर्णी। मुर्के म्हणविसी आपणासी ।।८७।। नायकों कधीं तुझिया बोला । आतां ऐकतां संतोष झाला। पूजनें ईश्वर फळला । म्हणोनि विश्वास केला ।।८८।। ऐसें नानापरी देखा। पुत्रासि म्हणतसे बाळिका। आलिंगोनिया कुमारका । कृपा भाकी तये वेळीं ।।८९।। ऐकोनि मातेचें वचन । बाळक सांगे ब्रह्मज्ञान। नको दुखवू अंतःकरण । आम्हां करणें तेंचि असे ।।९० ।। तूंतें आणिक पुत्र चारी । होतील माते निर्धारीं। तुझी सेवा परोपरी। करितील मनोभावेंसी ।।९१।। तुवां आराधिला शंकर । जन्मांतरीं पूर्वापार । म्हणोनि ठेविला मस्तकीं कर । मग जहाली जातिस्मृति' ।।९२।। पूर्वजन्मींचा वृत्तान्त । सविस्तर स्मरण करीत । परम जाहली विस्मित । श्रीपादवल्लभ जाणोनि ।। ९३ ।। देखोनि माता तये वेळां । नमन केलें चरणकमळां । श्रीपाद उठवूनि अवलीळा'। सांगती गौप्य अवधारा ।।९४।। ऐक माते ज्ञानवंती । हा बोल करीं हो गुप्ती। संन्यासी आम्ही यति । अलिप्त असों संसारीं ।।९५।। याचि कारणें आम्ही आतां । हिंडूं समस्त तीर्थयात्रा । कारण असे पुढें तत्त्वतां । म्हणोनि निरोप मागती ।।९६।। येणेंपरी जननीसी। गुरुमूर्ति सांगती विनयेंसी । माता बोलत पुत्रासी । श्रोते सावध परियेसा ।।९७।। पुत्रासी विनवी तये वेळ । आम्हां नाडूनि जाशील। आणिक डोळां न देखों बाळ। केवी वांचों पुत्रराया ।।९८।। धाकुटपणीं तुम्ही तापस। धर्मी कोण असे हर्ष । धर्मशास्त्रख्याति सरस । आश्रम चारी आचरावे ।।९९।। ब्रह्मचर्य वर्षे बारा । गृहस्थाश्रम तदनंतरा । घडती पुण्यें अपरंपारा । गृहस्थाश्रमीं सुख असे ।।१००।। मुख्य आश्रम असे गृहस्थ। आचरतां होय अतिसमर्थ। संन्यास घ्यावा मुख्यार्थ । धर्मशास्त्र येणेंपरी ।।१।। ब्रह्मचर्यमार्ग ऐका। पठण करावें वेदादिकां। विवाह होतां गृहस्थें निका । पुत्रादिकां लाधावें ।।२।। यज्ञादि कर्म साधोनियां । तदनंतर संन्यास करणें न्याया। येणें विधी आचरोनियां। अग्राह्य संन्यास बाळपणीं ।।३।। समस्त इंद्रियें संतोषवावीं । मनींची वासना पुरवावी। नंतर तपाची वाट धरावी । संन्यास घेतां मुख्य असे ।।४।। ऐकोनि मातेचें वचन । गुरू सांगती तत्त्वज्ञान। नामधारक सुमन। करूनि ऐक म्हणे सिद्ध ।।५।। गंगाधराचा नंदन। श्रोतयां सांगे नमून। परिसा तुम्ही समस्त जन । गुरुचरित्रविस्तार ।।६।। पुढें वर्तलें अपूर्व ऐका । सिद्ध सांगे नामधारका । महाराष्ट्रभाषा करूनि टीका । सांगे सरस्वतीगंगाधर ।।७।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥११॥
ओवीसंख्या १०७
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । श्रीगुरू म्हणती मातेसी । आम्हां ऐसा निरोप देसी। अनित्य शरीर तूं जाणसी। काय भरंवसा जीवित्वाचा' ।।१।। श्लोक ।। अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यः सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ।।२।। टीका ।। एखादा असेल चिरंजीवी । त्यासी तुझी बुद्धि बरवी। अनित्य देहवैभव भावी। पुढें कोणा भरंवसा ।।३।। देह तो क्षणभंगुर । नाहीं राहिले कवण स्थिर । जोंवरी दृढ शरीर । पुण्यमार्गे रहाटावें ।।४।। जो मृत्युसी जिंकित । त्याणें निश्चयावें शरीर नित्य । त्यासि तवोपदेश सत्य। म्हणे धर्म करीन पुढें ।।५।। अहोरात्रीं आयुष्य उणें। होतसे क्षणक्षणें । करावा धर्म याचि कारणें । पूर्ववयासी परियेसा ।।६।। जैसा सूर्यरथ चाले । निमिष होतां शीघ्रकाळें। बावीस सहस्र गांव पळे । तैसें आयुष्य क्षीण होय ।।७।। अल्पोदकीं जैसें मत्स्य । तैसा मनुष्य अल्पायुष्य । जोंवरी प्राण सुरस। धर्म करावा परियेसीं ।।८।। पर्जन्य पडतां वृक्षावरी। उदक राहे पर्णाग्रीं । स्थिर नव्हे निर्धारीं । सवेंचि पडे भूमीवरी ।।९।। तेवी शरीर नव्हे स्थिर। जीवित यौवन साचार । जरा मरण निर्धार । केधवां पडे न कळेची ।।१०।। याचि कारणें देहासी। विश्वासू नये परियेसीं। मृत्यु असे देहासी । धर्म करावा तात्काळीं ।।११।। पिकलें पान वृक्षा जैसें। लागलें असे सूक्ष्मवंशें। तैसेंचि शरीर भरंवसें। केधवां पडेल न कळेचि ।।१२।। एखादा नर कलत्रासी । द्रव्य देतां परियेसीं । दिवसगणना करी कैसी। तैसा यम रात्रंदिवस ।।१३।। जैशा समस्त नद्या देखा। समुद्रासी घेऊनि जाती उदका। परतोनि न येति जन्मभूमिका । तैसें आयुष्य न परते ।।१४।। अहोरात्री जाती पळोन। ऐसें निश्चयें जाणोन । पुण्य न करिती जे जन । पशुसमान परियेसा ।।१५।। ज्या दिवशीं पुण्य नाहीं । वृथा गेला दिन पाहीं । त्या यमा करुणा नाहीं। करावें पुण्य तात्काळीं ।। १६ ।। पुत्र दारा धन गोधन। आयुष्य गृह येणें गुण। जे जन मानिती निश्चय म्हणोन। ते पशुसम परियेसीं ।।१७।। जैसी सुसरी मनुष्यासी । भक्षिती होय परियेसीं । तैसें या शरीरासी। वार्धक्य भक्षी परियेसा ।।१८।। याकारणें तरुणपणीं । करावें पुण्य विद्वज्जनीं । आम्हां कां वर्जिसी जननी। काय बुद्धि बरवी असे ।।१९।। जो यमाचा असेल इष्ट । त्याणें करावा हा हट्ट । अमरत्वें असे जो स्पष्ट । त्यानें पुढें धर्म करणें ।।२०।। संसार म्हणजे स्वप्नापरी । जैसें पुष्प मोगरी । सवेंचि होय शुष्क वारी। तयापरी देह जाणा ।।२१।। जैसी विजू असे लवत। सर्वेचि होय गुप्त । त्याचि परी देह होत । स्थिर नव्हे परियेसा ।।२२।। ऐसा नानापरी देखा। बोधिता झाला जननीजनकां । विस्मय वाटे सभालोकां । बाळक केवी ज्ञान सांगे ।।२३।। ऐकोनि पुत्राचें वचन । माता करीतसे नमन। देवा निरोपिलें ज्ञान । विनंती माझी परियेसीं ।।२४।। त्वां निरोपिलें आम्हांसी। पुत्र चौघे होतील कुशीं। विश्वास नव्हे गा मानसीं । कुळदैवता पुत्रराया ।।२५।। जोंवरी होय एक सुत। त्वां रहावें समीपत। निरोप नेदीं तोंवरी सत्य । म्हणोनि विनवी ते वेळीं ।।२६।। माझें वचन लंघूनि। जरी जाशील निघोनि। मी प्राण देईन तत्क्षणीं । हा निश्चय अवधारा ।। २७।। पुत्र नव्हे तूं आम्हांसी । आमुचा कुळदैवत होसी । सत्य करीं गा वचनासी। बोल आपुले दातारा ।।२८।। ऐकोनि मातेचे वचन। श्रीगुरु बोलती हांसोन। आमचा बोल सत्य जाण। तूं हैं वाक्य निर्धारीं पां ।। २९।। तूंतें होतांचि पुत्र दोनी । निरोप द्यावा संतोषोनि। मग न राहें ऐक जननी। बोल आपुले सत्य करीं ।। ३० ।। संवत्सर एक तव घरीं। राहीन माते निर्धारीं । वासना पुरवीन यावरी। मग मज आज्ञा देणें ।।३१।। ऐसें बोलोनि निगुती'। राहिले श्रीगुरु अतिप्रीतीं । वेदाभ्यासें ख्याति । केली शिष्यवर्गांसी ।। ३२ ।। नगरलोक विस्मय करिती । नवल झालें ऐसें बोलती । बाळ पहा वर्षे साती। वेद चारी सांगतसे ।। ३३ ।। विद्वज्जन विद्यार्थी। तीन वेळां पढों येती । सकळशास्त्री जे म्हणविती । तेही येती शिक वया ।। ३४।। येणेंपरी त्या घरीं। राहिले श्रीगुरु प्रीतिकरीं। माता झाली गरोदरी । महानंद करीतसे ।। ३५।। नित्य पूजिती पुत्रासी । देव मानोनि मानसीं। निधान लाधलें एखाद्यासी । काय सांगू संतोष त्यांचा ।। ३६ ।। नवमास होतांचि त्वरित। माता झाली प्रसूत । पुत्र झाले युग्म' ख्यात । अतिसुंदर परियेसा ।।३७।। पुत्र झाले उल्हास थोर । मातापित्या संतोष फार । आशीर्वचन निर्धार । असत्य नव्हे देवाचें ।।३८।। याकारणें गुरुवचन । सत्य माना हो जन। जैसे असेल अंतःकरण । तैसें होईल परियेसा ।। ३९।। ऐशापरी वर्ष एक । त्रिमासी' झाले ते बाळक । खेळवितसे माता ऐक। आले श्रीगुरु त्यांजवळी ।।४० ।। जननी ऐकावें माझे वचना । झाली तव मनकामना । दोघे पुत्र निधाना। पूर्णायुषी जन्मले ।।४१।। आणिक होतील दोघे लेक । त्यानंतर कन्या एक । असाल नांदत अत्यंत सुख । वासना पुरेल तुमची जाणा ।।४२।। आतां आम्हांतें निरोप द्यावें । जातों आम्ही स्वभावें। संतोषरूपी असावें। म्हणोनि निरोप घेती ।।४३।। संतोषोनि मातापिता । चरणांवरी ठेविती माथा। स्वामी आमुची कुलदैवता । अशक्य आम्ही बोलाया ।।४४।। न कळे आम्हां स्वरूपज्ञान । काय ओळखावें पूर्ण। मायामोहें वेष्टोन। आम्ही नेणों महिमा ।।४५।। मायाप्रपंचें वेष्टोनि । तूंतें आम्ही सूत म्हणोनि । निष्ठुर बोलों एके क्षणीं । क्षमा करणें स्वामिया ।।४६।। सहभोजन शयनाशयनीं । तूंतें गांजों कोंडोनि । कडे न घेचि उचलोनि । क्षमा करणें स्वामिया ।।४७।। तारक आमुचे वंशासी । बापा तूं अवतरलासी । प्रदोषपूजा फळासी । आली मातें स्वामिया ।।४८।। आतां आम्हां काय गति । सांगा स्वामी श्रीगुरुमूर्ती। यातायात न पावे वृत्ति । कृपा करीं देवराया ।।४९।। सगरांवरी जैसी गंगा। तों आळशावरी आली वेगा। पावन केलें ममांगा । उभयकुळ बेचाळिस ।।५०।। आम्हां ठेवसी कवणेंपरी। महाधुरंधर संसारीं। तव दर्शन होय जरी। तरीच वांचो आत्मजा ।।५१।। ऐकोनि मातापित्यांचे वचन । श्रीगुरु बोलती आपण जे जे समयीं तुमचें मन। स्मरण करील आमुचें ।।५२।। स्मरण करितां तुम्हांजवळी। येईन मी तात्काळीं। न करीं चिंता वेळोवेळीं । म्हणोन भाक' देतसे ।।५३।। आणिक कन्या पुत्र तिन्ही । होतील ऐक भवानी। दैन्य नाहीं तव भुवनी। सदा श्रीमंत नांदाल ।।५४।। जन्मांतरीं ईश्वरासी । पूजा केली प्रदोषीं। याची महिमा आहे ऐसी । जन्मोजन्मीं श्रियायुक्त ।।५५।। इह जन्मीं सौख्य ऐक । देहांतीं परम लोक। पूजा करितां पिनाक। पुनर्जन्म नसे कीं ।।५६।। त्वां आराधिला शंकर । आम्हां करविला अवतार । वासना पुरविली तुझी जर। आम्हांसी निरोप दे आतां ।। ५७।। पुन्हा दर्शन तुम्हांसी। होईल ऐका वर्षे तीसी। जावोनि बदरीनिवासी । सिद्धदर्शन मी घेतों ।।५८।। निरोप घेवोनि तये वेळां। श्रीगुरू निघाले अवलीळा । नगरलोक येती सकळा । मातापिता बोळविती ।।५९।। म्हणती समस्त नरनारी। तपासी निघाला ब्रह्मचारी । होईल पुरुष अवतारी । मनुष्यदेही दिसताहे ।। ६० ।। एक म्हणती पहा हो नवल । तपासी निघाला बाळ। मातापिता सकळ । निरोप देती कौतुकें ।। ६१।। कैसें यांचें अंतःकरण। जैसा हो का पाषाण । मन करोनि निर्वाण । बोळविती पुत्रासी ।।६२।। एक म्हणती नव्हे बाळ । वंद्य जैसा जाश्वनीळ । अनुमान नसे निश्चळ । वेद केवी म्हणतसे ।।६३।। सात वर्षांचें बाळ देखा। वेद म्हणतो अखिल शाखा । मनुष्यमात्र नव्हे लेखा। ऐसें बोलती साधुजन ।।६४।। ऐसें त्याला बोलोन। करिती साष्टांग नमन। नानापरी स्तोत्रवचन । करिते झाले अवधारा ।। ६५ ।। नमन करोनि सकळिक । आले आपुले गृहांतिक । पुढें जाती जननीजनक । पुत्रासवें बोळवीत ।। ६६।। निजरूप जननीसी । दाविता झाला मातेसी । श्रीपादवल्लभदत्तात्रेयासी । देखते झाले जनकजननी ।।६७।। त्रिमूर्तीचा अवतार। झाला नरहरी नर । निजरूपीं कर्पूरगौर। पाहतां नमी चरणासी ।।६८।। जय जय जगदुरू । त्रिमूर्तीचा अवतारू । आमुचें पुण्य होतें थोरु । म्हणोनि देखिले तुझे चरण ।। ६९।। तूं तारक विश्वासी । आम्हां उद्धरिलें विशेषीं । पुनर्दर्शन आम्हांसी । द्यावें म्हणोनि नमस्कार करिती ।। ७० ।। ऐसें म्हणोनि मातापिता । चरणांवरी ठेविला माथा। आलिंगिती श्रीगुरुनाथा । स्नेहभावें करूनिया ।।७१।। संतोष मानी श्रीगुरुमूर्ति । आश्वासन केलें अतिप्रीतीं । पुनदर्शन हो निश्चिती। देईन म्हणती तये वेळीं ॥७२।। ऐसें तयां संबोखोनि । निरोप घेतला तये क्षणीं । परतोनि गेली जनक जननी। येती संतोषं मंदिरा ।।७३।। वरदमूर्ति गुरुराणा । निघाले जावया बदरीवना । पातले आनंदीकामना । वाराणसी क्षेत्रासी ।।७४।। अविमुक्ता वाराणसी पुरी। क्षेत्र थोर चराचरीं । विश्वेश्वर अवधारीं। अनुपम्य असे त्रिभुवनीं ।।७५।। राहोनिया त्या स्थानीं। अनुष्ठान करिती श्रीगुरुशिरोमणी । विश्वेश्वराचे दर्शनीं । करिती आत्माराम ।। ७६ ।। येणेंपरी त्या स्थानीं। क्वचित्काळ क्रमोनि । अष्टांगयोगें करूनि। तप करिती परियेसा ।।७७।। तया काशीनगरांत । तपस्वी असती आणिक बहुत । संन्यासी येती अवधूत। तप करिती अनुष्ठानें ।।७८।। त्यांमाजी श्रीगुरुब्रह्मचारी । योगाभ्यासधुरंधरी । देखोनिया तापसी येरी। नवल करिती मनांत ।।७९।। म्हणती पहा हो ब्रह्मचारी। तप करितो नानापरी। कैसें वैराग्य याचे उदरीं। ठसावलें असेल निर्लिप्त ।।८०।। शरीरस्वार्थ नाहीं यासी। योगी होय संन्यासी। स्नान करितो त्रिकाळेंसी। मणिकर्णिकेमाझारी ।।८१।। ऐसें अमित स्तोत्र करिती । सकळ संन्यासी दर्शन घेती। वृद्ध होता एक यति । नाम तया कृष्णसरस्वती ।।८२।। तो केवळ ब्रह्मज्ञानी । तपस्वी असे महामुनि । तो देखोनिया नयनीं। स्नेहभावें भावीतसे ।।८३।। म्हणे सकळ यतीश्वरांसी । न म्हणा नरू ब्रह्मचारी यासी । अवतारपुरुष अतितापसी । विश्ववंद्य' दिसतसे ।।८४।। वार्धक्यपण आम्हांसी । वंदितां भूषण सकळांसी। विशेष आम्ही संन्यासी। मूर्ख जन निंदिती ।।८५।। वय धाकुटें जाणोनि। नमन करा हो तुम्ही मनीं। प्रख्यात मूर्ति त्रिभुवनीं। आम्हां वंद्य असे देखा ।। ८६ ।। याकारणें आम्ही यासी । विनवू परोपकारासी। संन्यास देतां समस्तांसी। मति स्थिर होईल ।।८७।। लोकानुग्रहानिमित्त । हा होय गुरू समर्थ । याचे दर्शनमात्रै पतित। पुनीत होती परियेसा ।।८८।। याकारणें बाळकासी। विनवू आम्ही विनयेंसी । आश्रम घ्यावा संन्यासी। पूजा करूं एकभावें ।।८९।। म्हणोनि आले त्याजवळी । विनविताती मुनि सकळी । ऐक तापसी स्तोममौळी । आम्हांलागी उद्धारणें । पूजा घ्यावी आम्हां करीं ।। ९१।। कलियुगीं संन्यासी म्हणोन । निंदा करिती सकळ जन। स्थापना करणार कवण । भूमीवरी न दिसताती ।।९२।। श्लोक ।। यज्ञदानं गवालंभं संन्यासं पलपैतृकम् । देवराच्च सुतोत्पत्ति कलौ पंच विवर्जयेत् ।।९३।। टीका ।। यज्ञदान गवालंभन । संन्यास घेतां अतिदूषण । पलपैतृक घे भ्रातुरंगना । करूं नये म्हणताती ।।९४।। करितां कलियुगांत । निषिद्ध बोलती जन समस्त । संन्यासमार्ग सिद्धान्त। वेदसंमत विख्यात ।।९५।। पूर्वी ऐसें वर्तमानीं। निषिद्ध केलें सकळ जनीं। शंकराचार्य अवतारोनि । स्थापना केली परियेसा ।।९६।। त्यावरी इतुके दिवस । चालत आला मार्ग संन्यास। कलि प्रबळ होतां नाश। पुनरपि निंदा करिताती ।।९७।। आश्रमाचा उद्धार। सकळ जनां उपकार। करावया कृपासागर । म्हणती सकळ मुनिवर ।।९८।। ऐकोनि त्यांची विनंती । गुरुमुनि आश्रम घेती। वृद्ध कृष्णसरस्वती । तयापासोनि परियेसा ।।९९।। ऐसें म्हणती सिद्धमुनि। विनवीतसे नामकरणी। संदेह होतो माझे मनीं। कृपामूर्ति गुरुराया ।।१००।। म्हणती श्रीजगदुरु । यातें झाला आणिक गुरु । त्रिमूर्तीचा अवतारु। कोणेंपरी दिसतसे ।।१।। सिद्ध म्हणे शिष्यासी। सांगेन त्याची स्थिती कैसी । पूर्वी श्रीरघुनाथासी। झाला वसिष्ठ जैसा कीं ।।२।। आठवा अवतार कृष्णासी। सांदीपनी गुरु परियेसीं। अवतार होतांचि मानुषीं । तयापरी रहाटावें ।।३।। याकारणें गुरुमूर्ती। गुरु केला कृष्णसरस्वती । बहुकाळींचा होता यति। म्हणोनि त्यातें मानिले ।।४।। शिष्य म्हणे सिद्धासी। स्वामी कथा निरोपिलीसी । वृद्ध कृष्णसरस्वतीसी । गुरु केलें म्हणोनिया ।।५।। समस्त यतीश्वर मिळोन । तया दिधला बहुमान । कृष्णसरस्वती पूर्वी कोण। कोण गुरूचें मूळपीठ ।।६।। विस्तारोनिया आम्हांसी। निरोपावें कृपेंसी। येणें माझे मानसीं । संतोष होय स्वामिया ।।७।। ऐसें शिष्यें विनवितां । सांगे सिद्ध विस्तारता । मूळपीठ आद्यंता । गुरुसंतति परियेसा ।।८।। पूर्वपीठ शंकरू । त्यानंतर विष्णु गुरु । त्यावरी चतुर्वक्त्रु । गुरुपीठ अवधारी ।।९।। तदनंतर वसिष्ठ गुरु ।तेथोनि शक्ति पराशरु । त्याचा शिष्य व्यास थोरू। जो का अवतार विष्णूचा ।।११०।। तयापासाव शुक जाण । गौडपाद आचार्य सगुण । आचार्य गोविंद तयाहून । पुढें आचार्य शंकर जाहले ।।११।। तेथोनि विश्वरूपवर्या । पुढें ज्ञानबोधनगिरिया । त्याचा शिष्य सिद्धगिरिया । ईश्वरतीर्थ पुढे झाले ।।१२।। तदनंतर नृसिंहतीर्थ । पुढें शिष्य विद्यातीर्थ। शिवतीर्थ भारतीतीर्थ । गुरुसंतति अवधारा ।।१३।। मग त्यापासोनि । विद्यारण्य श्रीपादमुनि । विद्यातीर्थ म्हणोनि । पुढें झाला परियेसा ।।१४।। त्याचा शिष्य मलियानंद । देवतीर्थ सरस्वतीवृंद । तेथोनि सरस्वतीयादवेंद्र । गुरुपीठ' येणेंपरी ।।१५।। यादवेंद्र मुनीचा शिष्य । कृष्णसरस्वती विशेष । बहुकाळींचा होता संन्यास । तेणें विशेष मानिती ।।१६।। येणेंपरी श्रीगुरुनाथ । आश्रम घेती चतुर्थ । संन्यासमार्गस्थापनार्थ । श्रीनृसिंहसरस्वती ।।१७।। समस्त वेदांचा अर्थ । सांगते झाले श्रीगुरुनाथ । म्हणोनि वंदिती समस्त । तया काशीपुरीं ।।१८।। ख्याति झाली अतिगहनी। त्या वाराणसीभुवनीं। यति समस्त देखोनि । सेवा करिती श्रीगुरूची ।।१९।। मग निघाले तेथोनि। बहु शिष्य सर्वे घेवोनि। उत्तरपथ बदरीवनीं। अनंत तीर्थे पहावया ।।१२०।। सव्य घालूनि मेरूसी । तीर्थे नवखंड क्षितीसी। सांगतां विस्तार बहुवसी । ऐक शिष्या नामकरणी ।।२१।। समस्त तीर्थे अवलोकित । सर्वे शिष्य येती बहुत । भूमिप्रदक्षिणा करीत । आले गंगासागरासी ।।२२।। सिद्ध म्हणे नामांकिता। समस्त तीर्थं सांगतां । विस्तार होईल बहु कथा। तावन्मात्र सांगतों ।।२३।। सकळ महिमा सांगावयासी । शक्ति कैची आम्हांसी । अनंत महिमा त्रिमूर्तीसी । गुरुचरित्र परियेसा ।।२४।। गंगासागरापासाव । तटाकयात्रा करिती देव । प्रयागस्थानीं गुरुराव। येते झाले परियेसा ।। २५।। तया स्थानीं असतां गुरु। आला एक द्विजवरू । माधवनामा विप्र थोरू । श्रीगुरुसी भेटला ।। २६ ।। ब्रह्मज्ञान तयासी । उपदेश केला परियेसीं । चतुर्थाश्रम त्यासी। देते झाले परियेसा ।।२७।। नाम माधवसरस्वती । तया शिष्या ठेविती । त्यावरी बहुप्रीति । शिष्यांमध्यें परियेसा ।।२८।। सिद्ध म्हणे नामकरणी । शिष्य झाले बहुतगुणी । अखिल येती नामकरणी । पुढें विचारणी' होईल ।।२९।। गंगाधराचा नंदनु । सांगे गुरुचरित्र कामधेनु । ऐकतां होय महाज्ञानु । लाधती चारी पुरुषार्थ ।।३०।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । श्रीगुरुपरंपरा विख्यात । सांगितला निश्चितार्थ । द्वादश प्रश्नीं श्रोतयांसी ।।१३१।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१२॥
ओवीसंख्या १३१
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक शिष्यराणा । लागे सिद्धाचिया चरणां। करसंपुट जोडोनि जाणा। विनवीतसे परियेसा ।।१।। जय जयाजी सिद्ध मुनी। तूं तारक भवार्णी' । सांगितलें ज्ञान प्रकाशोनि। परिसोनि मना सुख जाहलें ।।२।। गुरुचरित्रकथामृत । सेवितां तृष्णा अधिक होत । शमन करणार समर्थ। तूंचि एक कृपानिधि ।।३।। गुरुचरित्र कामधेनु। सांगितलें तुम्हीं विस्तारोनु । तृप्त नव्हे माझें मनु । आणिक अपेक्षा होतसे ।।४।। क्षुधेनें पीडीलें ढोर । जैसें पावें तृणबिढार' । त्यातें होय मनोहर। न वचे' तेथोनि परियेसा ।।५।। एखादा न देखे तक्र स्वप्नीं । त्यासी मिळे क्षीरबरणी । नव्हे साचें मन धणीं। केवी सोडी तो ठावो ।।६।। तैसा आपण स्वल्पज्ञानी। नेणत होतों गुरू निर्वाणी। अविद्यामाया वेष्टोनि । कष्ट होतों स्वामिया ।।७।। अज्ञानतिमिररजनीसी । ज्योतिः स्वरूप तूंचि होसी । प्रकाश केला गा आम्हांसी। निजस्वरूप श्रीगुरूंचें ।।८।। तुवां केलें उपकारासी । उत्तीर्ण काय होऊं सरसी । कल्पवृक्ष दिल्हीयासी। प्रत्युपकार काय द्यावा ।।९।। एखादा देतां चिंतामणी । त्यासी उपकार काय धरणीं । नाहीं दिल्हें न ऐकों कानी। कृपामूर्ति सिद्धराया ।।१०।। ऐशा तवोपकारासी। उत्तीर्ण न व्हावें वंशोवंशीं। म्हणोनि लागतसे चरणांसी। एकभावें करोनिया ।।११।। स्वामी निरोपिले धर्मार्थ। अधिक झाले मज स्वार्थ । उपजला मज परमार्थ । गुरुभजनीं निरंतर ।।१२।। प्रयागीं असतां गुरुमूर्ति । माधवसरस्वतीस दीक्षा देती। पुढें काय वर्तली स्थिति। ते आम्हांप्रती विस्तारिजे ।।१३।। ऐकोनि शिष्याचें वचन । सिद्ध मुनि संतोषोन । मस्तकीं हस्त ठेवोन। आश्वासित त्या वेळीं ।।१४।। धन्य शिष्या सगुण । तुज लाधले गुरुचरण। संसारतारक भवार्ण। तूंचि एक परियेसा ।।१५।। त्वां ओळखिली गुरुसोय । म्हणोनि बोलती गुरूराय । संतोष होतो आनंदमय । तव प्रश्न ऐकोनिया ।।१६।। सांगेन ऐक एकचित्तें । चरित्र गुरूचें विख्यातें। उपदेशोनि माधवातें । होते तेथें क्वचित्काळ ।।१७।। असतां तेथे वर्तमानीं । प्रख्यात झाली महिमा सगुणी। शिष्य झाले अपार मुनि । मुख्य माधवसरस्वती ।।१८।। त्या शिष्यांची नामें सांगतां । विस्तारेल बहुत कथा। प्रख्यात नामें असती सात । सांगतों ऐक एकचित्तें ।।१९।। बाळसरस्वती कृष्णसरस्वती । उपेंद्र माधवसरस्वती । पांचवा होता आणीक यति । सदानंदसरस्वती देखा ।।२०।। ज्ञानज्योतिसरस्वती एक । सातवा सिद्ध आपण एक। अपार होते शिष्य आणिक। एकाहूनी एक श्रेष्ठ पैं ।।२१।। त्या शिष्यांसमवेत । गुरु लंधित दक्षिणपंथ । समस्त क्षेत्रे पावन करीत । आले करंजनगरासी ।।२२।। भेटी झाली जनकजननी। येवोनि लागती चरणीं । चतुर्वर्ग भ्राताभगिनी । समस्त भेटती स्वामिया ।।२३।। देखोनि गुरुमुर्तिसी। नगरलोक अत्यंत हर्षी। आले सकळ भेटीसी। पूजा करिती परोपरी ।।२४।। घरोघरीं श्रीगुरुसी। पाचारिती भिक्षेसी। आले स्वरूपी बहुवसी। घरोघरीं घेती पूजा ।।२५।। समस्त विस्मय करिती । अवतार विष्णु हा निश्चिती । वेषधारी दिसे यति। परमपुरुष होय जाणा ।। २६ ।। यातें नर जे बोलती । ते जाती नरकाप्रती । कार्याकारण अवतार होती । ब्रह्माविष्णुमहेश ।। २७ ।। जननीजनक येणें रीतीं । पूजा करिती भावभक्तीं । श्रीगुरु झाले श्रीपादयति । झाली स्मृति' जननीसी ।।२८।। जननी देखोनि तये वेळीं । माथा ठेवी चरणकमळीं । सत्यसंकल्प चंद्रमौळी । प्रदोषपूजा फळा आली पैं ।। २९।। पतीस सांगे तये वेळीं । पूर्वजन्मचरित्र सकळीं । विश्ववंद्य पुत्र प्रबळी। व्हावा म्हणोनि आराधिलें ।। ३० ।। त्या श्रीपाद ईश्वराची । पूजा केली मनोवाचीं । प्रसिद्ध झालीं जन्में आमुचीं। सफळ केलें परियेसा ।।३१।। म्हणोनि नमिती दोघे चरणीं । विनविताती करुणावचनीं । उद्धारावें या भवार्णी । जगन्नाथ यतिराया ।।३२।। श्रीगुरू म्हणती त्यांसी । एखाद्या काळीं परियेसी । पुत्र होईल संन्यासी। उद्धरील कुळें बेचाळीस ।। ३३।। त्यासी शाश्वत ब्रह्मलोक । अचढ पद असे एक । त्याचे कुळीं उपजतां देख । ब्रह्मपद शाश्वत त्यासी पैं ।।३४।। यमाचे दुःखे भयातीत । नव्हे त्याचे ऋषि होता अनुष्ठानीं । देखतां धेनु नयनीं। निवाराया तत्क्षणीं । दर्भपवित्र सोडिले संतींत । पूर्वज जरी नरकी असत। त्यांस शाश्वत ब्रह्मलोक ।। ३५ ।। त्या कारणें आम्ही देखा। घेतला आश्रमविशेषा। तुम्हां नाहीं यमाची शंका । ब्रह्मपद असे सत्य ।। ३६।। ऐसें सांगोनि त्यांसी। आश्वासिती बहुवसीं । तुमचे पुत्र शतायुषी। अष्टैश्वर्ये नांदती ।। ३७।। त्या पुत्रां तुम्ही धनी। पहाल सुखें नयनीं। पावाल क्षेत्र काशीभुवनीं। अंतकाळीं परियेसा ।। ३८।। मुक्तिस्थान काशीपुर। प्रख्यात असे वेदशाख । न करीं चिंता अणुमात्र। म्हणोनि सांगती तये वेळीं ।।३९।। त्यांची कन्या असे एक। नाम रत्नाई निःशंक । श्रीगुरूतें नमोनि ऐक । विनवीतसे परियेसा ।।४०।। विनवीतसे परोपरी। स्वामी मातें तारीं तारीं। बुडतें मी भवसागरीं। संसारमाया वेष्टोनिया ।।४१।। निर्लेप करीं मजसी। मग मी जाईन तपासी । ऐकोनिया वचनासीं । गुरू निरोपिती ।।४२।। पतिसेवा करावी । तेणेंच बरवी मोक्षपदवी । पावेल त्यांत न धरावी। अन्य वृत्ति ।।४३।। येणें या भवार्णवासी। कडे पडती परियेसीं। जैसें जैसें भावयासी । तैसें होय परियेसा ।।४४।। उतरावया पैल पार। स्त्रियांसी असे वो भ्रतार। मनीं ठेवी निर्धार । भजावा पुरुष' शिवसम ।।४५।। त्यांसी होय उद्धार गति । वेदपुराणें वाणिती। अंतरीं न करीं खंती । तुज गति होईल ।।४६।। ऐकोनि गुरूचें वचन । विनवीतसे कर जोडून । गुरुमूर्ति ब्रह्मज्ञान। विनवीतसे अवधारा ।।४७।। जाणसी भविष्यभूत । कैसें मातें उपदेशित । माझें प्रारब्ध कवण गत । विस्तारावें मजपुढें ।।४८।। श्रीगुरु म्हणती तियेसी । तव वासना असे तपासी। संचित आपुलें असें भोगासी। भोगणें असे परियेसीं ।।४९।। पूर्वजन्मीं परियेसीं । चरणीं लाथिलें धेनूसी। शेजारी खीपुरुषांसी। विरोध लाविला कलह पैं ।।५०।। त्या दोषास्तव देखा। तुज बाधा असे अनेका। गाय लाथिली तेणें ऐका। सर्वांगीं कुष्ठी होसी ।।५१।। विरोध केला स्त्रीपुरुषांसी। तव पुरुष होईल तापसी। तूंते त्याजील भरंवसीं । अर्जित तव ऐसें असे ।।५२।। ऐकोनि दुःख करी बहुत । श्रीगुरुचरणांवरी लोळत । उद्धारीं गुरुनाथ त्वरित । म्हणोनि चरणीं लागली ।।५३।। श्रीगुरु म्हणती ऐक बाळे । क्वचित्काळें असाल भले । अपरवय होतां काळें। पति तुझा यति होईल ।।५४।। तदनंतर तुझा देह । कुष्ठी होईल आवेव । भोगूनि शुद्ध देह। मग होईल तुज गति ।।५५।। नासतां तुझा देह जाण। भेटी होईल माझी पूर्ण। तव पाप होईल दहन । सांगेन क्षेत्र ऐक पां ।। ५६ ।। भीमातीर दक्षिण देश। तेथें तीर्थ पापविनाश। जाय तेथे भरंवसें। अवस्था तुज घडलियावरी ।। ५७।। या भूमंडळीं विख्यात । असे तीर्थ अतिसामर्थ्य। गंधर्वपुर प्रख्यात । अमरजासंगम प्रसिद्ध पैं ।।५८।। ऐसें सांगोनि तिसी। गुरु निघाले दक्षिणादिशीं । त्र्यंबकनाम क्षेत्रासी । आले गौतमीउद्भव जेथे ।।५९।। शिष्यांसह गुरुमूर्ति। आले नाशिकक्षेत्राप्रती । तीर्थमहिमा असे ख्याति । पुराणांत परियेसा ।।६०।। तीर्थमहिमा सांगतां । विस्तार होईल बहु कथा। संक्षेप सांगेन आतां । तें परियेसीं ।।६१।। त्या गौतमीचा महिमा। सांगतां अपार आम्हां । बहिरार्णव उदक उगमा । ब्रह्मांडाव्यतिरिक्त ।।६२।। जटामुकुटीं सर्वेश्वर। धरीतसे निरंतर । मिळोनि सकळ ऋषीश्वर । उपाय केला परियेसा ।। ६३।। ब्रह्मऋषि गौतम देखा। तपस्वी असे विशेषा। व्रीहि' पेरिलें वृत्ती' ऐका । अनुष्ठानस्थानाजवळी ।।६४।। पूर्वी ऋषी मुनीं सकळीं। नित्य पेरूनि पिकविती साळी। ऐसें त्यांचे मंत्र प्रबळी । महा तपस्वी पुण्यपुरुष ।। ६५।। समस्त ऋषि मिळोनि । विचार करिती आपुलें मनीं। गौतमऋषि महाज्ञानी । मुख्य दास ईश्वराचा ।।६६।। त्यासी घालितां साकडें। गंगा आणील आमुचेकडे । समस्तां आम्हां पुण्य घडे। गंगा आणूनि भूमंडळीं ।। ६७।। श्लोक ।। या गतिर्योगयुक्तानां मुनीनामूध्वरितसाम् । सा गतिः सर्वजंतूनां गौतमीतीरवासिनाम् ।।६८।। टीका ।। ऊध्वरत' मुनीश्वरांसी। कोटिवर्षे तपस्व्यांसी। जे गति होय परियेसीं । ते गति गौतमीतीरस्थां ।।६९।। या कारणें गौतमीसी । आणावें यत्नें भूमंडळासी । सांकडे घालावें गौतमासी। गंगा आणितां आम्हां लाभ ।।७०।। म्हणोनि रचिली माया एक। दुर्वेची गाय सवत्सक । करोनि पाठविली एक। गौतमव्रीहिभक्षणार्थ ।।७१।। ।।७२।। तेंचि दुर्वार जाहलें शस्त्र। धेनुसी लागलें जैसें वज्रास्त्र । पंचत्व पावली त्वरित । घडली हत्या गौतमासी ।।७३।। मिळोनि सर्व ऋषिजन । प्रायश्चित्त देती जाण। गंगा भूमंडळीं आण। यावीण तुज नाहीं शुद्धि ।।७४।। त्या कारणें गौतमऋषीं। तप केलें सहस्र वर्षी । प्रसन्न झाला व्योमकेशीं। वर माग म्हणतसे ।। ७५।। गौतम म्हणे सर्वेश्वरा। मज प्रसन्न झाला दातारा । उद्धारावया चराचरा। गंगा द्यावी भूमंडळीं ।। ७६ ।। गौतमाचे विनंतीसी। निरोप दिधला गंगेसी। घेवोनि आले भूमंडळासी । पापक्षालनार्थ मनुष्यांचे ।। ७७।। ऐसी गंगाभागीरथी। कोणा वर्णवे सामर्थी । याचि कारणें गुरुमूर्ति । आले ऐक नामधारका ।। ७८।। ऐसी गौतमी तटाकयात्रा। श्रीगुरू आचरती पवित्रा । पुढें लोकानुग्रहमात्रा । आपण हिंडत ।। ७९ ।। तटाकयात्रा करितां देखा। आले श्रीगुरू मंजरिका । तेथें होता मुनि एका । विख्यात माधवारण्य ।।८०।। सदा मानसपूजा त्यासी । नृसिंहमूर्ति परियेसीं। देखता झाला श्रीगुरूसी । मानसमूर्ति जैसी देखे ।।८१।। नमिता झाला श्रीगुरूसी । स्तोत्र करी बहुवसी। विस्मित होऊनि मानसी । अतिभक्ती करोनिया ।।८२।। श्लोक ।। यद्दिव्यपादद्वयमेव लक्षितं देवैर्न दृष्टं तदिदं समीपे । यदुत्तरे तीरनिवासमानं लक्ष्मीसमीपे निवसद्विनीतम् ।।१।। टीका ।। येणेंपरी श्रीगुरूसी । विनवी माधवारण्य हीं। श्रीगुरु म्हणती संतोषीं। तया माधवारण्यासी देखा ।।८३।। श्लोक ।। अत्यंतमार्गास्थितिमार्गरूपमत्यंतयोगेरधिगम्य तत्त्वम् । मार्गं च मार्ग च विचिन्वतो मे मार्गोदयं माधव दर्शये ते ।।८४।। ऐसें गुरूचें स्वरूप । देखोनि तयासी सुख अमूप' । आश्वासोनि निजरूप । दाविते झाले परियेसा ।।८५।। श्रीगुरुस्वरूप देखोनि । संतुष्ट झाला तो मुनि । विनवीतसे कर जोडोनि । नानापरी स्तुति करी ।।८६।। जय जय जगद्गुरू । त्रिमूर्तीचा अवतारू । लोकां दिसतोसी नरू । परमपुरुषा जगन्नाथा ।।८७।। तूं तारक विश्वासी । म्हणोनि भूमीं अवतरलासी । कृतार्थ केलें आम्हांसी । दर्शन देवोनि चरणांचें ।।८८।। ऐसें परी श्रीगुरूसी। स्तुति करी तो तापसी । संतोषोनि अति हर्षी । आश्वासिलें त्या वेळीं ।।८९।। म्हणती श्रीगुरू त्यासी । सिद्धि झाली तव मंत्रासी । तव सदूति भरंवसीं । ब्रह्मलोकीं होय ।।९०।। नित्यपूजा तूं मानसीं। करिसी नृसिंहमूर्तीसी। प्रत्यक्ष' होईल परियेसीं। न करीं संशय मनांत ।।९१।। ऐसें सांगोनि त्यासी। श्रीगुरू निघाले परियेसीं। आले वासरब्रह्मेश्वराशी। गंगातीर महाक्षेत्र ।।९२।। त्या गंगातटाकात । श्रीगुरू समस्त शिष्यांसहित । स्नान करितां गंगेंत । आला विप्र एक त्या स्थळीं ।।९३।। कुक्षिव्यथा असे बहुत । तटाकीं असे लोळत । उदरव्यथा अत्यंत । त्यजूं पाहे प्राण देखा ।।९४।। पोटव्यथा बहु त्यासी । नित्य करी तो उपवासासी। भोजन केलिया दुःखे ऐसी। प्राणांतिक होतसे ।।९५।। या कारणें द्विजवर । सदा करी फलाहार । अन्नासी त्यासी असे वैर। जेवितां प्राण त्यजूं पाहे ।।९६।। पक्षमासां भोजन करी । परम व्यथा असे त्याचे उदरीं। ऐसें किती दिवसांवरी। कष्टत होता तो द्विज ।। ९७।। पूर्वदिनीं त्या ग्रामीं। असे सण महानवमी। जेविला मिष्टान्नें नेमीं। मास एक पारणें केलें ।।९८।। भोजन केलें अन्न बहुत । त्याणें पोट असे दुखत। गंगातीरीं असे लोळत । प्राण त्वरित त्यजूं पाहे ।।९९।। दुःख करी द्विज अपार । म्हणे गंगेत त्यजीन शरीर। नको आतां संसार । पापरूपें वर्ततों ।। १००।। अन्न प्राण अन्न जीवन। कोण असेल अन्नावीण। अन्न वैरी झालें जाण। मरण बरवें आतां मज ।।१।। मनीं निर्धार करोनि। गंगाप्रवेश करितों म्हणोनि। पोटीं पाषाण बांधोनि। गंगेमध्यें निघाला ।।२।। मनीं स्मरे कर्पूरगौर। उपजूनि आपण भूमिभार। केले नाहीं परोपकार। अन्नदानादिक देखा ।।३।। न करीं पुण्य इह जन्मांत । जन्मांतरीं पूर्व शत। पुण्यफळ नसे दिसत। मग कष्ट भोगीतसें ।।४।। ग्राम हरिले ब्राह्मणाचे। किंवा धेनु कपिलेचे। घात केलिया विश्वासियाचे। मग हे कष्ट भोगीतसें ।।५।। अपूर्ती पूजा ईश्वराची । केली असे निंदा गुरूची। अवज्ञा केली मातापित्यांची । मग हे कष्ट भोगितों ।।६।। अथवा मारिलें पशूसी । अग्नि घातिला रानासी। वेगळे सांडूनि जनकजननींसी। स्त्रियेसहित वेगळा होतों ॥७।। अथवा पूर्वजन्मीं आपण । केलें असे द्विजां धिक्करण । अतिथि आलिया न घालीं अन्न। वैश्वदेव-समयासी ।।८।। मातापिता त्यजोनिया । होतों सुखें जेवोनिया। पूर्वजन्मापासोनिया। मग हे कष्ट भोगितों ।।९।। ऐशीं पायें आठवीत। विप्र जातो गंगेत । तंव देखिती गुरुनाथ। म्हणती बोलवा ब्राह्मणासी ।।११०।। आणा आणा हो तयासी । आत्महत्या महादोषी । प्राण त्यजितो कां सुर्खेसी । पुसों कोण कवणाचा ।।११।। श्रीगुरुवचन ऐकोनि । गेले शिष्य धावोनि । द्विजवरातें काढोनि । आणिला श्रीगुरुसन्मुख ।।१२।। अनाथासी कल्पतरू । दुःखितासी कृपासागरू । पुसतसे श्रीगुरू। तया विप्रवरासी ।।१३।। श्रीगुरू म्हणती तयासी। प्राण कां त्यजूं पाहसी। आत्महत्या महादोषी। काय वृत्तान्त सांग आम्हां ।।१४।। विप्र म्हणे गा यतिराया। काय कराल पुसोनिया। उपजोनिया जन्म वाया। भूमिभार जाहलों ।।१५।। मासां पक्षां भोजन करितों। उदरव्यथेनें कष्टतों। साहूं न शकें प्राण देतों। काय सांगावे स्वामिया ।।१६।। आपणासी अन्न वैरी असतां । केवी वांचावें गुरुनाथा । शरीर अन्नमय तत्त्वतां । केवी वाचूं जगदुरु ।।१७।। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी । तुझी व्यथा गेली परियेसीं। औषध असे आम्हांपासीं। क्षण एक सांगों तुज ।।१८।। संशय न घरीं आपुले मनीं। भिऊं नको अंतःकरणीं। व्याधि गेली पळोनि । भोजन करीं पोटभरी ।।१९।। श्रीगुरुवचन ऐकोनि । स्थिर झाला अंतःकरणीं । माथा ठेवोनि श्रीगुरुचरणीं । नमन केलें त्या वेळीं ।।१२० ।। इतुकिया अवसरीं। त्या ग्रामाचा अधिकारी। विप्र एक अवधारी । आला स्नाना गंगेसी ।।२१।। तंव देखिलें गुरूसी । येवोनि लागला चरणांसी। नमन केलें भक्तींसी। मनोवाक्कायकर्मे ।।२२।। आश्वासोनि तये वेळीं । पुसती श्रीगुरू स्तोममौळी। कवण नाम कवणें स्थळीं । घास म्हणती तयासी ।।२३।। ऐकोनि श्रीगुरूचें वचन । सांगतसे तो ब्राह्मण। गोत्र आपुलें कौंडिण्य। आपस्तंब शाखा असे ।।२४।। नाम सार्यदेव ऐसें । वास कांचींत राहतसें । आलों उदरपूर्ती असें । सेवा करितों यवनाची ।।२५।। अधिकारपणें या ग्रामीं। असो संवत्सर एक स्वामी। धन्य धन्य झालों आम्ही । तव दर्शनमात्रेसी ।। २६ ।। तूं तारक विश्वासी । दर्शन दिधलें आम्हांसी। कृतार्थ झालों भरंवसीं । जन्मांतरींचे दोष गेले ।। २७।। तवानुग्रह' होय ज्यांसी । तरतील या भवार्णवासी। अप्रयत्नें आम्हांसी। दर्शन दिधलें स्वामिया ।। २८ ।। श्लोक।। गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा । पापं तापं च दैन्यं च हरेच्छ्रीगुरुदर्शनम् ।।२९।। टीका।। गंगा देखितां पायें जाती। चंद्रदर्शनें ताप जाती । कल्पतरूची ऐशी गति । दैन्यावेगळे करी जाण ।।१३०।। तैसे नव्हे तुमचे गुण। पापतापदैन्यहरण । देखिले आजि तुमचे चरण । चतुर्वर्गफळ पावलों ।॥३१।। ऐशी स्तुति करोनि । पुनरपि लागे श्रीगुरुचरणीं । जगदुरु आश्वासोनि। निरोप देती तये वेळीं ।।३२।। श्रीगुरू म्हणती त्यासी। आमुचें वाक्य परियेसीं । जठरव्यथा या विप्रासी। प्राणत्याग करितसे ।। ३३।। उपशम त्या व्याधीसी। सांगों औषध तुम्हांसी। नेवोनि आपुले मंदिरासी । भोजन करवीं मिष्टान्न ।।३४।। अन्न जेवितां याची व्यथा । व्याधी न राहे सर्वथा। घेवोनि जावें त्वरिता । क्षुधाक्रांत विप्र असे ।।३५।। ऐकोनि श्रीगुरूचें वचन । विनवीतसे कर जोडून । प्राणत्याग करितां भोजन। ऐसी व्यथा होतसे ।।३६।। जेंविला काल मासें एक । त्याणें प्राण त्यजीतसे एक। अन्न देतां आम्हांसी देख । घडेल हत्या त्वरित पैं ।।३७।। श्रीगुरू म्हणती सायंदेवासी । आम्ही औषध देतों त्यासी। अपूपादि माषान्नासी । क्षीरमिश्रित परमान्न ।।३८।। अन्न जेवितां त्वरेंसी। व्याधि जाईल परियेसीं । संशय न धरितां मानसीं। त्वरित गृहासी नेई वेगें ।।३९।। अंगिकारोनि तये वेळीं । माथा ठेवी चरणकमळीं । विनवीतसे करुणा बहाळी। यावें स्वामी भिक्षेसी ।।१४०।। अंगिकारोनि श्रीगुरुनाथ। निरोप देती हो कां त्वरित। सिद्ध म्हणे ऐक मात। नामधारक शिष्यात्तमा ।।४१।। आम्ही होतों तये वेळीं । समस्त शिष्य सकळीं। जठरव्यथेचा विप्र जवळी । श्रीगुरू गेले भिक्षेसी ।।४२।। विचित्र झालें त्याचे घरीं। पूजा करिती परोपरी। पतिव्रता त्याची नारी। जाखाई म्हणिजे परियेसा ।।४३।। ते पूजिती गुरुसी । षोडशोपचारें परियेसीं । तेणेंचि रीतिये आम्हांसी। शिष्या सकळीं वंदिले ।।४४।। गुरुपूजेचें विधान । विचित्र केलें अतिगहन । मंडळ केलें रक्तवर्ण। एकएकासी पृथके देखा ।।४५।। पद्म रचोनि अष्टदळी। नानापरी रंगमाळी । पंचवर्ण विचित्र कळी। रचिली तिये परियेसा ।।४६ ।। संकल्पोनि विधीसी। नमन केलें साष्टांगेंसी । माथा ठेवूनि चरणन्यासीं । पाद सर्वही अष्टांगीं ।।४७।। चित्रासन गुरूसी । येणेंचि परी सकळिकांसी। मंडळार्चनविधीसी । करिती गंधपुष्पाक्षता ।।४८।। षोडशोपचारें विधींसीं। पंचामृतादि परियेसीं । रुद्रसूक्तमंत्रंसी। चरण स्नापिले तये वेळी ।।४९।। श्रीगुरुचरणीं अतिहर्षी । पूजा करिती षोडशी। तया विप्रा प्रज्ञा कैसी। चरणतीर्थ धरिता झाला ।।१५०।। तया चरणतीर्थासी । पूजा करिती भक्तींसी। गीतवाद्य आनंदेंसी। करिती आरती निरांजन ।।५१।। अनुक्रमें श्रीगुरुपूजा । करिता झाला तो द्विज । पुनरपि षोडशोपचारें वोजा । पूजा करी भक्तीनें ।। ५२।। अक्षय वाणें आरती । श्रीगुरुसी ओवाळिती । मंत्रघोष अतिभक्तीं। पुष्पांजळी करिता झाला ।।५३।। अनेकपरी गायन करी । नमस्कारी प्रीतिकरीं । पतिव्रता असे नारी। पूजा करिती उभयवर्गे ।।५४।। ऐशापरी श्रीगुरुसी। पूजा केली परियेसीं । येणें विधीं शिष्यांसी। समस्तांसी वंदिलें ।।५५।। संतोषोनि श्रीगुरुमूर्ति । अतिहर्षी वर देती। तव संतति होईल ख्याति । गुरुभक्ति वंशोवंशी ।।५६।। तूं जाणसी गुरुस । अभिवृद्धि वंशास । पुत्रपौत्रां हर्ष। गुरुभक्तीनें घडे ।।५७।। ऐसें बोलोनि द्विजासी । आश्वासिती अतिहर्षी । नमन करोनि श्रीगुरूसी। ठाय घातले द्विजे त्या वेळीं ।।५८।। नानापरींची पक्वान्नें । अपूपादि माषान्नें । अष्टविध परमान्नें। शर्करासहित निवेदिलीं ।। ५९।। शाकापाक नानापरी। वाढताती सविस्तारीं। भोजन करी प्रीतिकरीं। श्रीगुरु परियेसा ।।१६०।। उदरव्यथेच्या ब्राह्मणें । भोजन केलें परिपूर्ण। व्याधि गेली तत्क्षणें । श्रीगुरुचे कृपादृष्टीं ।।६१।। परिस लागतां लोहासी। सुवर्ण होय परियेसीं। दर्शन होतां श्रीगुरुसी । व्याधि कैची सांग मज ।।६२।। उदय होतां दिनकरासी। संहार होय अंधकारासी। श्रीगुरुकृपा होय ज्यासी। दैन्य कैचें तया घरीं ।। ६३।। ऐसेपरीं श्रीगुरुनाथें । भोजन केलें शिष्यासहित । आनंद झाला तेथें बहुत । विस्मय करिती सकळ जन ।।६४।। अभिनव करिती सकळ जन । द्विजासी होतें वैरी अन्न। औषध झालें तेंचि जाण। व्याधि गेली निघोनि ।।६५।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी । गुरुकृपा होय ज्यासी। जन्मांतरींचे दोष जाती। व्याधि कैची त्याचे देहीं ।। ६६ ।। गंगाधराचा नंदनु । सरस्वती सांगे विस्तारोनु। गुरुचरित्र कामधेनु । ऐका श्रोते एकचित्तें ।॥६७।। जे ऐकती भक्ति धरूनि । व्याधि नसती तया स्थानीं । अखिल सौख्य होय त्या जनीं। सत्य सत्य त्रिवाचा ।।६८।। इति गुरुचरित्रामृत । श्रीगुरूचरित्रवर्णन येथ। ब्राह्मण व्याधि निरसोनि त्वरित । सुखी केला श्रीगुरुनें ।।१६९।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१३॥
ओवीसंख्या १६९
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक शिष्य देखा। विनवी सिद्धासी कौतुका । प्रश्न करी अतिविशेखा'। एकचित्तें परियेसा ।।१।। जय जयाजी योगीश्वरा । सिद्धमूर्ती ज्ञानसागरा। पुढील कथा विस्तारा। ज्ञान होय आम्हांसी ऐसी ।।२।। उदरव्यथेच्या ब्राह्मणासी । प्रसन्न झाले श्रीगुरु कृपेंसी। पुढे कथा वर्तली कैसी। विस्तारावें आम्हांप्रती ।।३।। ऐकोनि शिष्याचें वचन । संतोषे सिद्ध आपण । गुरुचरित्र कामधेनु जाण । सांगता झाला विस्तारोनि ।।४।। ऐक शिष्या शिरोमणी । भिक्षा केली त्याचे भुवनीं। तयावरी संतोषोनि । प्रसन्न झाले परियेसा ।।५।। गुरुभक्तिचा प्रकार। पूर्ण जाणे द्विजवर । पूजा केली विचित्र । म्हणोनि आनंदें परियेसा ।।६।। तया सायंदेव द्विजासी। श्रीगुरु बोलती संतोषर्षी । भक्त व्हावें वंशोवंशी। माझी प्रीती तुजवरी ।।७।। ऐकोनि श्रीगुरूंचें वचन । सायंदेव नमन करुन । माथा चरणीं ठेवून। नमिता झाला पुनः पुनः ।।८।। जय जयाजी सदूरु । त्रिमूर्तीचा अवतारु । अविद्यामायें दिससी नरु । वेदां अगोचरु तुझा महिमा ।।९।। विश्वव्यापक तूंचि होसी । ब्रह्मा विष्णु व्योमकेशी'। धरिलें स्वरूप तूं मानवासी। भक्तजन तारावया ।।१०।। तव महिमा वर्णावयासी। शक्ति कैची आम्हांसी। मागणे एक तुम्हांसी। कृपा करणें गुरुमूर्ती ।।११।। माझे वंशपरंपरीं। भक्ति द्यावी निर्धारीं। इह सौख्य पुत्रपौत्री। अंती द्यावी सद्गति ।।१२।। ऐशी विनंती करूनी । पुनरपि विनवी करुणावचनीं। सेवा करितों द्वारीं यवनी। महाक्रूर असे तो ।।१३।। प्रतिसंवत्सरीं ब्राह्मणांसी । घात करितो जो बहुवर्सी। याचि कारणें आम्हांसी। बोलावीतसे परियेसा ।।१४।। जातां तयाजवळी आपण । निश्चयें घेईल माझा प्राण। भेटी झाली तुमची म्हणोन। मरण कैचें आम्हांसी ।।१५।। संतोषोनि श्रीगुरुमूर्ति। अभय देती तयाप्रती । विप्रमस्तकीं हस्त ठेविती। चिंता न करी म्हणोनिया ।।१६।। भय सांडूनि त्वां जावें । क्रूर यवनातें भेटावें । संतोषोनि प्रियभावें । पुनरपि पाठवील आम्हांप्रती ।।१७।। जोंवरी परतोनि तू येसी । असों आम्ही भरंवसीं । तूं आलिया संतोषीं। जाऊं मग येथोनिया ।।१८।। निजभक्त आमुचा तूंचि होसी । परंपरीं वंशोवंशीं । अखिलाभीष्ट तूं पावसी। वाढे संतति तुझी बहुत ।।१९।। तुझे वंशपरंपरीं । सुखें नांदती पुत्रपौत्रीं। अखंड लक्ष्मी तुझे घरीं। निरोगी शतायु नांदाल ।।२०।। ऐसा वर लाघोन। निघे सायंदेव ब्राह्मण । जेथे होता तो यवन । गेला त्वरित त्याजवळी ।।२१।। कालांतक यम देखा। यवन दुष्ट परियेसा । ब्राह्मणातें पाहतां कैसा। ज्वालारूप होता झाला ।। २२ ।। विन्मुख होऊनि गृहांत। गेला यवन कोपत । विप्र झाला भयचकित । मनीं श्रीगुरु ध्यातसे ।।२३।। कोप आलिया ओळंबयासी। केवी स्पर्से अग्नीसी। श्रीगुरुकृपा असे जयासी । काय करील यवन दुष्ट ।।२४।। गरुडाचिया पिलीयासी। सर्प कैसा डंसी। तैसी त्या ब्राह्मणासी। असे कृपा श्रीगुरूची ।।२५।। कां एखादे सिंहासी। ऐरावत केवी ग्रासी। श्रीगुरुकृपा ज्यासी। कलिकाळाचें भय नाहीं ।। २६ ।। ज्याचे हृदयीं गुरुस्मरण। भय कैचें तया दारुण । काळमृत्यू' न बाधे जाण। अपमृत्यू काय करील ।।२७।। ज्यासी नाहीं मृत्यूचे भय । त्यासी यवन करील काय। श्रीगुरुकृपा ज्यासी होय । यमाचें भय नाहीं तया ।।२८।। ऐसियापरी तो यवन। गृहीं निघाला भ्रमेंकरून। दृढ निद्रा लागतां जाण । शरीरस्मरण नाहीं त्यासी ।।२९।। हृदयज्वाळा होवोनि त्यासी। जागृत होवोनि परियेसीं। प्राणांतक व्यथेसी । कष्टतसे तये वेळीं ।। ३० ।। स्मरण नसे कांहीं। म्हणे शस्त्र मारितों घाई। छेदन करितो अवेव पाहीं। विप्र एक आपणासी ।।३१।। स्मरण झालें तये वेळीं । धावत गेला ब्राह्मणाजवळी । लोळतसे चरणकमळीं। म्हणे स्वामी तूंचि माझा ।।३२।। तूंतें पाचारिलें येथे कवणीं । जावें त्वरित परतोनि। वखें भूषणें देवोनि। निरोप देत तये वेळीं ।। ३३।। संतोषोनि द्विजवर । आला ग्रामी सत्वर। गंगातीरीं जाय लवकर । श्रीगुरूचे दर्शनासी ।। ३४।। देखोनिया श्रीगुरुसी। नमन करी भावेंसी । स्तोत्र करी बहुवसी । सांगे वृत्तान्त आद्यंत ।। ३५ ।। संतोषोन श्रीगुरुमूर्ति । तया द्विजा आश्वासिती। दक्षिण दिशे जाऊं म्हणती । स्नान तीर्थयात्रेसी ।। ३६ ।। ऐकोनि श्रीगुरूचें वचन । विनवीतसे कर जोडून । न विसंबें आतां तुमचे चरण । आपण येईन समागमें ।। ३७।। तुमचे चरणाविणें देखा। राहूं न शके क्षण एका। संसारसागरतारका। तूंचि देवा कृपासिंधू ।।३८।। उद्धराया सगरांसी। गंगा आली भूमीसी। तैसा स्वामी आम्हांसी। दर्शनें उद्धार आपुल्या ।।३९।। भक्तवत्सल तुझी ख्याति । आम्हां सांडणें काय नीति। सवेंचि येऊं हें निश्चिती। म्हणोनि चरणीं लागला ।।४०।। येणेंपरी श्रीगुरूसी। विनवी विप्र भावेंसी। संतोषोनि विनयेंसी। श्रीगुरु म्हणती तये वेळीं ।।४१।। कारण असे आम्हां जाणें । तीर्थे असती दक्षिणे। पुनरपि तुम्हां दर्शन देणें। संवत्सरीं पंचदशीं ।।४२।। आम्ही तुमचे ग्रामासमीपत। वास करूं हे निश्चित । कलत्र पुत्र इष्ट भ्रात । तुम्हीं आम्हां भेटावें ।।४३।। न करीं चिंता असां सुखें । सकळ अरिष्ट गेली दुःखें । म्हणोनि हस्त ठेवी मस्तकीं। भाक देती तये वेळीं ।।४४।। ऐसेंपरी सांगोनि । श्रीगुरु निघाले तेथोनि । जेथे असे आरोग्यभवानी। वैजनाथ महाक्षेत्र तें ।।४५।। समस्त शिष्यांसमवेत । श्रीगुरु आले तीर्थ पहात । प्रख्यात असे वैजनाथ । तेथे राहिले गुप्तरूपें ।।४६।। नामधारक विनवी सिद्धासी । कारण काय गुप्त व्हावयासी । होते शिष्य बहुवसी । त्यांसी कोठें ठेविलें ।।४७।। गंगाधराचा नंदन। सांगे गुरुचरित्रवर्णन । सिद्धमुनि विस्तारोन । सांगे नामधारकासी ।।४८ ।। पुढील कथेचा विस्तार। सांगतसे अपरंपार। मन करूनि एकाग्र । ऐका श्रोते सकळिक ।।४९।। वास सरस्वतीचे तीरीं । सायंदेव साचारी। तया गुरूतें निर्धारीं। वस्खें भूषणें दीधलीं ।। ५० ।। गुरुचरित्र अमृत । सायंदेव आख्यान येथ । यवनभयरक्षित। थोर भाग्य तयाचें ।।५१।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१४॥
ओवीसंख्या ५१
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । ऐक शिष्या शिरोमणी। धन्य धन्य तुझी वाणी। भक्ति तुझी गुरुचरणीं । लीन' झाली परियेसा ।।१।। तूं मातें पुसतोसी । होतो संतोष मानसीं। गौप्य झाले कवण कार्यासी। सांगेन ऐक एकचित्तें ।।२।। महिमा प्रगट झाला बहुत । तेणें भजनीं लोक समस्त । कामार्थी ते अमितः । येती गुरुदर्शनासी ।।३।। साधु असाधु धूर्त सकळी। समस्त येती गुरुजवळी । वर्तमानी खोटा कळी। अवघे शिष्य होऊं म्हणती ।।४।। भार्गवराम अवतारोनि । निःक्षत्र केली मेदिनी । राज्य विप्रांसी देऊनीं। गेला पश्चिमसमुद्रासी ।।५।। पुनरपि जाती तयापासीं । तोही ठाव मागावयासी । या कारणें विप्रांसी। कांक्षा न सुटे सर्वथा ।।६।। उठोनि भार्गव देखा। गेला सागरमध्योदका। गौप्यरूपें असे ऐका । आणिक मागती म्हणोनिया ।।७।। तैसे श्री गुरुमूर्ति ऐका। गुप्त राहिले कारणिका । वर मागती सकळ लोका । नाना याती' येवोनिया ।।८।। विश्वव्यापक जगदीश्वर। तो काय देऊं न शके वर। पाहोनि पात्रानुसार। प्रसन्न होय परियेसा ।।९।। या कारणें तये स्थानीं। श्रीगुरु राहिले गौप्यगुणीं। शिष्य सकळ बोलावुनी। निरोप देती यात्रेसी ।।१०।। सकळ शिष्य बोलावुनी । निरोप देती नृसिंहमुनि । समस्त तीर्थे आचरोनि। यावें भेटी श्रीशैल्या ।।११।। ऐकोनि गुरूचें वचना। समस्त धरिती चरणा। कृपामूर्ति गुरुराणा। कां उपेक्षा आम्हांसी ।।१२।। तुमच्या दर्शनमात्रेसी । समस्त तीर्थे आम्हांसी । आम्हीं जावें कवणे ठायासी। सांडोनि चरण श्रीगुरूंचे ।।१३।। समस्त तीर्थे श्रीगुरुचरण । ऐसें बोलती श्रुतिपुराण । शास्त्रीं हेंचि विवरण। असे प्रख्यात परियेसा ।।१४।। जवळी असतां निधान। कां हिंडावें रानोरान । कल्पवृक्ष सोडून । केवी जावें देवराया ।।१५।। श्रीगुरू म्हणती शिष्यांसी। आम्ही आश्रमी संन्यासी। राहू नये पांचवे दिवशीं । एके ठायीं वास करूनि ।।१६।। चतुर्थाश्रम घेवोनि । हिंडावें तीर्थभुवनीं । तेथे मन स्थिर करोनि । मग रहावें एकस्थानीं ।।१७।। विशेष आमुचें वाक्य ऐक। अंगिकारणें अधिक। तीर्थे हिंडोनि सकळिक । मग यावें आम्हांपासी ।।१८।। बहुधान्य नाम संवत्सरासी । आम्ही येऊं श्रीशैल्यासी। तेथें आमुचे भेटीसी । यावें तुम्हीं सकळिक ।।१९।। ऐसेंपरी शिष्यांसी। सांगती श्रीगुरू परियेसीं। समस्त लागती चरणांसी । ऐक शिष्या नामकरणी ।।२०।। शिष्य विनविती श्रीगुरूसी । तुमचें वाक्य प्रमाण आम्हांसी। जातों आम्ही भरंवसीं । करूं तीर्थे भूमीवरी ।।२१।। श्रीगुरुवाक्य जो न करी। तो पडे रौरव घोरीं। त्याचें घर यमपुरीं। अखंड नरक भोगी जाण ।।२२।। जावें आम्हीं कवण तीर्था। निरोपावें जी समर्था । तुझें वाक्य दृढ चित्ता। करूनि जाऊं स्वामिया ।।२३।। जे जे स्थानीं निरोप देसी। जाऊं तेथे भरंवसीं । तुझे वाक्य आम्हांसी। सिद्ध होय स्वामिया ।।२४।। ऐकोनि शिष्यांचें वचन । श्रीगुरुमूर्ति प्रसन्नवदन । निरोप देती साधारण । तीर्थयात्रा करावया ।।२५।। या ब्रह्मांडगोलांत । तीर्थराज काशी विख्यात । तेथें जावें तुम्हीं त्वरित । गंगाभागीरथी सेवावया ।। २६ ।। भागीरथीतटाकयात्रा' । साठ योजनें पवित्रा। साठ कृच्छ्र फळ पवित्रा । प्रयाग गंगाद्धारीं द्विगुणः ।।२७।। यमुनानदीतटाकेसी । पंचवीस गांवें परियेसीं। कृच्छ्रफळ तेथे विशेषीं। एकचित्तें अवधारा ।। २८।। सरस्वती म्हणजे गंगा । भूमीवरी असे चांगा। चतुर्विंशती गांवें जागा। स्नान करावें तटाकीं ।। २९।। इतुकेनि फळ त्यांसी। यज्ञाचें फळ परियेसीं । ब्रह्मलोक शाश्वतेसी। राहे नर पितरांसहित ।। ३० ।। करुणानदी कुशावर्ती । श्रुत कृष्णा वेणी ख्याती । वितस्ता नदी शरावती। असती नद्या मनोहर ।।३१।। मरुवृद्धा नद्या थोर। असिक्नी मधुमती येर। पयस्वती घृतवतीतीर । तटाकयात्रा तुम्ही करा ।। ३२।। देवनदी म्हणजे एक। असे ख्याति भूमंडळीक । पंधरा गांवें तटाक । यात्रा तुम्हीं करावी ।। ३३ ।। जितुके गांव तितुकें कृच्छ्र । स्नानमात्रे पवित्र । जाती ब्रह्महत्यादि पापें विचित्र। मनोभावें आचरावें ।। ३४।। चंद्रभागा रेवतीसी। शरयू आणि गौतमीसी। वेदिका नदी कौशिकेसी । नित्यजल मंदाकिनी ।। ३५।। सहस्रवक्त्र नदी थोर । पूर्णायुष्य नदी थोर। बहुधा नदी वरुणा प्रखर । षोडश गांवें तटाकयात्रा ।। ३६।। जेथे नदीसंगम असती । तेथील स्नानें पुण्य अमिती । त्रिवेणी स्नानफळे असती । संगमनदीं स्नान करा ।।३७।। सेतुबंध भीमेंश्वरीं। श्रीरंग पद्मनाभेश्वरीं। पुरुषोत्तम मनोहरी । नैमिषारण्यीं तीर्थ असे ।।३८।। पुष्करतीर्थ वैरोचनी। सन्निहित असे ज्ञानी। नदीतीर्थ असे गुणी। गंगातीर्थी स्नान करा ।। ३९।। बदरीतीर्थ नारायण । नदीतीर्थ पुण्यपावन । कुरुक्षेत्रीं करा स्नान । श्रीशैल्ययात्रेसी ।।४०।। महालयतीर्थ देखा। विप्रांप्रती तर्पणें ऐका । द्विचत्वारि कुळें निका। स्वर्गा जाती भरंवसीं ।।४१।। केदारतीर्थ पुष्करतीर्थ। कोटितीर्थ नर्मदातीर्थ । मातृकेश्वर कुब्जतीर्थ । कोकामुखी विशेष असे ।।४२।। प्रसादतीर्थ विजयतीर्थ । पुरींद्र चंद्रनदीतीर्थ। गोकर्ण शंखकर्ण ख्यात । स्नान बरवें मनोहर ।।४३।। अयोध्या मथुरा कांचीसी। द्वारावती गयेसी । शालिग्रामतीर्थासी । शबलग्राम मुक्तिक्षेत्र ।।४४।। गोदावरीतटार्केसी । योजनें सहा परियेसीं । तेथील महिमा आहे ऐसी । वाजपेययज्ञसम पुण्य ।।४५।। सव्यापसव्य वेळां तीनी । तटाकयात्रा एकाग्रपणीं । स्नान करितां होय ज्ञानी। महापातकी शुद्ध होय ।।४६।। आणिक दोन तीर्थे असती । प्रयागसमान असे ख्याति । भीमेश्वर तीर्थ म्हणती । वंजरासंगम प्रख्यात ।।४७।। कुशतीर्थ तर्पण बरवें । तटाकयात्रा द्वादश गांवें। गोदावरीसंगमा जावें । षट्त्रिगुणेंसी कृच्छ्रफळ ।।४८।। पूर्णनदीतटाकेंसी। चारी गांवें आचरा हर्षी । कृष्णावेणीतीरासी। पंधरा गांव तटाकयात्रा ।।४९।। तुंगभद्रातीर बरवें । तटाकयात्रा वीस गांवें । पंपासरोवर स्वभावें । अनंतमहिमा परियेसा ।।५०।। हरिहरक्षेत्र महाख्याति । समस्त दोष परिहरती । तैसीच असे भीमरथी। दहा गांवें तटाकयात्रा ।।५१।। पांडुरंग मातुलिंग। क्षेत्र बरवें पुरी गाणग। तीर्थे असती तेथें चांग। अष्टतीर्थे मनोहर ।।५२।। अमरजासंगमांत । कोटी तीर्थे असती ख्यात । वृक्ष तेथे असे अश्वत्थ । कल्पवृक्ष तोचि जाणा ।।५३।। तया अश्वत्थासन्मुखेसी । नृसिंहतीर्थ परियेसीं । तया उत्तरभागेसी। वाराणसी तीर्थ असे ।।५४।। तया पूर्वभागेसी । तीर्थ पापविनाशी । तदनंतर परियेसीं। रुद्रपादतीर्थ असे ।।५५।। चक्रतीर्थ असे एक । केशवदेव विनायक । कोटितीर्थ विशेष । मन्मथतीर्थ पुढें असे ।। ५६ ।। कलेश्वर देवस्थान । असे तेथे गांधारभुवन । ठाव असे अनुपम जाण । सिद्धमुनि गाणगापुर ।। ५७।। तेथे जे जन अनुष्ठान करिती । त्वरित कामना सर्व पावती । कल्पवृक्ष असे यति । काय नोहे मनकामना ।।५८।। कांकिणीसंगम असे बरवें । भीमातीर क्षेत्र नांवे। अनंत तीर्थ पुण्य स्वभावें । प्रयागासमान असे देखा ।।५९।। तुंगभद्रा वरदा नदी। संगमस्थान तपोनिधि । मलप्रभासंगमीं आधीं। पापें जाती शतजन्मांचीं ।।६०।। निवृत्तिसंगमर्मी असे ख्याती । ब्रह्महत्या नाश होती। जावें तुम्हीं तेथें त्वरिती । श्रीगुरु म्हणती शिष्यांसी ।।६१।। सिंहराशी बृहस्पती। येतां तीर्थे संतोषती। समस्तां ठायीं भागीरथी। येऊनि ऐक्य होतसे ।।६२।। कन्यागर्ती कृष्णेसी। त्वरित येती भागीरथी। तुंगभद्रा तुळागीं। सुरनदीप्रवेश परियेसा ।।६३।। कर्कराशीं सूर्य येतां । मलप्रभाकृष्णासंयुता । सर्व जन स्नान करितां । ब्रह्महत्यादि पापें जाती ।। ६४।। भीमाकृष्णासंगमेसी। स्नान करितां परियेसीं । सात जन्म विप्रवंशीं। उपजे नर परियेसा ।। ६५।। तुंगभद्रासंगम देख। त्याहूनि फळ त्रिगुणी' अधिक । निवृत्तिसंगम ऐक। चतुर्गुण तयाहूनि ।। ६६।। पाताळगंगेचिया स्नानीं । मल्लिकार्जुनदर्शनीं। पुण्य षड्गुण तयाहूनि । पुनरावृत्ति नाहीं तया ।।६७।। लिंगालयीं पुण्य द्विगुण' । समुद्रकृष्णसंगमीं अगण्य । कावेरीसंगमीं पंधरा गुण । स्नान करा मनोभावें ।। ६८ ।। ताम्रपर्णी येणेंपरी । पुण्य असे स्नानमात्रीं। कृतमालानदीतीरीं। सर्व पाप परिहरे ।।६९।। पयस्विनी आणिक । भवनाशिनी अतिविशेष । सर्व पापें हरती ऐक । समुद्रस्कंधदर्शनं ।।७०।। शेषाद्रिक्षेत्र श्रीरंगनाथ। पद्मनाभ श्रीमदनंत। पूजा करोनि जावें त्वरित । तृणामलक्षेत्रासी ।।७१।। समस्त तीर्थे समान । असे आणिक कुंभकोण। कन्याकुमारीदर्शन । मत्स्यतीर्थी स्नान करा ।। ७२।। पक्षतीर्थ असे बरवें। रामेश्वर धनुष्यकोटी नामें । कावेरी तीर्थ बरवें। रंगनाथसन्निथ ।।७३।। पुरुषोत्तम चंद्रकुंडेसी । कोटितीर्थ परियेसीं। महालक्ष्मी कोल्हापुरासी। दक्षिण काशी करवीर' ।।७४।। तयासन्निध असे बरवें। कोल्हग्रामीं नरसिंहदेव । परमात्मा सदाशिव । तोचि असे प्रत्यक्ष ।। ७५।। भिल्लवडी कृष्णातीरीं। शक्ति असे भुवनेश्वरी। तेथे तप करिती जरी। तेचि ईश्वरीं ऐक्य होती ।। ७६।। वरुणासंगमर्मी असे बरवें। तेथें तुम्हीं मनोभावें। स्नान करा मार्कंडेय नांवें ।। संगमेश्वर पूजावा ।। ७७।। ऋषेश्वरांचे आश्रम । कृष्णातीरीं असती उत्तम। स्नानें लाभें ज्ञानोत्तम । तयासन्निध कृष्णेच्या ।।७८।। पुढें कृष्णाप्रवाहांत । अमरापुर प्रख्यात । पंचगंगासंगमीं स्नात । प्रयागाहूनि अधिक पुण्य ।।७९।। अखिल तीर्थे तया स्थानीं । तप करिती सकळ मुनि । सिद्ध होती त्वरित ज्ञानी। अनुपम क्षेत्र परियेसा ।।८०।। ऐसें प्रख्यात तये स्थानीं। अनुष्ठितां दिवस तीनी। अखिलाभीष्ट पावोनि। पावती त्वरित परमार्थ ।।८१।। युगालय तीर्थ बरवें । दृष्टीं पडतां मुक्त व्हावें । शूर्पालय तीर्थ नांवें। पुढें असे परियेसा ।।८२।। विश्व मित्र असे ख्याति । तपस्थान भगवती । तेथें समस्त दोष जाती । मलयप्रभासंगमीं ।।८३।। कपिलऋषि विष्णुमूर्ति । प्रसन्न तयासी गायत्री। श्वेतशृंगीं प्रख्याती । उत्तरवाहिनी कृष्णा असे ।।८४।। तया स्थानीं स्नान करितां । काशीहूनि अधिकता। एक मंत्र तेथे जपतां । कोटीगुण फळ असे ।।८५।। आणिक असे तीर्थ बरवें । केदारेश्वर पहावें। पिठापुरीं दत्तात्रेयदेवें । वास केला सनातनें ।।८६ ।। काय सांगू तीर्थथोरी । प्रख्यात असे मणिगिरी। सप्तऋषीं प्रीतिकरीं। तप केलें बहुत दिवस ।।८७।। वृषभाद्रि कल्याण नगर । तीर्थे असती अपरंपार। न होय संसारयेरझार। तया क्षेत्रा आचरावें ।।८८।। अहो महाबळाचें दर्शन । साठी यज्ञांचें पुण्य जाण । श्रीगिरीचे पाहतां चरण। नाहीं जन्म मागुता ।।८९।। समस्त तीर्थे भूमीवरी। आचरावीं परिवारों। रजस्वला' सरिता होती जरी। स्नान करितां दोष होय ।।९०।। संक्रांति कर्काटक धरूनी । त्यजावे तुम्हीं मास दोनी। नदीतीरीं वास करोनि। राहतां त्यासी दोष नाहीं ।।९१।। तयामध्यें विशेष । त्यजावे तीन दिवस । नदी रजस्वला खास । महानदी येणेंपरी ।।९२।। भागीरथी गौतमेसी। चंद्रभागा सिंधुनदीसी । नर्मदा शरयु परियेसीं । वर्जावें तुम्हीं दिवस तीन्ही ।।९३।। ग्रीष्मकाळीं सर्व नदीस ।। रजस्वला दोष दहा दिवस । वापी' कूप' तटाकांस । एक रात्र वर्जावें ।।९४।। नवें उदक ज्या दिवशीं । तया ओळखा रजस्वला ऐसी । स्नान करितां महादोषी । येणेंपरी वर्जावें ।।९५।। साधारण तुम्हांसी। सांगितलीं तीर्थं परियेसीं। जें जें पहाल दृष्टींसी । विधिपूर्वक आचरावें ।।९६।। ऐकोनि श्रीगुरूचें वचन । शिष्य सकळ करिती नमन। गुरुनिरोप घेऊन । निघती शिष्य सकळिक ।।९७।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। निरोप घेउनी श्रीगुरुपासीं । शिष्य गेले यात्रेसी। राहिले श्रीगुरु गौप्यरूपें ।।९८।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर । पुढील कथेचा विस्तार। ऐकतां होय मनोहर । सकळाभीष्टें साधती ।।९९।। ब्रह्मरसाची गोडी । सेविती जे घडोघडी । त्यांसी होई आवडी । साधे त्वरित परमार्थ ।।१००।। गुरुचरित्र कामधेनु । श्रोते होवोनि सावधानु । जे ऐकती भक्तजनु । लाघती चारी पुरुषार्थ ।।१०१।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१५॥
ओवीसंख्या ४२
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः। विनवी शिष्य नामांकित । सिद्ध योग्यातें पुसत। सांगा स्वामी वृत्तान्त। गुरुचरित्र विस्तारोनि ॥१॥ शिष्य समस्त गेले यात्रेसी। राहिले कोण गुरुपाशीं। पुढील कथा वर्तली कैसी। विस्तारोनि सांग पां ।।२।। ऐकोनि शिष्याची वाणी। संतोषी झाले सिद्ध मुनि। धन्य शिष्य शिरोमणी। गुरुभक्ता नामधारका ।।३।। अविद्यामायासुषुप्तीत'। निजलें होतें माझें चित्त । तुजलागीं झालें जागृत । ज्ञानज्योति उदय मज ।।४।। तूंचि माझा प्राणसखा । ऐक शिष्या नामधारका । तुजकरितां जोडलों सुखा। गुरुचरित्र आठवलें ।।५।। अज्ञानतिमिररजनीत। पीडोनि आलों कष्टत । सुधामृतसागरांत । त्वां मातें लोटिलें ।।६।। त्वां केलें उपकारासी। संतुष्ट झालों मानसीं। पुत्रपौत्री तूं नांदसी। दैन्य नाहीं तुझे घरा ।।७।। गुरुकृपेचा तूं बाळक। तुज मानिती सकळ लोक। संदेह न धरितां ये कां भाक। अष्टैश्वर्ये नांदसी ।।८।। गुरुचरित्रकामधेनु । सांगेन तुज विस्तारोनु । श्रीगुरु राहिले गौप्युगुणु। वैजेश्वरसन्निधानीं ।।९।। समस्त तीर्थे शिष्यांसी । स्वामीं निरोपिलीं परियेसीं। होतों आपण गुरुमूर्तीपासीं । सेवा करून अनुक्रमें ।।१०।। संवत्सर एक तया स्थानीं। अंबा आरोग्यभवानी। होते श्रीगुरु गौप्य होऊनी। स्थान बरवें मनोहर ।।११।। असतां तेथे वर्तमानीं । आला ब्राह्मण एक मुनि । श्रीगुरुते देखोनि। नमन केलें भक्तिभावें ।।१२।। माथा ठेवोनि चरणांवरी। स्तोत्रे करी परोपरी । स्वामी मातें तारी तारी। अज्ञानसागरी बुडालों ।।१३।। तप करितों बहु दिवस। स्थिर नव्हेचि माझे मानस । याचि कारणें ज्ञानास । न दिसे मार्ग आम्हांसी ।।१४।। ज्ञानाविणें तपास। वृधा होती सायास । तुम्हां देखतां मानस। संतोषलें स्वामिया ।।१५।। गुरुसेवा बहु दिवस । केली नाहीं सायास। या कारणें मानस। स्थिर नोहे स्वामिया ।।१६।। तूं तारक विश्वासी । म्हणून मातें भेटलासी। उपदेश करावा आम्हांसी। ज्ञान होईल त्वरित मज ।।१७।। ऐकोनि मुनीचे वचन । श्रीगुरु पुसती हांसोन। पावलासी केवी मुनीपण। गुरुविणे सांग मज ।।१८।। ऐसे पुसतां श्रीगुरुमूर्ति। मुनीच्या डोळां अश्रु येती । दुःखें दाटला अमित चित्तीं। ऐके स्वामी गुरुराया ।।१९।। गुरु होतां आपणांसी एक । अतिनिष्ठर त्याचे वाक्य । मातें गांजिलें अनेक । अकृत्य' सेवा सांगे मज ।।२०।। न सांगे वेदशास्राध्ययन । तर्कभाष्यादि व्याकरण । म्हणे तुज अंतःकरण। स्थिर नोहे अद्यापि ।।२१।। म्हणोनि सांगे आणिक कांही। आपुलें मन स्थिर नाहीं । न ऐके त्याचें वाक्य कांहीं। आणिक कोपे मजवरी ।।२२।। या कारण बहुदिवसीं । होतों तया गुरूपासीं। बोले मातें निष्ठुरेंसी। कोपोनि आलों तयावरी ।।२३।। ऐकोनि तवाचें वचन । श्रीगुरुमूर्ति हास्यवदन । म्हणती कैसा ब्राह्मण । आत्मघातकी तूं होसी ।। २४।। एखादा मूर्ख आपुलें करीं। मळ विसर्जी देहावरी। आपुलें अदृष्ट ऐसेंपरी । म्हणोनि सांगे सकळिकां ।।२५।। तैसे तुझे अंतःकरण। आपुलें नासिक छेदून। पुढिल्यातें अपशकुन। करणार होसी तूंचि एक ।।२६।। न विचारिसी आपुले गुण। तूंतें होय कैचे ज्ञान। गुरुद्रोही तूंचि जाण । अल्पबुद्धि परियेसा ।।२७।। आपुले गुरूचे गुणदोष। सदा उच्चार करिसी हर्ष। ज्ञान कैचे होय मानस । स्थिर केवी होय आतां ।।२८।। जवळी असतां निधानु। कां हिंडावे रानोरानु। गुरु असतां कामधेनु। त्यजोनि आलासी आम्हांपासीं ।। २९।। गुरुद्रोही जो का नर। त्यासी नाहीं इह पर। ज्ञान कैचें होय सादर । तया दिवांच नरासी ।।३०।। जो जाणे गुरुची सोय। वेदशास्रादि त्वरित होय। तो सर्वज्ञ शीघ्र होय। गुरु संतुष्ट होतांची ।।३१।। संतोष होतां श्रीगुरुसी। अष्टसिद्धि त्याच्या दासी। क्षण न लागतां परियेसी । वेदशाख तया साध्य ।।३२।। ऐसी ऐकोनि गुरुवाणी। माथा ठेवी त्यांचे चरणीं। विनवीतसे कर जोडुनी। करुणावचनें करूनिया ।।३३।। जय जयाजी जगद्गुरु । निर्गुण तूंचि निर्विकारू। ज्ञानसागर अपरंपारू। उद्धरावें आपणातें ।। ३४।। अज्ञानमाया वेष्टोनि। नेणों गुरु असे कवणी। सांगा स्वामी प्रकाशोनि। ज्ञान होय आपणासी ।।३५।। कैसा गुरु ओळखाचा । कवणेपरी असे सेवा। प्रकाशोनि सांग देवा। विश्ववंद्या गुरुमूर्ती ।।३६।। जेणें माझें मन स्थिरू । होवोनि ओळखे श्रीगुरु । ऐसा करणें उपकारू। म्हणोनि चरणी लागला ।। ३७।। करुणावचन ऐकोनि । श्रीगुरु म्हणती ऐक मुनी। तूंतें सांगेन विस्तारोनि। गुरुसेवाविधान ।।३८।। श्रीगुरु म्हणती ऐक मुनी। गुरु म्हणजे जनकजननी । उपदेशकर्ता आहे कोणी । तोचि जाणावा परमगुरु ।। ३९।। गुरु हरि हर विरिंची जाण । स्वरूपें तोचि नारायण। मन करूनि निर्वाण। सेवा करावी भक्तीनें ॥४०॥ एतदर्थ कथा एक सांगेन ते तत्पर ऐक । आदिपर्वी असे देख । गुरुसेवा भक्तिभावे ।।४१।। द्वारावती तीर्थ परियेसी। विप्र एक धौम्यऋषी । तिघे शिष्य होते त्यासी । वेदाभ्यास कराच्या ।।४२।। एक अरुणी पांचाळ । दुसरा बैद' केवळ । तिसरा उपमन्यु बाळ । सेवा करिती विश्वेलागीं ।।४३।। पूर्वी गुरुची ऐशी रीती। शिष्याकरवीं सेवा घेती। अंतःकरण त्याचे पहाती। कैसें निर्वाण शिष्याचें ।।४४।। पाहोनिया अंतःकरण। असे भक्ति निर्वाण। कृपा करिती तत्क्षण। मनकामना पुरविती ॥४५।। ऐसा धौम्यऋषी भला। तया अरुणी पांचाला। एके दिवशी निरोप दिधला। ऐक द्विजा एकचित्तें ।।४६।। शिष्यासी म्हणे धौम्यमुनि । आजि त्वां जावोनि रानीं। वृत्तीस' न्यावें तडाग पाणी। जंवकरी भूमि तृप्त होय ।।४७।। असे वृत्ति तळेखालीं । तेथे पेरिली असे साळी। उदक नेवोनि तेथे घालीं। शीघ्र म्हणे शिष्यासी ।।४८।। ऐसा गुरुनिरोप होतां। गेल्या शिष्य धावतां । झाला तटाकातें पाहता। कालवा घोर वहातसे ।।४९।। जेथे उदक असे वहात । अतिदारा गर्जत । वृत्तिभूमि असे उन्नत। उदक केबी चड़ों पाहे ।।५०।। म्हणे आतां काय करूं। कोपती आतां मातें गुरु। उदक जातसे दरारू । केवी बांधू म्हणतसे ।।५१।। आणोनिया शिळा दगड। बांधिता उदडा आड। पाणी जातसे घडाड । जाती पाषाण वाहोनिया ।।५२।। प्रयत्न करी नानापरी। कांहीं केल्या न चढे वारी। म्हणे देवा श्रीगुरुहरी । काय करूं म्हणतसे ।।५३।। मग आपण मनीं विचारी। गुरूचे शेती न चढे वारी। प्राण त्यजीन निर्धारीं। गुरूचे वृत्तीनिमित्त ।।५४।। निश्वय करूनि मानसीं। मनीं ध्यात श्रीगुरूसी । म्हणे काय आतां उपाय यासी। योजूनि प्रयत्न करावा ।।५५।। उदकाचे प्रवाहांत। घालितां पाषाण जाती वहात। आपण आड पडों म्हणत। निर्धारिलें तये वेळीं ।।५६।। हातीं दरडी घरी दुहें। पाय ठेवी दुसरीकडे। झाला आपण उदकाआड । मनीं श्रीगुरु ध्यातसे ।।५७।। ऐसा शिष्यशिरोमणी। निवारण करी तत्क्षणीं। वृत्तीकडे गेलें पाणी। प्रवाहाचे अर्थ देखा ॥५८।। अर्धे पाणी जैसे तैसें । वाहतसें नित्यसरिसें। तयामध्ये शिष्ये कैसें। बुडविलें आंग आपुलें ।॥५९।। ऐसा शिष्य तया स्थानीं । बुडाला असे प्रवाहपाणी। गुरूचि वृत्ति झाली घणी'। उदके पूर्ण परियेसा ।।६०।। त्याचा गुरु धौम्यमुनि । विचार करी अंतःकरणीं। दिवस गेला अस्तमानीं। अद्यापि शिष्य न येची ।। ६१।। ऐसें मनीं विचारित । गेला आपण वृत्तींत । झालें असे उदक बहुत । संतोषला बहु मुनि ।। ६२।। न देखे शिष्य तये वेळीं । म्हणोनि मारितसे आरोळी किंवा भक्षिले व्याघ्रव्याळीं। कोठे आहेसी म्हणतसे ।। ६३।। ऐसे मनीं विचारित । उंच स्वरें बोभाटतः । अरे शिष्या ऐसें म्हणत । प्रेमभावें बोलावी ।।६४।। येणेंपरी करुणावचनीं। पाचारीतसे धौम्यमुनि । शब्द पडे शिष्यकानीं। मग तेथोनि निघाला ।।६५।। येवोनिया श्रीगुरूसी। नमन केलें भावेंसी । धौम्यमुनि महाऋषि । आलिगोनिया आश्वासिला ।। ६६।। वर दीधला तये वेळीं। ऐक शिष्या स्तोममौळी' । तूंतें सकळ विद्या आली। वेदशास्त्रादिव्याकरण ।।६७।। ऐसें म्हणतां तत्क्षणी। झाला विद्यावंत ज्ञानी । लागतसे गुरुचरणीं । भक्तिभावें करोनिया ।। ६८।। कृपानिधि धौम्यमुनि। आपुल्या आश्रमांत नेवोनि। निरोप दिधला संतोषोनि । विवाह आतां करी म्हणे ।।६९।। निरोप घेवोनि शिष्यराणा। गेला आपुल्या स्वस्थाना। आणिक शिष्य दोघे जाणा । होते तया गुरुजवळी ।।७०।। दुसरा शिष्य बैद जाणा। गुरूची करी शुश्रूषणा। त्याच्या पहावें अंतःकरणा । धौम्य गुरु म्हणतसे ।। ७१।। धौम्य म्हणे शिष्यासी। सांगेन ऐक तुजसी। तुवां जावोन अहर्निशी । वृत्ति आमुची रक्षावी ।।७२।। रक्षुनिया वृत्तीसी। आणावें धान्य घरासी। म्हणतां शिष्य अतिहीं। गेला तया वृत्तीकडे ॥७३।। वृत्ति पिके जोंवरी। अहोरात्री कष्ट करी। रात्र होतां ते अवसरी। आला आपुल्या गुरुपाशी ॥७४।। सांगता झाला श्रीगुरूसी। म्हणे वृत्ती भरली राशी। आतां आणावया परासी। काय निरोप म्हणतसे ।।७५।। मग म्हणे धौम्यमुनि । वा रे शिष्या शिरोमणी। कष्ट केले बहु रानीं। आतां धान्य आणावें ।।७६।। म्हणोनि देती एक गाडा । तया जुंपोनियां रेडा । येणेंपरी घेवोनि गाडा। आला शेताजवळिक ।।७७।। दोन खंडी साळीसी । भरली शिष्यें गाडियासी । एकीकडे रेडियासी। जुंपोनि ओढी आपण देखा ।।७८।। रेडा चाले शीघ्रसी। न ओढवे तवासरसों। मग आपुले कंठासी। बांधितां झाला जूं देखा ।। ७९।। सत्राणें तयासरसी। चालता झाला मार्गासी। रेडा रुतला चिखलासी । आपले बळें ओढीतसे ।।८०।। चिखली रुतला रेडा म्हणोनि। चिंता करी बहु मनीं । आपण ओढी सत्राणीं । गळां फांस पड़े तैसा ।।८१।। सोडोनिया रेड्यासी। कादिला गाडा बाह्य प्रदेशीं। ओदिता आपण गळां फांसीं । पडूनि प्राण त्यजूं पाहे ।।८२।। इतुकें होतां निर्वाणी। सन्मुख पातला धौम्यमुनि । त्या शिष्यातें पाहोनि । कृपा अधिक उपजली ।।८३।। सोडोनिया शिष्यातें। आलिंगोनि करुणा बहुतें। वर दिधला बहुमतातें । संपन्न तूंचि वेदशास्त्रीं ।।८४।। वर देतां तत्क्षणासी। सर्व विद्या आली तयासी। निरोप घेवोनि गेला घरासी । शिष्य बैद परियेसा ।।८५।। तिसरा शिष्य उपमन्यु जाण। सेवेविषयी बहुगुण। गुरुसेवा शुश्रूषण। बहु करी परियेसा ।।८६।। त्यासी बहुत आहार। म्हणोनि विद्या नाहीं स्थिर। त्यासी' विचारी गुरुवबर। काय उपाय करावा ।।८७।। त्यासी म्हणे धौम्यमुनि। तूंतें सांगेन ऐकें कानीं। नित्य गोधनें नेउनीं। रक्षण करी वनामध्ये ।।८८।। ऐसें म्हणतां तत्क्षणीं। नमन केले त्याचे चरणीं। गुरें नेऊनिया रानीं। तीं चारिली बहुत दिवस ।।८९।। क्षुधा लागली आपणासी। शीघ्र आणिली घरासी। कोपे गुरु तयासी। म्हणे शीघ्र येतोसी का ।।१०।। सविता' जाय अस्तमानों । तंववरी गुरे असों दे रानी। येणेंपरी प्रतिदिनी। वर्ताव त्वां म्हणतसे ।।९१।। अंगिकारोनि शिष्यराया। गुरें घेवोनि गेला वना। क्षुधाक्रांत होवोनिया जाणा। चिंतित असे श्रीगुरुसी ।।९२।। चरती गुरे नदीतीरीं। आपण तेथे स्नान करी। तयाजवळी घरें चारी असती विप्रआश्रम तेथे। जाऊनिया तया स्थानासी । भिक्षा मागूनि करी भोजनासी। मग रक्षी गोधनासी। प्रतिदिवशी यापरी ।। ९४।। नित्य करी येणेंपरी। रक्षुनि आणी गुरे घरीं । वर्तत असतां निरंतरीं। धौम्यमुनि पुसतसे ।।९५।। गुरु म्हणे शिष्यासी। तूं नित्य गा उपवासी। तुझा देह दिसे पुष्टीसी। कवण्या गुणे होतसे ।।९६।। ऐकोनि गुरुचे वचन। सांगे शिष्य उपमन्य। भिक्षा करूनि भोजन । विप्रांघरी तेथे देखा ।।९७।। भोजन करूनि प्रतिदिवशीं। गुरे चारोनि येतों निशीं। श्रीगुरु म्हणती तयासी। आम्हां सांडोनि केवी भुक्ती' ।।९८।। भिक्षा मागोनि प्रतिदिवसीं । आणोनि द्यावी घरासी। मागुती जावें गुरांपाशी । घेवोनि यावें निशिकाळीं ।।९९।। गुरुनिरोपें येरे दिवशीं। नेलीं गुरें रानासी। मागे मिक्षा नित्य जैसी। दिधली ठेवोनि घरांत ।।१००।। घरीं तयातें भोजन। कधीं न हो परिपूर्ण। पुनः जावोनि आपण। भिक्षा करूनि जेवितसे ।।१।। नित्य भिक्षा वेळ दोनी। पहिली देवोनि सदनीं। दुसरी आपण भक्षोनि। काळ ऐसा कंठीतसे ।।२।। येणेंपरी क्वचित्काळ। वर्तता झाला महास्थूल। एके दिवशी गुरु कृपाळ। पुसतसे शिष्यातें ।।३।। शिष्य सांगे वृत्तान्त । जेणें आपुली क्षुधा शमत। नित्य भिक्षा मागत। वेळ दोनी म्हणतसे ।।४।। एक वेळ परासी । आणोनि देतों प्रतिदिवसीं । दुसरी भिक्षा स्वर्वेसी। करितो भोजन आपण ।।५।। ऐसें म्हणतां धौम्यमुनि । त्या शिष्यावरी कोपोनि । म्हणे भिक्षा वेळ दोनी। आणोनि घरी देई का ।।६।। गुरु निरोपी येणेंपरी। दोनी भिक्षा देवोनि घरीं। कैसा शिष्य निर्धारी। मनीं क्लेश न करीच ।।७।। गुरेसहित रानांत । असे शिष्य क्षुधाक्रांत । वायां जातसे भूमीसी । म्हणोनि जवळ पैं गेला ।।९।। आपण असे क्षुधाक्रांत। म्हणोनि गेला धावत। पसरोनिया दोनी हात। घरी उच्छिष्ट क्षीर देखा ।। ११०।। ऐसें क्षीरपान करी। तेणें आपण उदर भरी। दोनी वेळां भिक्षा घरीं । देतसे भावभक्तीनें ।।११।। अधिक पुष्ट झाला आपण म्हणे गुरु अवलोकून। पाहों याचें शरीररक्षण । कैसा स्थूळ होतसे ।।१२।। मागुती पुसे तयासी। कवणे रीतीं पुष्ट होसी। सांगे आपुल्या वृत्तान्तासी। उच्छिष्ट क्षीर पान करितों ।।१३।। ऐकोनि म्हणे शिष्यासी। मतिहानि होय उच्छिष्टेंसी। दोष असे बहुवसी। भं नको म्हणतसे ।।१४।। भक्षु नको म्हणे गुरु। नित्य नाहीं तया आहारू। दुसरे दिवशी क्षुधित येरू। काय करूं म्हणतसे ।।१५।। येणेंपरी गुरेंसहित। जात होता रानांत गळत होते क्षीर बहुत। एका रुईच्या झाडासी ।।१६।। म्हणे बरवें असे क्षीर। उच्छिष्ट नव्हे निर्धार। पान करूं तुमोदर। म्हणोनि तेथे बैसला ।।१७।। पानें तोडोनि द्रोण करी। तयामध्यें क्षीर भरी। घेत होता घणीवरी। तंव भरिलें डोळ्यांत ।।१८।। तेणें गेल्या दृष्टी दोनी। हिंडतसे रानोरानीं । गुरें न दिसती नयनीं। म्हणोनि चिंता करीतसे ।।१९।। कष्टतांही अक्षहीन। चिंता करीतसे गोधन । गुरे पाहों जातां रानां । पडला एके आडांत ।।१२०।। पडोनिया आडांत। चिंता करी अत्यंत गुरें गेलीं आतां सत्य । गुरू बोलेल मजलागीं ।।२१।। पडला शिष्य तये स्थानी। दिवस गेला अस्तमानीं। चिंता करी धौम्यमुनि। अजूनि शिष्य न येची ।।२२।। म्हणोनि गेला रानासी। देखे तेथे गोधनासी। शिष्य नाहीं म्हणोनि क्लेशी । दीर्घस्वरें पाचारी ।।२३।। पाचारितां धौम्यमुनि । ध्वनि पडली शिष्यकानीं। प्रत्युत्तर देतां तत्क्षणीं। जवळी गेला कृपाळू ।।२४।। ऐकोनिया वृत्तान्त। उपजे कृपा अत्यंत। अश्विनी' देव स्तवीं म्हणत। निरोप दिधला तये वेळीं ।।२५।। गुरुनिरोपें तये वेळीं। अश्विनी देवां ध्याय मनीं। दृष्टि' आली दोनी नयनीं। आला गुरुसन्मुख ।।२६।। येवोनिया श्रीगुरूसी । नमन करी भक्तींसी। स्तुति करी बहुवसी। शिष्योत्तम तये वेळीं ।।२७।। संतोषोनि धौम्यमुनि । तया शिष्या आलिंगोनि। म्हणे शिष्या शिरोमणी । तुष्टलों तुझिया भक्तीसी ॥ २८।। प्रसन्न होवोनि शिष्यासी । हस्तस्पर्श मस्तकेसी। वेदशाखें तत्क्षणेंसी। आलीं तया शिष्यासी ।। २९।। गुरु म्हणे शिष्यासी । जावें आपल्या घरासी । विवाह करूनि सुखेंसी। नांदत असां म्हणतसे ।।३०।। होईल तुझी बहु कीर्ति। शिष्य होती बहु जगतीं । उत्तक नाम विख्याति । शिष्य तुझा परियेसीं ।॥३१।। तोचि तुझिये दक्षिणेसी। आणील कुंडलें परियेसीं। जिकोनिया शेषासी। कीर्तिवंत होईल ।।३२।। जन्मेजय रायासी। तोच करील उपदेशासी। मारबील सर्वांसी। याग' करूनि परियेसा ।। ३३।। तो उत्तंक जाऊन। पुढें केला सर्पयज्ञ। जन्मेजयातें प्रेरून। समस्त सर्प मारविले ।।३४।। ख्याति झाली त्रिभुवनांत । तक्षक आणिला इंद्रासहित । गुरुकृपेचें सामर्थ्य। ऐसें असे परियेसा ।।३५।। जो असे गुरुद्वेषक'। त्यासी कैचा परलोक। अंती होय कुंभीपाक'। गुरुद्रोह पातकराशी ।।३६।। संतुष्ट करितां गुरूसी। काय न साधे तयासी। वेदशास्त्रज्ञानराशी। लाघे क्षण न लागतां ।।३७।। ऐसें जाणोनि मानसीं। वृथा हिंडे अविद्येसी । जाई आपुल्या गुरुपासीं । तोचि तुज तारील ॥ ३८।। त्याचे मन संतुष्टत। तुज मंत्र साध्य त्वरित । मन करूनि निचित। त्वरित जाय म्हणती देखा ।।३९।। ऐसा श्रीगुरु निरोप देतां । विप्र झाला अतिज्ञाता। चरणांवरी ठेविला माथा । विनवीतसे तये वेळीं ।।१४०।। जय जयाजी गुरुमूर्ती। तूंचि साधन परमार्थी। मातें निरोपिलें प्रीतीं । तत्त्वबोध कृपेनें ।।४१।। गुरुद्रोही आपण सत्य। अपराध पडले मज अमित। गुरूचें दुखविलें चित्त। आतां केवी संतुष्ट ।।४२।। सुवर्णादि लोह सकळ । भिन्न होतां सांघवेल। होतां भित्र मुक्ताफळ। केवी पुन्हा ऐक्य होय ॥४३।। अंतःकरण भिन्न झालें असतां । प्रयास असे ऐक्य करितां। ऐसें माझे मन असतां। काय उपयोग वांचूनि ।।४४।। ऐसें शरीर माझें द्रोही। काय उपयोग वांचूनही। जीवित्वाची आशा नाहीं। प्राण त्यजीन गुरूपासीं ।।४५।। ऐसेंपरी श्रीगुरूसी । विनवी ब्राह्मण अतिहर्षी। नमुनी निघे वैराग्येंसी । निश्चय केला प्राण त्यजूं ।।४६।। अनुतप्त झाला तो ब्राह्मण। निर्मळ झालें अंतःकरण। अग्नि लागतां जैसें तृण। भस्म होय तत्क्षणीं ।।४७।। जैसी कार्पासराशी'। वन्हि लागतां परियेसीं। जळोनि जाय त्वरितेसी। तैसें तयासी जहाले ।।४८।। या कारणें पापासी । अनुतप्त होतां परियेसी। क्षालन होईल त्वरितेंसी। शतजन्मीचे पाप जाय ।।४९।। निर्वाणरूपें द्विजवर । निघाला त्यजूं कलेवर। ओळखिलें गुरुवर। पाचारिले तयासी ।।१५०।। बोलावोनिया विप्रासी । निरोप देती कृपेंसी । न करी चिंता तू मानसीं। गेले तुझे दुरितदोष ॥५१॥ वैराग्य उपजलें तुझें मनीं । दुष्कृत गेलें जळोनि। एकचित्तें करूनि । स्मरी आपुले गुरुचरणा ।।५२।। तये वेळीं श्रीगुरूसी। नमन केलें चरणांसी। जगदूरु तूंचि होसी । त्रैमूर्ति अवतार ।।५३।। तव कृपा होय जरी। पापें कैची शरीरीं। उदय होतां तमारी। अंधकार केवी राहे ।।५४।। ऐशियापरी श्रीगुरूसी। स्तुति करी भक्तींसी। रोमांच उठले अंगासी। सद्गदित कंठ झाला ।।५५।। निर्मळ मनेंसी तये वेळीं । माथा ठेवी चरणकमळीं। विनवीतसे करुणा बहाळी। तारों तारों श्रीगुरुराया ।।५६।। निर्वाण देखोनि अंतःकरणी। मस्तकी ठेवी दक्षिण पाणि। ज्ञान झालें तत्क्षणीं । तया ब्राह्मणासी परियेसा ।।५७।। वेदशाखें तात्काळ। मंत्रशाखें आलीं सकळ । प्रसन्न जहाले गुरु दयाळ। काय न्यून त्या विप्रासी ।।५८।। परिस लागतां लोहासी। होय सुवर्ण बावनकशी। तैसें तया ब्राह्मणासी। ज्ञान जहालें परियेसा ।।५९।। आनंद झाला ब्राह्मणासी । श्रीगुरु निरोपिती तयासी। आमुचें वाक्य परियेसीं। जाय त्वरित गुरुजवळी ।।१६०।। जावोनिया गुरुपासीं । नमन करी भावेंसी। संतोष होईल भरंवसी। तोची आपण सत्य मानी ।।६१।। ऐसेंपरी गुरुमूर्ती । तया ब्राह्मणा संबोखिती। निरोप घेऊनिया त्वरिती। गेला आपल्या गुरूपासीं ।। ६२।। निरोप देऊनी ब्राह्मणासी । श्रीगुरु निघाले परियेसीं। आले भिल्लवडी ग्रामासी। भुवनेश्वरी सन्निध ।।६३।। कृष्णापश्चिमतटाकेसी। औदुंबर वृक्ष परियेसीं। श्रीगुरुस्वामी राहिले गुप्मेँसी। एकचित्तं परियेसा ॥६४।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी । राहिले श्रीगुरु भिल्लवडीसी। महिमा वाढली बहुक्सी। प्रख्यात गेले सांगोन ।।६५।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर । सागे श्रीगुरुचरित्रविस्तार। ऐकतां होय मनोहर। सकळाभीष्ट साधती ।। ६६।। इति श्रीगुरुचरित्र । विवेकबोधे शिष्य पवित्र। गुरुभजनें पवित्र। सर्व विद्या पावले ।।१६७।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१६॥
ओवीसंख्या १६७
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । ऐक शिष्या नामकरणी। तूं गुरुभक्तशिखामणी। तुझी भक्ती गुरुचरणीं। तीन होय निधरि ।।१।। पर्जन्य येतां पुढारां । जैसा येतो सूचना बारा। सगुरु कृपा दैन्यहरा। ऐके श्रीगुरुचरित्र ।।२।। ऐसें चरित्र कामधेनु । सांगतों तुज विस्तारोनु। एकचित्तें करूनि मनु। ऐक शिष्या नामधारका ।।३।। कृष्णावेणीतटाकासी। भुवनेश्वरी पश्चिमेसी । औदुंबर वृक्षापाशीं । राहिले गुरु परियेसा ।।४।। गौप्यरूपें असती गुरु । ठाव असे अगोचरु। अनुष्ठान धुरंधरु'। चातुर्मास्य येणेंपरी ।।५।। सिद्धस्थान असे गहन । भुवनेश्वरीसत्रिधान। विशेष गुरु राहिल म्हणोन । उत्कृष्ट महिमा वाढला असे ।।६।। ऐकोनि सिद्धाचे वचना। नामधारक करी नमना। श्रीगुरु परमात्मा जाणा । कां राहिले गौप्यरूपें ।।७।। काय त्यासी तपोदेश। भिक्षा मागणें काय हर्ष । हा संदेह माझ्या मानसीं। यातें निचारी दातारा ।।८।। ऐक शिष्या नामधारका। भिक्षा मागणें पिनाका । आणिक सांगेन ऐका । दत्तात्रेया गुरुमूर्तीसी ।।९।। कृपासागर दत्तात्रेयमूर्ती। भिक्षुकरूपी असे दिसती। भक्तजनां अनुग्रहार्थी। तीर्थयात्रेसी हिंडती ।।१०।। अनुपम तीर्थे महीवरी। असती गौप्य अपारी। श्रीगुरुमूर्ति परोपकारी। प्रगट करी भक्तालागीं ।।११।। भक्तजनउद्धारार्थ। तीर्थे हिंडे श्रीगुरुनाथ। गौप्य व्हावया कारणार्थ। समस्त येवोनि मागती ।।१२।। लपवितां दिनकरासी । केवी लपे तेजराशी। कस्तूरी ठेवितां गौप्वेंसी। सुगंध केवी गौप्य होय ।।१३।। आणिक सांगेन तुजप्रती । कल्पवृक्ष जेवी जगतीं। जेथे राहे तया क्षितीं। कल्पिलें फल देतसे ।।१४।। या कारणें तया स्थानीं । सांगेन तुज विस्तारोनि। प्रकट झाले गुरुमुनि । एकचित्तं परियेसा ।।१५।। करवीरक्षेत्र नगरांत । ब्राह्मण एक वेदरत । शास्त्रपुराणें विख्यात। सांगे सकळां विद्वज्जनां ।।१६।। आद्यवेदी' असे आपण जाणे तर्कव्याकरण। आह्निकाप्रमाणें आचरण । कर्ममार्गी रत असे ।।१७।। त्यासी जाहला एक सुत। मतिमंद असे उपजत । मातापिता समस्त। गेलीं मरोनि तयाचीं ।।१८।। दिवसमास वर्धता बाळ। वर्षे सात जहाली केवळ । व्रतबंध करिती कुळाचार । तया द्विजकुमाराचा ।।१९।। न ये स्नानसंध्या तयासी। गायत्रीमंत्र परियेसीं। वेद कैचा मूर्खासी । पशुसमान जहाला असे ।।२०।। जेथे सांगती अध्ययन। आपण शिके जाऊन । तावन्मात्र' शिकतां जाण। सर्वेचि विस्मृति होय त्यासी ।।२१।। तया ग्रामींचे द्विजजन। निदां करिती आपण। विप्रकुळीं जन्मून। विद्या न ये तुजलागीं ।।२२।। तुझा पिता ज्ञानवंत। वेदशास्र अभिज्ञात'। त्याच्या पोटीं कैसा सुत। उपजलासी दगडापरी ।।२३।। जळो जळो तुझे जिणें । पित्याच्या नांवा आणिलें उणें। पोट बांधुनी पाषाणें। बावीं तळीं रिघेनासी कां ।।२४।। जन्मोनिया संसारी। वृबा जाहलासी सूकरापरी। तुज गति यमपुरीं। आचारहीन वर्तसी ।।२५।। ज्यासी असे विद्या एक । तोचि मनुष्यांमाजी अधिक। जैसा चिंतामणी देख। तैसी विद्या परियेसा ।।२६।। ज्याचे हृदयीं असे विद्या । त्यासी सकळ भोग सदा। यशस्वी होय सुखसंपदा । समस्तांमध्यें पूज्य तोचि ।। २७।। एखाद्या समयीं विदेशासी । जाय नर विद्याभ्यासी। पूजा करिती त्यासी। विदेश' होय स्वदेश ।।२८।। श्रेष्ठ असेल वय थोर । विद्या नाहीं अपूज्य नर। अश्रेष्ठ असेल एखादा जर। विद्या असतां पूज्य होय ।। २९।। ज्यासी नाहीं सहोदर' । तवासी विद्या भ्रातर। सकळिकां वंद्य होय नर। विद्यागुण ऐसा असे ।।३०।। जयासी असे विद्या बहुत। तोचि होय ज्ञानवंत। त्याचिया देहीं दैवत। पूजा घेई सकळांपासीं ।॥३१।। एखादे समयीं राजाधिपतीसी। समस्त बंदिती तयासी। राजाही आपण हर्षीं। विद्यावंत पूजीतसे ।।३२।। ज्याचे परी नाही धन। त्यासी विद्या असे धन। शिकावयाचे कारण। हेचि असे जाण पां ।। ३३।। ऐकोनि तयाचे वचन। ब्रह्मचारी करी नमन । स्वामी निरोपिलें ज्ञान । विद्याभ्यास करावया ।।३४।। जन्मांतरी पूर्वी आपण। केलें नाही विद्यादान । न ये विद्या याची कारण । काय करूं म्हणतसे ।।३५।। ऐसा आपण दोषी । जरी असेल उपाय यासी।उद्धराचे जी कृपेंसी । निरोपावें दातारा ।। ३६ ।। परिसोनि सकळ ब्राह्मण। सांगती तयासी हांसोन। होईल पुढे जनन। तथीं येईल विद्या तुते ।।३७।। तुज कैचा विद्याभ्यास। पशु केवळ नरविशेष। भिक्षा मागून उदरपोष। असे रे मूर्खा कुळनाशका ।।३८।। ऐसे नीचोत्तरेंसी। बोलती द्विजलोक त्यासी। वैराग्य धरोनि मानसीं। निघाला असे अरण्यांत ।।३९।। मनीं झाला खेदे खिन्न। म्हणे आतां त्यजीन प्राण। समस्त ठेविती दूषण। काय उपयोग वांचोनिया ।।४०।। जळो जळो आपुलें जिणें । पशु जाळों मतिहीनें। आतां वांचोनि काय कारणें । म्हणोनि निघाला वैराग्यें ।।४१।। भिलवडीग्रामासी। आला तो नर परियेसीं। अन्न न घेई उपवासी। पातला निशीं दैववशे ।।४२।। जेथे असे जगन्माता। भुवनेश्वरी विख्याता। तेथे पावला त्वरिता ।। करी दर्शन देवीचे ।।४१।। न करी स्नानसंध्या देख । अपार करीतसे दुःख। देवद्वारासन्मुख । धरणें घेतलें तयानें ।।४४।। येणेंपरी दिवस तीन्ही । निर्वाण' मन करूनी। अन्नोदक त्यजुनी। बैसला होता तो द्विज ।।४५।। नोहे स्वप्न त्यालागोनि। म्हणोनि कोपे तो बहु मनीं। म्हणे अंवा भवानी। कां उपेक्षिसी मजलागीं ।।४६।। आक्रंदोनि तये वेळीं। शखें घेऊनि प्रबळी। आपुली जिव्हा तात्काळीं। छेदोनि वाहे तिचे चरणीं ।।४७।। जिव्हा वाहोनि अंबेसी। मागुती म्हणे परियेसीं । जरी तूं मज उपेक्षिसी। वाहीन शिर' तुझे चरणीं ।॥४८।। ऐसें निर्वाण मानसीं। क्रमितां झाली असे निशी । स्वप्न झालें तयासी । ऐका समस्त श्रोते हो ।।४९।। ऐक बाळ ब्रह्मचारी। आक्रोशसी आम्हांवरी। असे कृष्णापश्चिमतीरी। त्वरित जाय तये स्थानीं ।।५०।। औदुंबराचे वृक्षातळीं । असे तापसी महाबळी। अवतारपुरुष चंद्रमौळी । तुझी वांछा पुरवील ।।५१।। ऐसें स्वप्न तयासी। झालें अभिनव परियेसीं। जागृत होतां तत्क्षणेसी । निघाला तेथोनि ब्राह्मण ।।५२।। निघाला विप्र त्वरित। पळत गेला प्रवाहांत। सादर' लक्षितांचि तेथ। देखता झाला श्रीगुरुसी ।।५३।। चरणांबरी ठेवोनिया माथा । अत्यंत स्तोत्र झाला करिता। श्रीगुरुमूर्ति संतोषतां । आश्वासीत तये वेळीं ।।५४।। श्रीगुरुमूर्ति संतोषती । माथां हस्त ठेविती। ज्ञान झालें तयाप्रति । जिव्हा आली तात्काळिक ।।५५।। जैसी मानससरोवरास । वायस' जाय परियेस । तो होय राजहंस । तैसें झालें विप्रातें ।। ५६ ।। चिंतामणीसंपकैसी । सुवर्णत्व येई लोहासी । मृत्तिका पडतां जांबूनदासी। सुवर्ण जेवीं होय ऐका ।। ५७।। तैसें तया ब्राह्मणासी । स्पर्शतां गुरुचरणांसी । आली सकळ विद्या त्यासी। वेद शास्त्र तर्क भाष्य ।। ५८।। सिद्ध म्हणे नामधारका। श्रीगुरुमहिमा ऐका निका। जे जे स्थानीं वास देखा। तेथें महिमा ऐसी असे ।।५९।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर । सांगे गुरुचरित्र सविस्तर । ऐकतां होय मनोहर । सकळाभीष्टे साधती ।। ६० ।। इति श्रीगुरुचरित्र । मूर्खासी झालें ज्ञान प्राप्त। तेचि कथा वर्णिली येथ । श्रीगुरुप्रसादें ।।६१।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१७॥
ओवीसंख्या ६१
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । जय जयाजी सिद्धमुनि । तूं तारक भवाणी। सुधारस आमुचे श्रवणीं। पूर्ण केला दातारा ।।१।। गुरुचरित्र कामधेनु । ऐकतां न धाय माझे मनु। कांक्षा होतसे अंतःकरणं। कथामृत ऐकावया ।।२।। ध्यान लागलें श्रीगुरुचरणीं । तृप्ति नोहे अंतःकरणी। कथामृतसंजीवनीं। आणिक निरोपी दातारा ।।३।। येणेंपरी सिद्धासी । विनवी शिष्य भक्तींसी। मस्तक ठेवी चरणांसी। कृपा भाकी तये वेळीं ।।४।। शिष्यवचन ऐकोनि। संतोषले सिद्धमुनि । सांगतात विस्तारोनि । ऐका श्रोते एकचित्ते ॥५॥ ऐक शिष्यशिखामणी। धन्य धन्य तुझी वाणी। तुझी भक्ति गुरुचरणीं। तल्लीन झाली निश्चये ।।६।। तुजकरितां आम्हांसी। चेतन झालें परियेसी । गुरुचरित्र आद्यंतेंसी। स्मरण जाहले अवधारा ।।७।। भिलवडीस्थानमहिमा। निरोपिलें अनुपमा। पुढील चरित्र उत्तमा। सांगेन ऐका एकचित्तें ।।८।। कचित्काळ तये स्थानी। श्रीगुरु होते गौप्य होवोनि। प्रकट झाले म्हणोनि । पुढे निघाले परियेसा ।।९।। वरुणासंगम असे ख्यात । दक्षिणवाराणसी म्हणत। श्रीगुरु आले अवलोकित। भक्तानुग्रह करावया ।।१०।। पुढें कृष्णा प्रवाहांत। श्रीगुरु तीर्थे पावन करीत। पंचगंगासंगम ख्यात। तेथे राहिले द्वादशाब्दें ।।११।। अनुपम तीर्थ मनोहर। जैसे अविमुक्त काशीपुर। प्रयाग मानस तीर्थ थोर। म्हणोनि राहिले परियेसा ।।१२।। कुरवपूर ग्राम गहन । कुरुक्षेत्र तेंचि जाण । पंचगंगाकृष्णासंगम । अति उत्तम परियेसा ।।१३।। कुरुक्षेत्री जितके पुण्य। तयाहुनी अधिक जाण। तीर्थे असती अगम्य । म्हणोनि राहिले श्रीगुरु ।।१४।। पंचगंगानदीतीरीं। प्रख्यात असे पुराणांतरी। पांच नामें आहेत थोरी। सांगेन ऐक एकचित्तें ।।१५।। शिवा भद्रा भोगावती। कुंभीनदी सरस्वती। पंचगंगा नामें ख्याति। महापातके संहारिती ।।१६।। ऐशा प्रख्यात पंचगंगा। आल्या कृष्णेचिया संगा। प्रयागाहुनी असे चांगा। संगमस्थान मनोहर ।।१७।। अमरपुर म्हणिजे ग्राम । स्थान असे अनुपम। जैसा प्रयागसंगम । तैसे स्थान मनोहर ।।१८।। वृक्ष असे औदुंबरू । प्रख्यात जाणा कल्पतरू । देव असे अमरेश्वरू। तया संगमर्मी जाण पां ।।१९।। जैसी वाराणसी पुरी । गंगाभागीरथी सरी। पंचनदीसंगम थोरी। तत्समान असे परियेसा ।।२०।। अमरेश्वरसन्निधानीं। वसती चौसष्ट योगिनी। शक्तितीर्थ निर्गुणी । प्रख्यात असे परियेसा ।।२१।। अमरेश्वरलिंग बरवें। तयासी वंदोनि स्वभावें। पूजितां नरें अमर व्हावें । विश्वनाथ तोचि जाणा ।।२२।। प्रयागर्मी करितां माघस्नान। जे पुण्य होय साधन। शतगुण होय त्याहून । एक स्नाने परियेसा ।।२३।। सहजनदीसंगमांत । प्रयागसमान विख्यात। अमरेश्वर परब्रह्म सत्य । तया स्थानीं वसतसे ।।२४।। या कारणे तया स्थानीं। कोटितीर्थे असती निर्गुणी। वाहे गंगा दक्षिणी। वेणीसहित निरंतर ।।२५।। अमित तीर्थे तया स्थानीं । सांगतां विस्तार पुराणी। अष्ट तीर्थे असती गुणी। तया कृष्णाप्रवाहांत ।। २६ ।। उत्तर दिशे असे देखा। वाहे कृष्णा पश्चिममुखा । शुक्लतीर्थ नाम ऐका। ब्रह्महत्यापापें जाती ।।२७।। औदुंबरसन्निधेसी। तीन तीर्थे परियेसीं । एकाहूनि एक अधिकेसी। तीर्थे असती मनोहर ।।२८।। पापविनाशी काम्य तीर्थ। तिसरें सिद्धवरद तीर्थ । अमरेश्वरसन्निधार्थ । अनुपम तीर्थे असती पैं ।।२९।। पुढें संगमषट्कुळांत। प्रयागतीर्थ असे ख्यात। शक्तितीर्थ अमरतीर्थ । कोटितीर्थ परियेसा ।। ३० ।। तीर्थे असती अपारी। सांगतां असे विस्तारी। या कारणें श्रीगुरु त्या पुरीं। राहिले तेथे द्वादशाब्दें ।।३१।। कृष्णा वेणी नदी दोनी। पंचगंगा मिळोनि । सप्तगंगासंगम सगुणी। काय सांगों महिमा त्याचा ।। ३२।। ब्रह्महत्यादि पातकें। जळोनि जाती स्नानें एकें। ऐसें सिद्धस्थान निकें। सकळाभीष्ट होतीं तेथे ।।३३।। काय सांगों त्यांचा महिमा। आणिक द्यावया नाहीं उपमा। दर्शनमात्रे होती काम्या । स्नानफळ काय वर्णं ।।३४।। साक्षात् जाणा कल्पतरू । वृक्ष असे औदुंबरू। गौप्य होतां अगोचरू। राहिले श्रीगुरु तये स्थानीं ।।३५।। भक्तजनतारणार्थ। होणार असे तीर्थ प्रख्यात । राहिले तेथे श्रीगुरुनाथ। म्हणोनि प्रकट जाहले ।।३६।। असतां पुढे वर्तमानीं । भिक्षा करावया प्रतिदिनी । अमरापुर म्हणिजे ग्रामी। जाती श्रीगुरू परियेसा ।। ३७।। तया ग्रामीं द्विज एक । असे वेदाभ्यासक । भार्या त्याची पतिसेवक । पतिव्रताशिरोमणी ॥ ३८।। सुशीळ असे ब्राह्मण। शुष्क भिक्षा करी आपण। कर्ममार्ग-आचरण । असे सात्त्विक वृत्तीनें ।।३९।। तया विप्रमंदिरांत। असे वेल उन्नत। शेंगा निघती नित्य बहुत । त्याणें उदरपूर्ति करी ।।४०।। एखाद्या दिवशीं ब्राह्मणासी। चरू न मिळे परियेसीं। तया शेंगा रांधोनि हीं। दिवस क्रमी येणेंपरी ।।४१।। ऐसा ब्राह्मण दरिद्री। याचकवृत्तीं उदर भरी। पंचमहायज्ञ कुसरी। अतिथी पूजी भक्तीनें ।।४२।। भक्तिपूर्वक श्रीगुरुसी । पूजा करी नेमासी। घेवड्याच्या शेंगा परियेसीं। करी शाखनैवेद्या ।।४३।। वर्ततां श्रीगुरु एके दिवसीं । तया विप्रमंदिरासी। गेले आपण भिक्षेसी। नेलें विप्रं भक्तीनें ॥४४।। मिक्षा करून ब्राह्मणासी । आश्वासिती अतिसंतोषीं। गेले तुझे दरिद्रदोष। म्हणोनि निघती तये वेळीं ।॥४५।। तया विप्रगृहांत। जो कां होता वेल उन्नत । घेवडा नामें विख्यात । आंगम सर्व वेष्टिले ।।४६।। तथा वेलाचे बुडमूळ। श्रीगुरु छेदिती तात्काळ । टाकोनि देती समूळ । गेले आपण संगमासी ।।४७।। विप्रवनिता तये वेळीं। दुःख करिती पुत्र सकळीं। म्हणती पहा हो दैव बळी। कैसें देखें केलें आम्हां ।।४८।। आम्हीं तया यतीश्वरासी। काय उपद्रव केला त्यासी। छेदिलें आमुच्या ग्रासासी । टाकोनि दिलें भूमीवरी ।।४९।। ऐशापरी ती नारी। दुःख करी अनिवारी। पुरुष तिचा कोपें वरी। म्हणे प्रारब्ध प्रमाण ।।५०।। भ्रतार म्हणे तये वेळीं। जें होणार जया काळीं। निमित्य करी चंद्रमौळी। तया आधीन विश्व जाण ।।५१।। विश्वव्यापक नारायण । उत्पत्तिस्थितिलयकारण। पिपीलिकादि स्थूल जीवन। समस्तां आहार करीतसे ॥५२।। आयुरनं प्रयच्छति । ऐसें बोल वेदश्रुति। पंचानना आहार हस्तीं। केवी करीतसे प्रत्यहीं ।। ५३।। चौऱ्यांयशी लक्ष जीवांसी । स्थूल सूक्ष्म समस्तांसी। निर्माण केलें आहारासी। उत्पत्ति केली तदनंतर ।।५४।। रंका राया एक दृष्टीं । करूनि पोषितो हे सृष्टि। आमुचे प्रारब्ध असे वोखटी। तैसे फळ आपणासी ।।५५।। पूर्वजन्मीं निक्षेपण। सुकृत दुष्कृत असे जाण । भोगणें आपुले आपण । पुढिलीयाकरी काय बोल ।।५६।। आपुलें दैव असतां उणे । पुढल्या बोलती मूर्खपणें । जें पेरिलें तें भक्षणें। कवण बोल सांगें मज ।।५७।। बोल ठेविसी ईश्वरासी। आपलें अर्जित न विचारसी। ग्राम घेतला म्हणसी। अविद्यामाया वेष्टोनि ।।५८।। तो तारक आम्हांसी। म्हणोनि आले भिक्षेसी। नेलें आमुच्या दरिद्रासी । तोचि तारी अंतीं आम्हां ।।५९।। येणेंपरी स्त्रियेसी । संबोधित परियेसीं। काहोनि वेल-शाखेसी। टाकिता झाला गंगेत ।।६०।। तया वेलाचे मूळ जरी। जें कां होतें आपुल्या द्वारी। टाकों म्हणूनि द्विजवरी। खणिता झाला त्या काळीं ।। ६१।। काढितां वेलमूळासी। लागला कुंभ निधानेसी। आनंद झाला बहुवसी। घेवोनि गेला घरांत ।।६२।। म्हणे नवल प्रवर्तलें। यतीश्वर प्रसन्न झाले। म्हणोनि वेलासी तोडिलें। निधान लाधले आम्हांसी ।।६३।। नर नव्हे तो योगेश्वर। होय ईश्वरी अवतार। आम्हां भेटला दैन्यहर। म्हणती चला दर्शनासी ।।६४।। जावोनि संगमर्मी गुरुपासीं । पूजा करिती भावेंसी। वृत्तान्त सांगितला तयासी । तये वेळीं हर्षयुक्त ।।६५।। श्रीगुरु म्हणती तयासी। तुम्हीं है न सांगावें कवणासी। अखंड लक्ष्मी तुमचे वंशीं। आम्हां प्रगकतां जाईल ।। ६६।। ऐशापरी द्विजासी । सांगती श्रीगुरू परियेसी । सुखी असावें आपुल्या गृहासी। पुत्रपौत्री नांदावें ।।६७।। ऐसा वर लाघोन' । गेला घरी तो ब्राह्मण। श्रीगुरुकृपा ऐसी जाण। दर्शनमात्रे दैन्य हरे ।। ६८।। ज्यासी होईल गुरुकृपा । त्यासी कैचें दैन्य चापा । कल्पवृक्ष-आश्रय करितां। विघ्न कैचे तया घरीं ।।६९।। दैवें उणा असेल नरु। तेणें भजावा श्रीगुरु । तोचि पावेल पैलपारु । पूज्य होय सकळ लोकां ।।७०।। जो कां भजेल श्रीगुरुतें। हि पर साधे तयातें। अखंड लक्ष्मी सदनाते । अष्टैश्वर्ये नांदती ।।७१।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। श्रीगुरुमहिमा आहे ऐसी। भजावें मनोभावेंसी । कामधेनु तुझें घरी ।।७२।। गंगाधराचा नंदन। सांगे श्रीगुरुचरित्र विस्तारोन । पुढील कथा अमृतपान। ऐका श्रोते हो एकचित्तें ।। ७३।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१८॥
ओवीसंख्या ७३
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक शिष्यराणा। लागला सिद्धाचिया चरणां। करसंपुट जोडूनिया जाणा। विनवीतसे तये वेळीं ।।१।। जय जयाजी योगेश्वरा । भक्तजनमनोहरा। तूंच ज्योती अंधकारा। भवसागरतारक तूं ।।२।। अज्ञानतिमिररजनीत' । निजलों होतों मदोन्मत्त'। गुरुचरित्र मज अमृत। प्राशन करविलें दातारा ।।३।। त्याणें झालें मज वेत'। ज्ञानसूर्यप्रकाश होत। तुझे कृपेनें जागृत। जाहलों स्वामी सिद्धमुनी ।।४।। पुढील कथा विस्तारा। कृपा करी गा दातारा । निरोपावी जी योगेश्वरा। म्हणोनि लागला चरणांसी ।।५।। ऐकोनि शिष्याचें वचन । संतोषला सिद्ध आपण । सांगतसे विस्तारोन। गुरुमहिमा अनुपम ।।६।। शिष्योत्तमा नामांकिता। सांगेन ऐक गुरूची कथा । औदुंबरावृक्षखालतां । होते श्रीगुरु परियेसा ।।७।। ऐकोनि सिद्धाचें वचन । नामधारक करी प्रश्न। अनेक पुण्यवृक्ष त्यजून । कां प्रीति औदुंबरीं ।।८।। अश्वत्थवृक्ष असे धोर। म्हणोनि सांगती वेद चार। श्रीगुरुसी आवडे औदुंबर । कवण कारण निरोपावें ।।९।। सिद्ध म्हणे नामांकिता। सांगेन त्याचिया वृत्तान्ता। जधी नृसिंह अवतार होता । हिरण्यकश्यपवधार्थ ।।१०।। नखेंकरूनि दैत्यासी। विदारियलें कोपेंसी। आंतडी काढोनिया हौं। घालितसे माळ गळां ।।११।। तया दैत्याचे पोटीं। विष होते काळकुटी। जैसा वडवानि सिधुपोटीं । तैसें विष परियेसा ।।१२।। विदारण करितां दैत्यासी। वेधलें विष त्या नखांसी। तापलीं नखें परियेसीं। ऐक शिष्या एकचित्तं ।।१३।। तये समयीं महालक्ष्मी। घेऊनि आली अतिप्रेमीं। औदुंबरफळे नामी। शांतीकारणे नखांसी ।।१४।। तये वेळीं शीतलार्थ। नखें रोविलीं औदुंबरांत। विषाग्रि झाला शांत। उग्र नरसिंह शांत झाला ।।१५।। शांत झाला नरसिंहदेव । देता झाला लक्ष्मीस खेव। संतोषोनि उभय देव। वर देती तये वेळीं ।।१६।। तये वेळीं औदुंबरासी । देतो वर हृषीकेशी। सदा सफळ तूंचि होसी। कल्पवृक्ष तुझे नाम ।।१७।। जे जन भजती भक्तींसी। काम्य होत त्वरितेंसी। तुज देखतां परियेसीं। उग्र विष शांत होय ।।१८।। जे सेविती मनुष्यलोक कामना करूनि अनेक । फळप्राप्ति होय निक'। पापावेगळा होय नरू ।।१९।। वांझ नारी सेवा करितां। पुत्र होती सत्वरतां । जे जन असती दैन्यपीडिता । सेवितां होती श्रियायुक्त ।।२०।। तुझे छायेसी जळांत । स्नान करितां पुण्य बहुत । भागीरथीचें स्नान करीत । तितुकें पुण्य परियेसा ।।२१।। तुझे छाये बैसोन। जे जन करिती अनुष्ठान। अनंत फळ होय ज्ञान। कल्पिलें फळ होय तयांसी ।।२२।। तुज सेवी त्या नरासी। व्याधि न होय कवणे दिवशीं । ब्रह्महत्यादि महादोषी। पुनीत होय परियेसा ।।२३।। जे जन कल्पोनि मानसीं। तुज सेविती भावेंसी । कल्पना पुरती भरंवसी। कल्पवृक्ष तूंचि होसी ।।२४।। मी सदा वसें तुजपाशीं। लक्ष्मीसहित संतोषीं। म्हणोनि वर देती हीं। नरसिंहमूर्ति तये वेळीं ।।२५।। ऐसा वृक्ष औदुंबरु । कलियुगीं तोची कल्पतरु नरसिंहमूर्ति होता उयु । शांत झाली तयापासीं ।।२६।। याकारणें श्रीगुरुमूर्ति नरसिंहमंत्रे उपासना करिती। उग्र करावया शांति । औदुंबरी वास करिती ।।२७।। अवतार आपण तयाचे। स्थान आपुलें असे साचे। शांती करावया उग्रतेचे । म्हणोनि वास औदुंबरी ।।२८।। सहज वृक्ष औदुंबरु। कल्पवृक्षसमान तरु। विशेष वास करी गुरु । कल्पिलों फळे तेथे होतीं ।।२९।। तया कल्पद्रुमातळीं। होते श्रीगुरु चंद्रमौळी। ब्रह्मा विष्णु नेत्रभाळी' मनुष्यदेह धरोनिया ।।३०।। भक्तजनतारणार्थ । पावन करी सर्वतीर्थ। अवतार त्रिमूर्ति श्रीगुरुनाथ। भूमीवरी वर्ततसे ।।३१।। वृक्षातळीं अहर्निशीं। श्रीगुरु असती गौप्येंसी। माध्याह्नकाळसमवासी । समारंभ होय तेथे ।।३२।। अमरेश्वरसन्निधानीं वसती चौसष्ट योगिनी। पूजा करावया माध्याह्रीं। श्रीगुरुजवळी येती नित्य ।। ३३।। नमन करूनि भक्तींसी। नेती आपुल्या मंदिरासी। पूजा करिती विधानेंसी। गंधपरिमळ सुगंधयुक्त ॥ ३४।। आरोगोनि' तया घरीं । पुनरपि येती औदुंबरीं। एखाद्या समयी द्विजवरी। विस्मय करिती देखूनिया ।। ३५।। म्हणती अभिनव यति कैसा। न करी भिक्षा ग्रामांत ऐसा। असे सदा अरण्यवासा। कवणेपरी काळ कंठी ।।३६।। पाहू याचे वर्तमान। एखादा नर ठेवून। नित्य मिक्षा कोठून। पाहू अंत यतीश्वराचा ॥३७।। ऐसें विचारूनि मानसीं । गेले संगमस्थानासी। मध्याह्नसमयीं तयासी। उपजे भय अंतःकरणी ।।३८।। जे पाहों म्हणती गुरूचा अंत । तेचि देखती यमाचा पंथ। ऐसे विप्र मदोन्मत्त। अधोगती तेचि जाती ।। ३९।। उपजतां भय ब्राह्मणांसी। गेले आपुल्या स्थानासी । तव गंगानुज तडियेसी । होता वृत्ति' राखीत ॥४०॥ त्याणें देखिले श्रीगुरूसी । योगिनी आल्या पूजेसी । गंगेमध्ये येतां कैसी। वाट झाली जळांत ।।४१।। विस्मय करी तो नर। म्हणे कैसा यतीश्वर । द्विभाग झालें गंगानीर। केवी गेले गंगेत ।।४२।। श्रीगुरुनाथा नमूनि। पूजा करिती योगिनी। भिक्षा तेथे करूनि । आले मागुती बाहेर ।।४३।। पहात होता गंगानुज। म्हणे कैसें झालें चोज'। अवतार होईल ईश्वरकाज । म्हणोनि पूजिती देवकन्या ।।४४।। येरे दिवशीं मागुती। हाती घेऊनि आरती। देवकन्या ओवाळिती। श्रीगुरुर्ते नमुनी ।।४५।। पुन्हा गंगाप्रवाहांत। श्रीगुरु निघाले योगिनींसहित। जो का नर होता पहात । तोही गेला सर्वेचि ।।४६।। नदीतीरीं जातां श्रीगुरु । द्विभाग जाहलें गंगेत वारू। भीतरी दिसे अनुपम पुरू। श्रीरत्नखचित गोपुरैसी ।।४७।। अमरावतीसमान नगर । जैसें तेज दिनकर। गुरु जातां समस्त पुर। घेऊनि आलें आरती ।।४८।। ओवाळून आरती। नेलें आपुल्या मंदिराप्रती। सिंहासन रत्नखचिती। बैसों घातलें तये वेळीं ।।४९।। पूजा करिती विधींसी। उपचारें षोडशी । अनेकपरी षडूसेंसी। आरोगण केलें तये वेळीं ।॥५०॥ देखोनिया नरासी। म्हणती तूं कां आलासी। विनवी नर स्वामीसी। सहज आलों दर्शना ।।५१।। ऐसें बोलोनि अनन्यशरण। तल्लीन होवोनि अंतःकरण । म्हणे स्वामी गिरिजारमण । होसी त्रिमूर्ती तूंचि एक ।।५२।। न कळे तुझे स्वरूपज्ञान। संसारमाया वेष्टशेन । तूं तारक भवार्ण । उद्धरावें स्वामिया ॥५३।। तूं तारक विश्वासी । म्हणोनि भूमीं अवतरलासी। अज्ञान म्हणिजे रजनीसी । ज्योति स्वरूप तूंचि एक ।।५४।। तुझे दर्शन होय ज्यासी। सर्वाभीष्टें होतीं त्यासी। इहपर अनायासीं । जोडे क्षण न लागतां ।।५५।। ऐसें नानापरी देखा। स्तोत्र करी तो नर ऐका। संतोषूनि गुरुनायका आश्वासिलें तये वेळीं ।॥५६।। श्रीगुरु म्हणती तयासी। तुझें दैन्य गेलें परियेसीं। जी जी इच्छा मानसीं। सकळाभीष्ट पावसी ।।५७।। तुवां पाहिलें वर्तमानासी। न सांगावें कवणापाशीं। ज्या दिवशीं प्रकट करिशी। मृत्यु पावशी तत्काळ ।।५८।। येणेंपरी तवासी । सांगती श्रीगुरु परियेसीं। आले औदुंबरापासीं। गंगानुज समागमें ।।५९।। श्रीगुरुनिरोप घेऊन। गेला गंगानुज आपण। वृत्तिस्थाना जातां जाण। निधान' त्यासी लाघलें' ।।६०।। ज्ञानवंत झाला नर। गुरुचा नित्य अनुचर। धन्य धन्य पुत्रपौत्र। अखिलानंदें वर्ततसे ।।६।। भक्तिभावें श्रीगुरूसी। नमन करी प्रतिदिवशीं । सेवा करी कलजेंसी। एकभावें करूनिया ।।६२।। वर्ततां एके दिवसीं। आली पौर्णिमा माघमासीं। नमन करूनी श्रीगुरुसी। विनवीतसे तो भक्त ।।६३।। म्हणे स्वामी जगदुरू। माघस्नान प्रयाग थोरू। म्हणोनि सांगती द्विजवरू । क्षेत्र धोर काशीपुर ।।६४।। कैसें प्रयाग काशीस्थान। कैसें वाराणसी भुवन। नेणों आपण ज्ञातिहीन । कृपा करणें स्वामिया ॥६५॥ श्रीगुरु म्हणती तयासी। पंचगंगासंगमेसी। प्रयाग जाणावें भरंवसीं । काशीपुर तें गुरुस्थळ ।।६६।। दक्षिणप्रयाग कोल्हापूर । त्रिस्थळी असे मनोहर। जरी पाहसी प्रत्यक्षाकार। दावीन तुज चाल आतां ।।६७।। बैसले होते व्याघ्राजिनीं । मार्गे धरीं रे दृढ करूनि। मनोवेगें तत्क्षणीं। गेले प्रयागा प्रातः काळीं ।।६८।। तेथे स्नान करोनि। गेले काशीस माध्याढी। विश्वनाथासी दाखवूनि । सर्वेच गेले गयेसी ।।६९।। ऐसे त्रिस्थळीं आचरोनि। आले परतोनि अस्तमानीं । येणेंपरी तये स्थानों। देखता झाला तो नर ।।७०।। विश्वनाटक श्रीगुरुमूर्ति। प्रकट झाली असे कीर्ति । श्रीगुरु मनीं विचारिती। आतां येथे गौप्य व्हावें ।।७१।। ऐसेंपरी तये स्थानीं। गुप्त झाले गुरुमुनि अमरेश्वरातें पुसोनि । निघते झाले तये वेळीं ।॥७२।। श्रीगुरु निघतां तेथोनि। आल्या चौसष्ट योगिनी । विनविती करुणावचनीं । आम्हां ठेवोनि केवी जासी ॥७३।। नित्य तुझ्या दर्शनासी। तापत्रय हरती क्षणेसी। अन्नपूर्णा तुम्हांपासीं । केवी राहूं स्वामिया ।।७४।। येणेंपरी श्रीगुरूसी। योगिनी विनविती भक्तींसी। भक्तवत्सलें संतोषी। दिधला कर तये वेळीं ।॥७५।। श्रीगुरु म्हणती तयांसी। सदा असों औदुंबरापासीं। प्रगट जाणें पूर्वेसी। स्थान आमुचे येथेंचि असे ।।७६।। तुम्हीं राहावें औदुंबरी। अमरपुर पश्चिमतीरीं। अन्नपूर्णा निर्धारी। औदुंबरी ठेवितों ।।७७।। कल्पवृक्ष औदुंबर। तेथे असा तुम्ही स्थिर। अमरपुर पश्चिम तीर। आम्हां स्थान हेंचि जाणा ।।७८।। प्रख्यात होईल स्थान बहुत। समस्त नर पूजा करीत। मनकामना होय त्वरित । तुम्हीं त्यासी साह्य व्हावें ।।७९।। तुम्हांसहित औदुंबर। आमुच्या पादुका मनोहर। पूजा करिती जे तत्पर। मनकामना पुरती जाणा ।।८०।। येथे असे अन्नपूर्णा । नित्य करितां आराधना। तेणें होय कामना। चतुर्विध पुरुषार्थ ।।८१।। पापविनाश काम्य तीथीं। सिद्ध तीर्थी स्नान करिती । सात वेळां स्नपन करिती । तुम्हांसहित औदुंबरी ।।८२।। साठ वर्षे वांझेसी । पुत्र होती शतायुषी। ब्रह्महत्यादि पाप नाशी। स्नानमात्रे त्या तीर्थी ।।८३।। सोमसूर्यग्रहणेसी । अमावास्या संक्रमणेसी। स्नान करितां भक्तींसी। अनंत पुण्य असे देखा ।।८४।। सोमवारी अमावास्येसी । व्यतिपातादि पर्वणीसी । स्नान करितां फळें कैसीं। ऐका श्रोते एकचित्तें ।॥८५।। सुवर्णश्रृंग रौप्यखुरेंसी । अलंकारूनी धेनुसी । सहस्र कपिला ब्राह्मणांसी। सुरनदीतीरी दिलें फळ असे ॥८६।। औदुंबरवृक्षातळीं। जप करितां मन निर्मळीं । कोटिगुणें फळे आगळीं। होम केल्या ऐसेंची ।।८८।। रुद्र जपोनि एकादश' । करिती पूजा मानस। अतिरुद्र' केलें फळसदृश । एकचि पुण्य परियेसा ।।८९।। मंदगती प्रदक्षिणा । करितां पावे अनंत पुण्या । पदोपदीं बाजपेय यज्ञा । फळ असे परियेसा ।।९०।। नमन करितां येणेपरी। पुण्य असे अपरंपरी। प्रदक्षिणा दोन चारी। करूनि करणें नमस्कार ।।११।। कुष्ठे असे अंगहीन। त्याणें करणें प्रदक्षिणा। लक्ष वेळ करितां जाणा। देवासमान होय देह ।।९२।। ऐसें स्थान मनोहरु । सहज असे कल्पतरु । म्हणोनि सांगताती गुरु। चतुःषष्टि योगिनीसी ।।९३।। ऐसा निरोप घेऊन। श्रीगुरु निघाले तेथून। जेथे होतें गाणगापुरभुवन। भीमातीरी अनुपम ।।९४।। विश्वरूप जगन्नाथ। अखिलां ठायीं असे बसत । औदुंबरी प्रीति बहुत । नित्य तेथे वसतसे ।।१५।। गौप्य राहोनि औदुंबरी। प्रगटरूपें गाणगापुरीं। राहिले श्रीगुरु प्रीतिकरी । प्रख्यात झाले परियेसा ।।९६।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। गुरुमहिमा आहे ऐसी। प्रगट झाले बहुवसी । गाणगापुरी परियेसा ।।९७।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर । सांगे गुरुचरित्रविस्तार। भक्तिपूर्वक ऐकतां नर। लाभे चतुर्विध पुरुषार्थ ।।९८।। गुरुचरित्र कामधेनु। जे ऐकती भक्तजनु। त्यांचे घरी निधानु। सकळाभीष्ट पावती ।।९९।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । कल्पवृक्ष औदुंबरी तेथ। यक्षिणी योगिनी स्थापित। आपण राहिले गुप्तत्वें ।॥१००॥आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१९॥
ओवीसंख्या १००
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः। नामधारक शिष्यराणा। लागला सिद्धाचिया चरणां। हस्त जोडूनि विनवी जाणा। भावभक्ती करूनिया ।।१।। पुसतसे तये वेळीं। माथा ठेवोनि चरणकमळीं। जय जयाजी सिद्धमौळी'। विनवीतसे अवधारा ।।२।। स्वामी निरोपिलें आम्हांसी। श्रीगुरु आले गाणगापुरासी । गौप्यरूपें अमरापुरासी। औदुंबरी असती म्हणतसां ।।३।। वर देऊनी योगिनींसी। पण आले प्रगटतेसी। पुढें तया स्थानेसी। कीर्ति विस्तारें निरोपावी ।।४।। वृक्ष सांगसी औदुंबरू। निश्चय म्हणसी कल्पतरू । पुढें कवणा झाला वरू। निरोपावें दातारा ।।५।। शिष्यवचन ऐकोनि । संतोषला सिद्धमुनि । सांगतसे विस्तारोनि। औदुंबरस्थानमहिमा ।।६।। सिद्ध म्हणे ऐक बाळा । किती सांगू गुरूची लीळा। औदुंबरी सर्वकाळ। वास आपणा असे जाणा ।।७।। जया नांव औदुंबरु। काय पुससी त्या वरु । जेथे वास श्रीगुरु। कल्पिले फळ देतसे ।।८।। अमित' झाला तेथे महिमा। सांगावया अशक्य आम्हां । एखादा सांगों दृष्टान्त तुम्हां । शिष्योत्तमा नामधारका ।।९।। शिरोळनाम ग्रामासी। विप्र एक परियेसीं । गंगाधर नार्मेसीं। वेदरत होता जाणा ।।१०।। त्याची भार्या पतिव्रता। शांत असे सुशीलता। पुत्र होवोनि सर्वेच मरतां । कष्टतसे येणेंपरी ।।११।। पांच पुत्र तिसी झाले। सर्वेचि पंचत्व' पावले। अनेक देव आराधिले । नव्हे' स्थिर' कवणेंपरी ।।१२।। दुःख करीतसे नारी। व्रत उपाय अपरंपारी। पूर्वकर्म असे धोरी। स्थिर न होती पुत्र तिचे ।।१३।। राहणी कर्मविपाकेंसी। विचार करिती या दोषीं। पुत्रशोक व्हावयासी । सांगती पातक तये वेळीं ।।१४।। सांगताती विद्वज्जन। पुत्र न वांचती काय कारण। पूर्वजन्मींचा दोषगुण। विस्तार करिती तये वेळीं ।।१५।। गर्भपात खियासी। जे जन करिती तामसी। पावती वांझ जन्मांतरासी। झाले पुत्र मरती जाणा ।।१६।। अश्ववध गोवध करी। वांझ होय ज्वरी। एखादा परद्रव्य अपहारी। निपुत्र होय तोचि जाणा ।।१७।। विप्र म्हणती तियेसी । तुझा पूर्वजन्म दोषी। दिसतसे आम्हांसी। सांगों ऐक एकचित्तें ।।१८।। शौनकगोत्र द्विजापासीं। ऋण घेतलें द्रव्यासी । मागतां तूं न देसी। कष्टला तो ब्राह्मण ।।१९।। लोभी होता ब्राह्मण। द्रव्यास्तव दिधला प्राण। आत्महत्या केली त्याणें । तोचि पिशाच झालासे ।।२०।। तो गर्भपात करी तुज। मृत्यु जाहले करी तो द्विज । तुझे कर्म असे सहज । आपली जोडी' भोगावी ।।२१।। ऐकोन ब्राह्मणाचें वचन । विप्रवनिता खेदे खिन्न। अनुतप्न होवोनि अंतःकरण । द्विजचरणी लागली ।।२२।। कर जोडोनि तवे वेळीं। विप्रां विनवी करुणा बहाळी। माथा ठेवोनि चरणकमळीं । पुसतसे तयासी ।।२३।। ऐसी पापिणी दुराचारी। बुडाल्यें पाषसागरी। स्वामी मातें तारी तारी । उपाय सांगा म्हणतसे ।। २४।। ऐसे पापहळाहळीं। बाळकें भक्षिलों चांडाळीं। औषधी सांगा तुम्ही सकळी । म्हणोनिया विनवीतसे ।।२५।। विप्र म्हणती तियेसी । केलें तुवां ब्रह्महत्त्येसी । अपहारिलें द्रव्यासी । ब्राह्मण पिशाच झाला असे ।।२६।। जीं मेला तो द्विजवर। केली नाहीं क्रिया' पर। त्याच्या द्रव्याचा अपहार। केला असे जन्मांतरी ।।२७।। त्याची करावया उद्धारगति। सोळावें' कर्म' करावें रीतीं। द्रव्य द्यावें एकशती । तया गोत्रद्विजासी ।।२८।। तेणें होईल तुज बरखें। एकभावें आचरावें। कृष्णातीरीं असावें। उपवास करावें एक मास ।।२९।। पंचगंगासंगमासी। तीर्थे असती बहुवसी। औदुंबरवृक्षासी। आराधावे परियेसा ।।३०।। पापविनाशी करुनी स्नान । वेळ सात औदुंबर स्नपन । अभिषेकोनि गुरुचरण। पुन्हा स्नान काम्यतीथीं ।॥३१।। विधिपूर्वक श्रीगुरुचरणीं । पूजा करावी एकमनीं। येणेंपरी भक्तिनिर्वाणीं। मास एक आचरावें ।।३२।। स्थान असे श्रीगुरूचें । श्रीनृसिंहसरस्वतीचें। तुझे दोष जातील साचे। होतील पुत्र शतायुषी ।।३३।। मास आचरोनि येणेंपरी। मग विप्रांतें पाचारी । द्रव्य द्यावें शौनकगोत्रीं। द्विजवरासी एकशत ।। ३४।। त्याचे नांवें कर्म सकळ । आचरोनि मन निर्मळ । होतील तुझे कष्ट सफळ। श्रीगुरुनाथ तारील पैं ।। ३५।। गुरुस्मरण करूनी मनीं। तूं जप करी श्रीगुरुचरणीं। घरीं । कीं न मिळे परियेसा ।। ३७।। कष्ट करूनि आपुल्या देहीं। उपवासादि पूजा पाहीं। मासोपवास एकभावीं। करीन आपण गुरुसेवा ।। ३८।। येणेंपरी ती नारी। सांगे आपण निर्धारी। ऐकोनिया द्विजवरी। निरोप दिधला तये वेळीं ।।३९।। विप्र म्हणती ऐक बाळे। तूंतें इतुकें द्रव्य न मिळे। सेवा करी मननिर्मळे। श्रीगुरुचरमी आतांची ।।४०।। निष्कृति' तुझिये पापासी। श्रीगुरू करील परियेसी। औदुंबरसन्निधानेसी। वास असे निरंतर ।।४१।। तो कृपालु भक्तांसी। निवारील ब्रह्महत्येसी । शक्ति असे तुझी जैसी। द्रव्य वेंचर्ची' गुरुनिरोपें ।।४२।। ऐकोनि द्विजाचे वचन । विप्रवनिता संतोषोन। गेली त्वरित ठाकोन। जेथें स्थान श्रीगुरूचें ।।४३।। स्नान करोनि संगमासी । विधिपूर्वक पापविनाशीं । सात वेळ स्नानासी। करी औदुंबरप्रदक्षिणा ।।४४।। काम्यतीर्थी करोनि स्नान । पूजीतसे गुरुचरण । करूनी प्रदक्षिणा नमन। करीतसे उपवास ।।४५।। येणेंपरी दिवस तिनी। सेवा करी ती भामिनी । तोचि विप्र आला स्वप्नीं। द्रव्य मागे एकशत ।।४६।। अद्यापि तूं द्रव्य न देसी। घेईन तुझ्या प्राणासी। पुढे तुझ्या वंशासी। बाढों नेदीं सर्वधा ।।४७।। वायां सायास' करिसी। पुत्र कैचा तुझे वंशासी। म्हणोनी कोपें मारावयासी । आला विप्र स्वप्नांत ।।४८।। भयचकित विप्रवनिता। औदुंबराआड निघतां । तंव देखिले श्रीगुरुनाथा । तयापाठीं निघाली ।।४९।। अभय देवोनि नारीसी। निवारिलें ब्राह्मणासीं । पुसती श्रीगुरु तयासी । कां मारिशी खियेतें ।।५०।। विप्र सांगे श्रीगुरूसी। जन्मांतरीं इणें आपल्यासी। अपहारिलें द्रव्यासी । प्राण त्यजिला यास्तव ।।५१।। स्वामी कृपालु सर्वांसी। आमुचे शत्रूचा पक्षपात करिसी। तुम्ही यतीश्वर तापसी। पक्षपात करूं नये ।।५२।। ऐकोनि तयाचें वचन। श्रीगुरु म्हणती कोपोन। उपद्रविसी कां भक्तजन। तूंतें शिक्षा करीन मी ।।५३।। आम्ही सांगों जेणें रीतीं। जरी ऐकसी हिताचे अथीं। तुज होईल सद्गति । पिशाचत्व परिहरेल ।।५४।। जे का देईल विप्रवनिता। तुवां अंगिकारावें तत्त्वतां। जरी न ये तुझिया चित्ता । तरी जाई येथोन ।।५५।। रक्षीन आपुल्या भक्तांसी। वंशोवंशी अभिवृद्धेसी। पुनरपि जरी पाहों येसी । तरी शिक्षा करूं जाण पां ।।५६।। ऐकोनि गुरूचें वचन । पिशाचे करून नमन। स्वामी देखिले तुझे चरण। उद्धरावें आपणासी ॥५७।। जेणेंपरी आपणासी। उद्धार होय सद्तीसी। कवणेंपरी निरोप देसी। अंगिकारूं स्वामिया ।।५८।। येणेंपरी तवासी । श्रीगुरु सांगती खियेसी। जे असेल तुजपाशीं। अर्पण करी तया नांवें ।।५९।। श्रीगुरु म्हणती तयासी । विप्रवनिता भार्वेसी । कर्म केल्यावर दहावे दिवसीं। गति होईल तुजला जाण ।। ६०।। अष्टतीर्थी स्नान करी। तया नांवें अवधारी । सात दिवस येणेंपरी। स्नपन करीं औदुंबरी ।।६१।। ब्रह्महत्या तुझा दोष। गेला त्वरित निःशेष। कन्या पुत्र पूर्णायुष । होतील म्हणती श्रीगुरु ।। ६२।। ऐसे देखोनि जागृती। विप्रवनिता भयचकिती । ज्ञानें पाहे श्रीगुरुमूर्ति । न विसंबे मनांत ।। ६३।। गुरुनिरोपें दहा दिवस। केलें आचरण परियेस। ब्रह्महत्या महादोष । गति झाली ब्राह्मणासी ।।६४।। येरे' दिवशीं स्वप्नांत। प्रत्यक्ष आले श्रीगुरुनाथ। नारिकेल' दोन देत । भरली ओटी तियेची ।।६५।। म्हणे पारणें करावें आतां। पुत्र होती तुज तत्त्वतां । पुढें त्यांची संतति बहुता। चिंता न करी मानसीं ।।६६।। श्रीगुरुनिरोपें आराधन। केलें दंपत्ये मिळोन। प्रगट झाला गुरू आपण। संपर्क लोह परिसासी ।।६७।। चिंतामणिस्पर्श होतां । लोहपाषाणा कांचनता। तैसी ती विप्रवनिता। पापावेगळी त्वरित झाली ।।६८।। पुढें तये नारीसी । पुत्रयुग्म शतायुषी । झाले श्रीगुरुकृपेंसी। एकचित्तें परियेसा ।। ६९।। व्रतबंध करी ज्येष्ठ पुत्रासी । समारंभ आनंदेंसी। चौलकर्म दुजियासी। करूं पहाती मातापिता ।।७०।। समारंभ करिती जनकजननी। चौलकर्म करणे मनीं। पुत्रासी वर्षे तीन्ही। अतिउल्हास मानसी ।।७१।। समारंभ करिती अतिप्रीती। करिती झाली आइती। पूर्व दिवसीं मध्याद्धरात्री। आली व्याधि कुमारासी ।।७२।। व्याधि असती अनेक । एकाहूनी एक अधिक । तयामध्यें तीव्र दुःख । धनुर्वात तयामाजी ॥७३।। अवयवें अति वांकोनि। दिसे भयानक' नयनीं। येणें परी दिवस तीनी। कष्टतसे तो बाळ ।।७४।। चवथे दिवशीं अस्तमानीं। पंचत्त्व पावला तत्क्षणी। शोक करीतसे जननी। ऐका श्रोते एकचित्तें ।।७५।। आक्रोशोनि भूमीसी। आफळी' शिर सत्राणेंसी'। पाषाण घेवोनि हृदयासी। घात करी ती नारी ।।७६।। देह टाकी भरणीवरी। निर्जीव होवोनि क्षणभरी। आठवी दुःख अपारी। नयनें वारिपूर्ण झाली ।।७७।। प्रेतपुत्रावरी लोळे। आलिंगीतसे बळें। वेष्टोनिया मायाजाळे । प्रलापितसे ती नारी ।।७८।। म्हणे ताता पुत्रराया । प्राणरक्षका माझ्या प्रिया। मातें केवी सोडोनिया। जासी कोठें सांग पां ।।७९।। कोठें गेलासी खेळावया। स्तनीचे क्षीर जातसे वायां । शीघ्र येई गा ठाकोनिया। पुत्रा माझ्या प्राणप्रिया ।।८०।। केवी विसरूं तुझे गुण । पुत्रामाजी तूं निधान। तुझे गोजिरें बोलणें। केवी विसरूं पुत्रराया ।।८१।। तुझ्या स्वरूपाऐसा सुत । केवी देखों मी निश्चित। निधान देखती स्वप्नांत। तैसें मज चाळविलें ।।८२।। पुत्र व्याले पांच जाण । त्यांत एक है निधान। जेव्हां झालें गर्भधारण। तेव्हांपासोनि संतोष ।।८३।। डोहाळे मज उत्तम होती। कधीं नसे चिंता चित्ती। अतिउल्हास मजप्रती। पुत्र होईल म्हणोनिया ।।८४।। श्रीगुरूनें मातें दिधला वर। पुत्र होतील निर्धार। तेणें मज हर्ष थोर। वरद पिंड होईल हा ।।८५।। जधीं तुज प्रसवलें। अनंत सौख्य लाधलें। प्राणप्रिया तुज पोशिलें। मातें रक्षिसी म्हणोनिया ।।८६।। मज भरंवसा तुझा बहुत । वृद्धापकाळी पोषक म्हणत । आम्हां सोडोनि जासीं उचित । धर्म नव्हे पुत्रराया ।।८७।। दुःख झालें मज बहुत । विसरले बाळा तुज देखत। तूंचि तारक आम्हां सत्य । म्हणोनि विश्वासिलों आम्ही ।।८८।। ऐसें नानापरी देख। दुःख करी बहुत शोक । निवारिती सकळ लोक। वायां दुःख कायसे ।।८९।। देवदानवऋषीश्वरांसी। होणार न चुके कवणासी। ब्रह्मा लिही ललाटासी । तेंची अढळ जाण पां ।।१०।। अवतार होती हरिहर। तेही न राहती स्थिर तुम्ही तरी मनुष्य नर। काय अढळ तुम्हांतें ।।९१।। येणेंपरी सांगती जन। आणिक दुःख आठवी मन। म्हणे मातें दिधलीं जाण। स्थिर म्हणोनि दोन्ही फळें ।।९२।। श्रीनृसिंहसरस्वती । भूमंडळीं महाख्याती । औदुंबरी सदा वसती। तेणें दिधला पुत्र मज ।।९३।। त्याचे बोल केवी मिथ्या माझा असे वरद पिता। त्यासी पडे माझी हत्या। पुत्रासवें देईन प्राण ।।९४।। म्हणोनि आठवी श्रीगुरूसी । देवा मज गांजिलेंसी। विश्वासिलें तुम्हांसी। सत्य वाक्य तुझे म्हणोनिया ।।९५।। सत्यसंकल्प तूंचि होसी । म्हणोनि होत्यें विश्वासीं। घात केला आम्हांसी। विश्वासघातकी केवी न म्हणे ।।९६।। त्रयमूर्ती अवतार। तूं नृसिंहसरस्वती नर। ध्रुवा बिभीषणा दिधला वर। केवी सत्य म्हणों आतां ।।९७।। तुझिया बोला विश्वासिलें। आतां मार्ते उपेक्षिलें। मन निष्ठुर केलें। प्राण देईन तुम्हांवरी ।।९८।। लोक येती तुझ्या स्थानीं । सेवा करिती निवसोनि'। औदुंबरा प्रदक्षिणा करूनी। पुरश्चचरणे करिताती ।।९९।। आपण केलें पुरश्चचरण । फळ आलें मज साधन । आतां तुजवरी देतें प्राण। काय विश्वास तुझे स्थानीं ।।१००।। कीर्ति होईल सृष्टीत । आमुचा तुवां केला घात । पुढें तुज भजती भक्त। काय भरंवसा तयांसी ।।१।। ब्रह्मस्वदोषे' पौडोन। धरिले तुझे चरण। अंगिकरोनि मध्ये त्यजणे। टाकितां कोण धर्म घडे ।।२।। व्याघ्रातें धेनु भिऊन। जाय आधार म्हणून। तेथेंचि वधिती यवन । तयापरी मज झालें ।।३।। कीं एखादा देवळासी। जात असे पूजेसी। तें देऊळ तयासी । मृत्युरूपें वर पडे ।।४।। तयापरी आपणासी। झालें स्वामी परियेसीं । माझ्या प्राणसुतासी। न राखिले देवराया ।।५।। येणेंपरी अहोरात्री। दुःख करी ती नारी। उदय जाहला दिनकरी। ती न ऐके कोणाचें ।।६।। द्विज मिळोनि सकळी । येती तये खियेजवळी। वायां दुःख सर्वकाळीं। करिसी तूं मूर्खपणे ।।७।। जे जे समयीं होणार गति । ब्रह्मादिकांसी न चुकती। चला जाऊं गंगेप्रती। संस्कार प्रेता करावया ।।८।। ऐसें वचन ऐकोनि । आक्रोश थोर करोनि । प्रेत पोटासी घरोनि। दीर्घस्वरें रडतसे ।।९।। आपणासहित प्रेतासी। करावें अभिप्रवेशी। बेरवों नेदीं प्रेतासी । म्हणोनि उरी बांधीतसे ।।११०।। लोक म्हणती तियेसी। नव्हेसी तू त्री कर्कशी । प्रेतासर्वे प्राण देसी। कोण धर्म सांग आम्हां ।।११।। न देखों न ऐकों कानीं। पुत्रासवें कोणी गेले प्राणी। वायां बोलती मूर्खपणीं। आत्महत्या महादोष ।।१२।। नानापरी तिवेसी। बोलती लोक परियेसी। केला नियम निचर्येसीं। प्राण त्यजीन पुत्रासवें ।।१३।। दिवस आला दोन प्रहर। प्रेतास करूं नेदी संस्कार। अथवा न ये गंगातीर। ग्रामी आकान्त प्रवर्तला ।।१४।। इतुकिया अवसरीं। आला एक ब्रह्मचारी। सांगे तीतें सविस्तारीं। आत्मज्ञान' तये वेळीं ।।१५।। सिद्ध म्हणे नामधारका । पुढें अपूर्व झालें ऐका। ब्रह्मचारी अपूर्विका। बोधिता झाला ज्ञान तिसी ।।१६।। ब्रह्मचारी नव्हे तोचि गुरु । आला वेषधारी नरु। नृसिंहसरस्वती अवतारु। भक्तवत्सल परियेसा ।।१७।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर । सांग श्रीगुरुचरित्रविस्तार । ऐकतां होय मनोहर। शतायुषी पुरुष होय ।।१८।। भक्तिपूर्वक श्रवण करिती । व्याधि न होय शरीराप्रती । पूर्णायुषी ते होती। सत्य माना माझे बोल ।।१९।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । विप्रखियेसी संतान देत । श्रीनृसिंहसरस्वती पोटीं येत । ब्रह्महत्या वारोनिया ।।१२०।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२०॥
ओवीसंख्या १२०
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । सिद्ध म्हणे नामधारका। ब्रह्मचारी कारणिका उपदेशीं ज्ञान निका। तये प्रेतजननीसी' ।।१।। ब्रह्मचारी म्हणे नारीसी । मूढपणे दुःख करिसी। कोण वांचला धरणीसी। या संसारीं सांग मज ।।२।। उपजला कोण मेला कोण। उत्पत्ति झाली कोठोन। जळांत उपजे जैसा फेण। बुदबुद राहे कोठे स्थिर ।।३।। जैसा देह पंचभूतों । मिळोनि होय आकृति' । वेगळीं होतां पंचभूतीं। अव्यक्त होय देह जाण ।।४।। तया पंचभूतांचे गुण। मायापाशी वेष्टीन । भ्रांति लाविली मी देह म्हणोन। पुत्रमित्रकलत्रमिषे ।।५।। सत्त्व रज तमोगुण। तया भूतांपासोन। सगळाली केलीं लक्षण । होती ऐका एकचित्ते ।।६।। देवत्व होय सत्त्वगुण। रजोगुण मनुष्य जाण। दैत्यांसी तमोगुम। गुणानुसारें कर्मे घडती ।।७।। जेणें कर्म आचरती। सुकृत अथवा दुष्कृति। तैशीच होय फळप्राप्ति। आपुलें आपण भोगावें ।।८।। जैसी गुणाची वासना । इंद्रिये तयाधीन जाणा। मायापाशी वेष्टोनि गहना । सुखदुःखें लिप्त करिती ।।९।। या संसारर्तमानीं । उपजती जंतु कर्मानुगुणी'। आपुल्या आर्जवापासोनि। सुखदुःखादि भोगिती ।।१०।। कल्पकोटी वरुर्षे ज्यांसी। असती आयुष्ये देवऋषि। न सुटे कर्म तयासी। मनुष्याचा कवण पाड ।।११।। एखादा नर देहाधीन। काळ करी आपुले गुम । कर्म होय अनेक गुण। देहधारी येणेंपरी ।।१२।। जो असे देहधारी। तयासी विकार नानापरी। स्थिर नव्हे तो निर्धारी। आपुलें पाप म्हणावया ।।१३।। या कारणें ज्ञानवंत। संतोष न करी उपजत । अथवा नरा होय मृत्यु । दुःख आपण करूं नये ।।१४।। जधीं गर्भसंभव होता। काय दिसे आकारता। अव्यक्त दिसे व्यक्तता । सर्वेचि होयअव्यक्त पैं ।।१५।। चुदबुद निघती जैसे जळीं। सर्वेवि नष्ट तात्काळीं । तैसा देह सर्वकाळीं । स्थिर नव्हे सर्वधा ।।१६।। जी गर्भप्रसव झालें। विनाशी म्हणोनि जाणिलें। कर्मानुबंधे जैसी फळे । तैसे भोगणें देहासी ।।१७।। कोणी मरती पूर्ववयेंसी। अथवा मरती वृद्धपणेंसी। आपुले अर्जती असती जैशी। तेणेंपरी घडे जाण ।।१८।। मायापाशीं वेष्टोनि। म्हणती पिता सुत जननी। कलत्र मित्र तेणें गुणीं। आपुलें आपुलें म्हणती मूद ।।१९।। निर्मळ देह म्हणों जरी। उत्पत्ति मांसरुधिरी। मळमूत्रांत अघोरी। उद्भव झाला परियेसा ।।२०।। कर्मानुसार उपजतांची । ललाटी लिहितो विरंची। सुकृत अथवा दुष्कृतेंची। भोग भोगणें म्हणोनि ।।२१।। ऐसे कर्म काळासी । जिंकिले नाहीं परियेसी। या कारणे देहासी। नित्यत्व नाहीं परियेसा ।। २२ ।। स्वप्नी निधान दिसे जैसे। कोणर्णी धरावे भरेवसें। इंद्रजाल गारूड जैसे। स्थिर केवी मानिजे ।।२३।। तुझे तूंचि सांग वहिलें। कोटी वेळो जन्म झाले । मनुष्य किंवा पशुत्व लाधलें। पक्षी अथवा कृमिरूप ।।२४।। जरी होतीस मनुष्ययोनीं। कोण कोणाची होतीस जननी। कोण कोणाची होतीस गृहिणी । सांग तुझे त्वां निश्वये ।।२५।। कवण तुझीं मातापिता। जन्मांतरींचीं सांग आतां । वायां दुःख करिसी वृथा। पुत्र आपुला म्हणोनि ।।२६।। पंचभूतात्मक देह। चर्ममांस-अस्थि-मज्जा-समूह। वेष्टोनिया नव देह । मळबद्ध शरीर नांवें ।। २७।। कैचा पुत्र कोठें मृत्यु। वायां भ्रमोनि कां रडत। सांडोनि द्यावें कैचें प्रेत । संस्कारिती लौकिकार्थ ।।२८।। येणेंपरी ब्रह्मचारी। सांगे तत्त्व विस्तारी। परिसोनिया विप्रनारी। विनवितसे तवासी ।।२९।। विप्रवनिता तये वेळीं। विनवीतसे करुणा बहाळी। स्वामी निरोपिले धर्म सकळी। परी स्थिर नव्हे अंतःकरण ।।३०।। प्रारब्ध प्रमाण म्हणों जरी। तरी कां भजावा श्रीहरी। परीस संपर्क लोह जरी। सुवर्ण न होय कोण बोले ।।३१।। आम्ही पहिले दैवहीन । म्हणोनि धरिले श्रीगुरुचरण। अभय दिधलें नाहीं मरण। म्हणोनि विश्वासलों आम्ही ।।३२।। एखाद्या नरा येतां ज्वर। धुंडित जाय वैद्यघर। औषध घेवोनि प्रतिकार। सवेंचि करिती आरोग्यता ।।३३।। एके समयीं मनुष्यासी । आश्रय करिती करुणेसी साह्य होय भरवसी। आली आपदा परिहारी ।।३४।। त्रयमूर्तीचा अवतार । श्रीनृसिंहसरस्वती असे नर। तेणें दिधला असे वर। केवी असत्य होय सांगें ।। ३५।। आराधिले म्यां तयासी। वर दिधला गा मजसी। त्याचा भरंवसा मानसीं। घरोनि होतें स्वस्थचित्त ।। ३६ ।। विश्वासुनी असतां आपण। केवी केलें निर्माण। कैसें झालें माझें मूर्खपण। म्हणोनि स्वामी निरोपिसी ।।३७।। याकारणें आपण आतां। प्राण त्वजीन तत्त्वतां । देह समर्पीन श्रीगुरुनाथा। वाढो कीर्ति तयाची ।। ३८।। ऐकोनि तियेचे वचन । ओळखून भाव मन। सांगे बुद्धि तीस ज्ञान। उपाय यासी करी आतां ।।३९।। विश्वास केला श्रीगुरूसी । पुत्र लाधला पूर्णायुषी । जरी आला मृत्यु त्यासी। घेवोनि जाय गुरुस्थाना ।।४०।। जेथे लाधला तुज वर। तेथे ठेव कलेवर । पंचगंगाकृष्णातौर। औदुंचरवृक्षातळी ।।४१।। ऐसे वचन ऐकोनि। विश्वास झाला तिचे मनीं । पाठीं शव बांधोनि । घेवोनि गेली औदुंबरा ।।४२।। जेथे होत्या गुरुपादुका। आफळी' शिर ते बालिका। रुधिरें भरल्या त्या पादुका । आक्रोशें रहे ती नारी ।।४३।। समस्त शोकाहुनी अधिक। साहवेना पुत्रशोक । क्षयरोग तोचि एक । मातापितयां मृत्युमूळ ।।४४।। ऐसें करितां झाली निशी । विप्र मागती प्रेतासी । म्हणती आक्रोश कां हो करिसी । संस्कारोनि जाऊं आतां ।।४५।। मनुष्य नाहीं अरण्यांत। केवी राहूं जाऊं म्हणत। जळू दे वो' आता प्रेत । अहो कर्कशा म्हणे ती ज्ञाती ।।४६।। कांही केलिया नेदी प्रेत। आपणासवें जाळा म्हणत । पोटीं बांधोनिया प्रेत । लोळतसे पादुकांवरी ।।४७।। म्हणती विप्र ज्ञाती लोक। राहों नये रानीं ऐक। तस्करबाधा होईल देख। जाऊं आतां घरासी ।।४८।। जाऊं स्नान करूनि । उपवास होय आजच्या दिनी । प्रातः काळों येवोनि । दहन करूं म्हणताती ।।४९।। आजिचे रात्रीं प्रेतासी। सुटेल वास दुर्गंधीसी। देईल आपोआप दहनासी। त्रासून जाणा कर्कशा ।।५०।। म्हणोनि निघती सकळ लोक। राहिले तेथे जननीजनक। प्रेत देखोनि करिती शोक । झाली रात्री परियेसा ।।५५।। निद्रा नाहीं दिक्स दोन्ही। शोक करिती जनकजननी। तीन याम' होतां रजनी। झॉप आली तियेसी ।।५२।। देखतसे सुषुप्तीत्त'। जटाधारी भस्मोद्धूलित। व्याघ्रचर्मे परिधानित । रुद्राक्षमाळा सर्वांगी ।।५३।। योगदंड त्रिशूळ हातीं। आले औदुंबराप्रति। कां हो शोक करिसी सती। आक्रोशोनि आम्हांवरी ।॥५४॥ काय झालें तुझिया कुमारा। करू त्यासी प्रतिकारा। म्हणोनि दे तो अभय करा। भक्तवत्सल श्रीगुरु ।।५५।। भस्म काढोनि प्रेतासी । लावीतसे सर्वांगासी। मुख पसरी म्हणे तिसी। बाबुपुर करूं म्हणे ।।५६।। प्राण म्हणे वायु जाण । बाहेर गेला निघोन। घातला मागुती आणून । पुत्र तुझा जीवंत होय ।।५७।। इतुके देखोनि भयचकित । झाली नारी जागृत । म्हणे आपणा कैसी भ्रांत। पडिली असे प्रेतावरी ।।५८।। जे कां वसे आपुले मनीं। तैसेंचि दिसे निद्रास्वप्नीं। कैचा देव नृसिंहमुनि। भ्रांति आपणा लागली असे ।।५९।। आमुचे प्रारब्ध असे उणें। देवावरी बोल काय ठेवणें । अज्ञान आम्ही मूर्खपणे। श्रीगुरूवरी बोल काय ।।६०।। येणेंपरी चिंता करीत। तंव प्रेतासी झालें चेत । सर्वांगही उष्ण होत। सर्वसंधी जीव आला ।।६१।। म्हणे प्रेत काय झालें। किंवा भूत संचारलें । मनीं भय उपजलें । ठेवी काढोनि दूर परतें ।। ६२।। सर्व संधीसी जीव आला। बाळ उठोनि बैसला। म्हणे क्षुधा लागली मला। अन्न दे की म्हणे माते ।।६३।। रुदन करीतसे तये वेळीं। आला कुमार मातेजवळी। स्तन घालिता मुखकमळीं । क्षीर निघे बत्तीस धारा ।।६४।। संतोष भय होऊनि तिसी। संदेह वाटे मानसीं। कडे घेऊनि बाळकासी। गेली आपुल्या पतीजवळी ॥६५।। जागृत करूनि पतीसी। सांगे वृत्तान्त तयासी। पति म्हणे तियेसी। ऐसें चरित्र श्रीगुरूचें ।। ६६।। म्हणोनि दंपत्य दोघे जाणा। करोनि औदुंबरी प्रदक्षिणा। साष्टांग नमुनी चरणा। नानापरी स्तोत्रे करिती ।।६७।। जय जयाजी वरदमूर्ति। ब्रह्मा विष्णु शिवयती। भक्तवत्सल तुझी ख्याति । वासना पहासी भक्तांची ।।६८।। तूं तारक विश्वासी। म्हणो णोनि भूमी अवतरलास रलासी। अशक्य तूंते चर्णावयासी। क्षमा करणें स्वामिया ।।६९। ९।। बाळ जैसे कोपेंसी। निष्ठुर बोले म मातेसी । तैसे अविद्यामायापाशीं । तुम्हां निष्ठुर बोलिलों ॥७०॥ सर्वस्वं आम्हां क्षमा करणें । म्हणोनि घालिती लोटांगणें। विनवोनिया करुणावचनें। गेलीं स्नानासी गंगेत ।।७१।। स्नान करोनि बाळकासहित । घुतीं झाली पादुकांचें रक्त। औदुंबरा स्नपन करीत। लाविती दीप तये वेळीं ॥७२॥ पूजा करिती मक्तींसी। मंत्रपूर्वक विधींसी। शमीपत्र कुसुमेसी। पूजा करिती परियेसा ।।७३।। नीरांजन तये वेळां । करिती गायन परिबळा । अतिसंतोष ती अबला । भक्तिभावें स्तुत्ति करीत ।।७४।। इतुकें होय तों गेली निशी। उदय झाला दिनकरासी । संस्कारू म्हणोनि प्रेतासी। आले विप्र ज्ञाती सकळ ॥७५।। तंव देखती कुमारासी। विस्मय झाला सकळिकांसी । समाधान क करिती हीं हर्षीं। महा आनंद वर्तला ।।७६।। ऐसा श्रीगुरुनाथमहिमा। अखिल लोक लाभले कामा। एकेकाची सांगतां महिमा। विस्तार विस्तार होई होईल बहु कथा ।।७७।। पुत्रप्राप्ति वांझेसी। श्रीप्राप्ति दरिद्रघासी । आरोग्य होईल रोगियासी । अपमृत्यु न्युन ये जाणा ॥७८॥ सिद्ध म्हणे नामधारका। स्वानमहिमा ऐशी ऐका । अपार असे सांगतां देखा। साधारम शरम निरोपिले पिलें ॥७९।। तया औदुंबरातळीं । श्रीगुरु वसे सर्वकाळों । काम्य होत तात्काळीं। आराधितां नरहरीसी ॥८०॥ ०।। भाव असावा आपुले मनीं। पूजा करावी श्रीगुरुचरणीं। जो जी वासना ज्याचे मनीं। त्वरित होय परियेसा ।।८१।। हृदयशूळ गंडमाळ । अपस्मार रोग सकळ । परिहरती तात्काळ । श्रीगुरुपादुका अर्चितां ।।८२।। जो असेल मंदमति। बधिर मुका पांगुळ रक्ती'। औदुंबरी सेवा करिती। सुदेह होय सत्य माना ।।८३।। चतुर्विध पुरुषार्थ । तेथें होय निश्चित। प्रत्यक्ष वसे श्रीगुरुनाथ। औदुंबरी सनातन ।।८४।। तया नांव कल्पतरू । प्रत्यक्ष जाणा औदुंबरू। जे जे मनीं इच्छिती नरू। साध्य होय परियेसा ।।८५।। किती वर्णं तेथील महिमा। सांगतां अशक्य असे आम्हां। श्रीगुरुसरस्वती नामा। प्रख्यात असे परियेसा ।।८६।। गंगाधरावा नंदन । सांगे गुरुचरित्र विस्तारोन। भक्तिपूर्वक ऐकती जे जन। सकलाभीष्टे पावती ॥८७॥ म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर । सदा श्रीगुरुचरणी स्थिर। उतरवी पैलपार। इहसौख्य परगति ।।८८।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । गुरुमाहात्म्यपरमामृत । विप्रपुत्रसंजीवनामृत। निरोपिलें असे येथे ।।८९।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२१॥
ओवीसंख्या ८९
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्री गणेशाय नमः। नामधारक शिष्यराणा । लागे सिद्धाचिया चरणां। कर जोडोनिया जाणा। विनवीतसे परियेसा ।।१।। जय जयाजी योगीश्वरा। शिष्यजनमनोहरा । तूंचि तारक भवसागरा। अज्ञानतिमिरा ज्योती तूं ।।२।। तुझा चरणसंपर्क' होतां । झालें ज्ञान मज आतां । परमार्थवासना तत्त्वतां । झाली तुझे प्रसादें ।।३।। दाखविली गुरूची सोय। तेणें सकळ ज्ञान होय। तूंचि तारक योगिराय। परमपुरुषा सिद्धमुनी ।।४।। गुरुचरित्रकामधेनु । सांगितलें मन विस्तारोनु। अद्यापि न धाय माझें मनु। आणिक आवडी होतसे ।।५।। मार्गे तुम्हीं निरोपिलें । श्रीगुरु गाणगापुरीं आले। पुढे कैसें वर्तलें। विस्तारावें दातारा ।।६।। ऐकोनि शिष्याचे वचन। सांगे सिद्ध संतोषोन । म्हणे शिष्या तूं सगुण। गुरुकृपेचा बाळक ।।७।। धन्य धन्य तुझे जीवन। धन्य धन्य तुझे मन। होसी तूंचि पूज्यमान । या समस्त लोकांत ।।८।। तुवां प्रश्न केलासी। संतोष माझ्या मानसीं । उल्हास होतो सांगावयासी । गुरुचरित्रकामधेनु ।।९।। पुढे वाढला अनंत महिमा। सांगतां असे अनुपमा। श्रीगुरु आले गाणगाभुवना । राहिले संगमी गुप्तरूपें ।।१०।। भीमा उत्तरवाहिनीसी। अमरजासंगमविशेषीं। अश्वत्थ नारायण परियेसीं । महावरद स्थान असे ।।११।। अमरजा नदी भोर। संगम झाला भीमातीर। प्रयागासमान असे क्षेत्र । अष्टतीर्थे असती तेथे ।।१२।। तया तीर्थाचें महिमान। अपार असे आख्यान। पुढें तुज विस्तारोन। सांगेन ऐक शिष्योत्तमा ।।१३।। तया स्थानीं श्रीगुरुमूर्ति होती गौप्य अतिप्रीतीं। तीर्थमहिमा करणें ख्याति। भक्तजनतारणार्थ ।।१४।। समस्त तीर्थे श्रीगुरुचरणीं। ऐसें बोलती वेदपुराणीं। त्यासी कायसे तीर्थ गहनी। प्रकाश करी क्षेत्रांसी ।।१५।। भक्तजनतारणार्थ । तीर्थे हिंडे श्रीगुरुनाथ। गौप्य' होतीं कलियुगांत । प्रकट केलीं गुरुनाथे ।।१६।। तेथील महिमा अनुक्रमेसी । सांगों पुढें विस्तारेंसी। प्रकट झाले श्रीगुरु कैसी। सांगेन ऐका एकचित्ते ।।१७।। ऐसा संगम मनोहर । तेथे वसती श्रीगुरुवर। त्रिमूर्तीचा अवतार। गौप्य होय कवणेंपरी ।।१८।। सहख किरणें सूर्यासी। केवी रहावेल गौप्येंसी। आपोआप प्रकाशी। होय सहज गुण तयाचे ।।१९।। वसती रानीं संगमासी। जाती नित्य भिक्षेसी। तया गाणगापुरासी। माध्याह्नकाळीं परियेसा ।।२०।। तया ग्रामीं द्विजवर असती एकशत घर । होतें पूर्वी अग्रहार'। वेदपाठक ब्राह्मण असती ।।२१।। तया स्थानीं विप्र एक। राहत असे सुक्षीण' देख । भार्या त्याची पतिसेवक । पतिव्रता शिरोमणी ।।२२।। वर्तत असतां दरिद्रदोषी असे एक वांझ महिषी। वेसण घातली तियेसी। दंतहीन अतिवृद्ध ।।२३।। नदीतीरी मळियासीं । क्षारमृत्तिका वहावयासी। नित्य द्रव्य देती त्यासी । मृत्तिका' क्षार वहावया ।।२४।। तेणें द्रव्ये वरो' घेती। येणें रीती काळ क्रमिती। श्रीगुरुनाथ अतिप्रीतीं । येती भिक्षेसी त्याचे घरी ।।२५।। विप्र लोक निंदा करिती। कैचा आला वति म्हणती। आम्ही ब्राह्मण असों श्रौती'। न ये भिक्षा आमुचे घरीं ।।२६।। नित्य आमुचे घरी देखा। विशेष अन्न अनेक शाका। असें त्यजुनी यति ऐका। जातो दरिद्रियाचे घरीं ।॥२७।। ऐसें बोलती विप्र समस्त । भक्तवत्सल श्रीगुरुनाथ। प्रपंचरहित परमार्थ। करणें असे आपुल्या मनीं ।।२८।। पाहें पां विदुराच्या घरां। प्रीती कैसी शाङ्गधरा। दुर्योधनराजद्वारा। कीं न वचे' परियेसा ।।२९।। सात्त्विकबुद्धीं जे वर्तती। श्रीगुरूची त्यांसी अतिप्रीति । इह सौख्य अपरा गति। देतो आपल्या भक्तांसी ।।३०।। ऐसा कृपाळू परम पुरुष। भक्तावरी प्रेम हर्ष। त्यासी दुर्बळ काय दोष। रंका राज्य देऊ शके ।।३१।। जरी कोपे एखाद्यासी । भस्म करील परिवेसीं। वर देतां दरिद्रियासी। राज्य होय क्षितीचे ।।३२।। ब्रह्मदेवें आपुल्या करें। लिहिली असती दुष्ट अक्षरें। श्रीगुरुचरणसंपर्क। दुष्टाक्षरें तीं शुभ होतीं ।॥३३।। ऐसें ब्रीद्र श्रीगुरूचें। वर्णं न शके माझे वाचें । थोर पुण्य त्या ब्राह्मणाचें। श्रीगुरु जाती तया परा ।।३४।। वर्तत असतां एके दिवसीं। न मिळे वरू त्या ब्राह्मणासी। घरी असे बांझ महिषी। नेली नाहीं मृत्तिकेसी ।।३५।। तया विप्रमंदिरासी । श्रीगुरु आले मिक्षेसी। महा उष्ण वैशाखमांसी। माध्याह्नकाळीं परियेसा ।।३६।। ऐसें श्रीगुरुकृपामूर्ति। गेले द्विजगृहाप्रती । विप्र गेला याचकवृत्ती । वनिता त्याची घरी असे ।। ३७।। मिक्षा म्हणतां श्रीगुरुनाथ। पतिव्रता आली धावत । साष्टांगीं दंडवत । करिती झाली तये वेळीं ।।३८।। नमन करूनि श्रीगुरूसी। विनवीतसे भक्तींसी। आपला पत्ती याचकवृत्तीसी। गेला असे अवधारा ।।३९।। उत्कृष्ट धान्य घरी बहुत। घेवोनि येतील पती त्वरित । तंववरी स्वामी बैसा म्हणत । पिटें घातलें वैसावया ।।४०।। श्रीगुरुमूर्ति हास्यवदन । बैसते झाले शुभासन। तिये विप्रखियेसी वचन । बोलती क्षीर' कां वो न घालिसी ।।४१।। तुझे द्वारी असतां महिषी। क्षीर कांहों न चालिसी भिक्षेसी । आम्हांतें तूं कां चाळविसी। नाहीं वरू म्हणोनिया ।।४२।। श्रीगुरुवचन ऐकोन । विप्रवनिता करी नमन। वांझ महिषी दंतहीन । वृद्धत्व झालें तियेसी ।।४३।। उपजतांची आमुचे घरी। वांझ झाली दगडापरी । गाभा न वांचे कवणेपरी। रेडा म्हणोनि पोशितों ।।४४।। याचि कारणें तियेसी । वेसण घातली परियेसीं । वाहताती मृत्तिकेसी । तेणें आमुचा योगक्षेम ।।४५।। श्रीगुरु म्हणती तियेसी । मिथ्या बोलसी आम्हांसी। त्वरित जावोनिया महिषीसी । दुहूनि आणी क्षीर आम्हां ।।४६।। ऐसे वचन ऐकोनि। विश्वास झाला तिचे मनीं। काष्ठपात्र घेवोनि । गेली ऐका दोहावया ।।४७।। श्रीगुरुवचन ऐकोन। विप्रवनिता जातां क्षण। दुमली क्षीर संतोषोन। भरणें दोन तये वेळीं ।।४८।। विस्मय करी विप्रवनिता। म्हणे ईश्वर हा तत्त्वतां। याचें वाक्य परिसतां। काय नवल म्हणतसे ।।४९।। क्षीर घेवोनि घरांत आली पतिव्रता त्वरित । तापविती झाली अर्जीत । सवेंचि विनवी परियेसी ।।५०।। श्रीगुरु म्हणती तियेसी । घाली हो क्षीर भिक्षेसी। जाणें आम्हां स्वस्थानासी। म्हणोनि निरोपिती तये वेळीं ।।५१।। परिसोनि स्वामींचें वचन । घेवोनि आली क्षीरभरण'। केलें गुरुनायें प्राशन। अतिसंतोषे करूनिया ।।५२।। संतोषोनि श्रीगुरुमूर्ति। वर देती अत्तिप्रीतीं। तुझे घरी अखंडिती। लक्ष्मी राहे निरंतर ।।५३।। पुत्रपौत्रीं श्रियायुक्त । तुम्ही नांदाल निश्चित। म्हणोनि निघाले त्वरित । संगमस्थानासी आपुल्या ।।५४।। श्रीगुरु गेले संगमासी। आला विप्र घरासी। ऐकता झाला विस्तारेंसी। महिमा श्रीगुरुमूर्तीचा ।।५५।। म्हणे अभिनव झालें थोर। होईल ईश्वरी अवतार । आमुच्या दृष्टीं दिसे नर। परमपुरुष तोचि सत्य ।।५६।। विप्र म्हणे खियेस । आमुचे गेले दरिद्रदोष । भेट जाहली श्रीगुरुविशेष । सकळाभीष्टे साधलीं ।।५७।। म्हणोनि मनीं निर्धार करिती। मेटी जाऊं कैंचा यति । हातीं घेवोनि आरती। गेले दंपती संगमासी ।।५८।। भक्तिपूर्वक श्रीगुरूसी। गंधाक्षताधूपदीपेंसी । नैवेद्यतांबूलप्रदक्षिणेसी । पूजा करि सद्भावें ॥५९।। येणेंपरी द्विजवर। लाघता जाहला जैसा वर। कन्यापुत्र लक्ष्मी स्थिर । पूर्ण आयुष्य झालें जाण ।।६०।। सिद्ध म्हणे शिष्यासी। श्रीगुरुकृपा होय ज्यासी। दैन्य कैसे त्या नरासी । अष्टैश्वर्ये भोगीतसे ।।६१।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर। सांगे गुरुचरित्रविस्तार। ऐकतां होय मनोहर । दैन्यावेगळा होय त्वरित ।।६२।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत। वंद्या महिषी दुग्ध देत। निश्चयाचे चलें सत्य। भाग्य आलें विप्रासी ।।६३।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२२॥
ओवीसंख्या ६३
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः। विनवी शिष्य नामांकित । सिद्ध योगीयातें पुसत। पुढील कथा विस्तारत । निरोपावी दातारा ।।१।। सिद्ध म्हणे ऐक बाळा । श्रीगुरूची अगम्य लीला। तोचि विप्रे प्रकट केला। जेणें वांझ महिषी दुभिली ।।२।। तया ग्रामों येरे दिवसीं । क्षारमृत्तिका वहावयासी। मार्गे आले तया महिषीसी। द्रव्य देऊं म्हणताती ।।३।। विप्र म्हणे तयासी। नेर्दू दुभते महिषीसी। दावीतसे सकळिकांसी। क्षीरभरणें दोनी केलीं ।।४।। करिती विस्मय सकळ जन । म्हणती वांझ दंतहीन । काल होती नाकीं खूण। वेसणरज्जू अभिनव ।।५।। नव्हती गर्भिणी वांझ महिषी। वत्स न होतर्ता दुभे कैसी । वार्ता फाकली विस्तारेंसी। कळली तया ग्रामाधिपतीस ।।६।। विस्मय करुनी तये वेळीं । आला अधिपती तयाजवळी । नमोनिया चरणकमळीं। पुसतसे वृत्तान्त ॥७।। विप्र म्हणे तयासी। असे संगमी संन्यासी । त्याची महिमा आहे ऐसी । होईल ईश्वर अवतार ।।८।। नित्य आमुच्या मंदिरासी। येती श्रीगुरु भिक्षेसी। वरो नव्हती त्या दिवशी । क्षीर आपणा मागितलें ।।९।। वांझ म्हणतां रागावोनि। त्वरें क्षीर दोहा म्हणोनि। वाक्य त्यांचे निघतां क्षणीं । कामधेनूपरी जाहली ।।१०।। विप्रवचन परिसोनि। गेला राजा धावोनि। सर्व दळ शृंगारोनि । आपुले पुत्रकलत्रांसहित ।।११।। लोटांगणे श्रीगुरूसी। पाली राजा भक्तींसी। नमन केलें साष्टांगेंसी। एका भावें करोनिया ।।१२।। जय जयाजी जगदुरु । त्रयमूर्तीचा अवतारु । तुझा महिमा अपरंपारु। अशक्य आम्हां वर्णितां ।।१३।। नेणों आम्ही मंदमति । मायामोहभंधवृत्ति । तूं तारक जगज्योती। उद्धरावें आम्हांतें ।।१४।। अविद्यामायासागरी । बुडालों असों घोर दीं। विश्वकर्ता तारी तारी। म्हणोनि चरणों लागला ।।१५।। विश्वकर्ता तूंचि होसी। हेळामात्रे' सृष्टि रविसी। आम्हां तूं दिसतोसी। मनुष्यरूप धरोनि ।।१६।। वर्णावया तुझा महिमा। स्तोत्र करितां अशक्य आम्हां। तूंचि रक्षिता केशव्योमा'। चिन्मयात्मा जगदूरु ।।१७।। येणेंपरी श्रीगुरुसी। स्तोत्र करी बहुवसी। श्रीगुरुमूर्ति संतोषीं। आश्रासिती तये वेळीं ।।१८।। संतोषोनि श्रीगुरुमूर्ति। तया रायातें पुसती। आम्ही तापसी असों यति। अरण्यवास करितसों ।।१९।। या कारणें आम्हांपासीं । येणें तुम्हां संभ्रमेंसी। पुत्रकलत्रसहितेसी। कवण कारण सांग म्हणती ।।२०।। ऐकोनिया श्रीगुरुचे वचन। राजा विनवी कर जोडून। तू तारक भक्तजन । अरण्यवास कायसा ।।२१।। उद्धरावया भक्तजनां । अवतरलासी नारायणा । वासना जैसी भक्तजना। संतुष्टावें तेणेंपरी ।।२२।। ऐशी तुझी ब्रीदख्याति । वेदपुराणीं वाखाणिती । भक्तवत्सला श्रीगुरुमूर्ति। विनंती माझी परिसावी ।।२३।। गाणगापुर महास्थान। स्वामी करावें पावन । नित्य तेथे अनुष्ठान। वास करणें ग्रामांत ।।२४।। मठ करोनि तये स्थानी। असावें आम्हां उद्धरोनि । म्हणोनि लागे श्रीगुरुवरणी। भक्तिपूर्वक नरेश्वर ।।२५।। श्रीगुरु मनीं विचारिती। प्रगट होणें आली गति । कचित्काळ येणें रीती। वसणें पडे त्या स्थानों ।।२६।। भक्तजनतारणार्थ । अवतार भरिती श्रीगुरुनाथ। राजयाचे मनोरथ । पुरखूं म्हणती तये वेळी ॥२७।। ऐसे विचारोनि मानसीं। निरोप देती नराधिपासी। जैसी तुझ्या मानसीं । भक्ति असे तैसें करी ।।२८।। गुरुवचन ऐकोनि ।। संतोषोनि नृप मुनी। बैसवोनिया सुखासनी। समारंभ निघाला ।।२९।। नानापरींची वाद्ये यंत्र। गीतवाद्यमंगळतुरे। मृदंग टाळ निर्भर वाजताती मनोहर ।।३०।। राव निधे छत्रपताकेसी। गजतुरंगशृंगारेंसी ।। आपुले पुत्रकलजेंसी। सर्वे यतीसी घेवोनि ।।३१।। वेदघोष द्विजवरी। करिताती नानापरी । वाखाणिती बंदिकारी । ब्रीद तया मूर्तीचे ।।३२।। येणेंपरी ग्रामाप्रती। श्रीगुरु आले अतिप्रीतीं। अनेकपरी आरती । घेउनी आले नगरलोक ।।३३।। ऐसा समारंभ बोर। करिता झाला नरेश्वर। संतोषोनि श्रीगुरुवर। प्रवेशले नगरांत ॥॥३४।। तया ग्रामपश्चिमदेशीं। असे अश्वत्थ उन्नतेसी। ओस गृह तयापासीं। असे एक भयंकर ।। ३५।। तया वृक्षावरी एक । ब्रह्मराक्षस भयानक। त्याचे भये असे भाक। समस्त प्राण्यां भय त्याचें ।। ३६ ।। ब्रह्मराक्षस महाक्रूर। मनुष्यमात्रां करी आहार। त्याचें भय असे थोर। म्हणोनि गृह ओस तेथें ।॥ ३७।। श्रीगुरुमूर्ति तये वेळीं। आले तया वृक्षाजवळी । ब्रह्मराक्षस तात्काळीं । येवोनि चरणीं लागला ।।३८।। कर जोडूनि श्रीगुरुसी। विनवीतसे भक्तींसी । स्वामी मातें तारियेसी । घोरांदरी बुडालों ।।३९।। तुझ्या दर्शनमात्रैसी। नासली पापें पूर्वार्जितंसी। तूं कृपाळू सर्वांसी। उद्धरावे आपणातें ।।४०।। कृपालु ते श्रीगुरु। मस्तकीं ठेविती करु। मनुष्यरूपें होवोनि येरु। लोळतसे चरणकमळीं ।।४१।। श्रीगुरु सांगती तयासी। त्वरित जावें संगमासी। स्नान करितां मुक्त होसी। पुनरावृत्ति नाहीं तुज ।।४२।। गुरुवचन ऐकोन । राक्षस करी संगमी स्नान। कलेवरा सोडूनि जाण। मुक्त झाला तत्क्षणीं ।॥४३।। विस्मय करिती सकळ लोक । म्हणती होईल मूर्ति येक। हरी अज पिनाक। हाचि सत्य मानिजे ।।४४।। श्रीगुरु राहिले तया स्थानीं। मठ केला शृंगारोनि। नराधिपशिरोमणी। भक्तिभावें पूजीतसे ।।४५।। भक्तिभावें नरेश्वर। पूजा अर्ची अपरंपार । परोपरी वाद्यगजर। गीतवाद्योंमंत्रेसी ।।४६।। श्रीगुरु नित्य संगमासी। जाती नित्य अनुष्ठानासी । नराधीश भक्तींसी। सैन्यासहित आपण जाय ।।४७।। एखाद्या समवीं श्रीगुरूसी। बैसविती आपुल्या आंदोलिकेसी। सर्व दळ सैन्यैसी । घेवोनि जाय बनांतरा ।।४८।। माध्याइकाळीं परियेसीं। श्रीगुरु येती मठासी। सैन्यासहित आनंदेसी । नमन करी नराधिप ।।४९।। भक्तवत्सल श्रीगुरुमूर्ति। भक्ताधीन आपण असती। जैसा संतोष त्याच्या चित्तीं । तेणेंपरी रहाटत्ती ।।५०।। समारंभ होय नित्य। ऐकती लोक समस्त । प्रगट झाले लोकांत। ग्रामांतरी सकळजनि ।।५१।। कुमसी' म्हणिजे ग्रामासी। होता एक तापसी । त्रिविक्रम भारती नार्मेसी। तीन वेद जाणतसे ॥५२॥ मानसपूजा नित्य करी । सदा ध्याची नरहरी। त्याणे ऐकिलें गाणगापुरी। असे नरसिंहसरस्वती ।।५३।। ऐकतां त्याची चरित्रलीला। मनीं म्हणे दांभिक कळा। हा काय खेळ चतुर्थाश्रमाला । म्हणोनि निंदा आरंभिली ।।५४।। ज्ञानमूर्ति श्रीगुरुनाथ । सर्वांच्या मनींचें जाणत । यतीश्वर निंदा आपुली करीत । म्हणोनि ओळखिलें मनांत ।।५५।। सिद्ध म्हणे नामांकिता । पुढें अपूर्व असे कथा। मन करोनि निर्मळता । एकचित्तें परिस तूं ।।५६।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर। सांगे गुरुचरित्रविस्तार । ऐकतां होय मनोहर । सकळाभीष्ट पाविजे ।।५७।। इति श्रीगुरुचरित्र। गाणगापुरीं पवित्र । ब्रह्मराक्षसा परत्र । निजमोक्ष दीधला ।।५८।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२३॥
ओवीसंख्या ५८
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । सिद्ध म्हणे नामधारका। पुढे अपूर्व वर्तलें देखा। विस्तारे कथाकौतुका । निरोपीन तुज आतां ।।१।। नामधारक म्हणे सिद्धासी। पुढें कथा वर्तली कैसी। विस्तारोनी आम्हांसी। निरोपावी दातारा ॥२॥ शिष्यवचन परिसोनि । सांगता झाला सिद्ध मुनि। ऐक तू वत्सा नामकरणी। गुरुचरित्र अभिनव ।।३।। ऐसा त्रिविक्रम महामुनि। जो का होता कुमसीस्थानी। निंदा करी सर्व जनीं। दांभिक संन्यासी म्हणोनि ।।४।। ज्ञानवंत श्रीगुरुमूर्ति। विश्वाच्या मनींचे ओळखती। नराधिपासी सांगती। निंदा करितो म्हणोनि ।।५।। श्रीगुरु म्हणती तये वेळीं। आजची निघावें तात्काळीं । त्रिविक्रमभारतीजवळी। जाणे असे कुमसीस ।।६।। ऐकोनि राजा संतोषला। नानालंकार करिता जाहला। हत्ती अश्वपायदळा। शृंगार केला तये वेळीं ।।७।। समारंभ केला थोरु। आंदोळी' बैसले श्रीगुरु। नानापरी वाद्यगजरु। करूनिया निघाले ।।८।। ऐसेंपरी श्रीगुरुमूर्ति। तया कुमसी ग्रामा येती । त्रिविक्रमभारती। करीत होता मानसपूजा ।।९।। मानसपूजा नरहरीसी ।। नित्य करी भावेंसी। स्थिर न होय तया दिवसीं। मानसमूर्ति नरकेसरी ।।१०।। मनी चिंता करी यति। कां पां न ये मूर्ति चित्तीं। वृथा झाली तपोवृत्ति। काय कारण म्हणतसे ।।११।। बहुत काळ आराधिले । कां पां नरसिंहें उपेक्षिलें। तपफळ वृथा गेलें। म्हणोनि चिंता करीतसे ।।१२।। इतुकें होतां त्या अवसरी। श्रीगुरुर्ते देखिलें दूरी। येत होते नदीतीरों। मानसपूजेच्या मूर्तिरूपें ।।१३।। सर्व दळ दंडाघारी। तयांत एकरूप हरी। भारती देखोनि विस्मय करी। नमन करीत निघाला ।।१४।। साष्टांग नमन करोनि। जावोनि लागे श्रीगुरुचरणी। सर्वचि रूपें झाला प्राणी। दंडधारी यतिरूप ।।१५।। समस्तरूप एकसरी । दिसताती दंडधारी । कवण लघु कवण थोरी। न कळे तया त्रिविक्रमा ।।१६।। भ्रांत झाला तये वेळीं । पुनरपि लागे चरणकमळीं । ब्रह्मा विष्णु चंद्रमौळी। त्रिमूर्ति तू जगदूरु ।।१७।। तुझे न कळे स्वरूपज्ञान । अविद्यामाया वेष्टोन। निजरूप होऊन। कृपा करणें दातारा ।।१८।। तुझे स्वरूप अवलोकितां । आम्हां अशक्य गुरुनाथा । चर्मचक्षुकरूनि आतां। पाहुं न शके म्हणतसे ।।१९।। तूं व्यापक सर्वां भूतीं। नरसिंहमूर्ति झालासी यति। प्रगट नरसिंहसरस्वती। समस्त दिसती यतिरूप ।।२०।। नर्मू आत्तां सांग कवणा। कवणापुढे दाखवू करुणा । त्रिमूर्ति तूं ओळखसी खुणा । निजरूपें रहावें स्वामिया ।।२१।। तप केलें बहुत दिवस। पूजा केली तुझी मानस । आजि आली गा फळास। मूर्ति साक्षात भेटली ।।२२।। तूं तारक विश्वासी। उद्धराया आम्हांसी । म्हणोनि भूमी अवतरलासी। दावीं स्वरूप चिन्मय ।।२३।। ऐसेंपरी श्रीगुरूसी। स्तुति केली भक्तींसी। श्रीगुरुमूर्ति संतोषी । जाली निजमूर्ति एक ।।२४।। व्यक्त पाहे तये वेळीं। दिसों लागलें सैन्य सकळी। तयामध्ये चंद्रमौळी। दिसे श्रीगुरु भक्तवरद ।।२५।। श्रीगुरु म्हणती तयासी। नित्य आमुची निंदा करिसी । दांभिक नांवे आम्हांसी। पाचारिसी' मंदमती ।।२६।। या कारणें तुजपासीं । आलों तुझ्या परीक्षेसी। पूजा करिसी तूं मानसीं। श्रीनृसिंहमूर्तीची ।।२७।। दांभिक म्हणजे कवण परी। सांग आतां विस्तारों। तुझे मनीं वसे हरी। तोचि तुज निरोपी ।। २८ ।। ऐकोनि श्रीगुरूचें वचन । यतीश्वर करी नमन। सदूरु स्वामी कृपा करून। अविद्यारूप नासावें ।। २९।। तूं तारक विश्वासी। त्रयमूर्ति अवतार तूंचि होसी। मी वेष्टोन मायापाशी । अज्ञानपणे वर्ततों ।।३०।। मायामोह अंधकारी । बुडालों अज्ञानसागरी। न ओळखें परमार्थ विचारों। दिवांध झालों स्वामिया ।। ३१।। ज्योतिस्वरूप तूं प्रकाशी। स्वामी मातें भेटलासी । क्षमा करावी बाळकासी। उद्धरावें दातारा ।।३२।। अविद्यारूप समुद्रांत। होतों आपण बहात। न दिसे पैल अंत। बुडतसों स्वामिया ।।३३।। ज्ञानतारवीं बैसवोनि। करुणावायु प्रेरूनि। पैलथडीं निजस्थानीं। पाववीं स्वामी कृपासिंधु ।।३४।। तुझी कृपा होय ज्यासी। दुःखदैन्य कैचे त्यासी। तोचि जिंकील कळिकाळासी। परमार्थी ऐक्य होय ।। ३५।। पूर्वी कथा ऐकिली श्रवणीं। महाभारत पुराणी । दाविले 1. रूप' अर्जुना नयनों। प्रसन्न होवोनि तयासी ।। ३६ ।। तैसें तुम्हीं मजला आज। दाविलें स्वरूप निज। अनंत महिमा तुझी चोज । भक्तवत्सला गुरुनाथा ।। ३७।। जय जयाजी जगदूरु। तूं तारक भवसागरु। त्रयमूर्तीचा अवतारु । नरसिंहसरस्वती ।।३८।। कृतार्थ झालों जी आपण । देखिले आजि तुमचे चरण। न करितां प्रयत्न। भेटला रत्नचितामणी ।।३९।। जैसी गंगा सगरांवरी। कडें केलें भवसागरी। जैसा विष्णु विदुराघरी। आला आपण कृपावंत ।।४०।। भक्तवत्सला तुझी कीर्ति। आम्हां दाविली प्रचीति । वर्णावया नाहीं मति। अनंतमहिमा जगदूरु ।।४१।। येणेंपरी श्रीगुरूसी । करी स्तोत्र बहुवसी। श्रीगुरुमूर्ती संतोषीं। दिघला वर तये वेळीं ।॥४२।। वर दे तो त्रिविक्रमासी। तुष्टलों तुझ्या भक्तींसी। सद्गति होय भरंवसीं। पुनरावृत्ति' नाहीं तुज ।।४३।। तुज साधला परमार्थ। होईल ईश्वरी ऐक्यार्थ । ऐसें म्हणोनि गुरुनाथ। निघाले आपुल्या निजस्थाना ।।४४।। वर देवोनि भारतीसी। राहविलें तेथे कुमसीसी। क्षण न लागतां परियेसीं। आले गाणगापुरासी ।।४५।। सिद्ध म्हणे नामधारका। श्रीगुरुमहिमा ऐसा निका। त्रिमूर्ति तोचि ऐका । नररूपें वर्ततसे ।।४६।। ऐसा परमपुरुष गुरु। त्यातें जे कोणी म्हणती नरु। तेचि पावती यमपुरु। सप्तजन्मपर्यंत ।।४७।। गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु। गुरुचि होय गिरिजारमणु। वेदशास्त्रपुराणु। बोलती हे प्रसिद्ध ।।४८।। या कारणे श्रीगुरूसी । शरण जावें निश्चयेंसी। विश्वासावें माझ्या बोलासी। लीन व्हावें श्रीगुरुचरणों ।॥४९।। अमृताची आरवटी' । घातली असे गोमटी। ज्ञानी जन प्राशिती घोटीं। गुरुचरित्रकामधेनु ।।५०।। गंगाधराचा नंदन । सांगे गुरुचरित्र विस्तारोन । भक्तिपूर्वक ऐकती जन। लाघती पुरुषार्थ ।।५१।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२४॥
ओवीसंख्या ५१
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । जय जयाजी सिद्धमुनी। तूंचि गुरुशिरोमणी। साक्षी येतसे अंतःकरणीं। बोलिला मातें परमार्थ ।।१।। ऐसा कृपाळु परमेश्वर। आपण झाला अवतार । येरां दिसतसे नर। तेचि अज्ञानी प्रत्यक्ष ।।२।। तया त्रिविक्रमभारतीसी । दाविले रूप प्रत्यक्षंसी। पुढें कथा वर्तली कैसी। निरोपावी दातारा ।।३।। सिद्ध म्हणे ऐक बाळा। श्रीगुरूची अगम्य लीला। सांगतां न सरे बहु काळा। साधारण मी सांगतसें ।।४।। समस्त लीला सांगतां । विस्तार होईल बहु कथा। या कारणें कचिता'। निरोपीतसें बाळका ।।५।। पुढें अपूर्व वर्तले एक। ऐक शिष्या नामधारक । विदुरा नामें नगर एक । होता राजा यवन तेथे ।।६।। महाक्रूर महाद्वेषी। सदा करी जीवहिंसी। चर्चा करवी ब्राह्मणांसी। वेद म्हणवी आपणापुढे ॥७।। विप्रांसी म्हणे यवन। जे कां असती विद्वज्जन। आपुल्या सभेत येऊन । वेद सर्व म्हणावे ।।८।। त्यातें द्रव्य देईन बहुत। सर्वांमध्ये मान्यवंत। जो कां सांगेल वेदार्थ। विशेष त्याची पूजा करूं ।।९।। ऐसें ऐकूनि ज्ञानी जन। नेणों म्हणती वेद आपण। जे कां असती मतिहीन। कांक्षा करिती द्रव्याची ।।१०।। जावोनियां म्लेंच्छापुढे। वेदशास्र वाचिती गाहें। म्लेंच्छ मनीं असे कुठें। ऐके अर्थ यज्ञकांडाचा ।।११।। म्हणे विप्र यज्ञ करिती। पशुहत्या करणें रीती। आम्हां म्लेंच्छांतें निंदिती। पशु चधिती म्हणोनिया ।।१२।। येणेंपरी ब्राह्मणासी। निंदा करी बहुवसीं। योग्यता पाहून द्विजवरांशीं। अपार द्रव्य देतसे ।।१३।। येणेंपरी तो यवन । देतो द्रव्य म्हणोन। ऐकते झाले सकळ जन । देशादेशीं विप्रवर्ग ।।१४।। वेदशाखीं निपुण । द्रव्यावरी ठेवुनी मन। भेटीसी जाती ब्राह्मण। वेद म्हणती यवनापुढें ।।१५।। ऐसे मंदमति विप्र। त्यांची जोडी यमपुर । मदोन्मत्त दुराचार । तेव इष्ट कलीचे ।।१६।। येणेंपरी वर्तमानीं। वर्तत असतां एके दिनीं। मंदभाग्य विप्र दोनी। येवोनि भेटले राया ।।१७।। वेदशास्त्र अभिज्ञाती। तीन वेद जाणों म्हणती । तथा यवनापुढे कीर्ति। आपली आपण सांगती ।।१८।। विप्र म्हणती रायासी। कोणी नाहीं आम्हांसरसी। वाद करावया वेदांसी। नसती चारी राष्ट्रांत ।।१९।। असती जरी तुझ्या नगरी। त्वरित येथे पाचारी। आम्हांसवें वेद चारी। चर्चा करावी द्विजांनीं ।।२०।। विप्रवचन ऐकोनि । राजा पडला अभिमानीं। आपुल्या नगरचे विप्र आणोनि । समस्तांतें पुसे तो ।।२१।। राजा म्हणे समस्तांसी। चर्चा करावी तुम्हीं यांसीं। जे जिकिती तकैसी। त्यांसी अपार द्रव्य देऊं म्हणे ।।२२।। ऐकोनिया ज्ञानी जन । म्हणती म्लेंच्छालागून । आम्हां योग्यता नाहीं जाण। या ब्राह्मणांतें केवी जिंकूं ।।२३।। आम्हांमध्यें हेचि श्रेष्ठ । विप्र दोघे महासुभट। बांतें करोनि प्रगट। मान द्यावा महाराज ।। २४।। ऐसें म्हणती द्विज समस्त । ऐकोनि राजा मान देत। वर्षे भूषणें देई विचित्र। गजावरी आरूढविले ।।२५।। आरूतयोनि हस्तीवरी। मिरवा म्हणे आपुल्या नगरी। नाहीं विप्र यांचे सरी। हेचि राजे विप्रांचे ।।२६।। आपण राजा बवनांसी। हे दुजे राजे द्विजांसी। ऐसे भूसुर' तामसी । म्लेंच्छापुढें वेद म्हणती ।।२७।। महातामसी ते ब्राह्मण । द्विजांतें करूनिया दूषण । राजे म्हणविती आपण। तया यवनराज्यांत ।।२८।। ऐसे असतां वर्तमानों। विप्र मदांधे व्यापूनि। राजापुढे जावोनि । विनविताती परियेसा ।।२९।। विप्र म्हणती रावासी। आम्हां योग्यता बहुवसी। न मिळे एखादा वादासी । वृथा झालें शिकोनिया ॥३०।। आमुचे मनीं बहु आर्ता। करणे वाद वेदशास्त्रीं। निरोप देई जाऊं आतां । विचारू तुझ्या राष्ट्रांत ।। ३१।। जरी मिळेल एखादा नरू। तयासवे चर्चा करूं। न मिळे तैसा द्विजवरू। जयपत्र घेऊं ब्राह्मणांचे ॥३२॥ राजा म्हणे तयांसी। जावें राष्ट्रीं त्वरितेंसी। पराभवावें ब्राह्मणांसी। म्हणोनि निरोप देता झाला ।।३३।। यवनाचे आजेंसी। निघाले द्विजवर तामसी। पर्यटन करितां राज्यासी। गांवोगांवीं विचारिती ।।३४।। गांवोगांवी हिंडती। जयपत्रे लिहून घेती। ऐसी कवणा असे शक्ति। तयांसन्मुख उभे रहावें ।॥३५।। समस्त नगरे हिंडत । पुढे गेले दक्षिणपंथ । भीमातीरी असे विख्यात । कुमसी ग्राम उत्तम ।।३६।। तेथे होता महामुनि । त्रिविक्रमभारती म्हणुनी। त्यासी येती वेद तिन्ही। अनेकशास्त्रीं अभिज्ञ' तो ।।३७।। महामुनि कीर्तिमंत । म्हणोनि सांगती जन समस्त । ऐकती द्विज मदोन्मत्त। गेले तया मुनीपासीं ।॥ ३८।। जावोनि म्हणती तयासी । त्रिवेदी ऐसें म्हणविसी। चर्चा करावी आम्हांसी। अथवा द्यावें हारिपत्र' ।। ३९।। विप्रवचन ऐकोनि । म्हणतसे त्रिविक्रममुनि। आम्ही नेणों वेद तिन्ही। अथवा न ये वेद एक ।।४०।। जरी जाणों वेदशास्र। तरी कां होतों अरण्यपात्र । वंदन करिते राजे सर्वत्र । तुम्हांसारखे भोग करितों ।।४१।। नेणों म्हणोनि अरण्यवासी। वेष घेतला मी संन्यासी। आम्ही भिक्षुक तापसी । तुम्हांसमान नव्हे जाणा ।।४२।। हारी अथवा जिंकून। नाहीं तयाचा अभिमान। तुम्हीं उत्कृष्ट विद्वज्जन । आम्हांसवें काय वाद ।।४३।। ऐकोनि मुनींचें वचन । तवका' आले ते ब्राह्मण । आम्हांसर्वे वाद कवण। घाली ऐसा त्रिभुवनीं ।॥४४।। हिंडत आलों अवघे राष्ट्र। आम्हांसमान नाहीं नर। म्हणोनि दाखविती जयपत्र । असंख्यात परियेसा ।।४५।। येणेंपरी आपणांसी। जयपत्र द्यावे विशेषों। अभिमान असल्या मानसी । करीं वाद म्हणताती ।।४६।। अनेकपरी ब्राह्मणांसी। सांगे मुनि विनयेंसी। ऐकती ना द्विज महाद्वेषी। मागती जयपत्र आपुलें ।।४७।। त्रिविक्रम महामुनि । आपुले विचारी अंतःकरणी। यांतें न्यावें गाणगाभुवनीं। शिक्षा करणे द्विजांतें ।।४८।। विप्र मदांधे व्यापिले। अनेक ब्राह्मण धिक्कारिले । त्यांतें करणें उपाय भले। म्हणोनि योजिलें मनांत ।।४९।। त्रिविक्रम म्हणे विप्रांसी। चला गाणगाभुवनासी। तेथे देईन तुम्हांसी। जयपत्र विस्तारें ।।५०।। तेथे असती आपुले गुरु । तयांपुढें पत्र देईन निर्धारू । अथवा तुमच्या मनींचा भारू। शमन करूं म्हणे देखा ।।५१।। ऐशी निगुती' करूनि । निघाला त्रिविक्रम महामुनि । सवें वेती विप्र दोनी। आंदोलिके' बैसोनिया ।।५२।। मूढ़ ब्राह्मण अज्ञानी। यतीश्वरा चालवोनि। आपण बैसले सुखासनीं। म्हणोनि अल्पायुषी झाले ।।५३।। पावले तया गाणगापुरा। जें कां स्थान गुरुवरा। रम्य स्थान भीमातीरां। वास नरसिंहसरस्वती १॥५४।। नमन करूनि श्रीगुरूसी। विनवी मुनि भक्तींसी। कृपामूर्ति व्योमकेशी। भक्तवत्सला परमपुरुषा ।।५५।। जय जयाजी जगदुरु । निर्गुम तूंचि निर्विकारु। त्रयमूर्तीचा अवतारु । अनाथांचा रक्षक ।।५६।। दर्शन होतां तुझे चरण । उद्धरे संसारा भवार्ण । नेणती मूढ अज्ञानजन। अधोगतीचे ते इष्ट ।।५७।। सद्गदित कंठ झाला। रोमांच अंगीं उठला। नेत्रीं बाष्प आनंद झाला । माथा ठेवी चरणावरी ॥५८।। नमन करितांचि मुनीश्वरातें। उठविलें श्रीगुरुनाथें । आलिगोनि करुणावक्त्रे' । पुसताती वृत्तान्त ।।५९।। श्रीगुरु पुसती त्रिविक्रमासी। आलेत कवणे कार्यासी। विस्तारोनि आम्हांसी। निरोपावें मुनिवरा ।।६०।। श्रीगुरूचें वचन ऐकोनि । सांगतसे त्रिविक्रममुनि । मदोन्मत्त विप्र दोनी। आले असती चर्चेसी ।।६१।। वेदशाखादि मीमांसें। म्हणती चर्चा करूं हर्षे। वेद चारी जिव्हाग्रीं वसे। म्हणती मूढ विप्र दोनी ॥६२।। जरी न करा चर्चेसी। पत्र मागती हारीसी। अनेकापरी तयांसी। सांगतां न ऐकती उन्मत्त ।।६३।। म्हणोनि आलों तुम्हांजवळी । तुम्ही श्रीगुरु चंद्रमौळी। तुमचे वाक्य असे बळी। तेणेंपरी निरोपावें ।। ६४।। मुनिवचन ऐकोनि। श्रीगुरु म्हणती हास्यवदनीं । आले होते विप्र दोनी। त्यांते पुसती वृत्तान्त ।।६५।। श्रीगुरु म्हणती विप्रांसी। कवण आलेत कार्यासी । वाद कायसा आम्हांसी। लाभ काय वादे तुम्हां ।। ६६।। आम्ही तापसी संन्यासी। आम्हां हारी कायसी । काय थोरी तुम्हांसी। जय होता यतीसवें ।। ६७।। श्रीगुरुवचन ऐकोनि । बोलताती विप्र दोनी। आलों पृथ्वी हिंडोनि । समस्त विष जिकीत ।।६८।। नव्हे कोणी सन्मुख । वेदचर्चापराङ्मुख। म्हणोनि पत्रे अनेक । काढोनिया दाखविलीं ।।६९।। येणेंपरी आम्हांसी। पत्र देता कां सायासी। कोप आला त्रिविक्रमासी। घेवोंनि आला तुम्हांजवळीं ॥७०।। जरी असाल साभिमान। तुम्हांसहित दोघेजण। वेदशाखादि व्याकरण। चर्चा करूं म्हणती विप्र ।।७१।। आम्ही जाणों वेद चारी। न होती कोणी आम्हांसरी। तुम्ही दोघे यतीश्वरी। काय जाणाल वेदान्त ।।७२।। श्रीगुरु म्हणती विप्रांसी । गर्वे नाश समस्तांसी । देवदानवादिकांसी। गर्दै मृत्यु लाधला जाणा ।।७२।। गर्दै बळीसी काय झालें। बाणासुरासी फळ आलें। लंकानाथ कौरव गेले। वैवस्वतक्षेत्रासी ।।७४।। कवण जाणे वेदान्त । ब्रह्मादिकां न कळे अंत । वेद असती अनंत। गर्व वृथा तुम्ही करितां ।। ७५ ।। विचाराल आपुलें हित। तरी सांडा सर्व भ्रांत । काय जाणतां वेदान्त । चतुर्वेदी म्हणवितां ।। ७६ ।। श्रीगुरूचें वचन ऐकोनि। गर्वे दाटले बहु मनीं। जाणों आम्ही वेद तीन्ही। सांग संहिता परियेसा ।। ७७।। येणेंपरी श्रीगुरूसी। बोलती ब्राह्मण परियेसीं । सिद्ध म्हणे नामधारकासी । अपूर्व पुढें वर्तलें ।।७८।। वेद चारी आदि अंर्ती। श्रीगुरु ब्राह्मणां निरोपिती। सांगेन ऐका एकचित्तीं । म्हणे सरस्वतीगंगाधर ।।७९।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२५॥
ओवीसंख्या ७९
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणांसी। नका भ्रमूं युक्तीसी। वेदान्त न कळे ब्रह्मयासी। अनंत वेद असती ।।१।। वेदव्यासासारिखे मुनि । नारायण अवतरोनि। वेद व्यक्त करोनि। व्यास नाम पावला ।।२।। तेणेंही नाहीं पूर्ण केलें। साधारण सांगितलें । शिष्य होते चौघे भले। प्रख्यात नामें अवधारा ।।३।। शिष्यांची नामें देखा। सांगेन विस्तारें ऐका। प्रथम पैल दुजा वैशंपायन निका। तिसरा नामें जैमिनी ॥४।। चौथा सुमंतु शिष्य। करीन म्हणे विद्याभ्यास। त्यांसी म्हणे वेदव्यास । अशक्य तुम्हां शिकतां ।।५।। एक वेद व्यक्त शिकतां। पाहिजे दिनकल्पांता । चारी वेद केवी वाचितां। अनंत वेद असे महिमा ।।६।। ब्रह्मकल्प तिन्ही फिरले वर्षांवर्षी वांचले। ब्रह्मचर्य आचरले । वेद पूर्ण शिकों म्हणोनि ।।७।। या वेदांचें आर्थात सांगेन ऐका एकचित्त। पूर्वी भारद्वाज विख्यात । ऋषि अभ्यास करीत होता ।।८।। लवलेश आले त्यासी। पुनरपि करी तपासी। ब्रह्मा प्रसन्न झाला परियेसीं। काय मागशील म्हणोनि ।।९।। भारद्वाज म्हणे ब्रह्मयासी। स्वामी मज प्रसन्न होसी। वेद शिकेन आद्यंतेंसी। ब्रह्मचर्य आश्रमीं ।।१०।। वेदान्त मज दावावे। सर्व मातें शिकवावें। ऐसे वरदान द्यावें। म्हणोनि चरणी लागला ।।११।। ब्रह्मा म्हणे भारद्वाजासी। मिती नाहीं वेदांसी। सर्व कैसा शिकों म्हणसी। आम्हांसी वेद अगोचर ।।१२।। तुज दावितों पहा सकळ । करोनि मन निर्मळ शक्ति झालिया सर्व काळ। अभ्यास करी भारद्वाजा ।।१३।। ऐसें म्हणोनि ऋषीसी। ब्रह्मा दावी वेदांसी। दिसताती तीन राशी। गिरिरूप होवोनि ।।१४।। ज्योतिर्मय कोटिसूर्य । पाहतां ऋषीस वाटे भय। वेदराशी गिरिमय। केवी शिकू म्हणतसे ।।१५।। तिन्ही ब्रह्मकल्पांवरी। आचरले आश्रम चारी। वेद शिकले तावन्मात्रीं। एवढें गिरी केवी शिकों ।।१६।। म्हणोनि भयभीत झाला। ब्रह्मयाचे चरणी लागला। म्हणे स्वामी अशक्य केवळा। क्षमा करणें म्हणतसे ।।१७।। या वेदाचा आद्यंत। आपण पहावया अशक्त । तूंचि जाणसी जगन्नाथ। जें देशी तें घेईन ।।१८।। तूं शरणागता आधार। माझे मर्नी वासना थोर । वेद शिकावें अपार । म्हणोनि आलों तुजपासीं ।।१९।। वेद देखोनि अमित। भय पावलें वित्त। जे द्याल उचित । तेंचि घेऊं परियेसा ।।२०।। ऐसे वचन ऐकोन । ब्राह्मदेव संतोषोन। देता झाला मुष्टी तीन। अभ्यासावया ।।२१।। तीन वेदांचे मंत्रजाळ । वेगळे केलें तत्काळ। ऐसे चारी वेद प्रबळ । अभ्यासी भारद्वाज ।।२२।। अजून पुरतें नाहीं त्यासी । केवी शिकों पाहती वेदासी। सांगा तुम्ही परियेसीं। चौघे वाचा चारी वेद ।।२३।। पूर्ण एक एक वेदासी। शिकतां प्रयत्न मोठा त्यासी। सांगेन थोडे तुम्हांसी। व्यक्त करावया अभ्यास ।।२४।। शिष्य म्हणती व्यासासी । एक एक वेद आम्हांसी। विस्तारावें आद्यतेंसी। शक्त्यनुसार अभ्यास करूं ।। २५।। ऐसें विनविती चौघेजण । नमुनी व्यासचरण। कृपा करावी जाण। आम्हांलागीं व्यासमुनि ।।२६।। करुणावचन ऐकोनि । व्यास सांगे संतोषोनि । पैल शिष्य बोलावोनि। ऋग्वेद निरोपित ।। २७।। ऐक पैल शिष्योत्तमा। सांगेन ऋग्वेदमहिमा। पठण करी गा धर्मकर्मा। ध्यानपूर्वक करोनि ।।२८।। पैल शिष्य म्हणे व्यासासी। बरवें विस्तारावें आम्हांसी । ध्यानपूर्वक लक्षणेंसी । भेदाभेद निरोपावे ।।२९।। त्यांत जें अवश्य आम्हांसी। तेंचि शिकों भक्तींसी। तू कामधेनु आम्हांसी। कृपा करी गा गुरुमूर्ती ।।३०।। व्यास सांगे पैल शिष्यासी। ऋग्वेदध्यान परियेसीं। वर्णरूप व्यक्ति कैसी। भेदाभेद सांगेन ।। ३१।। ऋग्वेदाचा उपवेद। असे प्रख्यात आयुर्वेद। अत्रि गोत्र असे शुद्ध । ब्रह्मा देवता जाणावी ।।३२।। गायत्री छंदासी। रक्तवर्ण परियेसीं। नेत्र पद्मपत्रसदृशी'। विस्तीर्ण ग्रीवा कंबुकंठ ।।३३।। कुंचकेशी श्मश्रु प्रमाण। द्वयरत्नी दीर्घ जाण। ऋग्वेद असे रूपधारण। मूर्ति घ्यावी येणेंपरी ।।३४।। आतां भेद सांगेन ऐका। प्रथम चर्चा श्रावका । द्वितीय चर्चा श्रवणिया ऐका। जटा शफट दोनी शाखा ।। ३५।। पाठक्रमशाखा दोनी । सातवा दण्ड म्हणोनि । भेद सप्त निर्गुणी। पांच भेद आणिक असती ।।३६।। अश्वलायनी शांखायनी। शाकला बाष्कला दोनी। पांचवी माण्डुका म्हणोनि। असे भेद द्वादश ।।३७।। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणांसी । व्यासें सांगितलें शिष्यासी । ऐशिया ऋग्वेदासी। द्वादश भेद विस्तारें ।। ३८।। या कलियुगाभीतरी । म्हणविसी वेद चारी। कीर्ति मिरवा लोकांतरी। अध्यापक म्हणोनि ।। ३९।। तया द्वादश भेदांत। एक शाखा असे विख्यात । सुलक्षण रूप व्यक्त। कोण जाणे सांग मज ।।४०।। नारायण व्यासमुनि। शाखा द्वादश विस्तारोनि । सांगितल्या संतोषोनि । पैल शिष्यासी ।।४१।। ऋग्वेदाचे भेद असे। सांगितले वेदव्यासें। श्रीगुरु म्हणती हर्षे । मदोन्मत्त द्विजांसी ।।४२।। यजुर्वेदविस्तार। सांगेन ऐका अपार। वैशंपायन शिष्य थोर। अभ्यास करी परियेसा ।।४३।। व्यास म्हणे शिष्यासी। ऐक एकचित्तेंसी। सांगतों यजुर्वेदासी। उपवेद धनुर्वेद ।।४४।। भारद्वाज गोत्र जाणा। अधिदैवत विष्णु जाणा। त्रिष्टुप् छंदासी तुम्ही म्हणा। आतां ध्यान सांगेन ।।४५।। कृशमध्य निर्धारीं । स्थूल ग्रीवा कपाल जरी। कांचनवर्ण मनोहरी । नेत्र असती पिंगट ।।४६।। शरीर ताम्र आदित्यवर्ण । पांच अरत्नी दीर्घ जाण । यजुर्वेदा ऐसें ध्यान। वैशंपायना निर्धारी ।।४७।। ऐशिया यजुर्वेदासी असती भेद शायसी। म्हणे व्यास शिष्यासी। सांगेन एकाचिपरी ।।४८।। प्रथम चरका आहूरका। तिसरा नामकठा ऐका। प्राच्यकठा चतुर्थिका । कपिलकठा पांचवी पै ।।४९।। सहावी असे अरायणीया। सातवी खुणीं वार्तातवीया। श्वेत म्हणिजे जाण आठचिया। श्वेततर नवमी ।।५०।। मैत्रायणी असे नाम। शाखा असे हो दशम। त्तिसी भेद उत्तम । असती सात परियेसा ।।५१।। मानवा दुंदुभा दोनी। तिसरा ऐकेया म्हणोनि । वाराहा नाम चतुर्थपणीं । भेद असे परियेसा ।।५२।। हरिद्रवेया जाण पांचवा। श्याम म्हणिजे सहावा । सातवा श्यामायणीया जाणावा । दशम शाखा परियेसा ।।५३।। वाजसनेया शाखेसी। भेद असती अष्टादशी। नामें सांगेन परियेसी। श्रीगुरु म्हणती तयांसी ।।५४।। वाजसनेया नाम एका । द्वितीय जाबला निका। बहुधेया नामें तृतीयका । चतुर्थ कण्व परियेसा ।।५५।। माध्यदिना पांचवेसी। शापिया नाम षष्ठेसी। स्थापायनी सप्तमेसी। कापाला अष्टम विख्यात ।।५६।। पौड्वत्सा विख्यात। आवटिका नांवें उन्नत। परमावटिका परम ख्यात। एकादश भेद जाणा ।।५७।। पाराशर्या द्वादशी । वैद्येया नामें त्रयोदशी। चतुर्दश भेद पुससी। वैनेया म्हणती तयातें ।।५८।। औंधेया नामें विशेषीं। जाण शाखा पंचदशी। गालवा म्हणिजे षोडशी। बैजवा नाम सप्तदशी ।।५९।। कात्यायनी विशेषी। जाण शाखा अष्टदशी । वाजसनीय शाखेसी। भेद असती अष्टादश ।।६०।। तैत्तिरीय शाखा भेद दोनी। व्यास सांगे विस्तारोनि। औख्या काण्डिकेया म्हणोनि। यांसी भेद पांच असती ।।६१।। आपस्तंबी असे भोर। शाखा असे मनोहर । यज्ञादि कर्म आचार। विज्ञान असे तयांत ।। ६२।। दुसरा जाण बौधायनी। सत्याषाढी अधनाशनी । हिरण्यकेशी म्हणोनि । चौथा भेद परियेसा ।।६३।। औंधेगी म्हणोनि नांव। भेद असे पांचवा अनुक्रमें पढावा। म्हणे व्यास शिष्यासी ।।६४।। षडंगें असती विशेष। नामे तयांची सांगेन ऐके। शिक्षा व्याकरण कल्पें । निरुक्त छंद ज्योतिष ।।६५।। यांतें उपांगे असती आणिक। आणि त्यांचीं नामें तू ऐक। प्रतिपद अनुपद देख । छंद तिसरा परियेसा ।।६६।। भाषाधर्म पंचम। मीमांसा न्याय सप्तम। कर्मसंहिता अष्टम। उपांगें हीं जाणावी ।।६७।। परिशिष्टें अष्टाविंश। असती ऐका विशेष । विस्तार करुनि परियेस। व्यास सांगे शिष्यासी ।। ६८।। पूर्वी होत्या वेदराशी । शिकतां अशक्य मानवांसी। म्हणोनि लोकोपकारासी। ऐसा केला विस्तार ।।६९।। शाखाभेद येणेंपरी। विस्तार केला प्रकारों। जितके मति उच्चारी। तितुके शिकों म्हणोनि ।।७०।। येणेंपरी विस्तारी। सांगे व्यास परिकरी । वैशंपायन अवधारी। विनवीतसे त्याजवळी ।।७१।। यजुर्वेद विस्तारेंसी। निरोपिला आम्हांसी। शाखाभेद क्रर्मेसी । वेगळाले करोनि ॥७२।। संदेह होतो आम्हांसी। मूळ शाखा कोण कैसी । विस्तारोनि प्रीतींसी। निरोपावें स्वामिया ॥७३।। व्यास म्हणे शिष्यासी। बरवें पुसिलें आम्हांसी। या यजुर्वेदासी । मूळ तुम्हां सांगेन ।।७४।। मंत्र ब्राह्मण संहिता। मिळोनि पढतां मिश्रिता । तोचि मूळ प्रख्याता । यजुर्वेद जाणिजे ।।७५।। आणिक असे एक खूण। संहिता मिळोनि ब्राह्मण। तोचि यजुर्वेद मूळ जाण । वरकड शाखा पल्लव ।। ७६।। यज्ञादि कर्मक्रियेसी । हें मूळ गा परियेसीं। अभ्यास करी गा निश्चयेंसी। म्हणे व्यास शिष्यातें ।॥ ७७।। ऐकोनियां व्यासवचन। वैशंपायन म्हणे कर जोडून । यजुर्वेदमूळ विस्तारोन । निरोपावें स्वामिया ।।७८।। व्यास म्हणे शिष्यासी। सांगेन ऐक विस्तारेंसी। ग्रंथत्रय असती ज्यासी। अभ्यास करी म्हणतसे ।।७९।। सप्त अष्टक संहितेसी। एकाएकाचे विस्तारेंसी। सांगेन तुज भरंवसीं। म्हणे व्यास शिष्यातें ।।८०।। प्रथम दोल्ना प्रश्नासी। भनुवाक' भसती चतुर्दशी। भाउ भधिक निसांसी। पन्नासा भसती ।।८१।। अपऊर्ध्व प्रश्नासी । अनुवाक असती चतुर्दशी। चारी अधिक तिसांसी। पन्नासा तुम्ही जाणाव्या ।।८२।। देवस्यत्वा प्रश्नासी । अनुवाक' असती एकादशी। एक अधिक तिसांसी। फत्रास असती ।।८३।। आददेनामा प्रश्न चतुर्थ। षट्वत्वारिंशत् अनुवाक विख्यात । पन्नासा जाण तयांत। वेदाधिक पन्नास ।।८४।। देवासुर नामक प्रश्नासी। अनुवाक असती एकादशी। असती एकावन्न पन्नासी। पंचम प्रश्नांत अवधारा ।।८५।। 'संत्वासिंचा' इति प्रश्न। द्वादश अनुवाक असती पूर्ण। पन्नासा असती एकावन्न। असती सहावे प्रश्नासी ।।८६।। पाकयज्ञ नामक प्रश्न्न। त्रयोदशी अनुवाकी संपन्न । पन्नासा असती एकावन्न। सप्तम प्रश्न विस्तार ।।८७।। अनुमत्य इति प्रश्न्नासी। अनुवाक जाणा द्वाविंशती । द्विचत्वारिंशत् पन्नासा असती। प्रथम अष्टक येणेंपरी ।।८८।। प्रथम अष्टक परियेसीं। संख्या सांगेन संहितेसी । अनुवाक असती ख्यातीसी। एकचित्तं परियेसा ।।८९।। एकशत आणि चत्वारिंशत् वरी। अधिक त्यावरी तीन निर्धारी। अनुवाक असती परिकरी। अंतःकरणीं घरावे ।।९०।। पन्नासा असती त्यासी। त्रिशताधिक बेचाळिसी। प्रथम अष्टकी परियेसीं। म्हणोनि सांगे व्यासमुनि ।।९१।। द्वितीय अष्टकाचा विचार । सांगेन तो परिकर । प्रथम प्रश्नाचे नाम थोर। वायव्य असे म्हणावें ।॥९२।। प्रथम प्रश्नांत विशेष । अनुवाक जाण एकादश । पंचषष्टि' असती पन्नास । एकचित्तें परियेसा ।।९३।। पुढे असे द्वितीय प्रश्ना नाम असे प्रजापतिगुहान् । द्वादश अनुवाक असती जाण । एकसप्तति पन्नासा ।।९४।। आदित्य नामक प्रश्नास। अनुवाक जाणा चतुर्दश। अष्टअधिक पंचाशत । पन्नास तुम्हीं पढ़ाव्या ।।९५।। पुढील प्रश्न देवा मनुष्या। अनुवाक जाणा बतुर्दशा। अष्ट अधिक चत्वारिंशा । पन्नासा तुवां जाणिजे ।।९६।। म्हणतां जाय महापाप। प्रश्न असे विश्वरूप। द्वादश अनुवाक स्वरूप। चारी अधिक सप्तति' पन्नासा ।।९७।। समिधा नाम प्रश्नास । निस्तें अनुवाक द्वादश। सप्तति पन्नासा असती त्यास। एकचिन्ने परियेसा ।।१८।। ऐसे द्वितीय भएकासी । षष्ठ' प्रश्न गरिर्वेसी। पांच अधिक साातीसी। भनुबाक तुम्हीं जाणावे ।।९९।। पन्नासांची गणना। सांगेन तुज विस्तारोन। तीन शतांवरी अशीति जाण। अष्ट अधिक परियेसा ।।१००।। तिसरा अष्टक सविस्तर । सांगेन तुम्हां परिकर। वैशंपायन शिष्य बोर। गुरुमुखें ऐकतसे ।।१।। तिसऱ्या अष्टकाचा प्रश्न प्रथम । नाम 'प्रजापतिरकाम। अनुवाक त्या एकादशोत्तम । द्विवत्वारिंशत् पन्नासा त्यासी ।।२।। द्वित्तीय प्रश्नास असे जाण । नाम 'यो वै पवमान'। एकादश अनुवाक जाण । षट्चत्वारिंशत् पन्नासा त्यासी ।।३।। तृतीय प्रश्ना बरवीयासी। नाम असे 'अमे तेजस्वी'। अनुवाकांची एकादशी । षट्चत्वारिंशत् पन्नासा त्यासी ।।४।। चौथा प्रश्न 'विवाएत'। एकादश अनुवाक ख्यात। षट्चत्वारिंशत् पन्नासा त्यांत । एकचित्तें परियेसा ।।५।। पुढे असे प्रश्न पंचम । म्हणावें मान पूर्णा प्रथम। अनुवाक अकरा उत्तम । षड्विंशति पन्नासा त्यासी ।।६।। ऐसे तृतीयाष्टकासी। अनुवाक पंचपंचाशत् त्यासी। द्विशत अधिक सहा त्यासी। पन्त्रासा असती अवधारा ।।७।। चौथ्या अष्टकाचा प्रथम प्रश्न। नामें असे गुंजान। एकादश अनुवाक खूण। षट्चत्वारिंशत् पन्नासा ।।८।। प्रश्नास संज्ञा विष्णोः क्रम ऐसी। एकादश अनुवाक परियेसीं। अष्ट अधिक पचमाएका चत्वारिंशतीसी । पन्नास त्यांत विस्तार ।।९।। तिसरे प्रश्ना उत्तम। जाणा तुम्ही आपांत्वा नाम । त्रयोदश अनुवाक उत्तम । षट्त्रिंशत् पन्नासा त्यासी ।।११०।। चौथा प्रश्न रश्मिरसी। अनुवाक असती द्वादशी। सप्ताधिक त्रिंशत् त्यासी। पन्नासा असती तुम्ही जाणा ।।११।। नमस्ते रुद्र उत्तम। प्रश्न होय जाण पंचम। एकादश अनुवाक जाण। साप्ताधिक वीस पन्नासा ।।१२।। 'अश्मन्नूर्ज' प्रश्नास। नव अनुवाक परियेस । षट्चत्वारिंशत् पन्नासा त्यास । एकचित्तें परियेसा ।।१३।। प्रश्न 'अनाविष्णू 'सी। अनुवाकांची जाण पंचदशी। एक न्यून वाळिसांसी। पन्नासा त्यासी विस्तारें ।।१४।। ऐसे चतुर्थ अष्टकासी । सप्त प्रश्न परियेसीं। अनुवाक असती व्यायशी। द्विशतांवर एक उण्या अशीति पन्नासा ।।१५।। प्रथम प्रश्न्न । नामें 'सावित्राणि' जाण । पन्नासा षष्टि एका ऊण। एकादश अनुवाक ज्याति ।।१६।। विष्णुमुखा प्रश्नासी । अनुवाक असती द्वादशी। चतुषष्टि' पन्नासा त्यासी। श्रीगुरु म्हणती द्विजातें ।।१७।। तिसरा प्रश्न उत्सन्नयज्ञ । अनुवाक द्वादश धरा खूण। पन्नासांसी द्वय न्यून। पन्नासा असती परियेसी ।।१८।। चौथा प्रश्न देवासुरा। अनुवाक असती त्यासी बारा। षष्टींत दोन उण्या करा। पन्नासा असती परियेसा ।।१९।। यदेके नामें प्रश्न । चतुर्विंशति अनुवाक खूण। दोन अधिक षष्टि जाण। पन्नासा असती परियेसा ।।१२०।। हिरण्ववर्मा षष्ठ प्रश्न। त्रयोविंशति अनुवाक जाण । षष्टीमध्ये सहा न्यून। पन्नासा असती परियेसा ।।२१।। यो वा आ यथा नामें प्रश्न । षड्विंशति अनुवाक जाण। षष्टींमध्ये द्वय न्यून। पन्नासा असती परियेसा ।।२२।। पंचमाष्टक संहितेसी। सप्त प्रश्न परियेसीं। अनुवाक एकशत त्यासी। वीस अधिक विस्तारे ।।२३।। त्रीणि अधिक चतुःशत। पन्नासा असती जाणा विख्यात। मन करूनि सावचित्त। ऐका म्हणे तये वेळीं ।॥२४।। षष्ठाष्टक संहितेसी। प्रथम प्रश्न परियेसीं। प्राचीनवंश नाम त्यासी। एकादश अनुवाक जाणा ।।२५।। अधिक सहा सप्ततीसी। पन्नासा त्यासी परियेसीं। विस्तार करूनि शिष्यासी । सी। पन्नासा असती सांगतसे व्यासदे सदेव ।। २६ ।। 'यदुभी' नाम प्रश्नासी। अनुवा नुवाक जाणा एकादशी। एक उणा षष्ठीसी परियेसीं ।। २७।। तिसरा प्रश्न चात्वाल। एकादशी अनुवाकीं माळ। पन्नासा बासा षष्ठीवरी द्वय स्थूळ । तिसरा प्रश्न परियेस पन्नास पत्रासा पन्नासा त्यासी। परियेस रेयेसी ।। २८ ।। चवथा प्रश्न यज्ञेन । एकादश अनुवाक जाण । पन्नासा एक अधिक पंचार चाशत पूर्ण । एकचित्तें रेयेसा ।। २९।। 'इंद्रोवृत्र' नाम प्रश्न। एकादश अनुवाक जाण। द्विचत देवत्वारिंशत् पन्नासा खूण । पंचम प्रश्नीं परियेसा ।।१३०।। 'सुवर्गाय' नाम प्रश्नासी। अनुवाक असती सती एकादशी। त्रीणि अधिक चत्वाि वारिंशती। पन्नासा असती परियेसा ।।३१।। सहावे अष्टकी परिपूर्ण। त्यासी सहा अधिक असती पूर्ण। षष्टि अनुवाक असती जाण। प्रविशदधिकत्रिशत पन्नासा ।।३२।। सप्तमाष्टकाचा प्रश्न । नामें असे प्रजनन । अनुवाक वीस स असती खूण । द्विपंचाशत पन्नासा त्यास ।।३३।। साध्या म्हणती जो द्वितीय प्रश्न । विंशती अनुवाक जाण। पन्न ।।३४।। 'प्रजवं वा' नाम प्रश्नासी। अनुव परिपूर्ण। एकचित्तें परियेसा अनुवाक वीस परियेसीं । द्विचत्वारिंशत् पन्न श्रीगुरु म्हणती तयांसी ।।३५।। 'बृहस्पती' नामक प्रश्न । द्वाविंशति अनुवाक जाण । त्रीण्यधिक पन्नासो खूण । पन्नासा असती अ अवधारा ।।३६।। प्रश्न असे पांचवा जाण। 'गावो' वा नामें उत्तम। पंच । पंचविंशति अनुवाक पूर्ण पूर्ण। चतुः पंचाशत् पन्नासा त्यास यासी ।। ३७।। सप्तमाष्टक संहितेसी। अनुवाक असती परियेसीं । एकशत सप्त त्यासी। सी। अनुवाक असती विस्तार ।।३८।। द्विशतावरी अधिकेसी। एकावन्न असती पन्नासी सी। सप्तमाष्टक असे सुरसी। एका एकचित्त परियेसी ।।३९।। अष्टमाष्टक संहितेस तेसी । षट् शताधिक अष्ट अष्टचत्वारिंशतीसी। मुख्य प्रश्न चत्वारिंशत् भरंवसीं । । अनुवाक असती विस्तारें ।।१४०।। द्विजणें शतद्वय सह सहस्र दोनी। पन्नासा तूं जाण मनीं। पठण करा म्हणोनि । व्यास व्य सांगे शिष्यासी ।।४१।। तीन अष्टक अष्टक ब्राह्मणांत असत असती जे जाण विख्यात । सांगेन ऐक एकचित्त। म्ह म्हणे व्यास शिष्यासी ।।४२।। प्रथमाष्टक ब्राह्मणासी । प्रश्न आठ परियेसीं । नामें त्याची ऐका ऐशीं। एकचित्तें परियेसा ।।४३।। प्रथम प्रश्न संघत्त। नाम असे विख्यात । अनुवाक दहा विस्तृत । अशीतिः दशक मनोहर ।।४४।। उद्धन्य नाम दुसरा प्रश्न । सहा अनुवाक दशक पन्नास जाण। वाजपेय अनुसंधान। देवासुरा प्रश्न तिसरा ॥४५।। त्यासी दशक अनुवाक जाण । पंच अधिक षष्टि दशक जाण। चौथा उभये नाम प्रश्न। दश अनुवाक मनोहर ।।४६।। सवत्सरगणित सहा अधिका। त्यासी जाणा तुम्ही दशका। पांचवा नामें अनेकृत्तिका । प्रश्न असे अवधारा ।।४७।। त्यासी अनुवाक द्वादश। सांगेन ऐका दशक। दोन अधिक षष्टि विशेष । एकचित्तें परियेसा ।।४८।। सहावा प्रश्न अनुमत्य । अनुवाक दहा प्रख्यात। पांच अधिक सप्ततिक। दशक त्यासीं अवधारा ।।४९।। सप्तम प्रश्ना धरीं खूण। नाम त्या एकद्वाब्राह्मण। दश अनुवाक आहेत जाण। चतुःषष्टि दशक त्यासी ।। १५०।। आठवा वरुणस्य नाम प्रश्न्न। अनुवाक त्यासी दहा जाण। सप्त अधिक तीस खूण। दशक त्यासी मनोहर ।।५१।। प्रथम अष्टक ब्राह्मणासी । प्रश्न आठ परियेसीं। अष्टसप्तति' अनुवाक त्यासी। एकचित्तें परियेसा ।।५२।। एक उणें पांचशत । दशक आहेत विख्यात। वैशंपायन ऐकत। गुरुमुखेंकरोनि ।।५३।। दुसरा अष्टक ब्राह्मणास । प्रथम प्रश्न आंगिरस । अनुवाक जाणा एकादश । साठी दशक मनोहर ।।५४।। प्रजापितरकांड। प्रश्न दुसरा हा गोड । एकादश अनुवाक दृढ । त्रिसमति' दशक त्यासी ।।५५।। कांड ब्रह्मवादिन। एकादश अनुवाक जाण । दशक आहे तो पन्नास पूर्ण। एकचित्तं परियेसा ।।५६।। 'जुष्टो' नाम प्रश्न ऐक। त्यासी अनुवाक अष्टादशक । वैशंपायन शिष्यक । गुरुमुखें ऐकतसे ।।५७।। प्रश्न 'प्राणो रक्षति'। अष्ट अनुवाक त्यासी ख्याति। पंच अधिक चत्वारिंशति। दशक तुम्हीं ओळखिजे ।।५८।। 'स्वाद्वर्दीत्वा' नामें षष्ठम। प्रश्न असे उत्तम। अनुवाक असती वीस खूण । षट् अधिक अशीति दशक त्यासी ।।५९।। सप्तम प्रश्न त्रिवृत्तास। अनुवाक असती अष्टादश। सहा अधिक षष्ठीस। दशक त्यासी मनोहर ।।१६०।। अष्टम प्रश्न 'पीवोअन्न'। अनुवाक असती नऊ जाणा। अशीतीसि एक उणा । दशक त्यासी मनोहर ।।६१।। द्वितीय अष्टक ब्राह्मणासी। आठ प्रश्न परियेसीं। वेद उणे शतक त्यासी अनुवाक असती मनोहर ।।६२।। चार शतां उपरी । तीन उणे सप्रति निर्धारी। दशक आहेती विस्तारी। एकचित्ते परियेसा ।।६३।। तृतीयाष्टक ब्राह्मणासी । प्रश्न असती द्वादशी। नामें त्यांची परियेसी। एकचित्तें अवधारा ।।६४।। प्रथम प्रश्न विख्यातु। नाम 'अधिनः पातु'। सहा अनुवाक विख्यातु। एक अधिक षष्ठी दशक ।।६५।। 'तृतीयस्थ' द्वितीय प्रश्न। अनुवाक असती दहा जाण। पंचाशीतिक दशक खूण। एकचित्तं परियेसा ।।६६।। तिसरा प्रश्न प्रत्युष्ट। अनुवाक असती एकादश । एका उणे ऐशी दशक। एकचित्तें अवधारा ।।६७।। चौथा प्रन्न 'ब्राह्मणेसि' । अनुवाक एक परियेसीं। एका उणे विसांसी। दशक त्यांसी मनोहर ।। ६८।। पंचम प्रश्न नाम सत्य। चतुर्दश अनुवाक विख्यात। एक उणे तीस दशक । एकचित्तें परियेसा ।।६९।। सहावा प्रश्न 'अंजंति' । पंचदश अनुवाक ख्याति । सात अधिक त्रिशती। दशक त्यासी जाणावे ।।१७०।। अच्छिद्रसर्वान्वा नाम प्रश्न । चतुर्दश अनुचाक जाण । तीस अधिक शत खूण। दशक त्यासी मनोहर ।।७१।। प्रश्न अश्वमेधासी। सांग्रहण्य ख्यातीसी। अनुवाक असती त्रयोदशी। एक्याण्णव दशक ।।७२।। प्रजापतिरकाम। अग्रमेध असे उत्तम। त्रयोविंशति अनुवाक नेम। चारी अधिक अशीति दशक त्यासी ।।७३।। संज्ञान म्हणती काठक। अनुवाक दहांशी एक अधिक । एका उणे पन्नास दशक। एकचित्तें परियेसा ।।७४।। दुसरा 'लोकोसि'काठक । दश अनुवाक असती ऐक । तयांमध्ये दोनी अधिक षष्ठी दशक। व्यास म्हणे शिष्यासी ।।७५।। द्वादश प्रश्न तुभ्यासी। अनुवाक नव परियेसीं । सहा अधिक पन्नासासी। दशक त्यासी मनोहर ।। ७६।। तिसरें अष्टक ब्राह्मणासी। सप्त चत्वारिंशत् एक शत अनुवाकासी। सात शत द्व्यशीति दशकासी। विस्तार असे परियेसा ।।७७।। तिनी अष्टक ब्राह्मणासी। प्रश्न सांगेन परियेसीं। अष्ट अधिक विसांसी। एकचित्तं अवधारा ।।७८।। त्रीणि शत विसांसी। एक अधिक परियेसीं। अनुवाक आहेती विस्तारेंसी। परत ब्राह्मणासी परियेसा ।।७९।। दशक संख्या विस्तार । सप्तशत अधिक सहस्र। अष्टचत्वारिंशति उत्तर। अधिक असती परिवेसा ।।१८०।। आतां सांगेन अरण। त्यासी असती दहा प्रश्न । विस्तारोनिया सांगेन। एकचित्ते अवधारा ।।८१।। अरणाचा भद्रनाम प्रथम प्रश्न्न। द्वात्रिंशत् अनुवाक असे खूण। एक शतक तीस जाण। दशक त्यासी मनोहर ।।८२।। स्वाध्याय ब्राह्मणासी। अनुवाक वीस परियेसी । चतुर्विशति' दशक त्यासी। एकचित्तें परियेसा ।।८३।। चित्तीं म्हणिजे प्रश्नासी । अनुवाक जाम एकविंशतीसी। दोन अधिक पन्नासासी। दशक त्यासी विस्तार ।।८४।। ऐसा भोर चवधा प्रश्न । नाम तया मंत्रब्राह्मण । द्विचत्वारिंशत् अनुवाक जाण। द्विषष्ठी दशक त्यासी ।।८५।। श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रश्नासी । अनुवाक जाण द्वादशी । आठ अधिक शतासी। दशक तुम्हीं जाणावें ।।८६।। पितृभेद असे प्रश्न। द्वादश अनुवाक परिपूर्ण । सप्तविंशती' दशक जाण। एकचित्तें परियेसा ।।८७।। 'शिक्षा' नाम प्रश्नासी। अनुवाक असती द्वादशी। तीन अधिक विसांसी। दशक त्यासी मनोहर ।।८८।। ब्रह्मविदा असे प्रश्न। अनुवाक त्यासी नऊ जाम । दशक चतुर्दश असे खूण । व्यास म्हणे शिष्यांसी ।।८९।। भृगुर्वे असे प्रश्न। अनुवाक त्यासी दहा जाण। पंचदश दशक जाण । एकचित्तें परियेसा ।।१९०।। दशम प्रश्न नारायण। अनुवाक तीस असती खूण। एकशत वेद जाण । दशक त्यासी परियेसा ।।९१।। दहा प्रश्न अरणासी। अनुवाक जाण परियेसीं। दोनी पूर्ण द्विशतासी। संख्या असे परियेसा ।। ९२।। पंचशता उपरी नवपंचाशत विस्तारी। दशक जाणा मनोहरी। म्हणे व्यास शिष्यातें ।।९३।। ऐसे ग्रंथ तयांसी। प्रश्न असती ब्यायशी। नव षष्ठी अधिक एकशत सहखासी। अनुवाक जाण मनोहर ।।९४।। पन्नासी दशक विस्तार । सांगेन तुम्हां प्रकार। द्वयशत दोनों सहख। द्वय उणे पन्नास जाण ।।९५।। द्वयसहस्र त्रय शत। सप्त अधिक उन्नत । दशकीं जाण विख्यात । ग्रंथत्रय परिपूर्ण ।।९६।। ऐशीया बजुर्वेदासी। भेद असती शायशी । त्यांत एक भेदासी। एवढा असे विस्तार ।।१७।। येणेंपरी व्यासमुनि । वैशंपायना विस्तारोनि । सांगता झाला म्हणोनि । श्रीगुरु म्हणती द्विजांसी ।।९८।। तिसरा शिष्य जैमिनी। त्यास सांगे व्यासमुनि । सामवेद विस्तारोनि। निरोपित अवधारा ।। ९९।। उपवेद गांधर्व अत्र काश्यपाचे असे गोत्र। रुद्र देवता परम पवित्र । जगती छंद म्हणावा ।।२००।। नित्यखग्वी असे जाणा। शुचि वस्त्र प्रावरणा। मन शांत इंद्रियदमना । शमीदण्ड भरिला असे ।।१।। कांचननयन श्वेतवर्ण। सूर्यासारखे किरण। षड्ररत्नी दीर्घ जाण। सामवेद रूप असे ।।२।। याच्या भेदा नाहीं मिती। अखिल सहख बोलती। ऐसी कोणा असे शक्ति। सकळासी शिकूं म्हणावया ।।३।। एका नारायणावांचीनि । समस्त भेद नेणे कोणी ऐक शिष्या जैमिनी। सांगे तुज किंचित ।।४।। प्रथम आसुरायणीया। दुसरे वासुरायणीया । वार्तान्तरेया म्हणोनिया। तिसरा भेद परियेसा ।।५।। प्रांजली असे भेद एक। ऋज्ञग्वैनविधा एक। आणि प्राचीन योग्यशाखा। असे सहावा परियेसा ।।६।। ज्ञानयोग सप्तम। राणायणीया असे ज्या नाम। यासी भेद दश जाण। आहेत ऐका एकचित्तें ।।७।। राणायणीया सांख्यायनी । तिसरा शाठ्धा म्हणोनि । मुग्दल नाम जाणोनि । चौथा भेद परियेसा ।।८।। खल्वला महाखल्वला। सप्तम नामें लाङ्गला। अष्ट भेद कैधुमा । गौतमा म्हणे परियेसा ।।९।। दशम शाखा जैमिनी। ऐसे भेद विस्तारोनि। सांगितलें व्यासमुनीं। श्रीगुरु म्हणती द्विजांसी ।।२१०।। पूर्ण सामवेदासी। कोण जाणे क्षितीसी। तीनवेदी म्हणविसी। मदोन्मत्त होवोनिया ।।११।। सूत म्हणे शिष्यांसीं । सांगे व्यास अतिहीं। अथर्वण वेदांसी। निरोपिले परियेसा ।।१२।। अथर्वण वेदासी । उपवेद असे परियेसीं। मंत्रशास्र निश्चयेसीं। वैतान असे गोत्र ।।१३।। आधिदैवत इंद्र त्यासी। अनुष्टुप् छदेसी । तीक्ष्ण चंड क्रूरेसी। कृष्ण वर्ण असे जाण ।।१४।। कामरूपी क्षुद्र कर्म। स्वदार असे त्यासी नाम। विश्वसृजक साध्यकर्म। जलमूनर्जीगालव ।।१५।। ऐसें रूप तयासीं । भेद नव परियेसीं। सुमंतु नाम शिष्यासी । सांगतसे श्रीव्यास ।।१६।। पैप्पला भेद प्रथम। दुसरा भेद दान्ता नाम। प्रदांत भेद सूक्ष्म। चौथा भेद स्तोता जाण ।।१७।। औता नाम असे ऐका । ब्रह्मदा यशदा शाखा। सातवा भेद शाखा ऐका। शौनकी म्हणती ।।१८।। अष्टम वेददर्शा भेदासी । चरणविद्या नवमेसी। पांच कल्प परियेसीं। सांगेन ऐका एकचित्ते ।।१९।। ऐसे चौघा शिष्यांस । सांगत असे वेदव्यास। प्रकाश केला क्षितीस। भरतखंडी परियेसा ।।२२०।। या भरतखंडांत। पूर्वी होतें पुण्य बहुत । वर्णाश्रमधर्म आवरत। होते लोक परियेसा ॥२१॥ या कलियुगाभीतरी । कर्म सांडिलें द्विजवरी। लोपले वेद निर्धारीं। गुम्म जाहले क्षितीसी ।।२२।। कर्मभ्रष्ट झाले द्विज। म्लेंच्छां सांगती वेदबीज। सत्त्व गेलें सहज । मंदमती झाले जाण ।।२३।। पूर्वी होतें महत्त्व । ब्राह्मणासी देवत्व । वेदबळे नित्यत्व। भूसुर' म्हणती त्या काजा ।।२४।। पूर्वी राजे याच कारणीं। पूजा करती विप्रचरणी। सर्व देतां दक्षिणादानीं । ते अंगिकार न करिती ।।२५।। वेदबळें विप्रांसी। त्रिमूर्ति वश होते त्यांसी। इंद्रादि सुरवरांसी। भय होते विप्रांचे ।।२६।। कामधेनु कल्पतरू । विप्रचाक्यें होत थोरू। पर्वत करिती तृणाकारू । तृणा पर्वत परत्वें ।। २७।। विष्णु आपण परियेसीं'। पूजा करी विप्रांसी। आपुलें दैवत म्हणे त्यांसी। वेदसत्त्वें करोनिया ।।२८।। ग्लोक ।। देवाधीनं जगत्सर्व मंत्राधीनं च दैवतं । ते मंत्रा ब्राह्मणाधीना ब्राह्मणो मम दैवतम् ।। २९।। ऐसें महत्व द्विजांसी। पूर्वी होतें परियेसीं। वेदमार्ग त्यजोनि सुरसी । अज्ञानमार्गे रहाटती ।।२३०।। हीन यातीपुढे ऐका। वेद म्हणती मूर्ख देखा। त्यांच्या पाहू नये मुखा । ब्रह्मराक्षस होताती ॥३१।। तेणें सत्त्व भंगलें। हीन यातीतें सेविलें। अद्यापि क्रय करिती मोलें। वेद भ्रष्ट करिताती ।।३२।। ऐशा चारी वेदांसी। शाखा असती परियेसीं। कोणें जाणावें क्षितीसी। सकळ गौप्य होऊनि गेले ।।३३।। चतुर्वेदी म्हणविसी। लोकांसवें चर्चा करिसी। काय जाणसी वेदांसी। अखिल भेद आहेत जाण ।।३४।। ऐशामध्ये काय लाभ घेऊं नये द्विजक्षोभ। कोणी केला तूंते बोध। जाई म्हणती येवून ।।३५।। आपुली आपण स्तुति करिसी। जयपत्रे दाखविसी । त्रिविक्रम यतीपासीं। पत्र मागसी लिहुनी ।।३६।। आमुचे बोल ऐकोनि। जावें तुम्हीं परतोनि। वायां गर्वे भ्रमोनि। प्राण आपुला देऊ नका ।।३७।। ऐसें श्रीगुरु विप्रांसी। सांगती बुद्धि हितासी। न ऐकती विप्र तामसी। म्हणती चर्चा करूं ।।३८।। चर्चा जरी न करूं येथे। हारी दिसेल आम्हांतें । सांगती लोक राजयातें। महत्त्व आमुचें उरे केवी ।।३९।। सिद्ध म्हणे नामांकिता। ऐसे विप्र मदोन्मत्ता । नेणती आपुले हिता। त्यांसी मृत्यु जवळी आला ।।२४०।। गंगाधराचा नंदनु। सांगे गुरुचरित्र कामधेनु। वेदविवरण ऐकतां साधनु । होय समाधान श्रोते जना ।।४१।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत। चारी वेदांचा मथितार्थ । उकलोनि दाविला यथार्थ । म्हणे सरस्वतीगंगाधर ।।२४२।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२६॥
ओवीसंख्या २४२
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारका शिष्यराणा। लागे सिद्धाचिया चरणां। विनवीतसे बचना। ऐको श्रोते एकचित्तें ।।१।। जय जयाजी सिद्ध योगी। तूं तारक आम्हां जगीं। ज्ञान प्रकाश करणेलागीं। दिलें दर्शन चरणांचे ।।२।। चतुर्वेद विस्तारेंसी । श्रीगुरु निरोपित्ती विप्रांसी। पुढें कथा वर्तली कैसी। विस्ताराची दातारा ।।३।। शिष्यवचन ऐकोनि । मांगता झाला विस्तारोनि। ऐक शिष्या नामकरणी। अनुपम महिमा श्रीगुरूनी ।।४।। किती प्रकारे विप्रांसी । श्रीगुरु सांगत्ती हितासी। न ऐकती द्विज तामसी। म्हणती वाद कां पत्र देणें ।।५।। ऐसें उत्तर ऐकोनि कानीं । कोप करिती श्रीगुरु मनि। जैसे तुमचें अंतःकरणीं। तैसें सिद्धी पावयूं म्हणती ।।६।। सर्पाचे पेटारियासी। कोरूं जातां मूषक कैसी। जैसा पतंग दीपासी। करी आपुला आत्मघात ।।७।। तैसे विप्र मदोन्मत्त। श्रीगुरुमूर्ति न ओळखत। बलें आपुले प्राण देत । दिवांधवत् द्विज देखा ।।८।। इतुके वर्ततां ते अवसरों। श्रीगुरु देखती नरासी दूरी । शिष्यासी म्हणती पाचारी। कवण जातो मार्गस्थ ।।९।। श्रीगुरुवचन ऐकोनि। गेले सेवक घावोनि। त्या नरातें पाचारोनि। आणिला गुरुसन्मुख ।।१०।। गुरु पुसती त्यासी। जन्म कवण जातीसी। तो वृत्तान्त सांग मजसी । म्हणती पुसती तये वेळीं ।।११।। श्रीगुरुवचन ऐकोन। सांगे आपण जातिहीन। मातंग नाम म्हणोन । स्थान आपुले बहिर्प्रामी ।।१२।। तूं कृपाळू सर्वां भूतीं। म्हणोनि पाचारिलें प्रीतीं। आपण झालों उद्धारगति। म्हणोनि दंडवत नमन करी ।।१३।। ऐसे कृपाळू परमपुरुष। दृष्टि केली सुधारस। लोहासी लागतां परिस। सुवर्ण होतां काय वेळ ।।१४।। तैसें तया पतितावरी। कृपा केली नरहरी। दंड देवोनि शिष्या करें। रेखा सप्त काढविल्या ।।१५।। श्रीगुरु म्हणती पतितासी। एक रेखा लंघीं रे ऐसी। आला नर वाक्यासरसीं। झाले ज्ञान आणिक तया ।।१६।। श्रीगुरु म्हणती तयासी । कवणें कुळी जन्मलासी। पतित म्हणे किरातवंशी। नाम आपुलें वनराखा ।।१७।। दुसरी रेखा लंधितां। ज्ञान झालें मागुता। बोलू लागला अनेक वार्ता। विस्मय करिती तये वेळीं ।॥१८॥ तिसरी रेखा लंघों म्हणती । त्यासी झाली ज्ञातिस्मृति। म्हणे गंगापुत्र निश्चितीं। बास तटीं गंगेच्या ।।१९।। लंधितां रेखा चवथी। म्हणे आपण शूद्रजाती। जात होतों आपुले वृत्तीं। स्वामी मातें पाचारिलें ।।२०।। लंधितां रेखा पांचवेसी । झालें ज्ञान आणिक तयासी। जन्म झाला वैश्यवंशीं। नाम आपुलें सोमदत्त ।।२१।। सहावी रेखा लंधितां। म्हणे आपण क्षत्रिय ख्याता। नाम आपुलें विख्याता। गोदावरी म्हणोनि ।।२२।। सातवी रेखा लंधितांक्षण। अग्रजाती विप्र आपण। वेदशास्त्रादि व्याकरण । अध्यापक नाम आपुलें ।।२३।। श्रीगुरु म्हणती तयासी । वेदशाखों अभ्यास म्हणसी। आले विप्र चर्चेसी। वाद करी त्यांसवें ।।२४।। अभिमंत्रोनी विभूति । त्याचे सर्वांगीं प्रोक्षिती। प्रकाशली ज्ञानज्योती। त्या नरा परियेसा ।।२५।। जैसे मानससरोवरास । वायस जातां होती हंस । तैसा गुरुहस्तस्पर्श। पतित झाला ज्ञानराशी ।।२६।। नरसिंहसरस्वती जगदूरु। प्रयमूर्तीचा अवतारु । अज्ञानी लोक म्हणती नरु। तेचि जाती अधःपाता ।।२७।। येणेंपरी पतितासी। ज्ञान झालें आसमासी । वेदशास्र सांगेंसी । म्हणों लागला तये वेळीं ।।२८।। जे आले चर्चेस विप्र । भयचकित झाले फार। जिव्हा तुटोनि झाले बधिर । हृदयशूळ तात्काळीं ।।२९।। विप्र धरधरां कांपती। श्रीगुरुचरणी लोळती। आमुची आता काय गति । जगज्योती स्वामिया ।।३०।। श्रीगुरुद्रोही झालों जाण। धिकारिले ब्राह्मण। तूं अवतार गौरीरमण। क्षमा करणें स्वामिया ।।३१।। वेष्टोनिया मायापाशीं ।। झालों आपण महातामसी। नोळखों तुझ्या स्वरूपासी। क्षमा करणे स्वामिया ।।३२।। तूं कृपालु सर्वां भूतीं। आमुचे दोष नाणीं चित्तीं। आम्हां द्यावी उद्धारगति। म्हणोनि चरणों लागती ।।३३।। एखादे समयीं लीलेसी। पर्वत करसी तृणासरसी। पर्वत पाहसी कोपेंसी। भस्म होय निर्धारी ॥३४।। तूंचि सृष्टिः स्थापिसी । तूंचि सर्वांचे पोषण करिसी । तूंचि कर्ता प्रळयासीं । त्रिमूर्ति जगदुरु ॥३५॥ तुझा महिमा वर्णावयासी । मति नाहीं आम्हांसी। उद्धरावें दीनासी। शरणागता वरप्रदा ।। ३६ ।। ऐसें विप्र विनविती । श्रीगुरु त्यासी निरोप देती। तुम्हीं क्षोभविला भारती । त्रिविक्रम महामुनि ।।३७।। आणिक केले बहुत दोषी । निंदिले सर्व विप्रांसी। पावाल जन्म ब्रह्मराक्षसी। आपुली जोडी भोगावी ॥ ३८।। आपुलें आर्जव आपणापासीं। भोगिजे पुण्यपापासी । निष्कृति न होतां क्रियमाणासी। गति नाहीं परियेसा ।।३९।। श्रीगुरुवचन ऐकोनि। लागती वित्र दोघे चरणीं । कीं उद्धरों भवार्णवी। म्हणोनिया विनवित्ती ।।४०।। श्रीगुरुनाथ कृपामूर्ति। त्या विप्रांतें निरोप देती । ब्रह्मराक्षस व्हाल प्रख्याति । संवत्सर बारापर्यंत ।।४१।। अनुतप्त झालिया कारण। शांतिरूप असाल जाण । जो का शुकनारायण । प्रथम वाक्य म्हणतसां ।।४२।। तुमचे पाप शुद्ध होतां । द्विज येईल पर्यटतां। पुढील वाक्य तुम्हां सांगतां । उद्धारगति होईल ।।४३।। आतां जावें गंगेसी। स्थान बरवें बैसावयासी। म्हणोनि निरोपिती त्यासी। गेले विप्र ते वेळीं ।॥४४।। निघतां ग्रामाबाहेरी । हृदयशूल अपरंपारी। जातां क्षण नदीतीरी। विप्र पंचत्व पावले ।।४५।। आपण केल्या कर्मासी ।। प्रयत्न नाहीं आणिकासी। ऐसे विप्र तामसी। आत्मघातकी तेंचि जाणा ।।४६।। श्रीगुरुवचन वेणेंपरी। अन्यथा नव्हे निर्धारी। झाले राक्षस द्विजवरी । बारा वर्षी गति पावले ।।४७।। विप्र पाठविले गंगेसी। मार्गे कथा वर्तली कैसी। नामधारक शिष्यासी। सिद्ध सांगे अवधारा ।।४८।। पतित झाला महाज्ञानी। जातिस्मरण सप्तजन्मीं। पूर्वापार विप्र म्हणोनि । निर्धार केला मनांत ।।४९।। नमन करूनि श्रीगुरूसीं। विनवीं पतित भक्तीसी। अज्ञानमाया तिमिरासी । ज्योतिरूप जगदूरु ।।५०।। विप्र होतों पूर्वी आपण। केवी झालों जातिहीन। सांगावें जी विस्तारोन । त्रिकाळज्ञान अंतरसाक्षी ।।५१।। जन्मांतरी आपण देख। पाप केलें महादोष। कीं विरोधिले विनायक। नृसिंहसरस्वती सांग पां ।।५२।। ऐसे वचन ऐकोनि । सांगती गुरु प्रकाशूनि । म्हणोनि सांगती सिद्धमुनी। नामधारक शिष्यासी ।।५३।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर । सांगे गुरुचरित्रविस्तार। पुढील कथा ऐकतां नर। पतित होय ब्रह्मज्ञानी ।।५४।। ऐसी पुण्यपावन कथा । ऐकतां उद्धार अनाथा। पावे चतुर्विध पुरुषार्था । निश्चर्येसी जाण पां ।।५५।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२७॥
ओवीसंख्या ५५
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः। नामधारक म्हणे सिद्धासी। पुढील कथा सांग आम्हांसी। उल्हास माझे मानसीं। गुरुवरित्र अतिगोड ।।१।। सिद्ध म्हणे नामधारका। कथा असे अतिविशेष । ऐकतां जाती सर्व दोष। ज्ञानज्योतिप्रकारों ।।२।। श्रीगुरु म्हणती पतितासी। आपुलें पूर्वजन्म पुससी। सांगेन ऐक परियेसीं। चांडालजन्म होणार गति ।।३।। पुण्यपापांची गति । आपुलें आर्जव' भोगिती। कर्मविपाकी असे ख्याति । नीचश्रेष्ठकर्मानुसारी ।।४।। विप्र क्षत्रिय वैश्य शूद्र वर्ण। यांचेपासाव चांडाल वर्ण। उपजला असतां ज्ञातिहीन। जातिविभाग कर्मापरी ।।५।। विप्रखियेपासीं देखा। शुद्र जाय व्यभिचारिका। पिंड उपजे तो चांडालिका। सोळावी जाती चांडाल ।।६।। है मूळ उत्पत्तीचे लक्षण । नाना दोषांचे आचरण। तेणें हीन जन्म घेमें। विप्रादि चारी वर्णांसी ॥७।। या दोषाचा विस्तार । सांगतों की सविस्तर। विप्रं करितां अनाचार । जन्म हीनजाती पावे ।।८।। गुरु अथवा माता पिता। सांडोनि जाय तत्त्वतां । चांडालजन्म होय निरुता। सोडितां कुलस्रियेसी ।।९।। कुलदेवता सोडोनि एका। पूजा करी आणिका। तो होय चांडाल देखा। सदा अन्त बोले नर ।।१०।। सदा जीवहिंसा करी। कन्याविक्रय मनोहरी। लटिकेंचि आपण प्रमाण करी। तोही जन्मे चांडालयोनी ।।११।। शूद्रहस्ते करी भोजन। अश्वविक्रय करी ब्राह्मण। तोही चांडाल होय जाण । सदा शूद्रसंपर्क ।।१२।। शूद्रस्त्रीसी सदा संग। नित्य असे दासीयोग। गृहभांड अतळती त्याग । तेणें देवपितृकमें करी ।।१३।। तोही पावे हीनयोनी। जो कां अग्नि-पाली रानीं। गाववासरांसी विपडोनि। वेगळीं करी तोही होय चांडाल ।।१४।। सोडी आपुल्या जननीतें। आणि मारी लेकरातें। वेगळीं करी आपुल्या सत्तें । तोही जन्मे चांडाल ।।१५।। बैलावरी विप्र बसे। शूद्रान जेवी हर्षे। चांडाल होय भरंवसें। ऐसें म्हणती श्रीगुरु ।।१६।। विप्र तीर्थास जावोन। श्राद्धादि न करी जाण। परान प्रतिग्रह घेणें। तो होय चांडाल ।।१७।। षट्कर्मेरहित विप्र देखा। कपिला गाईचें दुग्ध ऐका । न करितां अभिषेका। क्षीरपान जो करी ।।१८।। तोही पावे चांडालयोनी । तुळसीपत्रे ओरपोनि। पूजा करी देवांलागोनि। शालिग्राम शूद्रे भजलिया ।।१९।। न सेवीच मातापितां। त्यजी त्यांसी न प्रतिपाळितां। चांडाल होय जन्मतां । सप्तजन्मीं कृमि होय ।।२०।। पहिली एक खी असतां । दुजी करोनि तिसी त्यजितां । होय जन्म त्यासी पतिता। आणिक सांगेन एक नवल ।।२१।। श्रमोनि अतिथि आला असतां । वेद म्हणवोनि अन्न पालितां। जन्म पावे हा तत्त्वतां । चांडालयोनी परियेसा ।।२२।। योग्य विप्रांतें निंदिती। आणिक जाती पूजिती। चांडालयोनी जाती। वृत्तिलोप केलिया ।।२३।। तळीं विहिरी फोडी मोडी। शिवालयों पूजा तोडी। ब्राह्मणांची घरें मोडी। तोही जन्मे पतितकुळीं ।।२४।। स्वामिस्त्रियेसी । शत्रुमित्रविश्वासखीसीं। जो करी व्यभिचारासी। तोही जन्मे पतितागृहीं ।।२५।। दोघी श्रिया जयासी । त्यांत ठेवी प्रपंचेंसी'। अतिथि आलिया अस्तमानासी। ग्रास न दे तोही पतित होय ।। २६।। त्रिसंध्यासमयी देखा। जो विप्र जेवी अविवेका। भाक' देउनी फिरे निका। तो जन्मे बांडालयोनीं ।। २७।। राजे देती भूमिदान। आपण घेती हिरोन । संध्याकाली करी शयन। तोही होय चांडाल ।। २८।। वैश्वदेवकाली अतिथीसी। जो करी दुष्टोत्तरेंसी। अन्न न देई तयासी । कुक्कुटजन्म होवोनि उपजे ।। २९।। गंगातीर्थांची निंदा करी। एकादशीस भोजन करी । स्वामीस सोडी समरी। चांडालयोनी तया जन्म ।। ३० ।। श्री संभोगी पर्वणीसी। अथवा हरिहरादिवशीं । वेद शिकवी शूद्रासी । चांडालयोनी जन्म पावे ।।३१।। मूत्युदिवसीं न करी श्राद्ध। केलें पुण्य सांगे प्रसिद्ध । वाटेकरांसी करी भेद। चांडालयोनी जन्म पावे ।। ३२ ।। ग्रीष्मकालीं अरण्यांत। पोई घालिती ज्ञानवंत। तेथे विघ्न जो करीत। तोही जन्मे चांडालयोनी ।।३३।। नाडीभेद न कळतां वैद्यकी। जाणोनि औषधे दे आणिकीं। तो होय महापातकी चांडालयोनीत संभवे ।। ३४।। जारण मारण मोह नादि। मंत्र जपती कुबुद्धि। जन्म चांडाल होय त्रिशुद्धी । वेदमार्ग त्यजितां विप्रं ।।३५।। श्रीगुरूसी नर म्हणे कोण। हरिहरांतें निंदे जाण। अन्य देवतांचें करी पूजन। तो नर पतित होय ।।३६।। ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र। आपुलें कर्म त्यजूनि मंद। आणिक कर्म आचरे सदा । तोही होय चांडाल ।।३७।। शूद्रापासूनी मंत्र शिके। त्यासी घडती सर्व पातकें। गंगोदक क्षीरोदकें । श्रानचर्मी पातले परी ।। ३८ ।। विधवा स्त्रीशी संग करी। शिव्या देऊन अतिथि जेववी घरी। श्राद्धदिनी पिंड न करी । चांडालयोनी तो जन्मे ।।३९।। माता पिता गुरु द्वेषी। तो जन्मे चांडालयोनीसी। आणिक जन्म पापवंशीं। उपजोनि येती परियेसा ।।४०।। गुरूची निंदा करी हीं। सदा असे विप्रद्वेषी। वेदवर्चा करी बहुवशी। तो होय ब्रह्मराक्षस ।।४१।। भजे आपण एक दैवत। दुजे देव निंदा करीत। तो होय अपस्मारित । दरिद्ररूपें पीडतसे ।।४२।। माता पिता गुरु वॉन। वेगळा होय खी आपण। बेरडाचे पोटर्टी उपजोन। रोगी होऊन राहतसे ।।४३।। सदा वेद दूषी आपण । अवमानीत ब्राह्मण। कर्मभ्रष्ट होव आपण। मूत्रकृच्छ्ररोगी होय ।।४४।। लोकांचे वर्मकर्म आपण । सदा करी उच्चारण। हृदयरोगी होय जाण। महाकष्ट भोगीतसे ।।४५।। गर्भपात करी खियेसी । वांझ होवोनि उपजे परियेसीं। पुत्र झालिया मरती त्वरेंसी। गर्भपात करूं नये ।।४६।। धर्मशास्रादि पुराण । सांगतां नायके जाण । आणिक जेवितां दृष्टि आपण। बहिरट होवोनि उपजे ।।४७।। पतितासवें करी इशती'। गर्दभजन्म पावती । त्यासी रस औषध घेती। मृगयोनीं जन्मे तो ।।४८।। ब्रह्महत्या केली जरी। क्षयरोगी होय निर्धारी। सुरापानी' ओळखा परी। श्यामदंत उपजेल ।।४९।। अश्ववध गोवध करितां। वांझ ज्वरी होय निश्चितां । सर्वेचि होय अनुतप्तता। दोष कांहीं नाहीं त्यासी ।।५०।। विश्वासघातकी नरासी। जन्म होय ऐसा त्यासी। अन्न जेवितां वांति उर्वशीं । अन्नवैरी तो होय ।।५१।। सेवक एकाचा चाळवीन। घेवोनि जाती जे जन। त्यांसी होय जाण बंधन। कारागृह भोगीतसे ॥५२।। सर्पजाती मारी नर। सर्पयोनी पुढें निर्धार। ऐसे दोष अपार । आतां तस्कर प्रकरण सांगेन ।।५३।। स्त्रियांतें चोरूनि घेऊनि जाय। मतिहीन जन्म होय। सदा क्लेशी आपण होय । अंती जाय नरकासी ।।५४।। सुवर्णचोरी करी नर। प्रेमहव्याधि होय निर्धार। पुस्तक चोरितां नर। अंध होउनी उपजे देखा ।।५५।। वस्रचोरी करी जरी। चित्री रोगी होय निर्धारी। गणद्रव्यचोरी करी। गंडमाळा होती तया ।।५६।। श्वासोच्छ्वासी असेल नर जरी। त्याची वस्तु करी चोरी। सदा बसे बंधन परी। ब्रह्मांडपुराणों बोलिलें असे ।।५७।। परद्रव्य-अपहार देखा। परदत्तापहार विशेषा। परद्वेषी नर ऐका। धान्य अपुत्री होउनी उपजे ।।५८।। अन्नचोरी केलिया देखा । गुल्मव्याधि होय ऐका। धान्य करील तस्करिका। रक्तांग होय दुर्गंध शरीर ।।५९।। कां एखादा तैल चोरी । तोही दुर्गंधी पावे शरीरीं। परस्रीब्रह्मस्व अपहारी। ब्रह्मराक्षसजन्म पाये ।।६०।। मोतीं माणिक रत्नें देखा। चोरी करी नर ऐका। हीनजातीसी जन्म निका। पावे नर अवधारा ।। ६१।। पत्रशाखादि फळे चोरी। खरूजी होय अपरंपारी। रक्तांगी होय निर्धारी। गोचिड होय तो नर ।। ६२।। कांस्य लोह कार्पास लवण । तस्करितां नरा जाण। चेतकुष्ठ होय निर्गुण। विचारोनि रहाटावें ।॥६३।। देवद्रव्यापहारी देखा। देवकार्यनाश अपहार देखा । पंडुरोगी तो निका। फळचोरी विद्रूपी ।। ६४।। परनिक्षेपचोरी' करी देखा। करितां होय सदा शोका । धनतस्कर उर्दू ऐका । जन्म पावे अवधारा ।।६५।। फलचोरी होय वनचर। जलचोरही होय कावळा धोर। गृहोपकरणे तस्कर । काकजन्म तो पावे ।। ६६।। मधुतस्कर अवधारी। जन्म पावे होय धारी। गोरस करी चोरी। कुष्ठी होय परियेसा ।।६७।। श्रीगुरु म्हणती पतितासी। जन्म पावे ऐसिया दोषीं। आतां सांगेन व्यभिचारप्रकरणेंसी । शांतिपर्वी बोलिलें असे ।।६८।। परस्त्री आलिगिया देखा। शतजन्म श्वान निका। पुढें मागुती सप्तजन्मिका। भोगी दुःखा अवधारा ।।६९।। परस्त्रीयोनी पाहे दृष्टीनें। जन्मे तो अंधत्वपणें। बंधुभार्यासंपर्क करणें । गर्दभजन्म तो पावे ।।७०।। तोही जन्म सोडोनि । निघोनि जाय सर्पयोनीं। पुनः नरकीं जावोनि। नाना कष्ट भोगीतसे ॥७१।। सखीभार्यासवें ऐका । मातुलखी असे विशेखा। येखादा करी संपर्का। वानयोनीं जन्म पावे ।।७२।। परस्त्रियांचे वदन। न करावें कदा अवलोकन । कुबुर्डी करितां निरीक्षण। चक्षुरोगी होऊनि उपजे ।।७३।। आपण असे शूद्रजाति । विप्रस्रीशीं करी रति । ती दोघेही कुमि होती। हे निश्चित अवधारा ।।७४।। सदा शुद्रसंपर्क करी। याची श्री व्यभिचारी। जन्म पावे हो कुतरी। महादोष बोलिलासे ।।७५।। ऐसें तया पतिताप्रती । श्रीगुरु आपण निरोपिती। ऐकत होता त्रिविक्रमभारती। प्रश्न केला श्रीगुरूसी ।। ७६।। स्वामी निरोपिले धर्म सकळ । ऐकतां होय मन निर्मळ। जरी घडलें एक वेळ। पाप जाय कवणेपरी ।। ७७।। श्रीगुरु म्हणती त्रिविक्रमासी। प्रायश्चित्त असे पापासी। पश्चात्ताप होय ज्यासी। पाप नाहीं सर्वथा ।। ७८ ।। पाप असे थोर केलें। अंतःकरणी असे खोंचलें । त्यासी प्रायश्चित्त भलें । कर्मविपाकी बोलिलें ।॥७९।। प्रायश्चित्तांचीं विधानें। सांगेन ऐका स्थिर मनें। अनेक ऋषींचीं वचनें । ती सांगेन ऐका तुम्ही ।।८०।। प्रथम व्हावा ब्रह्मदंड। तेणें होय पापखंड। गोदानें सालंकृत अखंड । अशक्त तरी द्रव्य द्यावें ।।८१।। निष्क अथवा अर्धनिष्क। सूक्ष्म पाप पाव निष्क। स्थूलसूक्ष्म असेल पातक । तेणें विधीं द्रव्य द्यावे ।।८२।। अज्ञानकृत पापासी। पश्चात्तापें शुद्धि परियेसीं । गुरुसेवा तत्परेंसी । केलिया गुरु निवारी ।।८३।। नेणतां पाप केलियासी। प्रायश्चित्त असे परियेसीं। प्राणायाम द्विशतेसी । पुण्यातीर्थी दहा स्नानें ।।८४।। तीन गुंजा सुवर्ण द्यावें। नदी आचरावें दोन गांवें। सौम्य पातक याचि भावें। जाती पायें परियेसी ।।८५।। श्रीपुरुष दोघांत एक। करिती पुण्यपाप दोष। दोघेही पडती दोषांत। दोघे आचरावें प्रायश्चित्त ।।८६।। आणिक एक असे प्रकार। जेणें पाप होय दूर। गायत्रीजप दहा सहस्र । करावा तेणें वेदमंत्र ।।८७।। याचें गांव गायत्रीकृच्छ्र । महादोषी करी पवित्र। ऐसें करावें विचित्र। श्रीगुरु सांगती त्रिविक्रमासी ।।८८।। प्राजापत्यकृच्छ देखा। असे विधि अतिविशेषा। भोजन करावें मुक्त एका। अथवा अयाचित भिक्षा ।।८९।। उपवास करावे तीन दिवस । स्मरावें गुरुचरणांस । येणें जाती सौम्य दोष। जे आपणासी सामान्य ।।१०।। अतिकृच्छु' असे एक । एकचित्तें मुनि ऐक। दोष असती सामान्यक। अज्ञानेंच केलिया ।।९१।। अन्न घ्यावें सप्तविंशति ग्रास । सकाळीं बारा रात्री पंचदश। अथवा दोनी अष्ट ग्रास। अयाचित अन्न द्यावें ।। ९२।। ऐसे सौम्य पातकासी । विधि असती परियेसीं । मास एक नेमेंसी। अंजुली एक जेवावें ।।९३।। उपवास तीन करावे देखा। प्रकार सांगेन आणिका । तीन दिन उपोषका । घृतपारणे करावें ।।९४।। तीन दिवस घृत घेवोनि । क्षीर घ्यावें दिवस तीनी । तीन दिवस वायु भक्षोनि। पुनः क्षीर एक दिवस ।।९५।। एखादा असेल अशक्त। तयासी असे एक व्रत । तीळ गुळ लाह्या पीठ । उपवास एक करावा ।।९६।। पर्णकृच्छ करा ऐसी। पर्णोदक घ्यावें प्रतिदिवशीं । करावे तितके उपवासी । पञ्चात्तापें प्राशन कीजे ।।१७।। कमल बिल्व अश्वत्थ। कुशोदक बिंदु नित्य । पान करावें सत्य । पर्णकृच्छ्र परियेसा ।।९८।। आणिक एक प्रकार। करी चांद्रायण आचार। कुक्कुटांडप्रमाण आहार । ग्रास घ्यावे वर्धमानी ।।९९।। अमावास्येसी एक ग्रास। पौर्णिमेसी पंचदश । कृष्णपक्षीं उतरत । दुसरे मासीं हविष्यान्न ।।१००।। आपलें पाप प्रगटूनि । उच्चारावें सभास्थानी। पश्चात्तापें जळूनि। पाप जाय अवधारा ।।१।। आतां सांगेन तीर्थकृच्छ्र । यात्रा करावी पवित्र । वाराणसी चेतपर्वत । स्नानमात्रे पायें जाती ।।२।। बरकड तीर्थी गेलियासी । गायत्रीजप सहखेंसी। पाप जाय त्वरेंसी। अगस्तीवचन बोलिलें असे ।।३।। समुद्रसेतुबंधेसी । स्नान केलिया परियेसीं । भ्रूणहत्यापाप नाशी। कृतघ्नादि पातकें ।।४।। विधिपूर्वक शुचीसी। जप कोटी गायत्रीसी । ब्रह्महत्यापाप नाशी । ऐके त्रिविक्रम एकचित्तें ।।५।। लक्ष गायत्री जप केलिया। सुरापानपाप जाय लया। सुवर्णचोरी केलिया । सात लक्ष जपावें ।।६।। अष्ट लक्ष गुरुतल्पगासी। गायत्री जपतां पाप नाशी। आतां सांगन परियेसीं। वेदाक्षरे पाप दूर ।।७।। पवमानसूक्त चत्वारी। पठण करितां ब्रह्महत्या दूरी। इंद्रमित्र अवधारी। एक मास जपावें ।।८।। सूरापानादि पातकें। जातील येणें सूक्तकें। शुनःशेपा नाम सूक्ते। सुवर्णहरा पाप जाय ।।९।। पवमानशन्त्रसूक्त। पठण करितां हविष्योक्त। मास एक पठत। गुरुतल्पगादिक हरती ।।११०।। पंच मास सहा मास। मिताहर करुनी पुरुष। पुरुषसूक्ते कर्मनाश। पंच महापापें नासती ।।११।। त्रिमधु म्हणे मंत्रसूक्त । सुवर्णात्रीनास मंत्र। जपावे नाचिकेत। समस्त पातकें प्रायश्चित्त ।।१२।। नारायणपन्न देखा। जपावें भक्तिपूर्वका । नाशी पंच महापातका । प्रीतिपूर्वक जपावें ।।१३।। त्रिपदा नाम गायत्रीसी। जपती जे भक्तींसी। अघमर्षण त्रिरावृत्तेसी। सप्त जन्म पाप जाय ।।१४।। अपांमध्य पन्नासी। तद्विष्णो नाम सूक्तेसी। जपती जे जन भक्तीसी। सप्त जन्म पाप जाय ।।१५।। आणिक असे विधान देखा। अज्ञानकृत दोषादिका। अनुतप्त होवोनि विशेषा। पंचगव्य प्राशन कीजे ।।१६।। गोमूत्र गोमय क्षीर। दधि घृत कुशसार। विधिमंत्रे घ्यावें निर्धार। पहिले दिनीं उपवासः ।।१७।। नीलवर्ण गोमूत्र। कृष्णगोमय पवित्र । ताम्न गायत्रीचे क्षीर। चेतधेनूचे दधि घ्यावें ।।१८।। कपिला गाईचे तूप बरखें। ऐसे पंचगव्य बरवें घ्यावें । एकेकाचें क्लप्न' भावें। सांगेन सर्व अवधारा ।।१९।। गोमूत्र घ्यावें पाव शेर। अंगुष्ठपर्व गोमय पवित्र । क्षीर पावणे दोन शेर। दघि तीन पाव ध्यावें ।।१२०।। घृत घ्यावें पाव शेर। तितुकेंचि मिळवायें कुशनीर। घेतां मंत्र उच्चार। विस्तारोनि सांगेन ।।२१।। कुशांसहित सहा रखें। एकेकासी मंत्र पृथक् असे। प्रथम मंत्र इरावती असे । इदं विष्णु दुजा देखा ।।२२।। मानस्तोक मंत्र तिसरा । प्रजापति चतुर्थ अवधारा । पंचम गायत्री उच्चारा। सहावी व्याहृति प्रणवपूर्वका ।।२३।। ऐसें मंत्रोनि पंचगव्य। प्यावें अनुतप्त एकभाव। अस्थिगत चर्मगत पूर्व। पापें जाती अवधारा ।।२४।। गाई न मिळतां इतुके जिन्नसी। कपिला गाय मुख्य परियेसीं। दर्शनमात्रे दोष नाशी । कपिला गाई उत्तम ।।२५।। पंचमहापातक नांवें। ब्रह्महत्या सुरापान जाणावें । स्वर्णस्तेय गुरुतल्पग जाणावें । पांचवा त्यांसर्वे मिळालेला ।। २६ ।। चौघे पातकी देखा। पांचवा तया मिळतां देखा । त्यांसहित पंचमहापातका। आहेती पापें परियेसा ।।२७।। सुरापानी ब्रह्मघातकी। सुवर्णस्तेय गुरुतल्पकी । पांचवा महाघातकी। जो सानुकूळ मिळे तो ।। २८।। ऐसें पातक घडे त्यासी। प्रायश्चित्त परियेसीं। श्रीगुरुसंतोषीं। अनुग्रहें पुनीत ।।२९।। एखादा मिळेल शास्रज्ञ । स्वधर्माचारे अभिज्ञ'। त्याच्या अनुग्रहें पापघ्न। पुनीत होय अवधारा ।।१३०।। ऐसें श्रीगुरु त्रिविक्रमासी। प्रायश्चित्त सांगती परियेसीं। सकल विप्र संतोषी। ज्ञानप्रकाशें होती ।।३१।। श्रीगुरु म्हणती पतितासी। पूर्वी तूं विप्र होतासी। माता पिता गुरु दूषी। तेणें होय चांडालजन्म ।।३२।। आतां सांगतों ऐक। स्नानसंगमीं मास एक। केलिया दोष जाती निःशंक। पुनः विप्रजन्म होसी ।।३३।। पतित म्हणे स्वामीसी । तव दर्शन जाहले आम्हांसी। कावळा जातां मानसासी। राजहंस तो होतसे ।। ३४।। तैसें तव दर्शनमात्रे । पवित्र झाली सकळ गात्रे। तारावें आतां त्वां कृपापात्रे । शरणागतासी ।।३५।। परिस लागतां लोखंडासी । सुवर्ण होय तत्क्षणैसी। सुवर्ण मागुती लोहासी। केवी मिळे स्वामिया ।।३६।। तव दर्शनसुधारसी। आपण झालों ज्ञानराशी । अभिमंत्रोनि आम्हांसी। विप्रांमध्ये मिळवावे ॥३७।। ऐकोनि तयाचे वचन । गुरु बोलती हासोन। तव देह जातिहीन। विप्र केवी म्हणतील ।।३८ ।। पतिताच्या गृहासी। उपजोनि तूं वाढलासी। ब्रह्मत्व केवी पावसी । विप्र निंदा करितील ।।३९।। पूर्वी ऐसा विश्वामित्र। क्षत्रियवंशी गाधिपुत्र । तपोबळें म्हणवी पवित्र । म्हणे तो विप्र आपणां ।।१४०।। ब्रह्मवाचीं शत वर्ष। तप केलें महाक्लेशें । त्याचे बळें म्हणवीतसे । ब्रह्मऋषी आपणां ।।४१।। इंद्रादि सुरवरांसी। विनवितां झाला परियेसीं। आपणातें ब्रह्मर्षि । म्हणा ऐसें बोलतसे ।।४२।। देव म्हणती तयासी। आम्हां गुरु वसिष्ठ ऋषि। जरी तो बोले ब्रह्मऋषि। तरी आम्ही अंगिकारू ।।४३।। मग त्या वसिष्ठासी। विनवी विश्वामित्र ऋषि। विप्र म्हणा आपणासी। केलें तप बहुकाळ ।।४४।। वसिष्ठ म्हणे विश्वामित्र । क्षत्रिय तपास अपात्र। देह टाकोनि मग पवित्र। विप्रकुळीं जन्मावें ।।४५।। मग तुझा होईल व्रतबंध । होईल गायत्रीप्रबोध। तघीं तुवां होसी शुद्ध। ब्रह्मऋषि नाम तुझे ।।४६।। कांहीं केल्या न म्हणे विप्र । मग कोपला विश्वामित्र। वसिष्ठाचे शत पुत्र। मारिता झाला तवें वेळीं ।।४७।। ब्रह्मज्ञानी वसिष्ठ ऋषि। नव्हे कदा तामसी। अथवा न म्हणे ब्रह्मऋषि। तया विश्वामित्रासी ।।४८।। वर्ततां ऐसे एके दिवसीं । विश्वामित्र कोपेंसी। हाती घेउनी पर्वतासी। घालू आला वसिष्ठावरी ।।४९।। विचार करीत मागुती मनीं । जरी वधीन वसिष्ठमुनी। आपणातें न म्हणे कोणी । ब्रह्मऋषि म्हणोनिया ।।१५०।। इंद्रादि देव समस्त ऋषि। म्हणती वसिष्ठवाक्यासरसी । आपण म्हणों ब्रह्मऋषि । अन्यथा नाहीं म्हणोनिया ।।५१।। ऐशा वसिष्ठमुनीस । मारितां यासी फार दोष । म्हणोनि टाकी गिरिवरास। भूमीवरी परियेसा ।।५२।। अनुतप्त झाला अंतःकरणीं। वसिष्ठं तें ओळखूनि । ब्रह्मऋषि म्हणोनि। पाचारिलें तये वेळीं ।॥५३।। संतोषोनि विश्वामित्र। म्हणे बोल बोलिला पवित्र। म्हणे घरी अन्नमात्र । तुम्हीं घ्यावें स्वामिया ।।५४।। संतोषोनि वसिष्ठ । तयालागीं बोलत । म्हणे शरीर हैं निनांत। सूर्यकिरणों पचवावें ।।५५।। विश्वामित्र अंगिकारिलें। सूर्यकिरणें देहा जाळिलें। सहस्रकिरणी तापलें । देह सर्व भस्म झाला ।।५६।। विश्वामित्र महामुनि । अतिसामर्थ्य अनुष्ठानी। पहिला देह जाळोनि । नूतन देह धरियेला ।।५७।। ब्रह्मर्षि तेथोन। विश्वामित्र झाला जाण। सकळांसी मान्य। महाराज ।।५८।। मग म्हणती सकळ मुनि । विश्वामित्र ब्रह्मज्ञानी। ब्रह्मऋषि म्हणोनि। झाला त्रिभुवनीं प्रख्यात ।।५९।। या कारणें तव देह। विसर्जावा जन्म इह । अनुतप्त' तय भाव । ब्रह्मकुल भाविसी ।।१६०।। ऐसें त्या पतितासी। बोधिता गुरु परिवेसीं। लाघले सुख त्यासी। त्याच्या मानसीं न ये कांहीं ।।६१।। निधान' सांपडे दरिद्र्धासी। तो कां सांडील संतोषीं। अमृत सांपडतां रोग्यासी । कां सांडील जीवित्व ।।६२।। एखादें डोर उपवासी। पावे तृणबिढारासी'। तेथोनि जावया त्यासी। मन नव्हे सर्वथा ।।६३।। तैसें त्या पतितासी। लागलें ध्यान गुरूसी। न जाय आपुल्या मंदिरासी। विप्र आपणा म्हणतसे ।।६४।। इतुके होतां ते अवसरी। आली त्यांचीं पुत्रनारी। म्हणों लागले अपस्मारी। म्हणोनि आलों पावत ।।६५।। जवळ येतां स्त्रियेसी । स्पशा नको म्हणे तिसी। कोर्येकरोनि मारावयासी। जात असे तो पतित ।।६६।। दुःख करी ती भार्या। दुरुनी नमे गुरुपायां। पति मातें सोडोनिया। जातों आर्ता काय करूं ।।६७।। कन्या पुत्र मज बहुत । तयां कोण पाळित । आम्हां सांडोनि जातो किमर्थ। सांगा तयासी स्वामिया ।। ६८।। जरी न सांगाल स्वामी त्यासी। त्यजीन प्राण पुत्रासरसी। येरवी आपणातें कोण पोषी। अनाथ मी स्वामिया ।।६९।। ऐकोनि तियेचें वचन । गुरु बोलती हासोन। त्या नरातें बोलावून। सांगताती परियेसा ।।१७०।। गुरु म्हणती पतितासी । जावें आपुल्या घरासी। पुत्रकलत्र क्षोभतां दोषी। तूंतें केवी गति होम ।।७१।। या संसारी जन्मोनिया। संतोषवावें इंद्रियां । मग पावे धर्मकाया। तरीच तरे भवार्णव ।।७२।। या कारणें पूर्वीच जाणा। न करावी आपण अंगना। करोनि तिसी त्यजितां जाणा। महादोष बोलिजे ।।७३।। सूर्य-भूमी साक्षींसी। तुवां वरिलें श्रियेसी। तीस त्यागितां महादोषी । तूतें नव्हे गति जाण ।।७४।। श्रीगुरुवचन ऐकोन। विनवीतसे कर जोडून। केवी होऊं जातिहीन । ज्ञान होवोनि मागुती ।।७५।। श्रीगुरु मनीं विचारिती। याचे अंगी असे विभूति। प्रक्षाळावे लुब्धका हातीं । अज्ञानत्व पावेल ।।७६।। ऐसें मनीं विचारूनि । सांगती शिष्यासी बोलावोनि। एका लुब्धका पाचारोनि । आणा अतित्वरेंसी ।।७७।। तया ग्रामी द्विज एक। करी उदीम वाणिक। तयातें पावारिती ऐक। तया पतितासत्रिध ॥७८।। श्रीगुरु म्हणती त्यासी। उदक घेवोनि हस्तेंसी। स्नपन करी गा पतितासी। होय आसक्त संसारी ।।७९।। आज्ञा होतां ब्राह्मण । आला उदक घेऊन । त्यावरी घालितां तत्क्षण। गेली विभूति धुवोनि ।।१८०।। विभूति धूतां पतिताचें । झालें अज्ञान मन त्याचे। मुख पाहतां स्त्री-पुत्रांचें। भावत गेला त्यांजवळी ।।८१।। आलिंगोनिया पुत्रांसी । भ्रांति म्हणे त्यांसी। कां आलों या स्थळासी। तुम्ही आलां कवण कार्या ।।८२।। ऐसा मनीं विस्मय करीत । निघोनि परा गेला पतित। सांगितला वृत्तान्त। विस्मय सर्व करिताती ।।८३।। इतुकें झालें कौतुक । पहाती नगरलोक। विस्मय करिती सकलिक। म्हणती अभिनव काय झालें ।।८४।। त्रिविक्रमभारती मुनि । जो का होता गुरुसन्निधानीं। पुसतसे विनवोनि। ऐका स्रोते एकचित्तें ।।८५।। त्रिविक्रम म्हणे श्रीगुरूसी । होतो संदेह मानसीं । निरोप द्यावा कृपेंसी। विनंती एक अवधारा ।।८६।। महापतित जातिहीन जाण। तयातें दिपलें दिव्यज्ञान । अंग धुतां तत्क्षण। गेलें ज्ञान केवी त्याचें ।।८७।। विस्तारोनि आम्हांसी। निरोपाचे कृपेंसी। म्हणोनि लागला बरणांसी। भावभक्ति करोनिया ।।८८।। ऐसें पुसे त्रिविक्रम यति। श्रीगुरु तया निरोपिती। त्याचे अंगाची विभूति । धुतां गेलें ज्ञान त्याचें ॥८९॥ ऐसें विभूतीचे महिमान। माहात्म्य असे पावन। सांच होय ब्रह्म पूर्ण । भस्ममहिमा अपार ।।१९०।। गुरुवचन ऐकोनि। विनवीतसे त्रिविक्रम मुनि । देव गुरुशिरोमणि। भस्ममहिमा निरोपावा ।।९९।। सिद्ध म्हणे शिष्यासी। भस्ममहिमा परियेसीं। गुरु सांगतां विस्तारेंसी। एकचित्तें अवधारा ।।९२।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर । गुरुचरित्रविस्तार। ऐकतां होय मनोहर। सकळाभीष्टे साधती ।।९३।। पुढील कथा पावन । सांगे सिद्ध विस्तारोन । महाराष्ट्रभाषकरून। सांगे सरस्वती गुरुदास ।।९४।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२८॥
ओवीसंख्या ९४
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक म्हणे सिद्धासी। मार्गे कथा निरोपिलीसी। भस्ममाहात्म्य श्रीगुरुसी। पुसिले त्रिविक्रमभारतीने ।।१।। पुढें कथा कवणेंपरी । झाली असे गुरुचरित्रीं। निरोपावी सविस्तारी। सिद्धमुनि कृपासिंधु ।।२।। ऐसें विनवी शिष्यराणा । ऐकोनि सिद्ध प्रसन्नवदना। सांगतसे तये क्षणां । भस्ममाहात्म्य परियेसा ।।३।। श्रीगुरु म्हणे त्रिविक्रमासी। भस्ममाहात्म्य पुससी । एकचित्त करुनी मानसीं। सावध होवोनि ऐक पां ।।४।। पूर्वापार कृतयुगीं। वामदेव म्हणिजे योगी। प्रसिद्ध गुरू तो जगीं। वर्तत होता भूमीवरी ।।५।। शुद्ध बुद्ध ब्रह्मज्ञानी। गृह दारा' विवर्जुनी। कामक्रोधादि त्यजुनी । हिंडत होता महीवरी' ।।६।। संतुष्ट निःस्पृह मौनी। भस्म सर्वांगी लावोनि। जटाधारी असे मुनि। वल्कल वश्व व्याघ्राजिन ।।७।। ऐसा मुनि भूमंडळांत। नाना क्षेत्र हिंडत। पावला क्रौंचारण्यांत। जेथे संचार' राक्षसांचा ।।८।। तया स्थानी असे एक। ब्रह्मराक्षस भयानक। मनुष्यांदि जीवानिक। भक्षीतसे परियेसा ।।९।। ऐशा अघोर वनांत । वामदेव गेला हिंडत । ब्रह्मराक्षस अवचित। गेला धावोनि भक्षावया ।।१०।। ब्रह्मराक्षस क्षुधाक्रांत । तयासी भक्षु धावत । करकरां दांत खात। मुख पसरोनि जवळी आला ।।११।। राक्षस येतां देखोनि। वामदेव निःशंक मनीं। उभा असे महाज्ञानी । पातला राक्षस तयाजवळी ।।१२।। राक्षस मनीं संतोषित। ग्रास बरवा लाधला म्हणत । भक्षावया कांक्षा बहुत । येवोनि धरिला आलिंगोनि ।।१३।। आलिंगितां तयासी । भस्म लागलें राक्षसासी । झालें ज्ञान तयासी। जातिस्मरण जन्मांतरीचे ।।१४।। पातक गेलें जळोनि । राक्षस झाला ब्रह्मज्ञानी। जैसे लागतां चिंतामणि । लोह सुवर्णं होतसे ।।१५।। मानससरोवरों जैसा। काक होय राजहंस। अमृत पाजितां मनुष्यास । देवत्व होय ज्यापरी ।।१६।। जैशी का जांबूनदांत। मृत्तिका घालितां कनक होत। तैसा पापी जाहला पुनीत । योगियाचे अंगस्पर्श ।।१७।। समस्त मिळती मनकामना। दुर्लभ सत्पुरुषदर्शना। स्पर्श होर्ता गुरुचरणा। पापावेगळा होय नर ।।१८।। ब्रह्मराक्षस भयानक । काय सांगों त्याची भूक। गजतुरंग मनुष्य लोक। सकळ आहात करीतसे ।।१९।। इतुकें भक्षितां त्यासी। न जाय भूक परियेसी । तृषाकांत समुद्रासी । प्राशितां तृषा न जाय ।।२०।। ऐसा पापी राक्षस । होतां मुनीअंगस्पर्श। गेली क्षुधा आक्रोश। झाता ज्ञानी परियेसा ।।२१।। राक्षस ज्ञानी होवोनि। लागला मुनीश्वराचे चरणी। त्राहि त्राहि गुरुशिरोमणि। तूंचि साक्षात् ईश्वर ।।२२।। तारी तारी मुनीश्वरा । बुडालों घोर सागरां। उद्धरीं मज दातारा। जगदीश्वरा कृपासिंधु ।।२३।। तव दर्शनमात्रैसी । जळोनि गेल्या पापराशी । तूं कृपालु भक्तांसी। तारों तारी गुरुराया ।।२४।। येणेंपरी मुनीश्वरास । विनवीतसे ब्रह्मराक्षस। वामदेव कृपासमरस। पुसों लागला तये वेळीं ।।२५।। वामदेव म्हणे त्यासी। तूं कोण कोणाच्या वंशीं । ऐशिया घोर वनासी। राहिलासी कां या ठायां ।। २६ ।। ऐकोनि ऐसे वचन। ब्रह्मराक्षस करी नमन। विनवीतसे कर जोडोन। ऐक त्रिविक्रम मुनिराया ।। २७।। राक्षस म्हणे तये वेळीं। मज ज्ञान जालें सकळी। जातिस्मरण अंतकाळीं । पूर्वापरीचे स्वामिया ।। २८ ।। तयामध्ये माझे दोष। उत्कृष्ट जन्म पंचवीस । त्यांचा दिसतसे प्रकाश। ऐका स्वामी चामदेवा ।। २९।। पूर्वजन्मीं पंचविशीं। होतो राजा यवन देशीं। दुर्जय नाम आपणासी । दुराचारी वर्तलो जाण ।।३०।। मी मारिले बहुत लोक। प्रजेसी दिधलें बहु दुःख। खिया बरिल्या अनेक । राज्यमदें करोनिया ।।३१।। वरिल्या खिया अमित। अन्य भोगिल्या नाहीं गणित। एक दिवस घेवोनि रतिसुख। पुनरपि न भोगी तियेसी ।।३२।। एके दिवशीं एकीसी। रति देवोनि त्यजी तिसी । ठेवीं अंतगृहासी। पुनरपि ते न देखें नयनी ।।३३।। ऐसें अनेक स्त्रियांसी। ठेविलें अंतगृहासीं। मातें शापिती अहर्निशीं । दर्शन नेदीं म्हणोनि ॥३४।। सकळ राव जिंकोनि। आणिल्या खिया धरोनि। एक दिन भोगुनी । ठेविल्या अंतर्ग्रहासी ।।३५।। जेधे खिया सुरूप असती। बळ आणोन दे रति। संतोष त्या न येती। तयां द्रव्य देवोनि आणवीं ।।३६।। विप्र होते जे माझे देशीं। ते जाऊनि राहिले अन्य ठायासी। मी भोगीं त्यांचे खियांसी। उन्मत्तपणें परियेसा ॥३७।। पतिव्रता सुवासिनी। विधवा मुख्य करोनि। त्याही भोगीं उन्मत्तपणीं । रजस्वला न सांडिल्या ।।३८।। विवाह न होतां कन्येसी । बलात्कारें भोगीं त्यांसी। येणेंपरी समस्त देशीं। उपद्रविले मदांधपणें ।।३९।। ब्राह्मणस्त्रिया तीन शत। चार शत क्षत्रिया विख्यात । वैश्वस्त्रिया षट्शत। शुद्रखिया सहस्र जाण ।।४०।। एक शत चांडाळिणी। सहस्र वरिल्या पुलिंदिनी'। पंचशत खिया डोंबिणी। रजकिणी वरल्या शत चारी ।।४१।। असंख्यात वारवनिता'। भोगिल्या म्यां उन्मत्तता। तथापि माझे मनीं तृप्तता। नाहीं झाली स्वामिया ।।४२।। इतुक्या स्त्रिया भोगून । तृप्त नव्हे माझे मन। विषयासक्त मद्यपान। करी नित्य उन्मत्त मी ।।४३।। वर्ततां येणेंपरी देखा। व्याधित झालों यक्ष्मादिका। परराजे येऊनि ऐका। राज्य सर्व हारिलें ॥४४।। मग जाणा आपणासी। मरण आले परियेसी । मग नेले यमापाशीं। नरकामध्ये घातले ।।४५।। देवांची सहस्र वर्षे देखा। दहा वेळ फिरलों ऐका । पितरांसहित नरका । भोगिले नरक येणेंपरी ।।४६।। पुढे जन्मलों प्रेतवंशीं। विरूप देह आपणासी। सहस्र शिन्ने अंगासी । लागली असती परियेसा ।।४७।। येणेंपरी दिव्य शत। वर्षे कष्टलों बुधाक्रांत । पुनः यमपंथ । नाना करें कष्टलों ।।४८।। दुजा जन्म आपणासी। व्याघ्र झालों जीवहिंसी। अजगर जन्म तृतीयेसी। चवथा झालों लांडगा ।।४९।। पांचवा जन्म आपणासी। ग्रामसूकर परियेसीं। सहावा जन्म परियेसीं। सरडा होवोनि जन्मलों ।।५०।। सातव्या जन्मीं झालों वान। आठवा जंबुक मतिहीन। नववा जन्म रोहिहरण। दहावा झालों ससाणा देखा ॥५१॥ मर्कट जन्म एकादश । सांबर झालों मी द्वादश। मुंगूस झालों मी त्रयोदश। चतुर्दश वायस दें ।। ५२।। जन्म आपण पंचदशीं। जांबुवंत' झालों क्लेशी। रानकुक्कुट षोडशी। जन्म पावलों परियेसा ।।५३।। सप्तदशजन्मी आपण । गर्दभझालों अक्षहीन । मार्जारयोनि भोगून। आलों अष्टादशेसी ॥५४।। एकुणिसाव्या जन्मासी। मंडूक झालों परियेसीं । कासवजन्म विंशतीसी। एकविसावा मत्स्य झालों ।।५५।। बाविसावा जन्म थोर। झालों तस्कर उंदीर। दिवांध झालों बधिर । उलूक' झालों तेविसावा ।।५६।। जन्म चतुर्विंशतीसी। झालों कुंजर तामसी। पंचविसाव्या जन्मासी । ब्रह्मराक्षस आपण देखा ।।५७।। सुधाक्रांत अहर्निशीं। कष्टतों मी परियेसीं। निराहार अरण्यवासी । वर्ततसें स्वामिया ।।५८।। तुम्हां देखतां अंतःकरणीं। वासना झाली भक्षीन म्हणोनि। यालागीं आलों धावोनि। पापरूपी आपण देखा ।।५९।। तुमचा अंगस्पर्श होतां । जातिस्मरण आलें आतां। सहस्र जन्मींची दुष्कृतता' । दिसतसे स्वामिया ।।६०।। मातें आतां जन्म पुरे। तव अनुग्रहें मी तरें। घोरांदर संसार नुरे। यातायाती कडे करी ।।६१।। तूं तारक विश्वासी । म्हणोनि मातें भेटलासी । तव चरणमहिमा ऐसी। स्पर्श होतां ज्ञान झालें ।। ६२।। भूमीवर नर असतीं । तैसा नव्हेसी तूं यति । तव महिमा दिसे ख्याति । निरोपावें दातारा ।।६३।। महापापी दुराचारी। आपण असें वनांतरीं। तव अंगस्पर्शमात्री । ज्ञान अखिल झालें मज ।।६४।। कैसा महिमा तुझे अंगीं। ईश्वर होशील कीं जगीं। आम्हां उद्धरावयालागी । आलासि स्वामी वामदेवा ।।६५।। ऐसें म्हणतां राक्षसीं। वामदेव सांगे संतोषीं। भस्ममहिमा आहे ऐशी। माझे अंगीं परियेसा ।। ६६।। सर्वांग माझे भस्मांकित। तुझे अंगीं लागले किंचित । त्याणे झालें तुज चेत । ज्ञानप्रकाश जन्मांतरींचा ।।६७।। भस्ममहिमा अपरंपार । ब्रह्मादिकां अगोचर। याचि कारणें ईश्वर। भूषण करी सर्वांगी ।।६८।। ईश्वरें वंदिले ज्या वस्तूसी। वर्णितां अशक्य आम्हांसी। तोचि शंकर व्योमकेशी। जाणे भस्ममहिमान ।।६९।। तूं जरी पुससी आम्हांसी। सांगेन दृष्टान्त परियेसीं। आम्हीं देखिला दृष्टींसी। अपार महिमा भस्माचा ।।७०।। वित्र एक द्रविडदेशी। आचारहीन परियेसी। सदा रत शूद्रिणीसी। कर्मभ्रष्ट वर्तत होता ॥७१।। समस्त मिळोनि विप्रजाती । त्या द्विजासी बहिष्कारिती। मातापिता दावाद' गोत्री। त्यागिती त्यासी बंधुवर्ग ॥७२।। येणेंपरी तो ब्राह्मण । प्रख्यात झाला आचारहीन। शूट्रिणीते वरून। होता काळ क्रमूनिया ।।७३।। ऐसा पापी दुराबारी । तस्करविधेनें उदर भरी। आणिक खियांशी व्यभिचार करी। उन्मत्तपणें परियेसीं ।॥७४।। वर्ततां ऐसा एके दिवशीं । गेला होता व्यभिचारासी । तस्करविद्या करितां निशीं। वधिले त्यासी एके शुद्रे ।।७५।। मग तया प्रेतासी। ओढोनि नेलें तेच निशीं। टाकिलें बहिग्रमिँशी। अघोर स्थळीं परियेसा ।। ७६।। श्वान एक तये नगरी। बैसलें होतें भस्मावरी। क्षुधाक्रांत ते अवसरी । हिंडत गेलें प्रेतघाणीं ।॥७७॥ देखोनि तया प्रेतासी। श्वान गेला भक्षावयासी। प्रेतावरी बैसून हीं । क्षुधानिवारण करीत होता ।।७८।। भस्म होतें श्वानपोटीं । तें लागले प्रेताचे ललाटीं। वक्षस्थळीं बहुवटीं । लागलें भस्म परियेसा ।। ७९।। प्राण त्यागितां द्विजवर। नेत होते यमकिंकर'। नानापरी करीत मार। यमपुरा नेताती ।।८०।। कैलासपुरीचे शिवदूत। देखोनि आले तें प्रेत। भस्म अंगी उब्ज्वलित। म्हणती बातें कोणी नेलें ।।८१।। यातें योग्य शिवपूर । केवी नेताती यमकिंकर। म्हणोनि घावती वेगवक्त्र'। यमकिंकरा मारावया ।।८२।। शिवदूत येतां देखोनि । यमदूत जाती पळोनि। तया द्विजातें सोडोनि। जाती आपुले यमपुरा ।।८३।। जाबोनि सांगती यमासी। गेलों होतों भूमीसी। आणीत होतों पापिवासी। अघोर रूपें करूनिया ।।८४।। तें देखोनि शिवदूत। धावत आले मारूं म्हणत । हिरोनि घेतलें प्रेत। वधीत होते आम्हांसी ॥८५।। आतां आम्हां काय गति। कीं जावों ना त्या क्षितीं । आम्हां शिवदूत मारिती । म्हणूनि विनविती यमासी ।।८६।॥ ऐकोनि दूतांचे वचन । यम निघाला कोपून । गेला त्वरेंकरून । शिवदूतांजवळी तो ।।८७।। यम म्हणे शिवदूतांसी। कां मारिलें मम किंकरांसी। हिरोनि घेतलें पापियासी । शिवपुरा केवी नेतां ।।८८।। याचें पाप असे प्रबळ । सरित्सिकता' गणवेल । त्याहूनि अधिक केवळ । अपोररूप असे देखा ।।८९।। नव्हे योग्य शिवपुरासी। न्यावया हा विमानेंसी। केवी नेता मूटपणेंसी। म्हणोनि यम कोपला ।।१०।। ऐकोनि यमाचे वचन । शिवदूत सांगती विस्तारोन। प्रेतकपाली लांछन । होते भस्म परियेसा ।।९१।। वक्षःस्थळीं भाळासी। बाहुमूळीं करकंकणेसी। भस्म लागता प्रेतासी। केवी आतळती दूत तुझे ॥९२।। आम्हां आज्ञा ईश्वराची । भस्मांकित तनु ज्याची। नित्य वस्ती असे त्याची। कैलासपदीं शाश्वत ।।९३।। भस्म कपाळीं लागत । केवी आतळती तव दूत। तात्काळीं होतों बधित। परी धर्म सोडिलें ।।९४।। पुढें आपुल्या दूतांसी। बुद्धि सांगा तुम्ही ऐसी। ज्यांवरी भस्म परियेसीं । त्यांतें तुम्हीं नाणावें ।।९५।। भस्मांकित नरासी । दोष न लागती परिवेसीं। तो योग्य होय स्वर्गासी। म्हणोनि सांगती शिवदूत ।।९६।। शिवदूतांचें वचन ऐकोन । यमधर्म गेला परतोन। आपुल्या दूता पाचारोन। सांगतसे परियेसा ।।९७।। यम सांगे आपुल्या दूतां। भूमीवरी जावोनि आतां । जे का असती भस्मांकिता। त्यांतें तुम्हीं नाणाचे ।।९८।। अनेक परी दोष जरी। केले असती अपरंपारी । त्यातें नाणिजे आमुच्या पुरीं। त्रिपुंड्रिक नरासी ।।९९।। स्ट्राक्षमाळा ज्याच्या गळां। असेल तिलक त्रिपुंड्री टिळा । त्यातें तुम्ही नातळा'। आज्ञा असे श्रीशिवाची ।।१००।। वामदेव म्हणे राक्षसासी। या विभूतीची महिमा ऐशी। आम्ही लावितों भक्तीसी । देवादिकां दुर्लभ ।।१।। पाहे पां ईवर प्रीतींसी। सदा लावितों भस्मासी। ईश्वरें वंदिल्या वस्तूसी। कोण वर्णं शके सांग पां ।।२।। एकोनि वामदेवाचें वचन। ब्रह्मराक्षस करी नमन। उद्धरीं गा जगजीवन। ईश्वर तूंचि वामदेवा ।।३।। तव चरण मज भेटले। सहस्र जन्मींचे ज्ञान झालें। कांहीं पुण्य होतें केलें। त्या गुणें भेटलासी ॥४।। आपण पूर्वी राज्य करितां । केलें पुण्य स्मरलें आतां । तळे बांधिले रानीं तत्त्वतां । दिल्ही वृत्ति विप्रांसी ॥५।। इतुके पुण्य आपणासी। घडले होतें परियेसीं। वरकड' केल्या दोषराशी। राज्य करितां स्वामिया ।।६।। जी नेलें यमपुरासी । यम पुसिले चित्रगुप्तासी। माझे पुण्य त्या यमासी। सांगितलें चित्रगुप्झें ।।७।। तथीं मातें यमधर्मे आपण। सांगितलें होतें पुण्य। पंचविंशत्ति जन्मों जाण । फळ येईल म्हणोनि ।।८।। त्या पुण्यापासून । जोडले' हे तव चरण। करणें स्वामी उद्धारण। जगदूरु स्वामिवा ।।९।। या भस्माचे महिमान। लावावयाचें विधान । कवण मंत्रे अवधारण। विस्तारोनि सांग पां ।। ११०।। वामदेव म्हणे राक्षसासी । विभूतिधारण मज पुससी । सांगेन तें विस्तारेंसी। एकचित्तं ऐक पां ।।११।। पूर्वी मंदाचलपर्वतीं। क्रीडेंसी गेले उमापती। कोटि रुद्रगणांसहिती। बैसले होते बोळंगेसी' ।।१२।। तेतीस कोटी देवांसहित। देवेंद्र दर्शनासी वेत। अनि वरुण देवासहित। कुबेर वायु आले तेथे ।।१३।। गंधर्व यक्ष चित्रसेन। खेचर पन्नग विद्याधरण । किंपुरुष सिद्ध साध्य जाण । आले गुह्यक सभेसी ।।१४।। वेदाचार्य बृहस्पति। वसिष्ठ नारद तेथे येती। अर्थमादि पितर येती। आले ईश्वर-वोळगेसी ।।१५।। दक्षादि ब्रह्म वेर सकळ । आलें समस्त ऋषिकुळ । उर्वश्यादि अप्सरामेळ । आले ईश्वरसमेसी ।।१६।। चंडिकासह शक्ति देखा। आदित्यादि द्वादशका। अष्ट वसु मिळोन ऐका। आले ईश्वरसभेसी ।।१७।। अश्विनी देव परियेसीं । विश्वदेव मिळून द्वादशी। आले ईश्वरसभेसी। एक ब्रह्मराक्षसा ।।१८।। भूतपति महाकाळ। नंदिकेश्चर महानील। काठीकर' दोघे प्रबळ । पार्षद उभे असती ।।१९।। वीरभद्र संकर्षण। मणिभद्र षट्कर्ण। वृकोदर देवमान्य । कुंभोदर आला तेथे ।।१२०।। कुंभोदर मंडोदर। विकटवर्ण कर्णधार। घारकेत महावीर। भूतनाथ तेथे आला ।।२१।। मूंगी रिटी भूतनाथ। नानारूपी गुण समस्त । नानावर्ण मुख्य ख्यात। नानाऽवयवीशिर दूत ।।२२।। रुद्रगणरूपें कैसीं । सांगेन ऐक विस्तारेंसी। कित्येक कृष्णवर्ण ऐसीं। श्वेतपीत धूम्रवर्ण ॥२३।। हिरखें ताम्म्र सुवर्णवर्ण । लोहित चित्रविचित्र जाण । मंडूकासारिखें' असे वदन। रुद्रगण आले तेथे ।।२४।। नाना आयुध-शखेंसी। नाना वाहने भूषणैसी । व्याघ्रमुखें कित्येकांसी। किती सूकरगजमुखी ।।२५।। कित्येकां वक्रमुख । कित्येक चान-श्रृगालमुख। उष्ट्रवदन किती एक । किती शरभवैरुंडवत् बदन ।।२६।। सिंहमुख कित्येक । किती घोर बकमुख। कितीएकांसी मुख एक। दोनमुख गण देखा ।।२७।। चतुर्मुख कितीएक। चतुर्भुज कित्येक । कित्ती एक हीनमुख। ऐसे तेथे गण येती ।।२८।। एकहस्त द्विहस्तेंसी। पांच सहा हस्तकेंसी। पाद नाहीं कितीएकांसी। बहुपाद किती जाणा ।।२९।। कर्ण नाहीं कित्येकांसी। एककर्ण अभिनवेसी। बहुकर्ण परियेसीं। ऐसे गण येती तेथे ।।१३०।। कित्येकां नेत्र एक । किती चार नेत्र मुख। कित्येक स्थूल कुब्जक'। ऐसे गण ईश्वराचे ।। ३१।। ऐशापरीच्या गणासहित। बैसला शिव मूर्तिमंत। सिंहासन रत्नखचित। सप्त प्रभावळींचे ।।३२।। आरक्त एक प्रभावळी। तियेवरी रत्नें जडली। अनुपम दिसे निर्मळी। सिंहासनी परियेसा ।।३३।। दुसरी देखा प्रभावळी। हेमवर्णं पिवळी। मिरवी रत्नबहाळी। सिंहासनी शंकराचे ।।३४।। तिसरी एक प्रभावळी। नीलवर्म सोज्वळी। ती असती कुसरिली। सिंहासनीं ईश्वराचे ।।३५।। चवधी प्रभावळी। रत्नखचित असे कमळीं। आरक्तवर्ण असे जडली। सिंहासनी ईश्वराचे ।।३६।। वैडूर्य रत्नखचित । मुक्ते जडली बहुत। पांचवी प्रभावळी विख्यात । सिंहासनी ईश्वराचे ।। ३७।। सहावी जे कां प्रभावळी। पुष्परागांचिया वेली। मुक्ताफळांचिया जाळी। सिंहासनों ईश्वराचे ॥३८।। सातवी जी कां प्रभावळी। अनेक रत्ने तिये जडलीं । विश्वकम्यनि निर्मिलीं। अपूर्व देखा त्रिभुवनांत ।।३९।। ऐशिया सिंहासनावरी। बैसला असे त्रिपुरारी'। कोटिसूर्य तेजासरी। भासतसे परियेसा ॥१४०।। महाप्रळयसमयासी। सप्तार्णवमिळणी' जैसी । तैसा या श्वासोच्छ्वासीं। ईश्वर बैसलासे ।।४१।। भाळनेत्र ज्वाळमाळा । संवर्तानि जटामंडळा। कपाळीं चंद्र षोडशकळा । शोभतसे सदाशिव ।।४२।। तक्षक देखा वामकर्णी। वासुकी दक्षिणकर्णी। दोघांचिया नयनीं। तेज फाकलें ।॥४३।। नीळकंठ आपण नागहार आभरण। सर्पाचे करी कंकण । मुद्रिकाही त्यांचिया ।।४४।। कर्कोटक-पद्माचीं। केलीं नुपुरें तयांचीं। पौर्णिमे प्रभा चंद्राची। तैसा शुभ्र दिसतसे ।।४६।। म्हणोनि कर्पूरगौर म्हणती । ध्यानी घ्याइजे पशुपती। ऐसा भोळा चक्रवर्ती। बैसला ते सर्भेत ।।४७।। रत्नमुकुट असे शिरीं। नागेंद्र तो केयूरी'। कुंडलाची दीप्ती थोरी। दिसतसे ईश्वरू ।।४८।। कंठीं सर्वांचे हार । नीलकंठ मनोहर। सर्वांगी सर्पालंकार । शोभतसे ईश्वरू ।।४९।। शुभ्र कमळी अर्चिला । की चंदने असे लोपिला । कर्पूरकर्दलेंसी लेपिला। तैसे दिसे ईश्वरू ।।१५०।। दशभुजा ईश्वरासी । एक एक आयुधेसी । बैसलासे सभेसी। सर्वेश्वर शंकरू ।।५१।। एके हार्ती त्रिशूल देखा। दुसरे हातीं डमरू सुरेखा । येरे हातीं खड्ग निका। शोभतसे ईश्चरु ।।५२।। पाणिमात्र एका हातीं। धनुष्यबाणें कर शोभती। खट्रांग फरश एके हातीं । त्रिशूळादिकै मिरवीतसे ।।५३।। शृंगासन कमळ देखा। धरिलेंसे पिनाका। दशभुर्जी दिसे निका । बैसलासे सभेसी ।।५४।। पंचवक्त्र सर्वेश्वर। एकेक मुखाचा विस्तार। दिसतसे सालंकार। सांगेन ऐका श्रोतेजन ।।५५।। कलंकाविण चंद्र जैसा। किंवा क्षीरफेन परियेसा । भस्मभूषित रूपें तैसा। दिसे मन्मथदाहक ।।५६।। चंद्रसूर्याग्नि नेत्र । नागहार कटिसूत्र। दिसे मूर्ति पवित्र। सर्वेश्वरू परियेसा ।।५७।। शुभ्र टिळक कपाळीं। बरवा शोभे चंद्रमौळी । हास्यवदन ओठ पवळीं। बैसलासे श्रीशंकर ।।५८।। दुजें मुख उत्तरेसी। शोभत असे विस्तारेंसी । ताम्रवर्ण करकमळेंसी। अपूर्व दिसतसे परियेसा ।।५९।। जेवीं डाळिंबीचे फूल। किंवा प्रभातरविमंडळ'। तैसे शोभे मुखकमळ। शंकराचें परियेसा ।।१६०।। तिसरें मुख पूर्वदिशेसी। गंगार्धचंद्रशिरेंसी। जटाबंधन परियेसीं । केलें सर्प वेष्टोनिया ।। ६१।। एक मुख दक्षिणेसी। विक्राळ दाढा दारुणेसी। मिरवे नील वर्णसी। दिसतसे शंकरू ।।६२।। मुखांतूनि ज्वाला निघती। जैसा कां वेदशति। रुंडमाळा शोभती। सर्पवेष्टित परियेसा ।।६३।। पांचवें असे जें वदन। व्यक्ताव्यक्त' दिसे जाण। साकार निराकार सुजान। सगुण निर्गुण ईश्वर ।। ६४।। सलक्षण निर्लक्षण । ऐसे शोभतसे वदन। परब्रह्म वस्तु जाण। सर्वेश्वर पंचमुख ।।६५।। काल व्याल सर्प बहुत। कंठीं माळा मिरवित । चरण मिरवे आरक्त कमळापरी ईश्वराचे ।।६६।। चंद्रासारिखी नखें देखा। मिरविती चरणीं पादुका । अलंकार सर्प ऐका । शोभतसे ईश्वर ।।६७।। व्याघ्रांबर प्रावर्ण। सर्वांगी सर्पवेष्टण। गांठीं बांधिली असे जाण । नागबंधे करोनिया ।। ६८।। नाभी चंद्रावळी शोभे। हृदयीं कटाक्ष रोम उभे। परमार्थालाभा लामे । भक्तजनमनोहर ।।६९।। ऐसा रुद्र महाभोळा । सिहासनी आरूदला। पार्वतीसहित शोभला । बैसला असे परमेश्वर ।।१७०।। पार्वतीचा श्रृंगारू । नानापरीचे अलंकारू। मिरवितसे मनोहरू । सर्वेश्वरी परियेसा ।।७१।। कनकचंपकगोरटी । मोतियांचा हार कंठीं । रत्नखचित मुकुटी। नागबंदी दिसतसे ।।७२।। नानापरीच्या पुष्पजाति। मुकुटावरी शोभती। तेथे भ्रमर आलापिती । परिमळालागीं परियेसा ॥७३।। मोतियांची थोर जाळी। शोभतसे मुकुटाजवळी । रत्नें असती जडलीं। शोभायमान दिसतसे ॥७४।। नासिक बरवें सरळ । तेथें मिरवे मुक्ताफळ । त्यावरी रत्न सोज्वळ। जडलें असे शोभायमान ।।७५।। अधरोष्ठ प्रवाळसरसी। दंतपंक्ति रत्ने जैशीं। ऐसी माता मिरवे कैसी । महामाया परियेसा ।। ७६।। कानीं तानवडी भोंवया। रत्नखचित मिरविलीया। अलंकार महामाया। ल्याइलीसे जगन्माता ॥७७।। पीतवर्ण चोळी देखा। कुचतीं शोभे निका। एकावळीं रत्नें अनेका। कंठीं हार शोभतसे ।।७८।। कालव्याल सर्प धोर । स्तनपान करिती मनोहर। कैसें भाग्य त्यांचे धोर। त्या सर्वांचें परियेसा ॥७९॥ आरक्त वस्र नेसली। जैसें डाळिंब पुष्पवेली। किंवा कुंकुमें मिरविली। गिरिजा माता परियेसा ।।१८०।। चाहुदंड सरळ सुरेखा। करी कंकण मुद्रिका'। मुक्ताकंचुकी देखा। ल्याइलीसे अपूर्व ।।८१।। चरण शोभती बरवे। नूपुरयुक्त स्वभावें। असे पार्वतीचे ध्यान ध्यावें। म्हणती देवगण समस्त ।।८२।। अष्टमीच्या चंद्रासरिसा। मिरवे टिळक कपाळीं तैसा । त्रिपुंडू टिळा शुभ्र जैसा। मोतियांचा परियेसा ।।८३।। नानापरीचे अलंकार। अनेकपरीचे शृंगार । कोण वर्णं शके पार । जगन्माता देवीचा ।।८४।। ऐसा शंभु उमेसहित । बैसलासे सर्भेत। तेतीस कोटी परिवारात' । इंद्र आला वोळंगेसी ।॥८५।। आले समस्त सुरवरः । देवऋषि सनत्कुमार। आले तेथे वेगवक्त्र। त्या ईश्वरसभेसी ।।८६।। सनत्कुमार तये वेळीं। लागतसे चरणकमळीं। साष्टांग नमूनि भाळीं। विनवीतसे शिवासी ।।८७।। जय जयाजी उमाकांता । जय जयाजी विघ्नहर्ता। त्रिभुवनीं तूंचि दाता। चतुर्विध पुरुषार्थातें ।।८८।। समस्त धर्म आपणासी । निरोपिले परियेसीं। भवार्णवी तरावयासीं । पापक्षयाकारणें ।।८९।। आणिक एक आम्हां देणें। मुक्ति होय अल्पगुणें। चारी पुरुषार्थ जेणें गुणें। अनायासें साधिजे ।।१९०।। एरवीं सकल पुण्यासी। करणें कष्ट आसमासीं । हितार्थ सर्व मानवासी। निरोपावें स्वामिया ।।९१।। ऐसें विनवी सनत्कुमार। मनीं संतोषोनि ईश्वर । सांगता झाला कर्पूरगौर। सनत्कुमार मुनीसी ।।९२।। ईश्वर म्हणे तये वेळीं। ऐका हो ऋषि सकळी। धर्म पडे तात्काळीं । ऐसे पुण्य सांगेन ।।९३।। वेदशास्त्रसंमतेसी। असे धर्म परियेसीं। अनंत पुण्य त्रिपुंडेंसी। भस्मांकित परियेसा ।।९४।। ऐकोनिया सनत्कुमार। कवण विधीं लाविजे नर। कवण स्थानीं द्रव्य परिकर। शक्ति कवण देवता असे ।।९५।। कवण कर्तृत्व किं प्रमाण। कवण मंत्र लाविजे आपण सांगा स्वामी विस्तारोन। म्हणोनि चरणीं लागला ।।९६।। ऐसी विनंती ऐकूनी। सांगे शंभु विस्तारोनि। गोमय द्रव्य देवताग्नि। भस्म करणें परियेसीं ॥९७।। पुरातन यज्ञस्थानीं। जी असेल मेदिनी। पुण्य बहुत लावितां क्षणीं । तेथील भस्म परियेसा ।।१८।। सद्योजातादि मंजेंसी। ध्यावें भस्म तळहस्तासी। अभिमंत्रायें भस्मासी। अझिरीती करोनिया ।।९९।। मानस्तोकेति मंत्रेसी । संमर्दावें अंगुष्टेंसी। त्र्यंबकादि मंडेंसी। शिरी लाविजे परियेसा ।।२००।। त्र्यायुषेति मंजेंसी । लाविजे ललाटभुजांसी। त्याचि मंत्रे परियेसीं। स्थानीं स्थानीं लाविजे ।।१।। मध्यांगुष्ठ अनामिकांगुलीसी । ताविजे प्रथम ललाटेसी। प्रतिलोम' अंगुष्टेंसी। मध्यरेखा काहिजे ।।२।। त्रिपुंड्र येणेंपरी। लाविजे तुम्हीं परिकरी। एक एक रेषा विस्तारों। सांगेन ऐका एकचित्तं ।।३।। तीन रेषा स्थानी स्थानीं । लावावें त्याच मंत्रांनीं। अधिक न लाविजे ध्रुवांहूनी। भ्रूसमान' लाविजे ।।४।। नव देवता विख्यातेसी। आहेत एकेक रेखेसी । अकार गार्हपत्यासी। भूरात्मा रजोगुणें ।।५।। ऋग्वेद आणि क्रियाशक्ति । प्रातः सवन असे ख्याति । महादेव देव म्हणती। प्रथम रेखेचा येणेंपरी ।।६।। दुसऱ्या रेखेच्या देवता। सांगन एका विस्तारता । उकार दक्षिणानि देवता । नभ सत्त्व जाणिजे ।।७।। यजुर्वेद म्हणती त्यासी। माध्यंदिन सवन परियेसीं। इच्छाशक्ति अंतरात्म्यासी । महेश्वर देवता जाण ।।८।। तिजी रेखा मधिलेसी। मकार आहवनीय परियेसीं। परमात्माप्रकृतीसी। ज्ञानशक्ति तयासी ।।९।। तृतीय सवन त्यासी। अधिदेवता इंद्र त्यासी। शिवशक्ति निर्धारिंसी। तीन रेखा येणेंपरी ।। २१०।। ऐसें नमस्कारोनि। त्रिपुंडू लाविजे भस्में करोनि। महेश्वराची प्रीति म्हणोनि। वेदशाखें वाखाणिती ।।११।। ब्रह्मचारी गृहस्थासी। वानप्रस्थ यतीश्वरासी । समस्त लाविजे हीं। भस्मांकित त्रिपुंडू ।।१२।। मुक्तिकाम जे लाविती । त्यासी नाहीं पुनरावृत्ति। जें जें मनीं संकल्पिती। लाभती चारी पुरुषार्थ ।।१३।। क्षत्रिय वैश्य शूद्र त्रिविधांसी। गोहत्यादि पातकी यांसी। बीरहत्यादि आत्महत्येंसी। शुद्धात्मा करी भस्मांकित ।।१४।। महापातकी आपण उपपातक करी जाण । भस्म लावितां तत्क्षण। पुण्यात्मा तो होय ।।१५।। विधिपूर्वक मंत्रसी। जे लाविती भक्तींसी। त्यांची महिमा अपारेसी। वंद्य होय देवलोकी ।।१६।। नेणे जरी मंत्रविधि । तेणें लाविजे भावबुद्धीं । त्याचा महिमा अपारनिधि। एकचित्तं परियेसा ।।१७।। परद्रव्यापहार देखा । परखीगमन ऐका। असे पापी परनिंदका। तोही पावन होय जाणा ।।१८।। परक्षेत्रहरण देखा। परपीडन करी जो कां। सस्य' आराम' तोडी पताका। तोही होय पुनीत ।।१९।। दहन केलें गृहासी। असत्यवादी परियेसीं। पैशून्यपण' पापियासी । वेदविक्रय पापी जाण ।।२२०।। कूटसाक्षी वृत्तित्यागी। कौटिल्य करी पोटालागीं। ऐसीं पापें सदा भोगी। तोही होय पुनीत ।।२१।। गाई भूमि हिरण्यदान। महिषी तीळ कंबळ दान। घेतलें असेल वखान्न। तोही पुनीत परियेसा ।।२२।। धान्यदान जलादिदान। जो घेई नीचापासून । त्याणे करणें भस्मधारण। तोही पुनीत होय जाण ।।२३।। कन्या विधवा अन्य खियेंसी। घडला संग जयासी। अनुतप्त होवोनि परियेसीं। भस्म लावितां पुनीत ।।२४।। दासी वेश्या भुजगणेंसी। वृषलखी रजस्वलेंसी। केलें असेल जो कां दोषी। तोही पुनीत होय जाणा ।।२५।। रस मांस लवणादिका । केला असेल विक्रय देखा। पुनीत होय भस्मसंपर्का। त्रिपुंडू लावितां परियेसा ।।२६।। जाणोनि अथवा अज्ञानता। पापें पडली असंख्याता। पवित्रत्व भस्म लावितां । पुण्यात्मा होय जाणा ।।२७।। नाशील सर्व पापांसी। भस्ममहिमा आहे ऐसी। शिवनिंदक पापियासी। नरकभोग परियेसा ।।२८।। शिवद्रव्यापहारिल्यासी। निंदा करी शिवभक्तांसी । नव्हे निष्कृति' त्यासी। पापावेगळा नोहे जाण ।।२९।। रुद्राक्षमाळा ज्याच्या गळां। लाबिला त्रिपुंड्र भाळां । अन्यजाति होय केवळा। तोही पूज्य तिहीं लोकीं ।॥२३०।। जितुकीं तीर्थे भूमीवरी। असती क्षेत्रे नानापरी। स्नान केलें पुण्य सरीं। भस्म लावितां परियेसा ।।३१।। मंत्र असती कोटी शत। पंचाक्षरादि विख्यात । अनंत अगम्य असे मंत्र । जपिलें फळ भस्मांकिता ।।३२।। इहलोकी अखिल सुख । होय आपण शतायुष । व्याधि न होव शरीरास । भस्म लावितां परियेसा ।।३३।। पूर्वजन्मसहस्रांती । आणिकही बहुतीं । भस्मधारणे पापें जाती। बेचाळीस वंशादि ।।३४।। अष्टैश्चयें नरासी। दिव्य शरीर तेजोराशी। ज्ञान होय भरंवशीं । देहांतीं मुक्त होईल ।।३५।। बैसोनिया विमानों। दिव्य खिया येवोनि। सेवा करिती येणें गुणीं। घेऊनि जाती स्वर्गासी ।।३६।। विद्याधर सिद्धजन। गंधर्वादि देवगण। इंद्रादि लोकपाल' जाण। बंदिती सर्व तयासी ।। ३७।। अनंतकाळ तया स्थानीं । सुखें असती संतोषोनि। मग जाय तेथोनि। ब्रह्मलोकीं शाश्वत ।। ३८।। एकशत कल्पवरी । रहाती ब्रह्मलोकीं स्थिरी । तेथोनि जाती वैकुंठपुरी। विष्णुलोकीं परियेसा ।।३९।। तीन ब्रह्मकल्पवरी। रहाती नर वैकुंठपुरीं। मग पावती कैलासशिखरीं। अक्षय काळ तेथे राहती ।।२४०।। शिवसायुज्य होय तयांसी। संदेह सोडोनि मानसीं । लावावें त्रिपुंडू भस्मासी। सनत्कुमारादिक ऋषि सकळ ।।४१।। वेद शास्त्र उपनिषदांत। सार पाहिलें पुराणांत । चतुर्विध पुरुषार्थ। भस्मधारणें होय जाणा ।।४२।। ऐसें त्रिपुंड्रमहिमान । सांगितलें शिवें विस्तारून । म्हणोनि लावा तुम्ही सकळ जन। सनत्कुमारादि ऋषीश्वर ।।४३।। सांगोनिया सनत्कुमारासी। ईश्वर गेले कैलासासी। सनत्कुमार महाऋषि। गेला ब्रह्मलोकाप्रती ।।४४।। वामदेव महामुनि । सांगती ऐसें विस्तारोनि । ब्रह्मराक्षसें संतोषोनि । नमन केलें चरणांसी ।।४५।। वामदेव म्हणे राक्षसासी। भस्ममहिमा आहे ऐशी। माझिया अंगस्पर्शी । ज्ञान तुज प्रकाशिले ।।४६।। ऐसें म्हणोनि संतोषीं। अभिमंत्रोनिया भस्मासी। देत झाला राक्षसासी। वामदेव तये वेळीं ।।४७।। ब्रह्मराक्षस त्या वेळीं। लावितां त्रिपुंडूक्क कपाळीं । दिव्यदेह झाला बळी। तेजोमूर्ति परियेसा ।।४८।। दिव्य अवयव झाले त्यासी। जैसा सूर्यसंकाशी। आनंदरूप झाला परिवेसीं। ब्रह्मराक्षस तये वेळीं ।।४९।। नमन करूनि योगियासी। केली प्रदक्षिणा भक्तींसी। विमान आलें तत्क्षणेंसी। सूर्यसंकाश परियेसा ।।२५०।। दिव्य विमानी बैसवोनि। स्वर्गी नेला तेच क्षणीं। वामदेव महामुनि। परम लोक तया दिधला ।।५१।। वामदेव महादेव । मनुष्यरूप तसे स्वभाव । प्रत्यक्ष तो शांभवः। भक्तां तारूं हिंडतसे ।।५२।। त्रैमूर्तीचा अवतारू । वामदेव सर्वेश्वरू । करावया जगदुद्धारू । हिंडत होता भूमीवरी ।।५३।। भस्ममाहात्म्य असे थोरु। विशेष हस्तस्पर्श गुरु । ब्राह्मणराक्षस पावला पारु। उद्धार झाला तयाचा ।।५४।। समस्त मंत्र असती। गुरुवीण साध्य न होती। वेदशाखें वाखाणिती । नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ।।५५।। सूत म्हणे ऋषीश्वरांसी। भस्ममहिमा आहे ऐसी। गुरुहस्ते असे विशेषी । तस्मादगुरुचि कारण ।।५६।। येणेंपरी त्रिविक्रमासी। सांगती श्रीगुरु विस्तारेंसी । त्रिविक्रमभारती हर्षी। चरणांवरी माथा ठेवी ।।५७।। नमन करूनी श्रीगुरूसी। निपाले आपुल्या स्थानासी। झालें ज्ञान तयासी। गुरूचेनि उपदेशें ॥५८।। येणेंपरी सिद्धमुनि । सांगता झाला विस्तारोनि। ऐक शिष्या नामकरणी। भक्तिभावें करोनिया ।।५९।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर । सांगे गुरुचरित्रविस्तार। भक्तिभावें ऐकती नर। चारी पुरुषार्थ पावती ।।२६०।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । भस्ममहिमा विख्यात । वामदेव कृपावंत । होऊनि राक्षस उद्धरिला ।।२६१।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥२९॥
ओवीसंख्या २६१
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक शिष्यराणा । लागतसे सिद्धाचिये चरणां । विनवीतसे कर जोडूनि जाणा। भक्तिभावे करूनि ।।१।। जय जयाजी सिद्धमुनि । तूंचि तारक भवार्णी। अज्ञानतिमिर नासोनि। ज्योतिः स्वरूप तूंचि होसी ।।२।। अविद्यामायासागरी । बुडालों होतों महापुरीं। तव कृपा झालियावरी। तारिले मातें स्वामिया ।।३।। तुवां दाविला निज पंथ । जेणें जोडे परमार्थ। विश्वपाळक गुरुनाथ। तूंचि होसी स्वामिया ।।४।। गुरुचरित्र सुधारस। त्वां पाजिला आम्हांस । तृप्त नव्हे गा मानस । तृषा आणिक होतसे ।।५।। त्वां केलें उपकारासी। उत्तीर्ण' नव्हे वंशोवंशीं । निजरूप आम्हांसी। दाविलें कीं सिद्धमुनि ।।६।। मार्गे कथा निरोपिलीसी। अभिनव लीला दाविसी। पतिताकरी विख्यातीसी। वेद चारी बोलविले ।।७।। त्रिविक्रम मुनीश्वरासी। बोधिलें ज्ञान प्रकाशी। पुढें कथा वर्तली कैशी। विस्तारावी दातारा ।।८।। ऐकोनि शिष्याचे बचन। संतोषले सिद्ध जाम । प्रेमभावें आलिंगोन। आचासिले तये वेळीं ।।९।। धन्य धन्य शिष्यमौळी । तुज लाधले अभीष्ट' सकळी। गुरूची कृपा तात्काळी। झाली आतां परियेसा ।।१०।। धन्य धन्य तव वाणी। वेध लागला गुरुचरणीं । तूं तरलासी भवार्णी। सकळाभीष्टे साधती ।।११।। तुवां पुसिला वृत्तान्त। संतोष झाला आजी बहुत। श्रीगुरुमहिमा ख्यात । अगम्य' असे सांगतां ।।१२।। एकेक महिमा सांगतां । विस्तारेल बहु कथा। संक्षेपमार्गे तुज आतां । निरोपितों परियेसीं ।।१३।। पुढें असतां वर्तमानीं। तया गाणगाग्रामभुवनीं। महिमा होतसे नित्यदिनीं। प्रख्यातरूपें जाण पां ।।१४।। त्रिमूर्तीचा अवतार । झाला नरसिंहसरस्वती नर। महिमा त्याचा अपरंपार। सांगतां अगम्य परियेसा ।।१५।। तया स्थानी असतां गुरु। ख्याति झाली अपरंपारू। प्रकाशत्व चहूं राष्ट्री थोरू। समस्त येती दर्शना ।।१६।। महिमा त्या मूर्तीची । सांगतां आम्हां शक्ति कैची। काया धरूनि मनुष्याची । चरित्र केले भूमीवरी ।।१७।। भक्त येती यात्रेसी। एकभावें भक्तींसी। श्रीगुरुदर्शनमात्रैसी। सकळाभीष्ट पावती ।।१८।। दौन होती श्रियायुक्त' । वांझेसी होय पुत्र त्वरित। कुठे असे जो पीडित। सुवर्ण होय देह त्याचा ।।१९।। अक्षहीना अक्ष येती। बधिर कर्णी ऐकती। अपस्मारादि रोग जाती। श्रीगुरुचरणदर्शनें ।।२०।। परीस लागतां लोहासी। सुवर्ण होय तात्काळेंसी । श्रीगुरुकृपा होय ज्यांसी। सकळाभीष्टें पावती ।।२१।। ऐसें असतां वर्तमानीं। उत्तरदेशी माहुरस्थानी। होता एक विप्र धनी। नांव तया गोपीनाथ ।।२२।। तया पुत्र होउनी मरती। करी दुःख अनेक वृत्तीं। दत्तात्रेयासी आराधिती । स्रीपुरुष दोघेजण ।।२३।। पुढे झाला आणिक सुत। तयाचें नांव ठेविलें दत्त। असती आपण धनवंत। अती प्रीति पुत्रावरी ।।२४।। एक पुत्र तया घरीं। अति प्रीति तयावरी। झाला पांच संवत्सरी'। व्रतबंध केला त्यासी ।।२५।। वर्षे बारा होतां त्यासी। विवाह करिती प्रीतींसी। अतिसुंदर नोवरीसी। विचारूनि प्रीतिकरें ।।२६।। मदनाचे रतिसरसी। रूप दिसे नोवरीसी। मातापिता अतिहर्षी। पाहोनिया आल्हादती ।।२७।। दंपत्यें एकचि क्यासी । अतिप्रेमें महा हीं। वर्धतां झाली षोडशी। बर्षे तया विप्रसी ।।२८।। दोघे सुंदर सुलक्षण। एकावरी एकाचा प्राण । न विसचिती एक क्षण। अतिप्रेम परियेसा ।। २९।। ऐसें प्रेम असतां देखा। व्याधि आली त्या बाळका। अनेक औषधे देतां देखा। आरोग्य त्यासी न होय ।।३०।। न रुचे अन्न त्यासी। सदा राहे उपवासी । त्याची भार्या प्रीतींसी। आपण न घेई अन्न कदा ।।३१।। पुरुषावरी आपुला प्राण। करी नित्य उपोषण। पतीस देतां औषध आपण । प्राशन करी परियेसा ।।३२।। येणेंपरी तीन वर्षेसी। व्याधि झाली क्षयासी। पतिव्रता श्री कैसी। पुरुषासर्वे कष्टतसे ।।३३।। पुरुषदेह क्षीण झाला। आपण त्यासारखी अबला। तीर्थ घेवोनि चरणकमळा। काळ क्रमी तयाजवळी ।।३४।। दुर्गंधि झाला देह त्याचा। जवळी न ये वैद्य साचा। सुमनोभाव पतिव्रतेचा। न विसंबे क्षणभरी ।। ३५।। जितुकें अन्न पतीसी। तितुके ग्रास आपणासी। जें जें औषध त्यासी । आपण ते ते घेतसे ।। ३६ ।। मातापिता दायाद गोती। सकळ तिसी निवारिती। पतिव्रता ज्ञानवंती। नायके बोल कवणाचे ।।३७।। दिव्यवर्षे आभरण। सकळ त्यजूनि भूषण। पुरुषावरी आपुला प्राण। काय सुख म्हणतसे ।।३८।। उभयतांची मातापिता । महाधनिक तत्त्वतां । पुत्रकन्येसी पाहतां । अतिदुःख करिती परियेसा ।।३९।। अनेकजप अनुष्ठान । मंत्रविद्या महाहवन। अपरिमित ब्राह्मण। भोजन करविती परियेसा ॥४०॥ अनेक परीचे वैद्य येती । नानारस औषधे देती। शमन' न होय कवणें रीतीं। महाव्याधि व्यापिली ।।४१।। पुसताती जोशियासी। पूजिती कुळदेवतेसी । कांही केल्या पुत्रासी। आरोग्य कदा न होय ।।४२।। वैद्य म्हणती तये वेळीं। नव्हे बरयें यासी अढळी। राखील जरी चंद्रमौळी। मनुष्ययत्न नव्हे आतां ।।४३।। ऐसें ऐकोनि मातापिता । दुःखें दाटोनि करिती चिंता । जय स्वामी जगन्नाथा । दत्तात्रेय गुरुमूर्ति ।।४४।। आराधोनि तुम्हांसी। पुत्र लाधलों संतोषीं। पापरूप आपणासी। निधान केवी जिरेल ।।४५।। एकची पुत्र आमुचे वंशी। त्यासी जरी न राखिसी। प्राण देवों तवासरसीं। दत्तात्रेया स्वामिया ।।४६।। ऐसे नानापरी देखा। दुःख करिती जननीजनका। वारितसे पुत्र ऐका। मातापिता आलिंगोनि ।।४७।। म्हणे आपुले भोग सरले। जितके ऋण तुम्ही दिपले। अभिक गेऊ कैनें भलें। ऋणानुबंध २ चुकेची ।।४८।। ऐसें म्हणतां मातापिता । दोघे झालीं मूर्च्छागता। पुत्रावरी लोळतां । महादुःखें करोनिया ।।४९।। म्हणती ताता पुत्रराया ।। आमुची आशा झाली वायां। पोषिसी आम्हां म्हणोनिया। केला होता निश्चय ।।५०।। उबगोनि' आम्हांसी ।। केवी तूं जाऊं पाहसी। वार्द्धक्यपणीं आपणांसी। धर्म केवी तुज घडे ।।५१।। ऐकोनिया तयांचे वचन । विनवीतसे आनंदोन। करणें ईश्वर आधीन। मनुष्ययत्न न चाले ।।५२।। मातापिता यांचे ऋण। एक घडीचे स्तनपान । उत्तीर्ण कांहीं केल्या न जाण। जन्मांतरी येऊनिया ।।५३।। आपण जन्मलों तुमच्या उदरी। कष्ट दाविले अतिभारी। सौख्य न देखा निर्धारी। ऐसा पापी आपण जाणा ।।५४।। आतां दुःख न करणें । परमार्थी दृष्टि देणें। जैसे कांहीं असे होणे। ब्रह्मादिकां न चुकेची ।।५५।। येणेंपरी जननीजनका। संबोखित' पुत्र निका। तेणेंपरी खियेसी एका। सांगतसे परियेसा ।।५६।। म्हणे ऐक प्राणेश्वरी। झाले आमुचे दिवस पुरी । मजनिमित्त कष्टलीस भारी। वृथा गेले कष्ट तुझे ।।५७।। पूर्वजन्मींचा वैरी आपण । तुजसी होते माझें ऋण । म्हणोनि दिधले जाण। जन्मांतरींचे कष्ट देखा ।।५८।। जरी रहासी आमुचे घरीं। तुज पोशितील बरवेंपरी । तुज वाटतील कष्ट भारी। जाई आपुल्या माहेरा ।।५९।। ऐसें तुझे सुंदरपण। न लाघे आपण दैवहीन। न राहे तुझे अहेवपण। माझें अंग स्पर्शतां ।।६०।। ऐकतां पतीचें वचन । मूर्च्छा आली तत्त्क्षण। चरणीं मस्तक ठेवून । दुःख करी तये वेळीं ।।६१।। म्हणे स्वामी प्राणेश्वरा। तुम्ही मज कां अव्हेरां'। तुम्हांसारिखी दातारा । आणिकक नाहीं गति मज ।।६२।। जेथे असेल तुमचा देहो। तेथे सवेंचि असों आपण पाहों। मनीं न करावा संदेहो । समागमें येईन मी ।।६३।। ऐशी दोघांची बोलणीं। ऐकोनिया जनकजननी। देह टाकोनिया धरणीं । दुःख करिती आक्रोश ।।६४।। उठवूनिया श्रवशुरासी। संबोखितसे सासूसी । न करावी चिता मानसीं। पति आपुला तांगेल ।।६५।। तिनत्रीतसे तगे वेळीं। आम्हां राखील चंद्रमौळी। पाठवा एखादिगा स्थळीं । पति आपुला वांचेल ।।६६।। सांगती लोक महिमा ख्याति । श्रीगुरु नरसिंहसरस्वती। गाणगापुरीं बास करिती । तया स्वामी पहावया ।। ६७।। त्याचे दर्शनमात्रेसी। आरोग्य होईल पतीसी। आम्हां पाठवा त्वरेंसी। म्हणोनि चरणीं लागली ।।६८।। मानवलें' समस्तांसी। मातापिता श्वशुरांसी। निरोप पुसून समस्तांसी। निघतीं झालों तये वेळीं ।।६९।। त्या रोगिया करोनि डोळी। घेवोनि निघाली ती बाळी। विनवीतसे तये वेळीं। आपुलिया सासूश्वशुरांसी ।।७०।। स्थिर करोनि अंतःकरण। सुखें रहावें दोघेजण। पति असे माझा प्राण। राखील आमुची कुळदेवता ।।७१।। म्हणोनि सासूचशुरासी । नमन करी प्रीतींसी। आशीर्वाद देती हर्षी। अहेवपण स्थिर होय ।।७२।। तब दैवें तरी आतां । आमुचा पुत्र वांचो तत्त्वतां । म्हणोनि बोलती उभयतां। आशीर्वाद देती क्षणोक्षणीं ।॥७३॥ येणेंपरी पतीसहित । होती झाली मार्गस्थ । किंचित्काळ मार्ग क्रमित। आली गाणगापुरासी ।।७४।। मार्ग क्रमितां रोगियासी। अधिक झाला त्रिदोषी। उत्तरतां ग्रामदेशीं। अतिसंकट ओढवलें ॥७५।। विचारिती श्रीगुरूसी । गेले होते संगमासी । जावें म्हणोनि दर्शनासी। निघती झाली तये वेळीं ।।७६।। पतिव्रता तये वेळीं। आली आपुले पतीजवळी। पहाती जाहली अंतकाळीं। प्राण गेला तत्क्षणी ॥७७।। आकांत करी ती नारी। लोळतसे धरणीवरी। भोसकोनि घ्यावया घेतां सुरी। वारिती मग जन लोक ॥७८।। आफळी' शिर भूमीसी। हाणी कर पाषाणेंसी। केश मोकले आक्रोशीं । प्रलापीतसे ती नारी ॥७९।। हा हा देवा काय जहाले। कां मज गाईसी गांजिलें। आशा करोनिया आलें। राखिसी प्राण म्हणोनिया ।।८०।। पूजेसी जातां देउळांत। पुढें देऊळ करी घात। ऐशी कानीं न ऐकू मात । दृष्टान्त झाला आपणासी ।।८१।। उष्णकाळीं तापोनि नरु। ठाकोनि जाय छायातरु। वृक्षचि पडे घात भोरु। त्यापरी झालें मज ।।८२।। तृर्वेकरूनि पीडित। जाय मनुष्य गंगेत । संघीं सुसरी करी घात। त्याचिपरी झालें मज ।।८३।। व्याघ्रभयें पळे घेनु। जाय आधार म्हणोनु। तेथे बधीतसे यवनु। तयापरी झालें मज ।।८४।। ऐशी पापीण दैवहीन । आपुल्या पतीचा घेतला प्राण। मातापितवांसी त्यजून। घेवोनि आल्यें विदेशीं ।।८५।। येणेंपरी करितां दुःख । पाहों आले ग्रामलोक। संचोधिती सकळिक। अनेका परी करोनिया ।।८६।। वारिती नारी सुवासिनी। कां वो दुःख करिसी झणी। विचार करी वो अंतःकरणों। होणार न चुके सकळिकां ।।८७।। ऐसें म्हणती नरनारी । तिजला दुःख झालें भारी। आठवीतसे परोपरी। आपुलें जन्मकर्म सकळ ।।८८।। ऐका हो तुम्ही मायबहिणी । आतां कैसी वांचूं' प्राणी। पतीस आल्यें घेवोनि। याची आस' करोनिया ।।८९।। आतां कवणा शरण जाऊं । राखेल कोण माझा जीवू। प्राणेश्वर त्यजूनि केयूं। वांचू म्हणतसे ते नारी ।।१०।। बाळपणी गौरीसी। पूजा केली शंकरासी। विवाह होतां परियेसीं। मंगळागौरी पूजिली ।।९१।। चुडे कंकणाचे आशेनी । पूजा केली म्यां भवानी। सांगती मातें सुवासिनी। अनेकपरी व्रतादिकें ।।१२।। जे जे सांगती मातें व्रत। तें तें केलें अखंडित। सर्व झालें आतां व्यर्थ । रुसली गौरी आपणावरी ।।१३।। आतां माझ्या हळदीसी। चोर पडले गळेसरीसी । समस्त दिधलें वन्हीसी। कांकण कंचुकी परियेसा ।।९४।। कोठें गेलें माझें पुण्य। वृथा पूजिला गौरीरमण । कैसें केलें मज निर्वाण'। ऐका मायबहिणी हो ।।९५।। केवी राहूं आतां आपण। पति माझा होता प्राण । लोकांसारिखा नव्हे जाण। प्राणेश्वर परियेसा ।।९६।। ऐसे नानापरी देखा। पतिव्रता करी दुःखा। पतीचे पहातसे मुखा । अनेक दुःख अधिक करी ।।९७।। आलिगोनि प्रेतासी। रुदन करी बहुवसीं। आठवी आपुल्या पूर्व दिवसीं । पूर्वस्नेह तये वेळीं ॥९८॥ म्हणे पुरुषा प्राणेश्वरा। कैसें त्यजिलें करा। उबग आलां तुम्हां थोरा। म्हणोनि मातें उपेक्षिले ।।९९।। कैसी आपण दैवहीन। घटा खापरा लागतां भिन्न। होतासि तूं निघान । आयुष्य उणें तुझे जहाले ।।१००।। तुमच्या मातापित्यासी। सांडोनि आणिलें परदेशीं। जेणेंपरी श्रावणासी। वधिले राजा दशरथे ।।१।। तैसी तुमची जनकजननीं । तुम्हां आणिलें त्यजूनि। तुमची वार्ता ऐकोनि। दोघे प्राण त्यागितील ।।२।। तिन्ही हत्या भरंवीं'। घडल्या मज पापिणीसी। वैरिणी मी तुम्हांसी। पतिघातकी सत्य जाणा ।।३।। ऐशी पापिणी चांडाळी । निंदिती लोक सकळी । प्राण पातले कीं मी बळीं। पतिघातकी सत्य म्हणती मज ।।४।। श्री नव्हे मी तुमची वैरी। जैसी तिखट शस्त्र सुरी। वधिली तुमचे शरीरी। घेतला प्राण आपण ।।५।। मातापिता बंधु सकळी। जरी असती तुम्हांजवळी। मुख पाहती अंतकाळीं । तयांसि विघ्न म्यां केलें ।।६।। वृद्ध सासूसासऱ्यांस । पोसाल म्हणोन होती आस । पुरला नाहीं त्यांचा सोस'। त्यांतें सांडोनि केवी जाशी ।।७।। एकुलते एक तुम्ही त्यांसी। उबगलेती पोसायासी। आम्हां कोठें ठेवूनि जासी। प्राणेश्वरा दातारा ।।८।। आतां आपण कोठें जावें । कोणीं मातें पोसावें । न सांगतां बरखें। निघोनि जासी प्राणेश्वरा ।।९।। तू माझा प्राणेश्वरू। तुझे महत्त्व केवी विसरू । लोकांसारिखा नव्हेसी नरू। प्रतिपाळिलें प्रियभावें ।।११०।। कीं नेणें पृथक्शयन। वामहस्त उसेंवीण । आतां फुटलें अंतःकरण । केवी वांचं प्राणेश्वरा ।।११।। किती आठवू तुझे गुण। पति नव्हेसी माझा प्राण सोडोन जातोसी निर्वाण । कवणें परीनें तुम्ही ।।१२।। आतां कवणा परी जाणें। कवण घेतील मम पोसणें । बालविधवा म्हणोनि पेणें । जन अपवाद ठेविती ।।१३।। एखादी बुद्धि न सांगतां। त्यजिला प्राण आत्मनाथा। कोठें जायें आपण आतां । केशवपन करूनि ।।१४।। तव प्रेमें होतें भरल्यें। मातापितयांते विसरल्यें। त्यांच्या गृहीं नाहीं गेल्यें। बोलावणी नित्य येती ।।१५।। केवी जावों त्यांचिया घरा। उपेक्षिसी प्राणेश्वरा। दैन्यवृत्ती दातारा । चित्त त्यांचे केवी धरूं ।।१६।। जॉवरी होतासी तूं छत्र। तो सर्वां ठायीं मी पवित्र। मानिती सकळ इष्टमित्र । आतां निंदा करतील ।।१७।। सासूचशुरापासीं जाण। माझे मुख पहातां मरण। गृह जहालें वो अरण्य । तुम्हांवीण प्राणेश्वरा ।।१८।। घेवोनि आल्यें आरोग्यासी। येथे ठेवोनि तुम्हांसी। केवी जावे घरासी। राक्षसिणी पापिणी ।।१९।। ऐसें आठवोनि अनेकपरी। दुःख करी अपरंपारी। इतुकें होतां ते अवसरी। आला तेथे सिद्ध' एक ।।१२०।। भस्मांकित जटाधारी। रुद्राक्षभूषणे अळंकारी। त्रिशूळ धरिला असे करीं। येवोनि जवळी उभा ठेला ।।२१।। संबोखित असे तये वेळीं। कां वो प्रलय करिसी स्थूळी। जैसें लिहिलें असे कपाळीं। त्याचपरी होतसे ।।२२।। पूर्वजन्मींचे तपफळ । लागलें देहासी सकळ । वायां रडसी निर्फळ। शोक आतां करूं नको ।।२३।। आठ दिवस जरी तूं रडसी । न येती प्राण प्रेतासी। जैसे लिहिलें ललाटेसी। तवापरी घडे जाण ।।२४।। मूढपणे दुःख करिसी । समस्त मरणार तूं जाणसी। कवण वांचला धरित्रीसी। सांगे आपणा म्हणतसे ।।२५।। आपुला म्हणसी प्राणेश्वर । कोठे उपजला तो नर । तुझा जन्म झाला येर। कवण तुझे मातापिता ।। २६ ।। पूर येतां गंगेप्रती । नानापरीचीं काटें वाहतीं। येऊनि एके ठायीं मिळतीं। फाकती आणिक चहुंकडे ।। २७।। पाहें पां एक वृक्षावरी। येती पक्षी अपरंपारी । क्रमूनिया प्रहर चारी। जाती मागुती चहुंकडे ।।२८।। तैसा संसार जाण नारी। कोण जन्मला आहे स्थिरी । मायामोहें कलत्रपुत्रीं। पति म्हणसी आपुला ।। २९।। गंगेमध्ये जैसा फेण। तैसाचि हा देह जाण । स्थिर नव्हे वा कारणें। शोक वृथा करूं नको ।।१३०।। पंचभूतात्मक देह। तत्संबंधी गुण पाहें। आपुलें कर्म जैसे आहे। तैसे गुण उद्भवती ।।३१।। गुणानुबंधें कर्म घडतीं। कर्मासारिखी फळप्राप्ति । मायामोह याचि रीतीं । मायामयसंबंधे ।।३२।। मायासंबंध मायागुण। उपजे सत्त्व रज तमोगुण। येणेंवि रीतीं तिन्ही जाण । त्रिगुणात्मक अवधारा ।।३३।। याचि संसार वर्तमानीं। समस्त कर्माचे आधीन प्राणी। सुखदुःख आपुल्या गुर्णी। भोगिजे आपुलें आर्जव' ।। ३४।। कल्पकोटी दिवसांवरी। देवांसी आयुष्य आहे जरी। त्यांसी काळ न चुके परी। मनुष्याचा पाड काय ।।३५।। काळ सकळां कारण। कर्माधीन देह जाण। म्हणोनि कल्पावें अस्थिरपण। पंचभूतात्मक देहासी ।। ३६।। काळ कर्माधीन गुण। पंचभूतात्मक देह जाण। उपजतां संतोष मन। मेलिया दुःख न करावें ।। ३७।। गर्मी जीं येतांचि नर। नाश असे त्याचे बरोबर। जैसें कर्म गुण येर। मरण जनन परियेसा ।।३८।। कवणा मृत्यु पूर्ववयासी'। कवणा मृत्यु वार्धक्येसी'। जैसे आर्जव ज्यासी। त्याचि परी घडतसे ॥३९।। पूर्वजन्मार्जितासरसीं । भोगणें असे सुखदुःखासी। कलत्रपुत्र अतिहीं। पापपुण्यवश जाणा ।।१४०।। आयुष्य सुख दुःख । पापपुण्यानुसार लेख। ललाटीं लिहिलें सुखदुःख । अढळ असे सर्वांसी ।।४१।। एखादिया कर्मासी । लंधिजेल पुण्यबळेंसी । देवदानवमनुष्यांसी। काळ न चुके सर्वचा ।।४२।। संसार म्हणजे स्वप्नापरी। इंद्रजाल अवधारों । मिथ्या जाण तयापरी। दुःख आपण करूं नये ।।४३।। शतसहस्रकोटी जन्मीं। तूं कोणाची होतीस भामिनी । वायां दुःख करिसी साजणी। मूर्खपणे करोनिया ॥४४।। पंचभूतात्मक शरीर। त्वचा शिरा मांस रुधिर । मेद मज्जा अस्थि नर। विष्ठा मूत्र श्लेष्म संधी ।।४५।। ऐशा शरीरघोरांत । पाहतां काय असे स्वार्थ । मळमूत्र भरलें रक्त । तयाकारणें शोक करिसी ।।४६।। विचार पाहे पुढें आपुला। कोणें परी मार्ग भला। संसारसागर पाहिजे तरला । तैसा मार्ग पाहें बाळे ।।४७।। येणेंपरी तियेसी । बोधिता झाला तापसी। ज्ञान झालें तियेसी । सांडिला शोक तये वेळीं ।।४८।। कर जोडोनि तये वेळीं। माथा ठेविला चरणकमळीं। विनवीतसे करुणा बहाळी । उद्धरावें स्वामी म्हणोनि ।।४९।। कवण मार्ग आपणासी। जैसा स्वामी निरोप देसी। जनकजननी तूं आम्हांसी। तारीं तारीं म्हणतसे ।।१५०।। कवणें प्रकारें आपण। तरेन मी भवार्म। तुझा निरोप मी करीन। म्हणोनि चरणीं लागली ।।५१।। ऐकोनि तियेचें वचन । सांगे योगी प्रसन्नवदन। बोलतसे विचारून । आचरण स्त्रियेचें ।। ५२।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर । त्याचे वचनीं विस्तार । ऐकतां होय पाप दूर। सकळाभीष्टे साधती ।।५३।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३०॥
ओवीसंख्या ५३
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः। सिद्ध म्हणे नामधारका। पुढें अपूर्व झालें ऐका। योगेश्वर कारणिका। सांगे स्त्रियांचे धर्म सकळ ।।१।। योगेश्वर म्हणती त्रिवेसी। आचार खियांचे पुससी। सांगेन तुज विस्तारेंसी। भवसागर तरावया ।।२।। पति असतां कवण धर्म । अथवा मेलिया काय कर्म। उभयपक्षीं विस्तारोन। सांगेन ऐक एकचित्ते' ।।३।। कथा स्कंदपुराणांत । काशीखंडीं विस्तृत । खियांचे धर्म बहुत । एकचित्तें ऐकावे ।।४।। अगस्ति ऋषि महामुनि। जो का होता काशीभुवनीं । लोपामुद्रा महाज्ञानी। त्याची भार्या परियेसा ।।५।। पतिव्रताशिरोमणि । दुजी नव्हती आणिक कोणी । असतां तेथे बर्तमानी। झालें अपूर्व परियेसा ।।६।। त्या अगस्तीच्या शिष्यांत । विध्य नामें असे विख्यात । पर्वतरूपें असे वर्तत। होता भूमीवरी देखा ।।७।। विध्याचळ म्हणिजे गिरी। अपूर्व बनें त्यावरी। शोभायमान महाशिखरी। बहु रम्य परियेसा ।।८।। ब्रह्मर्षि नारदमुनि । हिंडत गेला तये स्थानीं। संतोष पावला पाहोनि । स्तुति केली तये वेळीं ।।९।। नारद म्हणे विच्यासी। सर्वांत श्रेष्ठ तू होसी। सकळ वृक्ष तुजपासीं । मनोरम्य स्थळ तुझे ।।१०।। परी एक असे उणें। मेरूसमान नव्हेसी जाणें। स्थळ स्वल्प या कारणें। महत्त्व नाहीं परियेसा ।।११।। ऐसें म्हणतां नारदमुनि । विध्याचळ कोपोनि। वाढता झाला ते क्षणीं। मेरूपरी होईन म्हणे ।।१२।। वादे विंध्याचल देखा। सूर्यमंडळासंमुखा । क्रमांतरें वाढतां ऐका। गेला स्वर्गभुवनासी ।।१३।। विध्याद्रीच्या दक्षिण भागासी। अंधकार अहर्निशी। सूर्यरश्मी न दिसे कैशीं। यज्ञादि कर्मे राहिली ।।१४।। ऋषि समस्त मिळोनि । बिनवू आले इंद्रभुवनीं। विध्याद्रीची करणी। सांगते झाले विस्तारें ।।१५।। इंद्र कोपे तये वेळीं । गेला तया ब्रम्ह्याजवळी सांगितला वृत्तान्त सकळी। तया विध्य पर्वताया ।।१६।। ब्रह्मा म्हणे इंद्रासी। आहे कारण आम्हांसी। अगस्ति असे पुरीं काशी। त्यासी दक्षिण दिशे पाठवावें ।।१७।। दक्षिण दिशा भूमीसी। अंधार पडिला परियेसीं। या कारणें अगस्तीसी। दक्षिण दिशे पाठवावें ।।१८।। अगस्तीचा शिष्य देखा। विंध्याचल आहे जो कां। गुरु येतां संमुखा। नमितां होई दंडवत ।।१९।। सांगेल अगस्ति शिष्यासी । वाहों नको म्हणेल त्यासी। गमन करितां शिखरेंसी। भूमीसमान करील ।।२०।। वा कारणें तुम्हीं आतां । काशीपुरा जावें तत्त्वतां। अगस्तीतें नमतां। दक्षिणेसी पाठवावें ।।२१।। येणेंपरी इंद्रासी। सांगे ब्रह्मदेव हषीं । निरोप घेऊन वेगेसीं । निघता झाला अमरनाथ' ।।२२।। देवासहित इंद्र देखा। सर्वे बृहस्पति' ऐका। सकळ ऋषि मिळोनि देखा। आले काशी भुवनासी ।।२३।। अगस्तीच्या आश्रमासी। पातले समस्त इंद्र ऋषि। देवगुरु महाऋषि । बृहस्पति सर्वे असे ।।२४।। देखोनिया अगस्ति मुनि। सकळांतें अभिवंदोनि। अध्र्घ्यपाद्य देऊनी। पूजा केली भक्तीनें ।।२५।। देव आणि बृहस्पति। अगस्तीची करिती स्तुति। आणिक सर्वेचि आणिती। लोपामुद्रा पतिव्रता ।।२६।। देवगुरु बृहस्पति । सांगे पतिव्रताख्याति । पूर्वी पतिव्रता बहुती। लोपामुद्रासरी नव्हती ।।२७।। अरुंधती सावित्री सती। अनसूया पतिव्रती। शांडिल्याची पत्नी होती। पतिव्रता विख्यात ।।२८।। लक्ष्मी आणि पार्वती। शांतरूपा स्वयंभूपत्नी । मेनिका अतिविख्याती । हिमवंताची प्राणेश्वरी ॥२९॥ सुनीती ध्रुवाची माता। संज्ञादेवी सूर्यकांता । स्वाहादेवी विख्याता। यज्ञपुरुषप्राणेश्वरी ।। ३०।। यांहूनि आणिक ख्याता। लोपामुद्रा पतिव्रता। ऐका समस्त देवगण म्हणतां । बृहस्पति सांगतसे ।।३१।। पतिव्रतेचे आचरण। सांगे गुरु विस्तारोन। पुरुष जेवितां प्रसाद जाण। मुख्य भोजन खियेसी ।।३२।। आणिक सेवा ऐशी करणें। पुरुष देखोनि उभे राहणें। आज्ञेविण बैसों नेणे । अवज्ञा न करणे पतीची ।। ३३।। दिक्स अखंड सेवा करणे। अतिथि वेतां पूजा करणें। पतिनिरोपावीण न जाणें । दानधर्म न करावा ।।३४।। पतीची सेवा निरंतरी। मनीं भाविजे हाचि हार। शयनकाळीं सर्व रात्रीं। सेवा करावी भक्तीसी ।।३५।। पति निद्रिस्त झाल्यावरी। आपण शयन कीजे नारी। बोळी तानवड ठेवावीं दुरी। तेणें पुरुषशरीर स्पर्श नये ।। ३६।। स्पर्श बोळी पुरुषासी। हानि होत आयुष्यासी। घेऊं नये नांव त्यासी। पति-आयुष्य उणें होय ।।३७।। जागृत न होतां पति ऐका पुढ़ें उठीजे सती देखा। करणें सडासंमार्जन निका । करणें निर्मळ मंगलप्रद ।।३८।। स्नान करूनि त्वरित । पूजूनि घ्यावें पतितीर्थ। चरणी मस्तक ठेवोनि यथार्थ । शिवासमान भावावें ।।३९।। असतां ग्रामर्मी गृहीं पुरुष। सर्व शृंगार करणें हर्ष। ग्रामा गेलिया पुरुष। शृंगार आपण करूं नये ।।४०।। पति निष्ठुर बोले जरी। आपण कोप कदा न करी। क्षमा म्हणोनि चरण धरी। राग न घरी मनांत ।।४१।। पति येतां बाहेरूनी। सामोरी जाय ते क्षणीं। सकळ कामें त्यजूनि। संमुख जाय पतिव्रता ।।४२।। काय निरोप म्हणोनि । पुसावें ऐसें बंदोनि। जें बसे पतीच्या मनीं । त्याचपरी रहाटे ।।४३।। पतिव्रतेचें ऐसें लक्षण । सांगेन ऐका देवगण। बहिर्दारीं जाता जाण । अनेक दोष परियेसा ॥४४।। बहिर्दारी' जाणे जरी। पाहूं नये नरनारीं । सर्वेचि परतावें लवकरी। आपुले गृहीं असावें ।।४५।। जरी पाहे बहिर्दारी। उलूकयोनी' जन्मे नारी। याच प्रकारें निर्धारीं। पातिव्रत्य लोपामुद्रेचें ।।४६।। लोपामुद्रा पतिव्रता। बाहेर न वचे सर्वथा । प्रातःकाळ जो का होता। सडासंमार्जन करीतसे ॥४७।। देवउपकरणी उजळोनि । गंधाक्षतांदि करूनि । पुष्पवाती पंचवर्णी । रंगमाळा देवांसी ।।४८।। अनुष्ठानाहूनि पति येतां। सकळ आयती' करी तत्त्वतां । धरोनि पतीच्या चित्ता। पतीसवें रहाटे ती ।।४९।। पुरुषाचे उच्छिष्ट भोजन। मनोभावें करणें आपण। नसतां पुरुष ग्रामों जाण । घ्यावा अतिधिधेनुप्रसाद ।।५०।। अतिथीस घालावें अन्न। अथवा घेनूतें पूजोन। भोजन करावें सगुण । पतिव्रता परियेसा ।।५१।। गृह निर्मळ निरंतर करी। निरोपावेगळा धर्म न करी। व्रतोपवास येणेंपरी। निरोपावेगळे न करी जाणा ।।५२।। उत्साह होता नगरांत। कीं पाहं न म्हणत। तीर्थयात्राविवाहार्थ। कधीही न बचे परियेसा ।।५३।। पुरुष संतोषी असतां जरी। दुश्चित्त नसावी त्याची नारी। पुरुष दुश्चित्त असतां जरी। आपण संतोषी असों नये ।।५४।। रजस्वला झालिया देखा। बोलों नये मौन्य निका। नायकाचे वेद ऐका। मुख पुरुषा दाखवू नये ।।५५।। ऐसें चारी दिवसांवरी। आचरावें तिये नारीं। सुस्नात होतां ते अवसरी। पुरुषमुख अवलोकिजे ।।५६।। जरी नसे पुरुष भबनीं । त्वाचे रूप घ्यावें मनीं। सूर्यमंडळ पाहोनि। घरांत जावें पतिव्रतें ।।५७।। पुरुषआयुष्यवर्धनार्थ । हळदीकुंकुम लाविजे ख्यात । सेंदूर काजळ कंठसूत्र। फणी मातां असावी ।।५८।। तांबूल घ्यावें सुवासिनीं। असावी तिचे माथां वेणी। करी कंकणें तोडर चरणीं। पुरुषांसमीप येणेंपरी ।।५९।। न करी इष्टत्य' शेजारणीशीं। रजकसीकुंटिणीसी'। जैनसीद्रव्यहीनेसी । इष्टत्व करितां हानि होय ।।६०।। पुरुषनिंदक स्रियेसीं। न बोलावें तियेसीं। बोलतां दोष घडे तिसीं। पतिव्रतालक्षण ।।६१।। सासू अशुर नणंद वहिनी। दीरभावांतें त्यजुनी। राहतां वेगळेपणीं। चानजन्म पावती ।।६२।। अंग धुवों नये नम्रपणें। उखळमुसळावरी न बैसणें। पाई विरवळल्यावीण जाणें। फिरू नये पतिव्रते ।।६३।। जातें उंबऱ्यावरी देखा। बैसों नये वडिलांसंमुखा । पतिव्रतालक्षण ऐका। येणेंपरी असावें ।॥६४।। पतीसवें विवाद । करितां पावे महाखेद । पतिअंतःकरणी उद्वेग। आपण कदा करूं नये ।।६५।। जरी असे अभाग्य पुरुष । नपुंसक जरी असे देख । असे व्याधिष्ठ अविवेक । तरी देवासमान मानावा ।। ६६।। तैसा पुरुष असेल जरी। तोचि मानवा हरि । त्याचे बोलणें रहाटे तरी । परमेश्वरा प्रिय होय ।।६७।। पतीचे मनीं जी आवडी । तैसींच ल्वावीं लेणीं लुगडीं । पति दुश्चित्त असतां घड़ी। आपण श्रृंगार करूं नये ।। ६८।। सोपस्कार' पाहिजे जरी। न सांगावें आपण नारी असतां कन्या पुत्र जरी । तयांमुखीं सांगावें ।।६९।। जरी नसेल जवळी कोम। वस्तूची दाखवावी खूण। अमुक पाहिजे म्हणोन । निर्धार करोनि न सांगिजे ।।७०।। जितुके मिळालें पतीसी। संतुष्ट असावें मानसीं। समर्थ पाहोनि कांक्षेसी । पतिनिंदा करूं नये ।।७१।। तीर्थयात्रेत्रं जाती लोक। म्हणूनि न गावें कौतुक। पुरुषाचें पादोदक। तेंचि तीर्थ मानावें ।॥७२॥ भागीरथीसमान देख । पतिचरणतीर्थ अधिक। पतिसेवा करणें मुख। त्रयमूर्ति संतुष्टती ।।७३।। व्रत करणें असेल मनीं। ते पुरुषा करावें पुसोनि । आत्मबुद्धि' करितां कोणी। पति-आयुष्य उणें होय ।।७४।। आणिक जाय नरकाप्रती। पति घेबोनि सांगाती। ऐसें बोलती बेदश्रुति। बृहस्पति सांगतसे ॥७५।। पतीस क्रोधे उत्तर देती। थानयोनीं जन्ग पावती। जंबुक होवोनि भुंकती। ग्रामासन्निध येऊन ।।७६।। नित्य नेम करणें नारी। पुरुष-उच्छिष्ट भोजन करी। पाद प्रक्षालोनि तीर्थधारी। घेवोनि तीर्थ जेवावें ।।७७।। पति प्रत्यक्ष शंकर। काम्य' होती मनोहर । पावे ती वैकुंठपुरी । पतिसहित स्वर्गभुचना ।।७८।। जावों नये वनभोजनासी। अथवा शेजारीगृहासी । इष्टसोयरे म्हणोनि हीं । प्रतिदिनी न जावें ।। ७९।। आपुला पुरुष दुर्बल किती। समर्थाची न करावी स्तुति। पति असतां अनाचाररीतीं। आपण निंदा करूं नये ।।८०।। कैसा तरी आपुला पति। आपण करावी त्याची स्तुति । तोचि म्हणावा लक्ष्मीपति । एकभावें करोनिया ।।८१।। सासूवशुरपुरुषांपुढे। नेटे' बोलों नये गावें। हासों नये त्यांपुढें। पति-आयुष्य उणें होय ।।८२।। सासूचशुर त्यजून आपण वेगळे असू म्हणे कवण। ऋक्षयोनीं जन्मोन । अरण्यांत हिंडेल ।।८३।। पुरुष कोपें मारी जरी। मनीं म्हणे हो मरो नारी। जन्म पावेल योनीं व्याघ्रीं। महाघोर अरण्यांत ।।८४।। परपुरुषांतें नयनीं पाहे। उपजतां वरडोळी होय। पुरुषा वंचूनि विशेष खाय। ग्रामसुकर होय ती ।।८५।। तोही जन्म सोडोनि। उपजे वाघुळाचे योनीं। आपुली विष्ठा आपण भक्षुनी। वृक्षावरी लोंबतसे ।।८६।। पतिसंमुख निष्ठुर बचनीं। उत्तर देती कोपोनि। उपजे मुकी होऊनि। सप्तजन्म दरिद्री ।।८७।। पुरुष दुजी पत्नी करी। तिसी आपण वैर भरी। सप्तजन्मांवरी। दुर्भाग्यता होय अवधारा ।।८८।। पुरुषावरी दुसरिया। दृष्टि ज्या करिती आवडिया। पतिताघरी जन्म पावोनिया। दुःखें सदा दारिद्रय भोगिती ।।८९।। पुरुष येतां बाहेरुनी। संमुख जायें भामिनों। उदकें पाद प्रक्षालुनी। विंझणा' वारिज श्रमहार ॥९०।। पादसंवाहन' भक्तींसी। मृदु वाक्य बोलिजे पतीसी । पुरुष होतां संतोषी। त्रिमूर्ति संतोषती ।।९१।। काय देती माता पिता। नेदी इष्टवर्ग बंधु भ्राता । इहपराची जोडी देतां । पुरुष नारीचा देव जाण ॥९२।। गुरु देव तीर्थे समस्तीं। सर्व जाणावा आपुला पति। ऐसा निश्वय ज्यांच्या वित्तीं। पतिव्रता त्याचि जाणा ।।१३।। जीव असतां शरीरासी। पवित्र होष समस्तांसी। जीव जातां क्षणें कैसी। कदा प्रेता नातळती ।।९४।। तैसा पति प्राण आपला। पति नसतां अशुचि तिला। या कारणें पतिच सकळा । प्राण आपुला जाणावा ।।९५।। पति नसतां त्रिवेसी। सर्व अमंगळ परिवेसीं। विधवा म्हणजे प्रेतासरसी । अपत्य नसतां अधिक जाण ।।९६।। ग्रामास जातां परियेसीं। विधवा भेटतां संमुखेंसी। मरण सांगे सत्य त्यासी । पुत्रासी अशुभ नव्हे जाणा ।।९७।। माता विधवा असे जरी। पुत्रासी मंगळ शकुन करी। पुत्राविण विधवा नारी। नमन तिसी करूं नये ।।९८।। तिच्या आशीवदि आपण। मंगळ न होय सत्य जाण। तिचा हो का शाप मरण। तिसीं कोणी बोलूं नये ।।९९।। या कारणें पतिव्रता। बरवें पुरुषासवें जातां । सर्व वैभव देहासहिता। केवी जाई परियेसा ।।१००।। बंद्रासवें चांदणी जैसी। मेघासवें वीज कैसी। मावळतां सर्वेचि जातसे। पतीसवें तैसे जावें ।।१।। सहगमन करणे मुख्य जाण। भोर धर्मश्रुतीचे बचन। पूर्वज बेचाळीस उद्धरण। पतिव्रताधमनि ।।२।। पुरुष प्रेत झालियावरी। सहगमन जातां ते नारी। एकेक पाऊलीं निर्धारी। अश्वमेध सहस्रपुण्य ।।३।। पापी पुरुष असेल जाण। त्यासी आलें जरी मरण। यमदूत नेती बांधून । नरकाप्रती परियेसा ।।४।। पतिव्रता त्याची नारी। जरी सहगमन करी। जैसी सर्पासी नेत घारी। तैसी पतीतें स्वर्गा नेई ।।५।। सहगमन केलियावरी। पाहूनि यमदूत पळती दुरी। पतीसी सोडोनि सत्वरी। जाती यमदूत आपले पुरासी ।।६।। पतिव्रता शिरोमणी। बैसविती विमानीं। पाचविती स्वर्गभुवनीं। देवांगना ओवाळिती ।।७।। यमदूत त्वरें पळती। काळाची न चाले ख्याती। पतिव्रता देखतांचि चित्तीं। भय वाटे म्हणताती ।।८।। सूर्य भितो देखून तियेसी । तपतो' तेजें मंदेसी। अनि भिउनी शांतीसी। उष्ण तिसी होऊ न शके ।।९।। नक्षत्रे भिती पाहतां तियेसी । आपुलें स्थान घेईल ऐसी। जाय स्वर्गभुवनासी। पतीसहित परियेसा ।।११०।। येणेंपरी स्वर्गभुवनीं। जाय नारी संतोषोनि । आपुलें पतीस घेऊनि। राहे स्वर्गी निरंतर ।।११।। तीन कोटि रोम तिसी। स्वदेह देतां अग्रीसी । त्याची फळे असतीं कैशीं। एकचित्तं ऐकावें ।।१२।। एकेक रोम रोमासी। स्वर्गी राहे शतकोटि वर्षों । पुरुषासवें स्वानंदैसी । पतिव्रता राहे तेथे ।।१३।। ऐसें पुण्य सहगमनासी। कन्या व्हावी ऐशी वंशीं। बेचाळीस कुळें कैसी । घेऊन जाय स्वगर्ति ।।१४।। धन्य तिचीं मातापिता। एकवीस कुळे उद्धरितां। धन्य पुरुषवंश ख्याता। बेचाळीस उद्धरिले ।।१५।। ऐसें पुण्य सहगमनासी। पतिव्रतेच्या संगतीसी। आणिक सांगन विस्तारेंसी। देवगुरु म्हणतसे ।।१६।। असेल नारी दुराचारी । अथवा व्यभिचारकर्म करी। त्याचें फळ अतिघोरी। एकचित्तें परियेसा ।।१७।। उभय कुळे बेचाळिस । जरी असतील स्वर्गास। त्यासी घेउनि नरकास। प्रेमें जाय परियेसा ।।१८।। अंगावरी रोम किती। तितुकीं कोटि वर्षे ख्याती । नरकामध्यें पचे निरुती। तिचें फळ ऐसे असे ।।१९।। भूमिदेवी ऐसें म्हणे। पतिव्रतेच्या पवित्र चरणें । आपणावरी चालतां क्षणें। पुनीत' मी म्हणतसे ।।१२०।। सूर्य चंद्र ऐसें म्हणती। आपुली किरणें ज्योती। जरी पतिव्रतेवरी पडती । तरी आपण पावन होऊं ।।२१।। वायु आणि वरुण। पतिव्रतेविया स्पर्शाकारणें। पावन होऊ म्हणोन । स्पशैं पुनीत होती ते ।।२२।। घरोघरी स्त्रिया असती। काय करावी लावण्यसंपत्ति। जिचेनि वंश उद्धरती । तैसी श्री असावी कीं ।।२३।। ज्याचे घरी पतिव्रता। देवें आगळा तो तत्त्वतां। करावें सुकृत जन्मशतां। तरीच लाभे तैशी सती ।।२४।। चतुर्विध पुरुषार्थ देखा। खियेच्या संगती लाधे लोकां। पतिव्रता सती अधिका। पुण्यानुसार लाभे जना ।।२५।। ज्याचे परीं नाहीं सती। पुण्यें त्यासी कांहीं न घडती। यज्ञादि कमैं ख्याति । सती असतां होती जाण ।।२६।। सती नसे ज्याचे घरी। त्यासी अरण्य नाहीं दूरी। वृधा जन्मोनि संसारी। कर्मबाह्य तोचि जाणा ।।२७।। ऐसी सती मिळे ज्यासी। समस्त पुण्य होय त्यासी। पुत्रसंतान परलोकासी। साधन होय सतीचेनि ।॥२८॥ त्रियेवीम असेल नर । तयासी न साधे कर्माचार। कर्महीन देव पितर। कर्मार्ह नव्हे कदा ।।२९।। पुण्य जोडे गंगास्नानीं । त्याहूनि पतिव्रतादर्शनीं। महापापी होय पावन। सप्त जन्म पुनीत ।।१३०।। पतिव्रतेचा आचार। सांगे पतिव्रतेसी योगेश्वर । म्हणे सरस्वतीगंगाधर। सांगे बृहस्पति देवगुरु ।।३१।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी । गुरुचरित्र पुण्यराशी । ऐकतां पावती सद्तीसी। म्हणे सरस्वतीगंगाधर ।।३२।। श्रीगुरुचरित्रामृत । पतिव्रतानिरूपण विख्यात। ऐकतां होय पुनीत । जें जें चिंतिलें पाविजे ।।१३३।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३१॥
ओवीसंख्या १३३
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । पतिव्रतेचिया रीति। सांगे देवां बृहस्पति । सहगमनीं फलश्रुति। येणेंपरी निरोपिली ।।१।। विधवापणाचा आचारू । सांगता झाला देववरू। पुसताती ऋषेचरू । ऐका श्रोते एकचित्तें ।।२। जवळी नसतां आपुला पति । त्यातें मरण झालिया प्राप्ति। काय करावें त्याचे सतीं। सहगमन केवी करावें ।।३।। अथवा असेल गरोदरी । असे तीतें कन्याकुमारी। काय करायें तिये नारी। म्हणून विनविती गुरूसी ।।४।। ऐकोनि देवांचे वचन। सांगता झाला विस्तारोन । एकचित्तें करून ऐका श्रोते सकळ ।।५।। पति जवळी असे जरी। सहगमनीं जावें तिये नारी। असतां आपण गरोदरी। करूं नये सहगमन ।।६।। स्तनपानीं असतां कुमारू। तिणें करितां पाप घोरू। पुरुष मेला असेल दुरु। सहगमन करूं नये ।।७।। तिणें आसवें विधवापणे। विधिपूर्वक आचरणें। सहगमनासमाने। असे पुण्य परियेसा ।।८।। विधवापणाचा आचारू । करितां असे पुण्य थोरू। निवर्ततां आपुला भ्रतारू'। केशवपन करावें ।।९।। ज्यां कां विधवा केश राखिती । त्यांची ऐका फलश्रुति'। केश पुरुषासी बाधिती। नरकापरी परियेसा ।।१०।। यास्तव करणें केशवपन। करावें तिणें नित्य स्नान । एक वेळां भोजन। करावें तिणें परियेसा ।।११।। एक धान्याचे अन्न। करावें तिणें भोजन । तीन दिवस उपोषण। करावें तिणें भक्तीनें ।।१२।। पांच दिवस पक्षमासास करावा तिर्णे उपवास। अथवा बांद्रायणग्रास। भोजन करणें परियेसा ।।१३।। चंद्रोदय बिजेसी। एक ग्रास तया दिवसीं। चढ़ते घ्यावे पंधरादिवसीं । पौर्णिमेसी भोजन ।।१४।। कृष्णपक्षीं येणेंपरी। ग्रास घ्यावे उतरत नारी। अमावास्या येतां जरी। एक ग्रास जेवावा ।।१५।। शक्ति नाहीं जियेसी । एकान्न जेवावें परियेसीं। अथवा फल-आहारेंसी। अथवा शाका आहार देखा ।।१६।। अथवा घ्यावें क्षीर मात्र । कधीं न घ्यावें अपवित्र। जेणें राहे प्राणमात्र । श्रासोच्छ्रुास चाले ऐसें ।।१७।।शयन करितां मंचकावरी। पुरुष घाली रौरव घोरी। भोगी नरक निरंतरी। पतीसहित परियेसा ।।१८।। करूं नये मंगलस्नान । अथवा देहमर्दन। गंध परिमल तांबूल जाण। पुष्पादि तिणें वर्जावें ।।१९।। पुत्रावीण असे नारी। करणें तर्पण पुत्रापरी । तीळ दर्भ कुशधारी। गोत्रनाम उच्बारावें ।।२०।। विष्णुपूजा करावी नित्य। आपुला पुरुष हा निश्चित। पुरुष आठवोनि चित्त । विष्णुस्थानीं मानिजे ।।२१।। पुरुष असतां जेणेंपरी। पतिनिरोपें आचार करी । तेणेचि रीतीं विष्णु अवधारों। त्याचे निरोपे आचरावें ।।२२।। तीर्थयात्रा उपासव्रत। विष्णुनिरोपें करावें निश्चित । अथवा गुरु द्विज विख्यात । त्यांचे निरोपें आचरावें ।।२३।। आपण असतां सुवासिनी। ज्या वस्तूची प्रीति अंतःकरणों । तैशी वस्तु छावी धणी। विद्वज्जनविप्रांसी ।।२४।। वैशाख माघ कार्तिकमास। अनेक स्नानीं आचारविशेष । मायस्नान तीर्थास। विष्णुस्मरणे करावें ।।२५।। वैशाखीं जळकुंभदान। कार्तिकीं दीपआराधन । ब्राह्मणां द्यावें घृतदान। यथाशक्त्या दक्षिणेसी ।।२६।। मायमासीं तिळघृतेसी । द्यावें दान विप्रांसी। अरण्यांत वैशाखमासीं । पोई पालिजे निर्मळोदके ॥२७।। शिवालयों ईश्चराबरी । गळती ठेविजे निर्मळ बारी। गंध परिमळ पूजा करी। तेणें पुण्य अगाध ॥२८॥ विप्राचिया घरोघरीं । उदक घालिजे शक्त्यानुसारीं। अन्न द्यावें निर्धारी। अतिथिकाळीं परियेसा ॥२९।। तीर्थयात्रे जात्या लोकां । त्यांतें द्याव्या छत्रपादुका। येतां आपल्या गृहांतिका। पादप्रक्षालन करावें ।॥३०॥ चारा घालावा विझणेंसी' । वख द्यावे परिधानासी। गंध तांबूल परिमळासी। कर्पूरवेलादि' परियेसा ॥३१।। जलपात्र द्यावें शक्तींसी। गुडपान आम्रपानेंसी। द्राक्षे कर्दळीफजेंसी। ब्राह्मणा द्यावें मनोहर ।।३२।। जें जें दान द्यावें द्विजां। पतीच्या नांवें अर्पिजे बोजा । संकल्पून पुरुषकाजा। धर्म करणें येणेंपरी ।। ३३।। कार्तिकमासीं जवान। अथवा जेविजे एकान्न । वृताक' माष' मसूर लवण। तैलादि मधु वर्जायें ।।३४।। वर्जावें कांस्यपात्र । आणिक वर्जावें द्विदलमात्र । मनीं असावें पवित्र । एकाग्रेसी परियेसा ।।३५।। पलाशपात्री भोजन करावें। शुचि उद्यापन करावें । जे जें व्रत धरावें । त्यातें उजवावे तत्त्वतां ।। ३६।। घृतभरित कांस्यपात्र। विप्रा द्यावें पवित्र। भूमिशयन केलें व्रत। मंचक द्यावा विप्रासी ।।३७।। जे जे वस्तु त्यजिली आपण। ते ते द्यावी ब्राह्मणालागून। रसद्रव्यें एक मास जाण । त्याग करावीं परियेसा ।।३८।। त्यजूनिया दधि क्षीर। उद्यापन आचार मनोहर। असलिया शक्त्यनुसार। घेनु द्यावी सालंकृत ।।३९।। विशेषे असे आणिक व्रत। दीपदान असे ख्यात। वर्णितां महिमा अनंत। देवांसी म्हणे बृहस्पति ॥४०।। दीपदान भाग सोला। वरकड नसती धर्म सकळा। या कारणें अनंतफला। दीपदान करावें ।।४१।। माघस्नान माघमासीं । करणें सूर्योदयासी। येणेंपरी एक मासीं। आचरावें भक्तीनें ।।४२।। लाडू तिळ खर्जुरंसी। करूनि पक्कार्ने ब्राह्मणांसी । चावीं तिणें भक्तींसी। दक्षिणेसहित जाणा ।।४३।। शर्करा मिरे एजेंसी। तळून अपूप' घृतेंसी। दान द्यावें यतीसी । भोजन द्यावें अतीतां ।॥४४।। हेमंतऋतु होतां जाण। व्हावया शीतनिवारण। काष्ठं द्यावीं विप्रांकारणें । वखें द्यावीं द्विजांसी ।।४५।। पर्वक द्यावा सुषुमीसी। एखाद्या भल्या ब्राह्मणासी। चित्र रक्त वखेंसी। कंबळ द्यावें विप्रवर्गा ।।४६।। व्हावया शीतनिवारण। औषध द्यावें उष्ण उष्ण। तांबूलदान परिपूर्ण। द्यावें एळाकर्पूरेसी ।।४७।। गृहदान द्यावें विप्रांसी। सांवत्सरिक ग्रार्मेसी। जातां तीर्थ यात्रेसी। पादरक्षा देईजे ।।४८।। गंध परिमळ पुष्पेंसी। पूजा करावी केशवासी । रुद्राभिषेक विधींसी। अभिषेकावा गौरीहर ।।४९।। धूप दीप नैवेधेसी। पूजा करावी षोडशी । प्रीति बहु शंकरासी । दीपमाळा उजळितां ।।५०।। आणिक सुगंध गंधेसी। तांबूलदान विधीसी। कर्पूरलवंगादि विविधेसी । भक्तिभावें अर्पिजे ।।५१।। आपुला पुरुष ध्यावोनि मनीं। नारायण तो म्हणोनि। पूजा करावी एके मनीं। भक्तिभावें परियेसा ।।५२।। नेमें असावें तिये नारी। न बैसार्वे बैलावरी। लेवू नये चोळी करी । खेतवा नेसावें ।।५३।। रक्त कृष्ण चित्र वा। लेतां जाण दोष बहुत। आणिक असे व्रत। पुत्राचे बोलें बतर्वि ॥५४।। 'आत्मा' वै पुत्र नाम'। म्हणून बोलती वेदागम'। पतीपासून पुत्रजन्म । पुत्रआज्ञेत असायें ।॥५५।। ऐसा आचार विधवेसी । असे शाखपुराणेसी। जरी आचरती भक्तींसी। सहगमनाचे फळ असे ।।५६।। पापी जरी पति असला । असेल पूर्वी निवर्तला। नरकामध्यें वास केला। पापरूपें भुजत' ।।५७।। विधवापर्णे येणेंपरी। आचरण करी जे नारी। मरण होतां अवसरीं'। घेवोनि पति स्वर्गी जाय ।।५८।। जितुक्या परी बृहस्पति। सांगे समस्त देवांप्रती । लोपमुद्रेची केली स्तुति । पतिव्रताशिरोमणि ।।५९।। जितुक्या पतिव्रता नारी। समस्त भागीरथी सरी। त्यांचे पुरुष शंकरापरी । पूजा करावी दोघांची ।।६०।। ऐसे बृहस्पतीचे बचन। सांगितलें मनीं विस्तारोन । ऐक बाळे तव मन । ज्यावरी प्रीति तेंचि करी ।।६१।। दुःख सकळ त्यजोनि। मम बोल ठेवीं मनीं। सांगितले तुजलागोनि । परलोकसाधन ॥६२।। धैर्य जरी असेल तुजसी। सहगमन करी पतीसरसीं। विधवापणें आचार करिसी। तेही पुम्य तितुकेंची ।।६३।। जे आवड तुझे मनीं । सांग माये विस्तारोनि। हस्त मस्तकीं ठेवूनि । पुसतसे प्रेमभावें ।।६४।। ऐकोनि तया अवसरी। केलें गमन तिये नारी। विनवीतसे करुणोत्तरी। भक्तिमावें करूनिया ।। ६५।। जय जयाजी बोगीचरा। तूंचि पिता सहोदरा । माझा प्राण मनोहरा । जनक जननी तूंचि होसी ॥६६।। आल्ये आपण परदेशांत । जवळी नाहीं बंधुभ्रात। भेटलेती तुम्ही परमार्थ। अंतकाळीं सोयरा ।। ६७।। सांगितले तुम्हीं आचार दोनी। कष्ट बहु विधवापणी। अशक्य आम्हां न-टाके स्वामी । असाधारण असे दातारा ।। ६८।। तारुण्यपण मजसी। लावण्य असे देहासी। निंदापवाद शरीरासी। घडेल केवी वर्तमान ।।६९।। संतोष होतो माझे मनीं। पुण्य अपार सहगमनीं। पतीसवें संतोषोनि। जाईन स्वामी निर्धार ॥७०।। म्हणूनि मागुती नमस्कारी। माथा ठेवी चरणांवरी। स्वामी मातें तारी तारों। भवसागरी बुडतसे ।।७१।। करुणाकृपेचा सागर । उठवीतसे योगेश्वर। देता झाला अभयकर। म्हणे पतीसवें जावें ।।७२।। तोचि ठाव पुरुषासी । जाय माते सांगतेसी। सांगेन तुज विशेषीं। ऐक माते एकचित्ते ॥ ७३।। आलीत तुम्ही दर्शनों । श्रीगुरुभेटीलागोनी। आरोग्य होईल म्हणोनि । भक्तिभार्वेकरूनिया ।।७४।। होणार झाली ब्रह्मकरणी । काळासी जिकिले नाहीं कोणीं। जैशी ईश्वरनिर्वाणी। तैसेपरी होतसे ॥७५।। ब्रह्मलिखित न चुके जाण। जें जें भोगणे असेल आपण । घड़े तैसें श्रुतिवचन। दुःख कोणी करूं नये ।।७६।। हरिवंद्र राजा देखा। डॉबाघरों वाहे उदका। बळी अजिक्य ऐका । तोही गेला पाताळा ॥७७।। सहस्रकोटि वर्षे ज्यासी। आयुष्य असे रावणासी। काळ तयाप्रति ग्रासी। दुर्योधना काय झालें ।॥७८।। भीष्मदेव इच्छामरणी। तेही पडले रणांगणीं। परीक्षिती सर्पाभणीं। लपतां काय झालें तया ।।७९।। अनंत अवतार येणेंपरी। होऊनि गेले संसारी। देव दानव येणेंपरी। सकळ काळाआधीन ।।८०।। या कारणें काळासी । कोणी जिकिलें नाहीं क्षितीसी। सकळ देवदानवांसी। काळ जिकीं निर्धार ।।८१।। काळा जिंकिता नाहीं कोणी । एका श्रीगुरुवांचोनि। भाव असे ज्याचे मनीं । त्यासी प्रत्यक्ष असे जाणा ।।८२।। आतां तुम्हीं ऐसें करणें। जावें त्वरित सहगमनें। अंतकाळ होतां क्षणें। श्रीगुरुदर्शना जाय म्हणे ।।८३।। म्हणोनि भस्म तये वेळीं । लाबिता झाला कपाळीं। रुद्राक्ष चार तत्काळीं। देता जहाला तये वेळीं ।।८४।। योगी बोले तियेसी । रुद्राक्ष बांधी कंठासी। दोनी प्रेतकर्णांसी। बांधोनि दहन करावें ।।८५।। आणिक एक सांगेन तुज। गुरुदर्शना जाई सहज। रुद्रसूक्त म्हणती द्विज । गुरुचरण प्रक्षाळितां ।।८६।। तेंचि तीर्थ घेवोनि। आपुला देह प्रोक्षोनि। प्रेतावरी आणोनि । प्रोक्षण करावें भक्तीनें ।।८७।। मग जावें सहगमनेसी। बाणे द्यावी सुवासिनींसी। अनेक द्रव्यें बेंचूनि हीं। विद्यां तोषवानें बहुत ।।८८।। ऐशा परी तियेसी। सांगोनि गेला तापसी। पतिव्रता भार्वेसी। करी आयती त्या वेळीं ।॥८९।। भले ब्राह्मण बोलावूनि । षोडश कर्मे आचरोनि। प्रेतासी प्रायश्चित्त देवोनि। औपासन' करविताती ।।९०।। सुस्नात होवोनि आपण। पीतांबर नेसोन। सर्वाभरणे' लेवोन'। हळदी कुंकू लावितसे ।।११।। औपासन प्रेतासी । करविताती विधींसी। प्रेत बांधोनि काष्ठेसी। घेवोनि गेले गंगेत ।।९२।। अनि घेऊनि तळहातेसी। निघाली पतिव्रता कैसी । आनंद बहु मानसीं । प्रेतापुढे जातसे ।।९३।। सोळा वरुषांचे तारुण्यपण। सुंदर रूप लावण्य। ल्याइलीसे आभरणे। लक्ष्मी सरसी दिसतसे ॥९४।। मिळोनिया नगरनारी। पाहों आल्या सहस्र चारी। माथा तुकविती सकळी । पतिव्रता म्हणोनिया ।।९५।। एक म्हणती काय नवल। पूर्ववयेसी असे बाळ। काय दैव पूर्वफळ। पतीसवें जातसे ।।९६।। देखिलें नाहीं पतीचें मुख। नाहीं जहालें कीं बाळक। कैसा जीव झाला एक। आनंदरूपें जातसे ।।१७।। म्हणती शिकवा इसी । बायां कां हो जीव देसी। परतुनि जाई माहेरासी। आपुल्या मातापित्याजवळी ।।९८।। एक म्हणती ज्ञानवंता । सत्य नारी पतिव्रता। बुद्धि दे गा जगन्नाथा। सकळ खियां ऐसीच ।।९९।। धन्य इची मातापिता। बेचाळीस उद्धरले आतां । प्रतापुढे चालतां। एकेक पाउला अश्वमेधफळ ।।१००।। येणेंपरी नदीतीरासी। गेली नारी पतीसरसीं। कुंड केलें अग्रीसी। काष्ठे शेणी अपरिमित ।।१।। अमिकुंडसन्निधेसी। ठेविलें तया प्रेतासी। बोलावोनि सुवासिनीसी। देती झाली बाण देखा ।।२।। सुपें चोळी कुंकर्मेसी। हळदी काजळ परियेसी । तोडर कंठसूत्रेसी । सुवासिनींसी देतसे ।।३।। गंधपुष्पादि परिमळेसी। पूजा केली सुवासिनींसी। द्रव्य दिधलें अपारेंसी। समस्त ब्राह्मणा तये वेळीं ।।४।। नमन करोनि समस्तांसी। निरोप मागतसे हीं। आपम जातें माहेरासी। लोभ असो द्यावा म्हणतसे ।।५।। माझा पिता शूलपाणी। उमा गौरी अंतःकरणी। आम्हां बोलाविलें सगुणों। प्रेमभानें करूनिया ।।६।। आली श्रावणी दिपवाळी। आम्ही जातें माते जवळी। पतीसहित मनें निर्मळीं। जातें लोभ असों द्यावा ।।७।। समागमें लोक आपुले। होते जे कां सर्वे आले। त्यांसी सांगतसे बाले। परतोनि जावें ग्रामासी ।।८।। पुसतां वशुरमामेसी । त्यांतें न सांगावें परियेसीं। प्राण देतील आम्हांसी। हत्या तुम्हां घडेल ।।९।। त्यांसी तुम्हीं सांगावें ऐसें । क्षेम आहे तीर्थवासें। भीमातीरस्थान ऐसें। श्रीगुरूचे सन्निधानी ।।११०।। आलों श्रीगुरुदर्शनासी। आरोग्य झाले पतीसी । राहिलों आपण संतोषर्षी। म्हणोनि सांगा घरी आमुचे ।।११।। ऐसें सांगा वशुरमामीसी । आमुचे मातापितयादिकांसी। इष्टजन सोयरियांसी। सांगा येणेंपरी तुम्ही ।।१२।। ऐसे वचन ऐकोन। दुःख पावले सकळ जन । आपण असे हास्य बदन। प्रेताजवळ उभी देखा ।।१३।। अभिकुंडीं तये क्षणीं। पालिताती काष्ठ शेणी। तो आठवण झाली झणी योगेश्वराचा उपदेश ।।१४।। मग स्ट्राक्ष काढोनिया दोनी। बांधिले प्रेताचिया श्रवणीं । कंठसूत्री दोन ठेवोनि । पुसतसे ब्राह्मणांसी ।।१५।। विनवीतसे द्विजांसी। संकल्प' केला म्यां मानसीं। श्रीगुरुमूर्ति आहे कैसी। आपल्या दृष्टीं पाहीन ।।१६।। दृष्टीं देखोनिया स्वामीसी। त्वरित येईल अग्निकुंडापासीं । आज्ञा झालिया वेगेंसी । त्वरित येईन म्हणतसे ।।१७।। ऐकोनि तियेचें वचन बोलताती विद्वब्बन। दहन होतां अस्तमान। त्वरित जाउनी तुम्हीं यावें ।।१८।। पुसोनिया विप्रांसी। निघाली नारी संगमासी। जेथे होता इषीकेशी। श्रीनरसिंहसरस्वती ।।१९।। सर्व येती नरनारी। विप्रमेळा नानापरी। कौतुक पाहती मनोहरी। पतिव्रता खियेचें ।। १२०।। जाता मार्गी स्तोत्र' करी। म्हणे स्वामी नरकेसरी। अभाग्य आपुलें पूर्वापरी। म्हणोनि आम्हां अव्हेरिलें' ।।२१।। तूंचि दाता सर्वेश्वर । शरणागतांचा आधार। ऐसें तुझे ब्रीद धोर। कार्मी आपण न लार्धेची ।।२२।। हेळामात्रै त्रिभुवनासी। रची स्वामी रजोगुणें सृष्टीसी। सत्त्वगुणें सृष्टीसी। प्रतिपाळसी तूंचि स्वामी ।।२३।। तमोगुणें निश्वर्वेसी । प्रलय समस्त जीवांसी। त्रिगुण तूंचि होसी। त्रिमूर्ति तूंचि देवा ।।२४।। तुजपाशी सर्व सिद्धि ।ओलंधिती तव विधी । देखिली आमुची कुडी' बुद्धि। जाणोनि मातें अव्हेरिलें ।। २५।। एखादा नर बाधा करी । जाणोनि सांगती राजद्वारी। क्षण न लागतां अवसरों। राजा साह्य करी तयांचे ।। २६ ।। रोग होता मनुष्यासी । जाऊनिया वैद्यापासीं । औषध करी तात्काळेंसी। आरोग्य तया होतसे ।।२७।। तूं त्रिमूर्तीचा अवतार । ख्याति झाली अपरंपार । सर्व भक्तजनां आधार। म्हणोनि सेविती सकळ जन ।।२८।। अपराध आपण काय केले । भेटीसी बीस गांवें आले। मातापिता विसरलें। तुझ्या ध्यानें स्वामिया ।।२९।। होसी तूंचि मातापिता । म्हणोनि आल्यें धावतां । भेटी होतां आरोग्यता। पतीस व्हावी म्हणोनिया ।।१३०।। आपुले समान असती नारी। त्या नांदतां पुत्रपौत्रीं । आपण झाल्यें दगडापरी। पुत्र नाहीं आपणासी ।।३१।। पति आपुला सदा रोगी। कैचा पुत्र आपणालागीं। तरी याचि काम्यालागीं। निपोनि आल्यें स्वामिया ।।३२।। आरोग्य होईल पतीसी। पुत्र होतील आपणासी । आशा धरून मानसीं। आल्वें स्वामी कृपासिंधु ॥ ३३।। पुरले माझे मनोरथ। आरोग्य झाला प्राणनाथ । पुत्र झाले बहुत । नवल झालें स्वामिया ॥३४।। मनोरथ पावला सिद्धीसी। म्हणोनि आल्यें पुसाववासी । जातें आतां परलोकासी। कीर्ति तुझी घेवोनि ।।३५।। ऐशा परी ध्यान करीत आली अमरजासंगमर्मी त्वरित । वृक्ष असे अश्वत्थ। देखती झाली स्वामिया ।। ३६।। उभी ठाकोनिया दुरी। तया साष्टांग नमन करी । श्रीगुरु म्हणे त्या अवसरीं। सुवासिनी होय ध्रुव' ।। ३७।। ऐसें म्हणतां मागुतीं। नमन करी एकमक्तीं। पुनरपि स्वामी तेणेंच रीतीं। अष्टपुत्रा होय म्हणतसे ।।३८।। ऐसें ऐकोनिया वचन। हास्य करिती सकळ जन । सांगताती विस्तारोन । गुरुलार्गी सत्वर ।।३९।। विप्र म्हणती स्वामीसी। इचा पति पंचत्वासी। पावला परंधामासी । सुवासिनी केवी होय ।।१४०।। प्रेत नेलें स्मशानासी। ही आली सहगमनासी। निरोप घ्यावया तुम्हांपासीं। आली असे स्वामिया ।।४१।। तुमचा निरोप घेवोनि। अग्निकुंडा जावोनि। समागमें पतिशयनीं। दहन करणें तियेसी ।।४२।। ऐकोनि त्याचें वचन। श्रीगुरु म्हणती हासोन। इचें स्थिर अहेवपण'। मरण केवी घडे इसी ।।४३।। गुरु म्हणती जा वेळीं । आणा प्रेत आम्हांजवळी। प्राण गेला कवणे वेळीं। पाहूं म्हणती अवधारा ।।४४।। श्रीगुरु म्हणती द्विजांसी। आमुचे बोल जहाले इसी। अहेवपण स्थिर इसी संदेह न धराबा मनांत ।।४५।। या बोलाचा निर्धारू । करील आतां कर्पूरगौरू। नका प्रेत संस्कारू। आणा प्रेत आम्हांजवळी ।।४६।। श्रीगुरूचा निरोप होतां । आणों गेलें धावत प्रेता। पहाती लोक कौतुका। अभिनय म्हणताती ।।४७।। इतुकें होतां ते अवसरी। आले विप्र तेथवरी। पूजा करिती मनोहरी। श्रीगुरूची भक्तीनें ।।४८।। रुद्रसूक्त म्हणोनि । अभिषेक करिती श्रीगुरुचरणीं। षोडशोपचारी विस्तारोनि । पूजा करिती भक्तीनें ।॥४९।। तीर्थपूजा नानापरी। पूजा करिती उपचारी। इतुकीया अवसरों। घेउनी आले प्रेतासी ।।१५०।। प्रेत आणोनिया देखा। ठेविलें श्रीगुरुसंमुखा । श्रीगुरु म्हणती विप्रलोकां । सोडा वख दोर त्याचे ।।५१।। चरणतीर्थ त्या वेळीं । देती तयां विप्रांजवळी। प्रोक्षा म्हणती तात्काळीं। प्रेत सर्वांगी स्नपन करा ।।५२।। श्रीगुरुनिरोपें ब्राह्मण । प्रेतासी करिती तीर्थस्नपन। अमृतदृष्टींसी आपण पाहती प्रेत अवधारा ॥५३।। पाहतां सुधादृष्टींकरून । प्रेत झालें संजीवन । उठोनि बैसे तत्क्षण। अंग मुरडीत परियेसा ।।५४।। नग्न म्हणुनी लाजत। प्रेत झालें सावचित्त' । नवें वा नेसत । येवोनि बैसे एकीकडे ।।५५।। बोलावोनि स्रियेसी । पुसतसे विस्तारेंसी। कोठें आणिलें मजसी । यतीवर कोण सांगे ।।५६।। इतुके लोक असतां। कां वो तूं न करसी चेता। निद्रा आली मदोन्मत्ता। म्हणोनि सांगें स्त्रियेसी ॥५७।। ऐकून पतीचे वचन। सांगती झाली विस्तारून । उभी राहून दोघेजण। नमन करिती श्रीगुरूसी ।।५८।। चरणीं माथा ठेवून। स्तोत्र करिती दोघेजण। पहाती लोक सर्व जन। महा आनंद प्रवर्तला ।।५९।। म्हणती पापरूपी आपण । पाप केलें दारुण। पापापासाव अनुसंधान । जन्म जहालों परियेसीं ।।१६०।। दुर्बुद्धीनें वर्तलों । पापसागरी बुडालों। तुझे चरण विसरलों। त्रयमूर्ती जगदूरु ।।६१।। सकळ जीवमात्रांसी। रक्षिता शंकर तूं होसी । ख्याति तव त्रिभुवनासी। शरणागतां रक्षिसी ।। ६२।। त्राहि' त्राहि जगदूरु। विश्वमूर्ति परात्परू। ब्रह्मा विष्णु शंकरू । सच्चिदानंदस्वरूप तूं ।। ६३।। त्राहि त्राहि विश्वकर्ता। त्राहि त्राहि जगद्भर्ता। कृपासागरा जगन्नाथा । भक्तजनविश्रामा ।।६४।। जय जयाजी गुरुमूर्ति। जटाजूट पशुपति। अवतरलासी तूं क्षितीं। मनुष्यदेह धरूनिया ॥६५।। त्राहि त्राहि पिनाकपाणि । त्राहि देवा तू शिरोमणि। भक्तजन पाळोनि । रक्षितोसी निरंतर ।। ६६।। सर्वां भूर्ती तूंचि वससी । नमन तुझे चरणांसी। मज ऐसें गमलासी। मातारूप वर्तत तूं ।।६७।। त्रिभुवनीं तव करणी । माथा ठेविला तुझे चरणीं । निश्चय केला माझे मनीं। पुनर्जन्म नव्हे आतां ।।६८।। विश्वकारण करिसी । हेलामात्रे सृष्टि रचिसी। मज ऐसें गमलासी। अज्ञानरूपें वर्तत ।।६९।। तुझें न ऐके एखादा जरी। कोपसी त्वरित त्यावरी। माझे मनीं येणेंपरी । निष्कलंक तूं दिसतोसी ।।१७०।। क्रोध नाहीं तुझे मनीं। आनंदमूर्ति तूंचि सहस्रगुणीं। भक्तजना संरक्षणीं । कृपासागर स्वामिया ।।७१।। जीवमात्रा कृपा करिसी। शरणागतांतें रक्षिसी। इहपर सौख्यातें देसी। चतुर्विध पुरुषार्थ ॥७२।। तूंचि करुणेचा सागरू। चिन्मात्रा अगोचरू। श्रीनरसिंहसरस्वती गुरु। क्षमा करणे स्वामिया ॥७३।। ऐसी नानापरीसी । स्तोत्रे केलीं श्रीगुरूसी। श्रीगुरुमूर्ति संतोषी। आश्वासिती तये वेळीं ।॥७४॥ अष्ट पुत्र पूर्णायुषी । होतील सत्य तुजसी । हो का श्रीमंत अतिहर्षी। गेले तुमचे पूर्वदोष ।॥७५॥ चतुर्विध पुरुषार्थ। लभ्य झाले तुम्हांसी यथार्थ। सांडोनि संदेह त्वरित । सुखें असा म्हणती गुरु ।।७६।। इतुकें होतां ते अवसरी। मिळाल्या होत्या नरनारी । जवजयकार अपरंपारी। प्रवर्तला तये वेळीं ।॥ ७७।। नमन करिती सकळ जन। स्तोत्र करिताती गायन । करिताती नीरांजन । जयजयकार प्रवर्तला ।।७८।। तयामध्ये विप्र एक। होता धूर्त कुबुद्धिक । आपुलें मनीं आणोनि तर्क । श्रीगुरूसी पुसतसे ।।७९।। विप्र म्हणे श्रीगुरूसी। विनंती स्वामी परियेसीं। संशय आमुचे मानसीं । होत आहे स्वामिया ।।१८०।। वेदशाखें पुराणें । बोलताती सनातने । ब्रह्मलिखित सत्य जाणें । म्हणोनि वाक्य निर्धारी पां १॥८१॥ घडला नाहीं अपमृत्यु यासी। दिवामरण परियेसीं। आला कैसा जीव यासी। ब्रह्मलिखित सत्य मिथ्या ।।८२।। न कळे याच्या अभिप्राया। निरोपावें गुरुराया। गुरु म्हणती हासोनिया। तया मूर्ख ब्राह्मणासी ।।८३।। गुरु म्हणती तयासी । सांगेन तुज विस्तारेंसी। पुढील जन्माच्या आयुष्यासी। उसनें घेतले परियेसा ।।८४।। आम्हीं तया ब्रह्मदेवासी । मागून घेतलें करुणेंसी। पुढले जन्मीं परियेसीं। बर्षे तीस संख्या चैं ।।८५।। भक्तजन रक्षावयासी । मागून घेतलें ब्रह्मदेवासी । म्हणून सांगती विस्तारेसी । तया विप्रवगर्ति ।।८६।। तटस्थ झाले सकळ जन। साष्टांग करिती नमन । गेलें आपुलिया भुवना। ख्याति झाली चहुं राष्ट्रां ।।८७।। पतिव्रतेनें पतीसहित । स्नान केलें संगमांत । अंतःकरणी संतोष बहुत । पूजा करिती भक्तींसी ।।८८।। अपार द्रव्य वेंचोनि। विप्र तोषवोनि आराधनीं। सूर्य जातां अस्तमानीं । येती गुरूच्या मठासी ।।८९।। स्त्रीपुरुष नमस्कार। करिताती वारंवा। पूजासामग्री उपचार। आरती करिती श्रीगुरूसी ।।१९०।। सिद्ध म्हणे नामधारका। पुढे अपूर्व वर्तलें तें ऐका। कथा असे अपूर्व देखा। सांगेन ऐका एकचित्तें ।।९१।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर । सांगे गुरुचरित्र विस्तार। ऐकतां पावन मनोहर । सकळाभीष्टें पावती ॥९२।। श्रीगुरुचरित्रामृत । उठविलें विप्राचे प्रेत। सौभाग्य देवोनि अद्भुत । परम तयासी तोषविलें ।।१९३।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३२॥
ओवीसंख्या १९३
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक शिष्यराणा । लागे सिद्धाचिया चरणां। विनवीतसे भाकूनि करुणा। भक्तिभावेंकरोनि ।।१।। म्हणे स्वामी सिद्धमुनि । पूर्वकथानुसंधानी। पतीसह सुवासिनी। आली श्रीगुरुसमागमें ।।२।। श्रीगुरु आले मठासी । पुढें कथा वर्तली कैसी। विस्तारोनि कृपेंसी। निरोपावी स्वामिया ।।३।। सिद्ध म्हणे ऐक बाळा । दुजे दिनों प्रातःकाळीं । दंपत्यें दोघे गुरुजवळी। येवोन बैसती बंदोन ।।४।। विनविताती कर जोडोनि। आम्हां शोक घडल्या दिनीं । एक यतीने येवोनि। बुद्धिवाद' सांगितला ।।५।। रुद्राक्ष चारी आम्हांसी। देतां बोलिला परियेसीं । कानी बांधोनि प्रेतासी। दहन करा म्हणितलें ।।६।। आणिक एक बोलिले। रुद्रसूक्त असे भलें। अभिषेकिती विप्रकुळे'। तें तीर्थ आणावें ।।७।। आणोनिया प्रेतावरी। प्रोक्षा तुम्ही भावें करी। दर्शना जावें सत्वरी। श्रीनृसिंहसरस्वती स्वामीचे ।।८।। ऐसें सांगोनि आम्हांसी। आपण गेला परियेसीं। रुद्राक्ष राहिले मजपासीं। पतिश्रवर्णी स्वामिया ।।९।। ऐकोनि तियेचें वचन। श्रीगुरु सांगती हांसोन। रुद्राक्ष दिल्हे आम्हीं जाण। तव भक्ति देखोनिया ।।१०।। भक्ति अथवा अभक्तींसी। स्ट्राक्ष धारण करणारासी। पार्षे न लागतीं परियेसीं। उंब अथवा नीचातें ।।११।। रुद्राक्षांचा महिमा। सांगितला अनुपमा। सांगेन विस्तारून तुम्हां । एकचित्तें परियेसा ।।१२।। रुद्राक्षघारणे पुण्य। मिति' नाहीं अगण्य । आणिक नाहीं देवास मान्य। श्रुतिसंमत परियेसा ।।१३।। सहखसंख्या जो नर। रुद्राक्षमाळा करी हार । स्वरूपें होय तोचि रुद्र। समस्त देव बंदिती ।।१४।। सहस्र जरी न साधती। दोहीं बाहीं षोडशती। शिखेसी एक ख्याति । चतुर्विंशति दोहीं करी ।।१५।। कंठीं बांधा बत्तीस। मस्तकीं बांधा चत्वारिंश। श्रवणद्वयर्थी द्वादश। धारण करावे परियेसा ।।१६।। कंठीं अष्टोत्तरशत एक। माळा करा सुरेख । रुद्रपुत्रसमान ऐक । येणें विधीं धारण केलिया ।।१७।। मोतीं पोवळीं स्फटिकेंसी। रौप्य वैडूर्य सुवर्णसी। मिळोनि रुद्राक्षमाळेसी। करावें धारण परियेसा ।।१८।। याचे फळ असे अपार । रुद्राक्षमाळा अति घोर । जे मिळती समयानुसार। रुद्राक्ष धारण करावे ।।१९।। ज्याचे गळां रुद्राक्ष असती। त्यासी पापें नातळती'। तया होय सदूति। रुद्रलोकीं अखंडित ॥२०।। रुद्राक्षमाळा घरोनि । जप करिती अनुष्ठानी। अनंत फळ असे जाणीं। एकचित्तें परियेसा ।।२१।। रुद्राक्षविणें जो नर। वृथा जन्म जाणा घोर। ज्याचे कपाळीं नसे त्रिपुंडू। जन्म वायां परियेसा ।।२२।। रुद्राक्ष बांधोनि मस्तकेसी। अथवा दोन्ही श्रवणांसी। स्नान करितां नरासी। गंगास्नानफळ असे ।।२३।। रुद्राक्ष ठेवोनि पूजेसी। अभिषेक करावा श्रीस्ट्रेंसी । लिंगपूजा समानेसी। फळ असे निर्धारा ।। २४।। एकमुख पंचमुख। एकादश असतीं मुख । चतुर्दशादि कौतुक । मुखें असतीं परियेसा ।।२५।। हे उत्तम मिळती जरी। अथवा असती नानापरी। धारण करावे प्रीतीकरी । पावें चतुर्विध पुरुषार्थ ।। २६ ।। यांचे पूर्वील आख्यान। विशेष असे अति गहन । ऐकतां पार्षे पळोन। जातीं त्वरित परियेसा ।।२७।। राजा काश्मीरदेशासी । भद्रसेन नामें परियेसीं । त्याचा पुत्र सुधर्म नार्मेसी। प्रख्यात असे अवधारा ।।२८।। त्या राजाचा मंत्रीसुत। नाम तारक विख्यात। दोघे कुमार ज्ञानवंत। परमसखे असती देखा ।।२९।। उभयतां एके क्यासी। एके स्थानीं विद्याभ्यासी। क्रीडा विनोद अति प्रीतींसी। वर्तती देखा संतोष ।। ३० ।। क्रीडास्थानीं सहभोजनीं । असती दोघे संतोषोनि। ऐसे कुमार महाज्ञानी। शिवभजक परियेसा ।।३१।। सर्व देहा अलंकार । रुद्राक्षमाळा सुंदर। भस्मधारण त्रिपुंडु । टिळा असे परियेसा ॥३२।। रत्नाभरणें सुवर्ण। लेखिती' लोहासमान । रुद्रमाळांवांचून। न घेती देखा अलंकार ।।३३।। मातापिता बंधुजन। आणोनि देती रत्नाभरण। टाकोनि देती कोपोन। लोह पाषाण म्हणती त्यांसी ।।३४।। वर्ततां ऐसें एके दिवसीं। तया राजमंदिरासी । आला पराशर ऋषि। जो का त्रिकाळज्ञ असे देखा ॥३५।। ऋषि आला देखोन। राजा संमुख जाऊन। साष्टांगी नमन करून। अभिवंदिला तये वेळीं ।। ३६ ।। बैसवोनि सिंहासनीं। अर्घ्य पाद्य देवोनि। पूजा केली विधानों। महानंदें तये वेळीं ।।३७।। कर जोडोनि मुनिवरासी। विनवी राव भक्तींसी। पिसें' लागलें पुत्रांसी। काय करावें म्हणतसे ।।३८।। रत्नाभरणें अलंकार । न घेती भूषण परिकर। रुद्राक्षमाळा कंठी हार। सर्वाभरणें तींच करिती ।। ३९।। शिकविल्या नायकती। कैचे यांचे मतीं। स्वामी त्यांतें बोधिती। तरीच ऐकती कुमार ।।४०।। भूतभविष्यवर्तमानीं । त्रिकाळज्ञ तुम्ही मुनि । यांचा अभिप्राय विस्तारोनि । निरोपावा दातारा ।।४१।। ऐकोनि रायाचें वचन । पराशरा हर्ष जाण । निरोपितसे हासोन । म्हणे विचित्र असे देखा ।।४२।। तुझ्या आणि मंत्रिसुताचे। वृत्तान्त असती विस्मयाचे। सांगेन ऐक विचित्र साचे । म्हणोनि निरोपी तया वेळीं ।॥४३।। पूर्वी नंदीनाम नगरी। अति लावण्य सुंदरी होती एक वेश्या नारी। जैसें तेज चंद्रकांति ।।४४।। जैसा चंद्र पौर्णिमेसी। तैसें छत्र असे तिसी। सुखासन सुवर्णसी। शोभायमान असे देखा ।।४५।। हिरण्यमय' तिचे भवन। पादुका सुवर्णाच्या जाण। नानापरी आभरणे । विचित्र असती परियेसा ।।४६।। पर्वक रत्नखचित देखा। वस्त्राभरणे अनेका। गोमहिषी दास्यादिका। बहुत असती परियेसा ॥४७॥ सर्वाभरणें तीस असती। जैसी दिसे मन्मथरति। नवयौवना सोमकांति। अतिसुंदर लावण्य ।।४८।। गंध कुंकुम कस्तुरी। पुष्पे असती नानापरी। अखिल भोग तिच्या घरीं। ख्याति असे तया ग्रामी ।।४९।। घनधान्यादि संपत्ति । कोटिसंख्या नाहीं मिति । ऐशियापरी नांदती। वारवनिता तये नगरी ।।५०।। असोनि वारवनिता। म्हणवी आपण पतिव्रता । धर्म करी असंख्याता। अन्नवरों ब्राह्मणांसी ।।५१।। नाट्यमंडप तिचे द्वारी। रत्नखचित नानापरी । उभारिला अतिकुसरी। सदा नृत्य करी तेथें ।॥५२॥ सखिवर्गासह नित्य। नृत्य करी मनोरथ । कुकुट मर्कट विनोदार्थ । बांधिले असती मंडपों ।॥५३।। तया मर्कटकुक्कुटांसी। नृत्य शिकवी विनोदेसी । रुद्राक्षमाळाभूषणेसी । गळां रुद्राक्ष बांधले ।।५४।। तया मर्कटकुकुटांसी। नामें ठेविलीं सदाशिव ऐसीं। वर्ततां एके दिवसीं। अभिनव' झालें परियेसा ॥५५।। शिवव्रत म्हणिजे एक। वैश्य आला महाधनिक। रुद्राक्षमाळा भस्मांकित । प्रवेशला तिचे घरी ॥५६।। त्याचे सव्य करी देखा। रत्नखचित लिंग निका। तेजें फांके चंद्रार्का। विराजमान दिसतसे ।।५७।। तया वैश्यासी देखोनि । नेलें वेश्यें बंदुनि। नाट्चमंडपी बैसवोनि। उपचार केले नानापरी ।।५८।। तया वैश्याचे करी। जें कां होतें लिंग भारी। रत्नखचित सूर्यापरी। दिसतसे तयाचे ।।५९।। देखोनि लिंग रत्नखचित। बारवनिता विस्मय करीत । आपुल्या सखीस म्हणत । ऐसी वस्तु पाहिजे आम्हां ।। ६० ।। पुसावें तया वैश्यासी। जरी देईल मौल्येसी । अथवा देईल रतीसी । होईन कुलखी तीन दिवस ।।६१।। ऐकोन तियेचें वचन । पुसती वैश्यासी सखी जाण। जरी का द्याल लिंगरत्न । देईल रति दिवस तीनी ।।६२।। अथवा द्याल मौल्वेंसी। लक्षसंख्यादि द्रव्यासी। जें कां बसे तुमचे मानसीं । निरोपावें वेश्येप्रती ।। ६३।। ऐकोनि सखियांचे वचन। म्हणे वैश्य हासोन। देईन लिंग मोहन। रतिकांक्षा करुनी ।।६४।। तुमची मुख्य वारवनिता। जरी होईल माझी कांता। दिवस तीन पतिव्रता । होवोनि असणें मनोभावें ।।६५।। म्हणोनिया मुख्य वनितेसी। पुसतसे वैश्य तिसी। व्यभिचारिणी नाम तुजसी। काय सत्य तुझे बोल ।।६६।। तुम्हां कैचे धर्म कर्म। बहु पुरुषांचा संगम । पतिव्रता कैचें नाम। तुज असे सांग मज ।।६७।। प्रख्यात तुमचा कुळाचार। सदा करणें व्यभिचार। नव्हे तुमचे मन स्थिर। एका पुरुषासर्वे नित्य ।।६८।। ऐकोनि वैश्याचें वचन। वारवनिता बोले आपण । दिनत्रय सत्य जाण। होईन तुमची कुलखी ।।६९।। यावें मातें लिंगरत्न। रतिप्रसंगी तुमचें मन। संतोषवीन अतिगहन । तनमनधनेंसी ॥७०।। वैश्य म्हणे तियेसी। प्रमाण द्यावें आम्हांसी । दिनत्र्य दिवानिशीं । बागावें पत्नीधर्मकर्मे । ॥७१।। तये वेळी बारबनिता। लिंगावरी ठेवी हाता। चंद्र सूर्य साक्षी करितां। झाली पत्नी तयाची ॥७२॥ इतुकिया अवसरों। लिंग दिलें तियेचे करीं। संतोष जहाली ती नारी। करी कंकण बांधिले ।।७३।। लिंग देवोनि वेश्येसी। बोले वैश्य परियेसीं। माझ्या प्राणासमानेसी । लिंग असे जाण तुवां ॥७४।। या कारणें लिंगासी। जतन करणें परिवेसीं। हानि होतां यासी। प्राण आपुला देईन ।॥७५॥ ऐसें वैश्याचे वचन ऐकोन । अंगिकारिलें आपण। म्हणे लिंग करीन जतन। प्राणापरी परियेसा ।। ७६ ।। ऐसी दोघे संतोषित । बैसले होते मंडपांत । दिवस जातां अस्तंगत । म्हणती जाऊं मंदिरा ॥ ७७।। संभोगसमयीं लिंगासी। न ठेवावें जवळिकेसी । म्हणे वैश्य तियेसी । तये वेळीं परियेसा ।। ७८ ।। ऐकोनि वैश्याचे वचन। मंडपी ठेविलें लिंगरत्न। मध्यस्तंभीं बैसवोन। गेली अंतर्गृहांत ।।७९।। क्रीडा करिती दोघेजण। होते ऐका एक क्षण। उठिला अनि दारुण। तया नाट्धमंडपी ।।८०।। अप्रि लागतां मंडप। भस्म झाला जैसा धूप। वैश्य करितसे प्रलाप। देखोनि तये वेळीं ।।८१।। म्हणे हा हा काय झालें । माझे प्राणलिंग गेलें। विझविताती अतिप्रबळे। नगरलोक मिळोनि ।।८२।। विझवूनिया पहाती लिंगासी। दग्ध झालें परियेसीं । अर्मी कुकुटमर्कटांसी। दहन जहाले परियेसा ।।८३।। वैश्य देखोनि तये वेळीं । दुःख करी अतिप्रबळी। प्राणलिंग गेलें जळोनि। आतां प्राण त्यजीन म्हणे ।।८४।। म्हणोनिया निपाला बाहेरी। आयती' केली ते अवसरी। काष्ठे मिळवोन अपारी। अग्नि केला परियेसा ।।८५।। लिंग दग्ध झाले म्हणत । अग्निप्रवेश केला त्वरित। नगरलोक विस्मय करीत । वेश्या दुःख करीतसे ।।८६।। म्हणे हा हा काय झालें । पुरुषहत्यापाप घडलें। लिंग मंडपी ठेविलें । दग्ध जहाले परियेसा ।।८७।। वैश्य माझा प्राणेश्वर। तया हानि जहाली निर्धार। पितव्रताधर्मे सत्वर। प्राण त्यजीन म्हणतसे ।।८८।। बोलाविलें विप्रांसी। संकल्पिले संपदेसी। सहगमन करावयासी । दानधर्म करीतसे ।।८९।। बखें भूषणे भांडारा। देती झाली विप्रवरां। चंदनकाष्ठभारा। चेतविलें अग्रीसी ।।९०।। आपल्या बंधुवर्गासी । नमोनि पुसे तयांसी। निरोप द्यावा आपणासी। पतीसर्वे जातसे ।।९१।। ऐकोनि तियेचे वचन। दुःख पावले बंधुजन । म्हणती तुझी बुद्धि हीन। काय धर्म करीतसे ।।९२।। वेश्येच्या मंदिरासी। येती पुरुष रतीसी। मिती' नाहीं तयांसी। केवी जहाला तुझा पुरुष ।।९३।। कैचा वैश्य कैचे लिंग। वायां जाळिसी आपुलें अंग । वारवनिता धर्म चांग। नूतन पुरुष नित्य घ्यावा ।।९४।। ऐसे वैश्य किती येती। त्यांची कैशी होसी सती। हासती नगरलोक ख्याति । काय तुझी बुद्धि सांगें ।॥९५।। येणेंपरी सकळ जन। वारिताती बंधुजन । काय केलिया नायके जाण। कवणाचेही ते काळीं ।।९६।। वेश्या म्हणे तये वेळीं। आपुला पति वैश्य अढळी। प्रमाण केलें तपाजवळी । चंद्र सूर्य साक्षी असे ।।९७।। साक्षी केली म्यां हो क्षिति'। दिवस तीन अहोरात्री। धर्मकर्म त्याची पत्नी। जाहले आपण परियेसा ।।९८।। माझा पति जाहला मृत। आपण विनवीतसे सत्य। पतिव्रता धर्म ख्यात। वेदशाख परियेसा ।।९९।। पतीसवें जे नारी। सहगमन जाय प्रीतिकरों। एकेक पाउलीं भूमीवरी। अश्वमेधफळ असे ॥१००॥ आपुले माता पिता उद्धरती। एकवीस कुळे पवित्र होती। पतीची जाण तेच रीती। एकवीस कुळे परियेसा ।।१।। इतुकें जरी न करितां । पातिव्रत्यपणा वृथा। केवी पाविजे पंथा। स्वर्गाचिया निश्वये ।।२।। ऐसें पुण्य जोडिती। काय वांचूनि राहणें क्षितीं। दुःख संसारसागर ख्याति। मरणें सत्य कधीं तरी ।।३।। म्हणोनि विनवी सकळांसी। निघाली बाहेर संतोषीं। आली अग्निकुंडापासीं । नमन करी तये वेळीं ।॥४।। स्मरोनिया सर्वेश्वर । केला सूर्यासी नमस्कार। प्रदक्षिणे उल्हास थोर। करिती झाली तये वेळीं ।।५।। नमुनी समस्त द्विजांसी। उभी ठेली' अग्निकुंडासी । उडी घातली वेगेंसी। अभिनव जहालें तये वेळीं ।।६।। सदाशिव पंचवक्त्र। दशभुजा नागसूत्र । हातीं आयुधे विचित्र । त्रिशूळ डमरू जाण पां ।।७।। भस्मांकित जटाधारी। बैसला असे नंदीवरी। धरिता झाला बरचेवरी। वेश्येशी तये वेळी ।।८।। तया अग्रिकुंडांत। न दिसे अग्रि असे शांत। भक्तवत्सल जगन्नाथ । प्रसन्न झाला तये वेळीं ।।९।। हातीं धरुनी तियेसी। कडे काही व्योमकेशी। प्रसन्न होउनी परियेसीं। वर माग म्हणतसे ।।११०।। ईश्वर म्हणे तियेसी । आलों तुझे परीक्षेसी। धर्मधैर्य पाहावयासी। येणें घडलें परियेसा ।।११।। झालों वैश्य आपणची। रत्नलिंग स्वयंभूची। मायाअधि केला म्यांची। नाट्यमंडप दग्ध केला ।।१२।। तुझे मन पहावयासी । जहालों अग्निप्रवेशीं । तूंची पतिव्रता सत्य होशी। सत्य केलें व्रत आपुलें ।।१३।। संतोषलों तुझे भक्तींसी। देईन वर जो मागसी। आयुरारोग्यनिर्वेसी। जें इच्छिसी तें देईन ।।१४।। म्हणे वेश्या तये वेळीं। नलगे वर चंद्रमौळी। स्वर्ग भूमि पाताळीं। न घे भोग ऐश्वर्य ।।१५।। तुझे चरणकमलीं मूंग। होवोनि राहीन महाभाग्य। माझे इष्ट बंधुवर्ग । सकळ तुझे सन्निधेसी ।।१६।। दासदासी माझे असती। सकळां न्यावें स्वर्गाप्रति । तव सन्निध पशुपति। सर्वदा राहों सर्वेश्चरा ।।१७।। आम्हां न व्हावी पुनरावृत्ति' । न लागे संसार यातायाती। विमोचावें स्वामी त्वरिती। म्हणोनि चरणी लागली ।।१८।। ऐकोनि तियेचे बचन। प्रसन्न झाला गौरीरमण'। सकळां विमानों बैसवोन। घेऊन गेला स्वर्गाप्रती ।।१९।। तिचे नाटधमंडपांत। जो का झाला मर्कटपात। कुकुटसमवेत । दग्ध जहाले परियेसा ॥१२०॥ म्हणोनि पराशर ऋषि । सांगतसे रायासी। मर्कटजन्म त्यजुनि हीं। तुझे उदरीं जन्मला ।।२१।। तुझे मंत्रियाचे कुशीं । कुक्कुट जन्मला परियेसीं। रुद्राक्षधारणफळे ऐसीं। राजकुमार होऊन आले ।।२२।। पूर्वसंस्काराकरितां। रुद्राक्षधारणा असे घेतां । दोघे पुत्र ज्ञानवंता। केवळ भक्त ईश्वराचे ।।२३।। पूर्वजन्मीं अज्ञान असतां । रुद्राक्षधारण केलें नित्या । इतके पुण्य घडले म्हणतां । जहाले तुझे कुमार हे ।। २४।। आतां तरी ज्ञानवंती । रुद्राक्ष धारण करिताती । त्याच्या पुण्या नाहीं मिती । म्हणोनि सांगे पराशरऋषि ।।२५।। श्रीगुरु म्हणती दंपतीसी । येणेंपरी रायासी । सांगातां झाला महाऋषि। पराशर विस्तारें ।। २६ ।। ऐकोनि ऋषीचें वचन। राजा विनवी कर जोडून । प्रश्न केला अतिगहन । सांगेन ऐका एकचित्तें ।। २७।। म्हणोनि सिद्ध विस्तारेंसी। सांगे नामधारकासी। अपूर्व जहालें परियेसीं । पुढील कथा असे ऐका ।। २८ ।। गंगाधराचा नंदनु। सांगे श्रीगुरुचरित्रकामधेनु । ऐका श्रोते सावधानु । लाधे चारी पुरुषार्थ ।।२९।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । रुद्राक्षमाहात्म्य येथ । सांगितले निभ्रांत' । पुण्यात्मक पावन जें ।।१३०।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३३॥
ओवीसंख्या १३०
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । श्रीगुरु म्हणती दंपतीसी। ऐसा पराशर ऋषि। तया काश्मीर राजासी । रुद्राक्षमहिमा निरोपी ।।१।। तया राजकुमाराचे। विस्तारोनि सुधावाचें। सांगितले पूर्वजन्माचे। चरित्र सर्व ।।२।। संतोषोनि तो राजा। लागला त्याचे पादांबुजा'। कर जोडोनियां वोजा। विनवीतसे परियेसा ।।३।। राजा म्हणे ऋषीचरासी । स्वामी निरोपिलें आम्हांसी। पुण्य घडलें आत्मजासी। रुद्राक्षधारणें करोनिया ।।४।। पूर्वजन्मीं अज्ञानेंसी । रुद्राक्ष बांधिले तिणें वेश्यीं। त्या पुण्यें दशा ऐशी। प्राप्त झाली स्वामिया ।।५।। ज्ञानवंत आतां जाण । करिती रुद्राक्षधारण । पुढे यांचे लक्षण। कवणेंपरी बर्ततील ।।६।। भूतभविष्य वर्तमानों। त्रिकाळज्ञ तुम्ही मुनि । सांगा स्वामी विस्तारोनि । माझेनि मंत्रिकुमराचे ।।७।। ऐकोनि रायाचें वचन। सांग ऋषि विस्तारोन। दोघां कुमारकांचे लक्षण । अपूर्व असे परियेसा ।।८।। ऋषि म्हणे रायासी। पुत्रभविष्य पुससी। ऐकोनि दुःख पावसी। कवणेंपरी सांगावें ।।९।। राव विनवी तयें वेळीं । निरोपावें सकळीं। उपाय करिसी तात्काळी। दुःखावेगला तूंचि करिसी ।।१०।। ऐकोनियी ऋषीश्वर। सांगता झाला विस्तार। ऐक राजा तुझा कुमार। बारा वर्षे आयुष्य असे ।।११।। तया बारा वर्षांत । राहिले असती दिवस सात। आठवे दिवसीं येईल मृत्यू । तुझ्या पुत्रासी परियेसा ।।१२।। ऐकोनि ऋषीचे वचन । राजा मूच्छिंत जाहला तत्क्षण। करिता झाला रुदन। अनेकपरी दुःख करीत ।।१३।। ऐकोनि राजा तये वेळीं । लागला ऋषीच्या चरणकमळीं । राखें राखें तपोबळी। शरणागत मी तुझा ।।१४।। नानापरी गहिवरत । मुनिवराचे चरण धरित। विनवीतसे स्त्रियांसहित । काय करावें म्हणोनिया ।।१५।। दयानिधि ऋषीश्वरू । सांगतां झाला विचारू'। शरण रिघावें जगदुरु। उमाकांत शिवासी ।।१६।। मनीचे भय त्यजुनी। असावे आतां शिवध्यानीं । तो राखील शूलपाणी। आराधावें तयातें ।।१७।। जिंकावया काळासी। उपाय असे परियेसीं । सगिन तुम्हां विस्तारेसी । एकचित्ते अवधारा ।।१८।। स्वर्ग मृत्यु पाताळासी । देव एक व्योमकेशी' । निष्कलंक परियेसीं । चिदानंदस्वरूप देखा ।।१९।। ऐसा देव मूर्तिमंत। रजोरूपें ब्रह्मा सृजत। सृष्टि करणार समर्थ। वेद चारी निर्मिले ।।२०।। तयां चतुर्वेदांसी। दिधले तया विरंचीसों। आत्मतत्त्वसंग्रहासी। ठेविली होतीं उपनिषदें ।।२१।। भक्तवत्सल सर्वेश्चर। तेणें दिधलें वेदसार। रुद्राध्याय सुंदर। दिधला तया विरंचीसी' ।।२२।। रुद्राध्यायाची महिमा। सांगतां असे अनुपमा। बातें नाश नाहीं जाणा। अव्यय असे परियेसा ।।२३।। पंचतत्त्व शिवात्मक । रुद्राध्याय असे विशेख । ब्रम्ह्यानें चतुर्मुख । विश्व सृजिलें वेदमतें ।। २४।। तया चतुर्मुखीं देखा। वेद चारी सांगे निका। बदन दक्षिण कर्ण एका। यजुर्वेद निरूपिला ।।२५।। तया यजुर्वेदांत । उपनिषदसार ख्यात' । रुद्राध्याय विस्तारत । सांगे ब्रह्मा मुनिवरांसी ।।२६।। समस्त देवऋषींसी। मरीचि अत्रि परियेसीं। आणिक सकळ देवांसी। सांगे ब्रह्मा तये वेळीं ।। २७।। तेंचि ऋषि पुढे देखा। शिकविती आपुले शिष्यादिकां । त्यांचे शिष्यें पुढे ऐका । आपुल्या शिष्या शिकविलें ।। २८ ।। पुढे त्यांचे पुत्रपौत्रीं। विस्तार झाला जगत्रीं। शिकविले ऐका पवित्रों। रुद्राध्याय भूमीवरी ।।२९।। त्याहूनि नाहीं आणिक मंत्र। त्वरित तप साध्य होत। बतुर्विध पुरुषार्थ । लाघे त्वरित परियेसा ।।३०।। नानापरीचीं पातकें। केली असतीं अनेके। रुद्रनाप्यें सम्यकें । भस्म होतीं परियेसा ।।३१।। आणिक एक नवल केलें। ब्रह्मदेवें सृष्टि रचिलें। वेदतीर्थ असे भलें। स्नानपान करावें ।।३२।। त्याणें कर्मे परिहरती। संसार होय निष्कृति। जे जन श्रीगुरु भजती। ते तरती भवसागर ।।३३।। सुकृत अथवा दुष्कृत। जें जें कीजे आपुलें हित। जैसें पेरिलें असे शेत। तेंचि उगवे परियेसा ।। ३४।। सृष्टिधर्मप्रवृत्तीसी। ब्रों रचिलें परियेसीं। आपुलें वक्षपृष्ठंसी। धर्माधर्म उपजवी ।।३५।। जे जन धर्म करिती। इह पर सौख्य पावती। जे अधमें रहाटती। पापरूपी तेचि जाणा ।। ३६।। काम क्रोध लोभ जाण। मत्सर दंभ परिपूर्ण । अधर्माचे सुत जाण । इतुके नरकनायक ।। ३७।। गुरुतल्पगः सुरापानी। कामुक जे परिपूर्णी। पुल्कस्वरूप अंतःकरणीं। तेचि प्रधान नरकाचे ।।३८।। क्रोधें पितृवधी देखा। मातृवधी असती जे का। ब्रह्महत्यादि पातका । कन्याविक्रयी जे जन ।।३९।। इतुके क्रोधापासूनि । उद्भव झाले म्हणोनि। पुत्र जहाले या कारणीं। क्रोधसुत तयां म्हणती ।।४०।। देवद्विजस्वहरण देखा। ब्रह्मस्व घेवोनि नेदी जो का। सुवर्णतस्कर ऐका। लोभपुत्र तया नांव ।।४१।। ऐशा पातकांसी। यमें निरूपिलें परियेसीं। तुम्ही जाबोनि मृत्युलोकासी। रहाटी करणें आपुले गुणें ।।४२।। तुम्हांसवे भृत्य' देखा। देईन सर्व उपपातकां। सकळ पाठवावे नरका। जे जन असती भूमीवरी ।।४३।। यमाची आज्ञा घेवोनि । आली पातकें मेदिनी। रुद्रजपत्यांते देखोनि। पळोनि गेलीं परियेसा ॥४४।। जावोनिया यमाप्रती। महापातके विनविती । गेलो होतो आम्हीं क्षितीं। भयचकित होउनी आलों ।।४५।। जय जयाजी यमराया। आम्ही पावलों महाभया। किंकर तुमचे म्हणोनिया। प्रख्यात असे त्रिभुवनीं ।।४६।। आम्ही तुमचे आज्ञाधरी। निरोपे गेलों धरित्रीं । पोळलों होतों बद्विपुरी। रुद्रजप ऐकोनि ।।४७।। क्षितीवरी रहावयासी। शक्ति नाहीं आम्हांसी। पाहतां रुद्रजपासी । पोळलों आम्ही स्वामिया ।।४८।। ग्रामी खेटीं नदीतीरीं। वसती द्विज महानगरीं। देवालवीं पुण्यक्षेत्रीं। रुद्रजप करिताती ।।४९।। कवणेंपरी आम्हां गति। जाऊं न शकों आम्ही कितीं। रुद्रजप जन करिताती। तया ग्रामा जाऊ न शकों ।।५०।। आम्ही जातों नरापासीं । वर्तवितों पातकासी होती नर महादोषी। मिति नाहीं परियेसा ।।५१।। प्रायश्चित्तसहस्रेसी । जो का नव्हे पुण्यपुरुषी। तैसा द्विज परियेसीं। पुण्यवंत होतसे ।।५२।। एखादे समयीं भक्तींसी। म्हणती रुद्राध्यायासी। तो होतो पुण्यराशि। पाहतां त्यासी भय वाटे ।।५३।। तैसा पापी महाघोर । पुण्यवंत होतो नर। भूमीवरी कैसे आचार। आम्हां कष्ट होतसे ।।५४।। काळकूट महाविष। रुद्रजाप्य आम्हां दिसे। शक्ति नाहीं आम्हांसी। भूमीवरी जावया ।।५५।। रुद्रजाप्यविष्यासी। शमन करावया शक्त होसी । रक्ष गा रक्ष गा आम्हांसी। विनविताती पातके ॥५६।। इतुके बोलतीं पातके। ऐकोनि यममाथा तुके । कोपें निघाला तबकें। ब्रह्मलोका तये वेळीं ।।५७।। जाऊनिया ब्रम्ह्यापासी। विनवी यम तयासी। जय जयाजी कमळवासी । सृष्टिकारी चतुर्मुखा ।। ५८।। आम्ही तुझे शरणागत। तुझे आज्ञे कार्य करित। पापी नरांते आणित। नरकालयाकारणें ।। ५९।। महापातकी नरांसी। आणू पाठवितों भृत्यांसी। पातकी होय पुण्यराशि । रुद्रजप करोनिया ।। ६०।। समस्त जाती स्वर्गासी। महापातकी अतिदोषी। नाश केला पातकांसी। शून्य जहालें नरकालय ।।६१।। नरक शून्य झाले सकळ । माझें राज्य निष्फळ । समस्त जहाले कैवल्य'। उत्पत्ति राहिली स्वामिया ।। ६२।। यातें उपाय करावयासी। देवा तूं समर्थ होसी। राखें राखे आम्हांसी। राज्य गेलें स्वामिया ।।६३।। तुम्हीं होउनी मनुष्यासी। स्वामित्व दिधले भरंवसीं । रुद्राध्यायनिधानेंसी। कासया साधन दिधलेंत ।।६४।। याकारणें मनुष्यं । लोकी नाहीं पापलेश। रुद्रजपें विशेष । पातके जळती अनेक ।।६५।। येणेंपरी यम देखा । विनविता झाला चतुर्मुखा। प्रत्युत्तर देतसे ऐका । ब्रह्मदेव यमासी ।।६६।। अभक्तीनें दुर्मदेसी । रुद्रजप करिती यासी। अज्ञानी लोक तामसी उभ्यानी निजूनी पडती नर ।।६७।। त्यांतें अधिक पापें घडती। ते दंडावे तुवां त्वरिती । जे कां भावार्थं पढ़ती। ते त्वां सर्वदा वर्गावे ।।६८।। बाधू नका तुम्ही ऐका। सांगावे ऐसें पातका। रुद्रजपें पुण्य विशेखा। जे जन पढती भक्तींसी ।। ६९।। पूर्वजन्मीं पापें करिती। अल्पायुषी होऊनि उपजती । तया पापा होय निष्कृति'। रुद्रजपें करूनिया ।।७०।। तैसें अल्पायुषी नरें। रुद्रजप करितां बरें । पापें जाती निर्धारं । दीर्घायु होय तो देखा ।।७१।। तेजो वर्चस बल धृति। आयुरारोग्य ज्ञान संपत्ति। रुद्रजपें वर्धती। ऐक वमा एकचित्तें ।।७२।। रुद्रजपमंत्रेसी। स्नान करविती ईश्वरासी। तेंचि उदक भक्तींसी। जे जन करिती स्नानपान ।।७३।। त्यांतें मृत्युभय नाहीं । आणिक एक नवल पाहीं। रुद्रजपें पुण्य देहीं। स्थिर जीव पुण्य असे ।।७४।। अतिरुद्र जपोनि उदकासी। स्नान केल्या वरांसी। भीतसे मृत्यु त्यांसी। तेही तरती भवार्णवीं ।॥७५।। शतरुद्र अभिषेकासी । पूजा करिती महेशासी। ते जन होती शतायुषी। पापनिर्मुक्त परियेसा ।।७६।। ऐसें जाणोनि मानसीं। सांगे आपुलें दूतांसी। रुद्र जपतां विप्रांसी। बापूं नको म्हणे ब्रह्मा ।। ७७।। ऐकोनि ब्रम्ह्याचे वचना । यम आला आपुले स्थाना। म्हणोनि पराशरें जाणा। निरोपिलें रायासी ।।७८।। आतां तुझ्या कुमारासी। उपाय सांगन परियेसीं । दशसहस्र रुद्रेसी। स्नपन करी शिवातें ।।७९।। दहा सहस्र वर्षांवरी। तव पुत्र राज्य करी। इंद्रासमान धुरंधरी' । कीर्तिवंत अपार ।।८०।। त्याचे राज्य श्रियेसी । अपाय नसे निश्चयेंसी। अकंटक संतोषी । राज्य करी तुझा सुत ।।८१।। बोलवावें शत विप्रांसी। जे कां विद्वञ्जन परियेसीं। लावावे ज्ञानी अनुष्ठानासी । तात्काळ तुवां रुद्राच्या ।।८२।। ऐशा विप्रांकरवी देखा। शिवासी करी अभिषेका। आयुष्य वर्धेल कुमारका । सद्यःश्रेय होईल ।।८३।। येणेंपरी रायासी। सांगे पराशर ऋषि। रायें महा आनंदेसी। आयुष्यवर्धना आरंभ केला ।।८४।। ऐसा ऋषि पराशर। उपदेशितांचि द्विजवर । बोलावोनिया सर्व संभार। पुरवीतसे ब्राह्मणांसी ।।८५।। शतसंख्याक कलशांसी । विधिपूर्वक शिवासी। पुण्यवृक्षतळेसी। अभिषेक करवितसे ।।८६।। त्याचिया जळे पुत्रासी । स्नान करवी प्रतिदिवसीं । सप्त दिन येणें विधींसी। आराधिला ईश्वर ।।८७।। अवधि जहाली दिवस सात । बाळ पहिला निवेष्टित। पराशरें येवोनि त्वरित। उदकेंसीं सिंचिलें ।।८८।। तये वेळीं अवचित । वाक्य जहालें अदृश्यत । सर्वेचि दिसे अद्भुत । दंडहस्त महापुरुष ।।८९।। महादंष्ट्र भयचकित। आले होते यमदूत । समस्त द्विजवर रुद्र पदत। मंत्राक्षता देताती ।।१०।। मंत्राक्षता ते अवसरों। घातलिया कुमाराबरी। दूत पाहती राहूनि दुरी। जवळ येऊ न शक्ती ।।११।। होते महापाश हातीं। कुमाराकरी टाकू येती। शिवदूत दंडहस्ती। मारूं आले यमदूता ।।९२।। भयें चकित यमदूत । पळोनि गेले घावत । पाठीं लागले शिवदूत । वेदपुरुषरूप देखा ।।९३।। येणेंपरी द्विजवर। तेणें रक्षिला राजकुमार। आशीर्वाद देती थोर। वेदश्रुति करूनिया ।।९४।। इतुकियावरी राजकुमार । सावध झाला मन स्थिर। राजयासी आनंद थोर। समारंभ करीतसे ।।९५।। पूजा करोनि द्विजांसी । देता झाला भोजनासी। तांबूलादि दक्षिणेसी । संतोषविले द्विजवर ।।९६।। संतोषोनि महाराजा। सभा रचित महावोजा' । बैसवोनि समस्तां द्विजां। महाऋषीतें सिंहासनीं ।।९७।। राजा आपुले खियेसहित। घालिता झाला दंडवत । येवोनिया बैसला सर्भेत । आनंदित मानसीं ।।९८।। त्या समयीं ब्रह्मसुत। नारद आला अकस्मात। राजा घावोनि चरण घरीत। सिंहासनीं बैसवी ।।९९।। पूजा करोनि उपचारों। राजयातें नमस्कारी। म्हणे स्वामी या अवसरी। कोठोनि येणें झालें पें ।॥१००।। राजा म्हणे देवऋषी। हिंडतां तुम्ही त्रिभुवनासी। काय वर्तलें विशेषीं। आम्हांलागी निरोपिजे' ।।१।। नारद म्हणे रायासी। गेलों होतों कैलासासी। येतां देखिले मार्गासी । अपूर्व झालें परियेसा ।।२।। महामृत्यु दूतांसहित। न्यावया आला तुझे सुत। सर्वेचि येऊनि शिवदूत । तयालागी पराभविलें ।।३।। यमदूत पळोनि जाती। यमापुढे सर्व सांगती। आम्हां मारिलें शिवदूतीं। कैसे करावें क्षितींत ।।४।। यम कोपोनि निघाला। वीरभद्रापासीं गेला। म्हणे दूतां कां मार दिला। निरपराधे स्वामिया ।।५।। निजकर्मानुबंधेंसी। राजपुत्र गतायुषी । त्यातें आणितां दूतांसी। कासया शिवदूर्ती मारिलें ।।६।। वीरभद्र अतिक्रोधी । म्हणे झाला रुद्रविधि। दहा सहस्र वर्षे अवधि। आयुष्य असे राजपुत्रा ।।७।। न विचारितां चित्रगुप्ता। आयुष्य विचारीन त्वरिता। म्हणोनि पाठवी दूतां। चित्रगुप्त पाचारिला ।।९।। पुसताति चित्रगुप्मासी । काढोनि पाहे पुत्रासी । बारा वर्षे आयुष्य परियेसीं। राजकुमारा लिहिले असे ।।११०।। तेथेचि लिहिले होते आणिक। द्वादश सहस्र वर्षे लेख । पाहोनि यम साशंकित। म्हणे अपराध आमुचा ।।११।। वीरभद्रातें बंदून। यमधर्म गेला परतोन । आम्ही आलों तेथोन। म्हणोनि सांगे नारद ।।१२।। रुद्रजपें पुण्य करितां। आयुष्य वर्धलें तुझे सुता । मृत्यु जिंकिला तत्त्वतां । पराशरगुरुकृपें ।।१३।। ऐसें नारद सांगोनि। निघोन गेला तेथोनि। पराशर महामुनि । निरोप घेतला रायाचा ।।१४।। समस्त गेले द्विजवर। राजा हर्षे निर्भर। राज्य भोगिलें धुरंधर। पुत्रपौत्री महीवरी ।।१५।। ऐसा स्ट्राध्यायमहिमा । पूजा करावी गुरुब्रह्या। भिणें नलगे काळमहिमा। श्रीगुरु म्हणती दंपतीसी ।।१६।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी । ऐसी कथा विस्तारेंसी। श्रीगुरु सांगे दंपतीसी। प्रेमभावेंकरोनिया ।।१७।। या कारणें श्रीगुरुसी । प्रीति थोर रुद्राध्यायासी। पूजा करावी भक्तींसी। रुद्राध्यायें करोनिया ।।१८।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर। सांगे गुरुचरित्रविस्तार। ऐकतां तरे भवसागर । लाघे चारी पुरुषार्थ ।।१९।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत। रुद्राभिषेकमाहात्म्य तेथ। वर्णिलें असे अद्भुत । म्हणे सरस्वतीगंगाधर ।।१२०।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३४॥
ओवीसंख्या १२०
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक सिद्धासी। विनवीतसे परियेसीं। रुद्राध्याय विस्तारेंसी। दंपतीसीं सांगितला ।।१।। पुढे काय वर्तलें । विस्तारोनि सांगा वहिलें। मन माझे वेधलें । गुरुचरित्र ऐकावया ।।२।। सिद्ध म्हणे ऐक ताता। अपूर्व असे पुढे कथा । तेचि जाण पतिव्रता। श्रीगुरूतें विनवीत ।।३।। कर जोडोनि गुरूसी। विनवीतसे भक्तींसी। आम्हां गति पुढे कैसी । कवणेंपरी असावे ।।४।। या कारणें आपणासी। एखादा मंत्र उपदेशी। जेणें होय स्थिर जीवासी। चरणस्मरण सनातन ।।५।। श्रीगुरु म्हणती तियेसी । खियांसी मंत्र उपदेशीं। पतिभक्तीविणें त्यांसी। उपदेशासी देऊं नये ।।६।। देतां उपदेश स्रियांसी। विघ्न असे मंत्रासी। पूर्वी शुक्राचार्यासी। झाले असे परियेसा ।।७।। ऐसें ऐकतां गुरुवचन । विनवीतसे कर जोडून । खिया केवी मंत्रहीन। शुक्राचार्या कैसें झालें ।।८।। विस्तारोनि आम्हांसी । सांगा स्वामी कृपेंसी। म्हणोनि लागली चरणासी। करुणावचनेंकरोनिया ।।९।। श्रीगुरु सांगती तियेसी । पूर्वकथा आहे ऐसी। युद्ध देवदैत्यांसी। सदैव होय अवधारा ।।१०।। दैत्यसैन्य पड़े रणीं। शुक्र जपे संजीवनी' । सकळ सैन्य उठवूनि । पुनरपि युद्धा पाठवीत ।।११।। इंद्र बजे असुर मारी। शुक्र अमृत जप करी। सर्वेचि येती निशाचरी। देवसैन्य माराक्या ।।१२।। ऐसें होतां एके दिवसीं। इंद्र केला कैलासासी। सांगे स्थिति शिवासी । शुक्राचार्याची मंत्रकरणी ।।१३।। कोपोनिया ईश्वर। नंदीस सांगे उत्तर। तुवां जाबोनि वेगवक्त्र । शुक्राचार्या धरोनि आणीं ।।१४।। स्वामीचें वचन ऐकोनि। नंदी गेला ठाकोनि। होता शुक्र तपध्यानीं । मुखीं धरिला नंदीनें ।।१५।। नंदी नेत शिवापासीं। आकांत वर्तला दैत्यांसी। ईश्वरें प्राशिले शुक्रासी। अगस्ती सिंधूचियापरी ।।१६।। ऐसा कित्येक दिवसांपरी। होता शुक्र शिवाचे उदरीं। निघूनि गेला मूत्रद्वारी। विसर पडला शिवासी ।।१७।। पूर्वी होते शुक्र नांव। ईश्वर-उदरी झाला उद्भव। नांव पावला भार्गव। पुनः संजीवनी जपे तो ।।१८।। इंद्र मनीं विचारी। पुरोहितासी पाचारी। कैसा शुक्र जिवंत करी। पुनः दैत्यजनांसी ।।१९।। त्यासी विघ्न करावें एक । तू पुरोहित विवेकयुक्त। बुद्धि विचारी अनेक । बृहस्पति गुरुराया ।।२०।। पाहें पां दैत्यांचे देव कैसें । शुक्रासारिखा गुरु विशेषे । देतो जिवासी भरंवसे। दैत्य येती युद्धासी ।।२१।। तैसा तू नव्हेस आम्हांसी। आम्हांतें कां उपेक्षिसी । देवगुरु तूं म्हणविसी। बुद्धि करी शीघ्र आतां ।।२२।। तूं पूज्य सकळ देवांसी। जरी आम्हां कृपा करिसी। शुक्राचार्य काय विशेषीं । तुजसमान नव्हे जाणा ।।२३।। ऐसे नानापरी देख। इंद्र अमरनायक। पूजा करी उपचारिक। बृहस्पति संतोषला ।।२४।। गुरु म्हणे इंद्रासी। यासी ऐक तूं उपायासी । षट्कर्णी करावें मंत्रासी । सामर्थ्य राहील शुक्राचे ।।२५।। एखादा पाठवावा शुक्रापासीं । विद्यार्थी करून त्वरेंसी। मंत्र शिकेल भरंवसीं । विद्यार्थिरूपें करूनिया ।।२६।। आपुला पुत्र कब असे। त्यातें पाठवू विद्याभ्यासें। मंत्र शिकेल आहे कैसी । संजीवनी अवधारा ।।२७।। कचातें आमूनि बुद्धियुक्ति । सांगतसे बृहस्पति। तुवां जावें शुक्राप्रती । विद्यार्थिरूप घरोनि ।।२८।। आमुची निंदा तेथे करी। मनोभावें सेवा करी। संजीवनी कवणेंपरी। मंत्र शिर्के पुत्रराया ।।२९।। इंद्रादिक देवतांचा । निरोप घेऊनि पितयाचा। शुक्राप्रती गेला कचा। विद्यार्थिरूप धरोनि ।।३०।। नमन केलें साष्टांगी। उभा राहिला करुणांगी। शुक्र पुसतसे वेगीं। कवण कोठूनि आलासी ।।३१।। बोले आपण द्विजकुमार। तुझी कीर्ति ऐकिली घोर। विद्याभ्यासीन मनोहर। म्हणोन आलों सेवेसी ।।३२।। सेवक होईन तुमचे चरणीं । आलों इच्छेसी धरूनि । तूं भक्तवत्सलशिरोमणि। अनाथांचा प्रतिपालक ।।३३।। बोलोनि ऐसें कचवचन । विनवीतसे कर जोडून । शुक्रकन्या जवळी येऊन। पितयालागीं विनवित ।।३४।। पित्यासी म्हणे देवयानी । विप्र भला दिसे नयनीं। बातें तुम्हीं शिष्य करूनि । विद्याभ्यास सांगावा ।। ३५।। कब सुंदर सुलक्षण। जैसा दिसें कीं मदन । देवयानी करी चिंतन । ऐसा पति व्हावा म्हणे ।।३६।। ऐसी वासना' धरुनी। पितयातें बिनवुनी। शिष्य केला कच सगुणी। शुक्राचार्य विद्या सांगे ।। ३७।। ऐसा विद्याभ्यास करीत । दैत्यकुळी म्हणती निश्चित । देवगणी आले सत्य । कपटवेष करूनि ।।३८।। शिकूनिया विद्येसी । जाऊनि शिकवील देवांसी। कडे' होईल आम्हांसी। तेणें मनीं चिंतावले ।।३९।। काळ क्रमितर्ता एके दिवसीं। कच पाठविला समिधांसी। दैत्य जाती साोसी। तया कचाचे अवधारा ।।४०।। रानीं जाउनी समागमेसी। दैत्यें मारिलें कचासी। समिधा घेवोनि घरासी। दैत्य आपण येते झाले ।।४१।। शुक्राचार्याची कन्या। पितवासी परम मान्या। पितयासी विनवी धन्या। कच कैसा नाहीं आला ।।४२।। कच आलियावांचूनी। भोजन न करी देवयानी। ऐसें ऐकतां निर्वाणी। शुक्राचार्य चिंतावला ॥४३।। ज्ञानी पाहें मानसीं। मृत्यु झाला असे तयासी। मंत्र जपूनि संजीवनीसी। त्वरित घरी आणिला ॥४४॥ आणिक होतां बहुत दिक्स । दैत्य करिती अतिद्वेष । गेला होता बनास। पुनरपि तयासी बधियेलें ।।४५।। मागुती वांचेल म्हणोनि । चूर्ण करिती छेदोनि। दाही दिशा टाकुनी। आले घरा पुनरपि ।।४६।। दिवस गेला अस्तमानीं । पुसतसे देवयानी। कच न दिसे म्हणोनि। पितयाते विनवीत ।।४७।। कच माझा प्राणसखा। न आणिशी जरी खाईन विखा । दावीं मज तयाचे मुखा। म्हणोनि प्रलाप करीतसे ।।४८।। कन्येवरी ममत्व बहुत। तेणें शुक्र ज्ञानें पहात। छिन्नभिन्न केलें म्हणत । मंत्र जपला संजीवनी ।।४९।। धन्य मंत्रायें सामर्थ्य। कच आला घरा त्वरित । देवयानी संतोषत । पितयानें आलिंगिली ।।५०।। दैत्य मनीं विचार करिती। काय केल्या न मरे म्हणती। गुरुकन्येसी याची प्रीति । म्हणूनि गुरु वांचवितो ।।५१।। आतां उपाय करूं यासी। उदईक येईल एकादशी। मारूनि मिळवू पार्नेसी। गुरुमुखीं पाजावें ।।५२।। ऐशी निगुती करोनि। आली एकादशी दिनीं। कचातें बाहेर नेवोनि । मारते जहाले दैत्यशिष्य ।।५३।। प्राशन करविती गुरूसी। मिळवूनिया मद्यरसीं। स्निग्ध मिळवूनिया बहुवसी ।। शुक्रगुरूसी देते झाले ।।५४।। मागुती पुसे देवयानी। पितयातें विनवुनी। कचासी आणीं म्हणोनि रुदन करी आक्रोशें ।।५५।। शुक्र पहातसे ज्ञानी। न दिसे कच त्रिभुवनीं। खेद करीतसे मनीं। कन्यालोमें करोनिया ।।५६।। विचार करितां सर्व ठायीं। दिसूं लागला आपुले देहीं। संदेह पडला शुक्रासी पाहीं। कैसे करावें म्हणोनि ।।५७।। कन्येसी म्हणे शुक्र देखा। कच न ये आतां ऐका। माझे उदरी असे निका। कैसा काढू तयासी ।।५८।। यासी काडिता आपणासी । मृत्यु होईल परियेसीं। काय अभिलाष असे त्यासी। म्हणोनि कन्येसी पुसतसे ।।५९।। पितया विनवी देवयानी। अभिलाष होता माझे मनीं। भार्या त्याची होउनी। दोघे राहू तुजपासीं ।। ६०।। हाचि व्हावा माझा पति । ऐसे संकल्पिलें चित्तीं। न उठे जरी पुढती। तरी प्राण त्यागीन ।।६१।। संदेह पडला शुक्रासी। बोधिता' झाला कन्येसी । त्यास उठवितां आपणासी। मृत्यु होईल अवधारी ।। ६२।। कन्या म्हणे पितयासी । सकळां तूं बांचविसी । आपुला प्राण जाईल म्हणसी। हें आश्चर्य वाटतसे ।।६३।। शुक्र म्हणे देवयानी। मंत्र असे संजीवनी । मजवांचोनि नेणे कोणी। मातें कोण उठवील ।।६४।। मंत्र सांगों नये कवणा। षट्कर्णी होता जाईल गुणा। कचाकरितां माझा प्राण। जाईल देखा अवधारी ।। ६५।। न ऐके कन्या देवयानी। पित्याचे चरण धरोनि। विनवीतसे कर जोडोनि । मंत्र आपणातें शिकवावा ।।६६।। कचासी तूं सजीव करी। तुज येईल मृत्यु जरी। मी मंत्र जपोनि निर्धारी। सजीव करीन तुजलागीं ।। ६७।। शुक्र म्हणे कन्येसी । मंत्र सांगू नये स्त्रियांसी। दोष असता परियेसीं। बेदशाखसंमत असे ।।६८।। स्त्रियांसी मंत्र पतिभक्ति। जपू नये मंत्रयुक्ति। सांगतां दोष आम्हां पडती। मंत्रसामर्थ्य जाईल ।।६९।। पितवासी म्हणे देवयानी। सुखे असा मंत्र जपोनि। प्राण जातो म्हणोनि । मूच्र्छागत पडली ते ।।७०।। शुक्राची कन्वेवरी प्रीति। उठवूनि तिसी आलिंगित्ती। मंत्र तिसी सांगती। संजीवनी अवधारा ।।७१।। आपुल्या पोर्टी कच होता। तोही होय ऐकता। मंत्र जहाला षट्कर्णता। मग जपला कचानिमित्त ।।७२।। शुक्राचे पोटांतुनी। कच निघाला फोडूनी। मंत्र जपे ती देवयानी। पितयातें उठविलें ।।७३।। तीन वेळां मंत्र जपतां। कचें पाठ केला तत्त्वतां । संतोष करी मनीं बहुता। कार्य साधलें म्हणोनि ।।७४।। शुक्राचार्यात नमुनी। कच विनवी कर जोडुनी। मातें दैत्य मारिती म्हणोनि । निरोप द्यावा मजलागीं ॥७५।। स्वामीचेनि विद्या शिकलों। तुझे कृपेने पूर्ण जहालों। देवकार्यार्थ संतोषलों। म्हणूनि चरणी लागला ।।७६।। शुक्राचार्य होंनि। निरोप दिधला त्यालागोनी। पद घरी देवयानी। पत्ति व्हावें म्हणोनिया ।। ७७।। तूंतें मारिलें तीन वेलीं। मी वांचविलें त्या काळीं। विद्या शिकलासी पित्याजवळी। अवश्य करावें मजलागीं ।॥७८।। कच म्हणे ऐक बाळे' । गुरुकन्या भगिनी बोले। तुवां आमुतें बांचविलें। माता होसी निर्धारी' ।।७९।। वरिता दोष आपणासी । दूषण ठेवितील सर्व ऋषि। भगिनी तू आमुची होसी। कैसी वरूं म्हणे तो ।।८०।। देवयानी कोपोनि। शाप दिधला ते क्षणीं । वृथा विद्या होईल मानीं। समस्त विसरे तात्काळीं ।।८१।। माझे अंतःकरणीची आशा । वृथा केली निराशा। विद्या न ये तुज लवलेशा। म्हणूनि शाप दिधला ।।८२।। कच म्हणे तियेसी । वाया शापिलें आम्हांसी । पुरुष वरील तुजसी। ब्रह्मकुळाव्यतिरिक्त' ।।८३।। तुझा पिता ब्रह्मज्ञानी। जाणे अमृतसंजीवनी । तुज शिकविलें म्हणोनि । पुढें मंत्र न चाले ।।८४।। ऐसा शाप देउनी। कच गेला निघुनी। संतोष झाला इंद्रभुवनीं । दैत्यजीवन नव्हेची ।।८५।। शुक्राचा संजीवनी मंत्र। कामा न ये झाला अपात्र। स्त्रियांसी न सांगावा मंत्र । म्हणोनि श्रीगुरु निरूपिती ।।८६।। स्त्रियांलागीं पतिसेवा। याची कारणें मंत्र न द्यावा । व्रतोपवास करावा। गुरु-पुरुष-निरोपार्ने ।।८७।। सावित्री विनवी श्रीगुरुसी। व्रत आचरले बहुवसीं । तुझे वाक्य आम्हांसी। व्रत एखादें निरोपावें ।।८८।। तुजवरी माझा विश्वास। तुजवांचोनि नेणू आणिकास। व्रत तूंचि आम्हांस । व्रत तुझी चरणसेवा ।।८९।। भक्ति राहे तुझे चरणीं। ऐसा निरोप द्यावा मुनि। म्हणूनी लागली चरणीं । कृपा करी म्हणोनिया ।।१०।। श्रीगुरु म्हणती तिवेसी । सांगेन तुज व्रत ऐसी । स्थिर होय अहेवपणासी। राज्य पावे तुझा पति ।।११।। दंपत्य विनवी श्रीगुरुसी। तुझे वाक्य कारण आम्हांसी। जैसा तू निरोप देसी। तेणें रीतीं रहाटू ॥९२।। जो गुरुवाक्य न करी। तो पडे रौरवधोरीं। तुझे वाक्य आम्हां शिरीं। म्हणूनि चरणीं लागलीं ।।९३।। भक्तवत्सल श्रीगुरुनाथ । सांगतां जहाला अतिप्रीत। विस्तारोनि समर्थ। व्रत तिसीं सांगतसे ।।९४।। सिद्ध म्हणे नामधारका। श्रीगुरु म्हणती कौतुका । ऐकताती दंपती निका। अतिप्रीति करोनिया ।।९५।। श्रीगुरु म्हणती तयांसी। सांगेन व्रत इतिहासी। ऋषि पुसती सूतासी । व्रत बरवें निरोपावें ।।९६।। सूत म्हणे ऋषीश्वरां। व्रत सांगेन मनोहरा। खिया अथवा पुरुषां बरा। व्रत असे अवधारा ।।९७।। नित्यानंद असे शांत। निर्विकल्प विख्यात। ऐसा ईश्वर अर्चितां त्वरित । सकळाभीटें पाविजे ।।९८।। संसारसागरांत। विषयातुर आचरत। तेही पूजितां पूर्ण भक्त। त्यांसी ईश्वर प्रसन्न होय ।।९९।। विरक्त अथवा संसाररत । विषयातुर आसक्त। जे पूजिती पूर्ण भक्त। त्यांसी ईश्वर प्रसन्न होय ।।१००।। तेणें पाविजे पैलतीर'। ऐसें बोलती वेदशाख । स्वर्गापवर्गा अधिकार। त्यासी होय परियेसा ।।१।। विशेष व्रत असे ऐक। सोमवार व्रतनायक। ईश्वरार्चन करा विवेक । सकळाभीष्ट पाविजे ।।२।। नक्तभोजन उपवासी। जितेंद्रिय करा विशेषों। वैदिक तांत्रिक पूजेसी । विधिपूर्वक सकळिक ।।३।। गृहस्थ अथवा ब्रह्मचारी। सुवासिनीं कन्याकुमारी। भर्तृविण विधवा नारी। व्रत करावें अवधारा ।।४।। याचे पूर्वील आख्यान। सांगेन ऐका अतिगहन । ऐकतां करी पावन। सकळांसही परिवेसा ॥५।। स्कंदपुराणींची कथा। सर्व साधंत ऐका। पूर्वयुगीं आर्यावर्तका। राजा एक अवधारा ।।६।। चित्रवर्मा नाम त्यासी। धर्मात्मा राजा परियेसीं। धर्ममार्ग आचरे हीं। अधर्मातें शिक्षा करी ।।७।। अखिल पुण्यें त्याणें केलीं । सकल संपत्ति वाढविली। समस्त पृथ्वी जिंकिली। पराक्रमें करूनिया ।।८।। सहपत्नी धर्म करिती । पुत्रकाम्यें शिवाप्रती। ऐसा किती काळ क्रमिती। कन्या झाली तयांतें ।।९।। अतिसुंदर सुलक्षण। पार्वतीरूपासमान । तेज फांके सूर्यकिरण । अतिलावण्य न वर्णवे ।।११०।। वर्तावया जातकासी । बोलाविले ज्योतिषी। द्विज मिळाले अपारेसी । वर्तविती जातक ।।११।। म्हणती कन्या सुलक्षण। नामें सीमंतिनी जाण । उमेसारखें मांगल्यपण । किया दमयंतीस्वरूप होय ।।१२।। भागीरथीऐसी रूपासी। लक्ष्मीसारखी गुणराशी। ज्ञानें देवमतासरसी। जानकीसमान पतिव्रता ।।१३।। सूर्यासारिखी होईल कांति। चंद्रासमान मनशांति। दहा सहस्र वरुर्षे ख्याति । पतीसह राज्य करील ।।१४।। जातक वर्तवलें तिसी। राव पावला अतिहर्षी। अखिल दानें विप्रांसी। देता जाहला अवधारा ।।१५।। असतां यब सभेसी। द्विज एक परियेसीं। भय न धरितां वाक्यासी। बोलतसे अवधारा ।।१६।। ऐक राया माझे वचन । कन्यालक्षण मी सांगेन। चवदावे वर्षों विधवापण होईल इयेसी जाण पां ।।१७।। ऐसें वाक्य परिसोनि। राव पडिला मूर्च्छा येवोनि। चिंता वर्तली बहु मनीं। विप्रवाक्य परिसतां ।।१८।। ऐसें सांगोनि ब्राह्मण। गेला निधोनि तत्क्षण । सर्व दुःखातें पावून। तळमळीता तेधवां ।।१९।। ऐसें बालपण क्रमितां। सप्त वर्षे जातीं तत्त्वतां । चिंतीत होतीं मातापिता। वन्हाड' केवीं करावें ।। १२०।। चवदावे वर्षी विधवापण। म्हणोनि बोलिला ब्राह्मण । तेणें व्याकुळ अंतःकरण। राजा-राजपत्नीचे ।।२१।। कन्या खेले राजांगणीं। सर्वे सखयांतें घेवोनि । बोलतां ऐकिलें विप्रवचनीं। चौदावे वर्षी विधवत्व ।।२२।। ऐसें ऐकोनि वचन। कन्या करीतसे चिंतन । चर्ततां आली एक दिन । तया घरीं ब्रह्मस्त्री देखा ।।२३।। याज्ञवल्क्याचिया पत्नी। मैत्रेयी म्हणोनि । घरी आली देखोनि। चरण धरीत तेधवां ।। २४।। भावे साष्टांगें नमूनि। करसंपुट जोडोनि। विनवी करुणावचनों। मातें प्रतिपाळीं म्हणतसे ।।२५।। सौभाग्य स्थिर होय जेणें। उपाय सांगें मजकारणें। चंचळ असे अंतःकरणें। म्हणूनि चरणों लागली ।।२६।। कन्या विनवी तियेसी। ऐसे व्रत सांग आम्हांसी। आम्हां जननी तूंचि होसी। व्रत सांग म्हणतसे ।। २७।। ऐकोनि कन्येच्या वचना। बोले मैत्रेयी जाणा। शरण रिधावें उमारमणा। अहेवपण स्थिर होय ।।२८।। सोमबार परियेसीं । व्रत आचरी नेर्मेसी। पूजा करावी शिवासी। उपवास करूनी अवधारा ।।२९।। बरवें सुस्नात होवोनि । पीतांबर नेसोनि। मन स्थिर करोनि। पूजा करायी गौरीहरा' ।।१३०।। अभिषेके पापक्षय। पीठ पूजितां साम्राज्य । गंधाक्षता पुष्पमाल्य । सौभाग्यसौख्य पाविजे ।।३१।। सौगंध होय धूपाने। कांति पाविजे दीपदानें । भोग नैवेद्यार्पणें । तांबूलदाने लक्ष्मी स्थिर ।।३२।। चतुर्विध पुरुषार्थ। नमस्कारितां त्वरित । अष्टैश्वर्ये नांदत । ईश्वरजप केलिया ।।३३।। होमें सर्व कोश' पूर्ण। समृद्धि होतसे जाण। करितां ब्राह्मणभोजन। सर्व देवता तृप्त होती ।।३४।। ऐसें सोमवार व्रत। कन्ये करी वो निश्चित। भय आलिया दुरित। परिहरती महाक्लेश ।।३५।। गौरीहरपूजा करितां । समस्त दुरित जाती तत्त्वतां। ऐकोनि सीमंतिनी तत्त्वतां । अंगिकारिलें व्रत देखा ॥३६।। सोमवाराचें व्रत । आचरे सीमंतिनी त्वरित। पिता देखोनि निश्चित। विवाहायोग्य म्हणोनि ।।३७।। राजा विचारी मानसीं। वन्हाड करावें कन्येसी। जैसें प्राक्तन' असेल तिसी। तैसें घडो म्हणतसे ।। ३८ ।। विचारोनि मंत्रियांसी। पाठविता झाला राष्ट्रांसी। दमयंतीनळवंशी। इंद्रसेनाचा कुमारक ।।३९।। चंद्रांगद वर बरवा। जैसा तेज चंद्रप्रभा। बोलाविले विवाहशोभा। कन्या दिधली संतोषे ॥१४०।। राजे भूमांडलिक देखा। समस्त आले वन्हाडिकां । वन्हाड आले अतिकौतुका । महोत्साह नानापरी ।।४१।। नाना द्रव्यालंकार। वन्हाडिकां देई नृपवर। अखिल दानें देकार। विप्रालागीं देता झाला ।।४२।। पाठवणी केली सकळिकां । जामात ठेविला कौतुका। कन्यास्नेह अनेका। म्हणोनि राहविले राजपुत्रा ।।४३।। राजपुत्र अशुरगृहीं। स्त्रिया प्रीति अतिस्नेहीं। काळ क्रमितां एके समयीं। जलक्रीडेसी निघाला ॥४४।। कालिंदी म्हणिजे नदीसी। राजपुत्र परियेसीं। सर्व दळ समागमेसी। गेला नदीसी विनोदें ।।४५।। राजपुत्र निघे नदीत । सर्वे निघाले लोक बहुत । विनोदें असे पोहत। अतिहर्षे जलक्रीडा ।।४६।। पोहतां राजकुमार देखा । बुडाला मध्यें गंगोदकां। आकांत झाला सकळिकां। काढ़ा काढा म्हणताती ।।४७।। सर्वे सैन्य लोक सकळ । होते नावेकरी प्रबळ । उदकीं पाहताती तये वेळ। न दिसे कोठे बुडाला ।।४८।। उभय तटीं सैन्यांतून । धावत गेले राजसदना। व्यवस्था सांगती संपूर्णा। जामात तुमचा बुडाला ।।४९।। कालिंदी नदीच्या डोहात । संगतीनें होते पोहत । अदृश्य झाला त्वरित। न दिसे कुमार बुडाला ।।१५०।। ऐकोनि राजा पडे धरणीं । मूर्च्छना येऊनि तत्क्षणीं। कन्या ऐकतांच श्रवणीं। त्यजू पाहे प्राणातें ।।५१।। राजा कन्येसी संबोखितः । आपण गेला धावत । राजश्रिया शोक करीत । कन्यादुःखें अतिबहु ।।५२।। सीमंतनी करी शोका। म्हणे देवा त्रिपुरांतका । शरण रिघालिया देखा। मरण कैसें न आलें मज ।।५३।। मृत्यु चवदा वर्षी जाण। म्हणोनि धरिलें तुमचें चरण । वृथा गेलें व्रताचरण । सोमवार शिवाचे ।।५४।। तव देणें अढळ सकळां। मज उपेक्षिले जाश्चनीळा' । अपकीर्ति तुज केवळा । शरणागतां रक्षिसी ॥५५।। स्मरण करी श्रीगुरुसी। याज्ञवल्क्यपत्नीसी। सांगितलें व्रत आम्हांसी । सौभाग्य स्थिर म्हणोनिया ।।५६।। तिचिया वाक्ये करूनि । पूजिली शिवभवानी। वृधा झाली माझे मनीं। शीघ्र विनवी शिवासी ॥५७॥ ऐसें दुःखें प्रलापत। सीमंतिनी जाय रडत। गंगाप्रवेश करीन म्हणत। निघाली बेगें गंगेसी ।।५८।। पिता देखोनि नयनीं। धराव्या गेला धावोनी। कन्येतें आलिंगोनी। दुःख करी अत्यंत ।।५९।। सकळ मंत्री पुरोहित । सर्व सैन्य दुःख करीत। बोलाविले नावेकरी त्वरित। पहा म्हणती गंगेत ।।१६०।। गंगा सकळ शोधिती। न दिसे कुमार कवणे गती। शोक करीतसे सीमंती। राजा संबोखी तियेसी ।।६१।। ऐकोनिया इंद्रसेन। दुःख करी अतिगहन । भार्येसहित धावून आला तया मृत्युस्थळा ।।६३।। दोघे राव मिळोन। शोक करिती दारुण । हा हा कुमार म्हणोन। कर शिर पिटताती ।। ६४।। हा हा पुत्रा ताता म्हणत। राजा गडबडां असे लोळत । मंत्री राजकुळ समस्त । नगरलोक दुःख करिती ।।६५।। कोठे गेला राजसुत। म्हणोनि सीमंतिनी रडत । खिन्न झाले समस्त । मातापितर अशुरादि ।। ६६।। कोणे स्थानीं पति गेले। म्हणोनि सीमंतिनी लोळे। ललाट हस्ते पिटिलें । पार नाहीं शोकासी ।।६७।। सीमंतिनी म्हणे पितयासी। प्राण त्यजीन पतिसरसी। बांबूनिया संसारासी । वैधव्य कोण भोगील ।। ६८।। पुसे सकळ द्विजासी। करावें कीं सहगमनासी। विप्र सांगती रायासी। प्रेतावेगळे करूं नये ।।६९।। प्रेत शोधावें नदींत। दहन करावें कन्येसहित। न दिसे बुडाला गंर्गत। केवी सहगमन होईल ।।१७०।। आतां इसी ऐसे करणें । प्रेत सांपडे तंववरी राखणें। ऐकोनिया द्विजवचनें। राजा कन्ये विनवीतसे ॥७१।। ऐसे व्याकुळ दुःखें करिती । मंत्री पुरोहित म्हणती । जें असेल होणार गती। ब्रह्मादिकां चुकेना ॥७२।। होणार जहाली देवकरणी। काय कराल दुःख करोनी। ऐसें मंत्री संबोखुनी। रायातें चला म्हणती ।।॥७३।। निघाले राजे उभयतां। मंदिरा पावले दुःख करितां । इंद्रसेन अति दुःखिता । न विसरे कधीं पुत्रशोक ।।७४।। राज्य-व्यापार सोडूनि । दुःख करी पुत्रचिंतनी। गोत्रजर्जी' राज्य हिरुनी । कपटें घेतले तयाचेंच ।।७५।। सहभार्या रायासीं । ठेविते झाले कारागृहासी। पुत्रशोके बहु त्यासी। राज्य भोग चाड' नाहीं ।।७६।। चित्रवर्मा राव देखा। कन्या ठेविली ममत्विका' । प्राण त्यजूं पाहे निका। लोक निंदितील म्हणोनि ॥७७॥ राव म्हणे कन्येसी । पुत्र नाहीं आमुचे वंशीं। कन्या एक तू आम्हांसी। पुत्रापरी रहाटावें ।॥७८॥ लोक निंदितील आम्हांसी । वैधव्य आलें परियेसीं । वर्ष एक क्रमिलियासी। पुढे आचार करों वो बाळे ।।७९।। पित्याचे वचन ऐकोनि। करीतसे बहु चिंतनीं । म्हणे देवा शूळपाणि। केवी मातें गांजिलें ।।१८०।। ऐसे विचारुनी मानसीं। व्रत आचरे तत्परेंसी। सोमवार उपवासासी । ईश्वरपूजा करीतसे ।।८१।। इकडे तो राजकुमार। बुडाला होता गंगापूर। गेला जेथे पाताळनगर। बासुकी जेथे राज्य करी ।।८२।। नागलोकीचिया नारी। आल्या होत्या नदीतीरीं। राजकुमार आला पुरीं। नदीतटाकीं वहातसे ।।८३।। देखोनिया नागकन्या । काढिती संतोष करूनिया। अमृता शिंपिती आणूनिया। सावध केला तयातें ।।८४।। कन्या मिळून त्यासी। घेवोनि जाती तक्षकापासीं । विचित्र नगर परियेसीं। राजपुत्र पहात असे ।।८५।। पाहे पाताळनगर-रचना । जैसी शोभा इंद्रभुवना। गोपुरें दिसती महारत्ना। विद्युल्लतेचिये परी ।।८६।। इंद्रनील वैडूर्वेसी । माणिके मुक्ताफळांसी । महारम्य पुरी जैसी। सूर्यकांति मिरवत ।।८७।। चंद्रकांतिसरसी भूमि। महाद्वारें कपाट हेमी'। अनेक रत्नें नाहीं उपमी। ऐशा मंदिरा प्रवेशला ।।८८।। पुढें देखिली सभा थोर। समस्त बैसले सर्पाकार। आश्चर्य करी राजकुमार । असंख्य सर्प दिसताती ।।८९।। सभेमध्यें अतिशोभित । मध्यें बैसला पन्नगनाथ। जैशी सूर्यकांति फांकत। अति उन्नत बैसला ।।१९०।। अनेक शत फणा दिसती। जैशी वीज लखलखती। पीतांबरें सज्योती। रत्नकुंडलमंडित ।।९१।। अनेकरत्नखचित देखा। मुकुट मिरवती सहस्र एका। सहस्रफणी मिरवे तक्षका। ऐसा सभे बैसला असे ।।९२।। रूपयौवन नागकन्या । नानाभरणे' लेवोनिया'। अनेक सहस्र येवोनिया। सेवा करिती तक्षकाची ।।१३।। ऐशा सभास्थानी देख । राब बैसला तक्षक। देखोनिया राजकुमारक। नमन करी साष्टांगों ।।९४।। तक्षक पुसे नागकन्यांसी । कैचा कुमार आणिलासी। सुलक्षण दिसतो कैसी। कोठें होता म्हणे तयां ।।९५।। नागकन्या म्हणती त्यासी । नेणों नाम वाचे वंशीं। वहात आला यमुनेसी। घेऊन आलों तुम्हांजवळी ।।९६।। तक्षक पुसे राजकुमारासी। नाम कवण कवणे वंशीं। काय कारणे आलासी। कवण देशी वास तुझा ।।९७।। सांगे राजकुमार देखा। आम्ही भूमंडळनायका। नैषध राजपित ऐका । नळनामें पुण्यश्लोक ।।९८।। त्याचा पुत्र इंद्रसेन । जन्म आमुचा त्यापासून । चंद्रांगद नामें आपण। गेलो होतों वशुरगृहा ।।९९।। जलक्रीडा करावयासी। गेलों होतों यमुनेसी। विधिवरों आम्हांसी। बुडालों नदीं अवधारा ॥२००।। वहात आलो नदींत । नागकन्या मज देखत। पेवोनि आल्या तुम्हांप्रत। पूर्वभाग्यें करूनि ।॥१॥ पूर्वार्जित पुष्यवंशी । भेटी झाली चरणांसी। धन्य माझे जीवित्वासी । कृतार्थ झालों म्हणतसे ।।२।। करुणावचन ऐकोनि । तक्षक बोले संतोषोनि। नको भिऊं म्हणोनि। धैर्य तवा दिधलें ।।३।। शेष म्हणे रे बाळा । तू आहेसी मन निर्मळा । तुमचे घरीं सर्वकाळा। दैवत कोण पूजितसां ।।४।। ऐसें ऐकोनि राजकुमार। हर्षे जहाला निर्भर। सांगतसे विस्तार। आपुला देव शंकर ।।५।। सकळ देवांचा देव। नाम ज्याचें सदाशिव । वामांगीं उमा अपूर्व । त्यालागीं पूजें निरंतर ।।६।। ज्यापासोनि जनित' ब्रह्मा। सृष्टि सृजितो अनुपमा। तो सदाशिव आम्हां। निज दैवत निर्धारं ।।७।। तयाच्या सत्त्वगुणेंसी। विष्णु उपजला परियेसीं। प्रतिपाळक लोकांसी। तो सदाशिव आराधितों ।।८।। ज्याच्या तामसगुणे जाण । एकादश रुद्रगण। उपजले असती याकारण। प्रलयकर्ता या नांव ।।९।। धाता विधाता आपण उत्पत्तिस्थितिलयाकारण। तेजासी तेज असे जाण । तैसा ईश्वर पूजितसों ।।२१०।। पृथ्वी आप तेजासी। जो पूर्ण वायु आकाशीं । तैसा पूजितसों शिवासी। म्हणे राजकुमार देखा ।।११।। सर्वां भूर्ती असे संपूर्ण। चिन्मय आपण निरंजन'। जो रूपें असे अचिंतन। तो ईश्वर पूजितसों ।।१२।। ज्याची कथा वेद जहाले। तक्षक शेष ज्याची कुंडलें। त्रिनेत्री असे चंद्र मोळे'। तैसा शंकर पूजितसों ।।१३।। ऐसें ऐकोनि बचन। तक्षक संतोषला अतिगहन। राजकुमारा आलिंगोन । तुष्टलों तुष्टलों म्हणतसे ।।१४।। तक्षक बोले तये वेळीं। तुज देईन राज्य सकळीं। तुवां रहावें पाताळीं। आनंदें भाग्य भोगीत ।।१५।। माझ्या लोकीं जे जे रत्न। तें तें देईन तुजकारण। पावोनिया समाधान। सुखें येथे रहावें ।।१६।। पाताळ लोकींबी रचना। पहावी तुवां अनुपमा। कल्पवृक्ष मनोरमा। आहेत माझ्या नगरांत ।।१७।। अमृत न देखती स्वप्नी कोणी । तें भरलें असें जैसे पाणी। तळीं बावी पोखरणी। अमृताच्या माझ्या घरांत ।।१८।। नाहीं मरण तव येथें । रोगपीडादि समस्तें। नेणती कोणी स्वप्नावस्यें। ऐसें नगर माझे अवधारा ।।१९।। सुखें रहावें येथे स्वस्थ । तक्षक कुमारक सांगत। राजपुत्र असे विनवीत। करुणावचने अवधारा ।।१२०।। राजपुत्र विनवी तक्षकासी । मी एकलाची पितयाचे कुशीं। भार्या चतुर्दश वर्षों। शिवपूजनीं रत सदा ।।२१।। नूतन झालें माझें पाणिग्रहण । गुंतलें तेथे अंतःकरण। पाहीन मातापिठाचरण । तेणें सर्वस्व पावलों ।।२२।। आपण बुडालों नदींत । पिता माता दुःख करीत । पत्नी जीव त्यागील सत्य। हत्या पडे मस्तकीं ।।२३।। देखिले तव चरण आपण । तेणे झालों धन्य धन्य । रक्षिला आपण माझा प्राण। दर्शन करा मातापिता ।।२४।। तक्षक झाला संतोषित। नाना रत्ने त्यासी देत । अमृत पाजिलें बहुत । आणिक दिधलें खियेसी ।।२५।। कल्पवृक्षफलें देती। अपूर्व वस्तु आभरणें त्यासी। जें अपूर्व असे कितीं। अमोल्य वस्तु देता जहाला ।।२६।। इतुकें देवोनि कुमारकासी। तक्षक बोले परियेसीं। जे जे काळीं आम्हां स्मरसी। तव कार्य सिद्धि पावेल ।।२७।। आणिक संतोषोनि चित्तीं। वर्षे वाहने मागुती । तुरंग दिधले मनोगती। सर्वे दे कुमार आपुला ।। २८ ।। चंद्रांगदकुमारासी। इतकें दिधलें आनंदेंसी। निरोप दिधला परियेसीं। वाहन तुरंग मनोहर ।।२९।। तक्षका नमूनि त्वरित । वारूवरी आरूढ राजसुत। मनोवेगें मार्ग क्रमित। नागकुमार सर्वे जाणा ।।२३०।। जिये स्थानीं बुडाला होता। तेथे पावला क्षण न लागतां । निघाला बाहेर वारूसहिता । नदीतटाकी उभा असे ।।३१।। सोमवार त्या दिवशीं। सीमंतिनी आली स्नानासी। सर्वे होत्या सखी सेवेसी । नदीतीरीं उभी असे ।।३२।। सीमंतिनी म्हणे सखियासी। आश्चर्य वाटे मानसीं । उदकातुनी निघाला परियेसीं। सर्वे असे नागपुत्र ।। ३३।। राक्षस होई की वेषधरू। रूप धरिलें असे नरू। दिसतसे मनोहरू। तुरंगारूड जाहला असे ।। ३४।। कैसे. पहा हो रूप यासीं। जेवीं सूर्य प्रकाशी। दिव्यमालांबरें' कैसी। सुगंध असे परिमळा' ।।३५।। दश योजनेपर्यंत । सुवास येतसे अमित । पूर्वी देखिला असे रूपर्वत। भासे त्यासी पाहिला ।।३६।। स्थिर स्थिर भयभीता। त्याचिया पहाती स्वरूपता। आपुला पतीसादृश्य' म्हणतां । रूप आठवी तये वेळीं ।।३७।। राजपुत्र पाहे तियेसी । म्हणे स्वरूपें माझी श्री ऐसी गळसरी न दिसे कंठासी। हार नसे मुक्ताफळ ।।३८।। अवलोकितसे अंगखुण। न दिसे हळदी करी कंकण। चित्तीं व्याकुळ रूपहीन। सदृश दिसे प्राणेश्वरी ॥३९।। मनीं विचारी मागुतां। रूप तिचे आठवितां । तुरंगावरूनि उतरतां। नदीतीरी बैसला असे ॥२४०।। बोलावोनि तियेसी । पुसतसे अति प्रेमेंसी। तुझा जन्म कवणे वंशीं। पुरुष तुझा कोण सांगें ।।४१।। कां कोमाइलीस बाळपणीं । दिससी शोकें म्लान लक्षणी । सांगावें मज विस्तारोनि। अति स्नेहें पुसतसे ।।४२।। ऐकोनि सीमंतिनी देखा। आपण न बोले लजे ऐका । सखियांसी म्हणे बालिका। वृत्तान्त सांगा समस्त ।।४३।। सखिया सांगती तयासी। हे सीमंतिनी नाम परियेसीं । चंद्रांगदाची महिषी । चित्रवर्त्यांची हे कन्या ।।४४।। इचा पति अतिसुंदर। चंद्रांगद नामें चोर। जळक्रीडा करितां फार। येथे बुडाला नदींत ।।४५।। तेणें शोक करितां इसी। वैधव्य आलें परियेसीं। दुःख करीत तीन वर्षी। लावण्य इवें हरपले ।।४६।। सोमवारव्रत करीत । उपवास पूजादि आचरत। आज स्नानानिमित्त। आली असे नदीसी ।।४७।। इच्या श्रशुराची स्थिति देखा । पुत्रशोके विकळ ऐका। राज्य घेतले दायादिका। कारागृहीं घातलें ॥४८।। या कारणें सीमंतिनी। नित्य पूजी शूलपाणि। सोमवार उपोषणी। म्हणोनि करिती परियेसा ।।४९।। इतके सख्या सांगती। मग बोले आपण सीमंती। किमर्थ पुसतां आम्हांप्रती। आपण कोण कंदर्परूपी ।।२५०।। गंधर्व किंवा तुम्ही देव। किजर अथवा सिद्ध गंधर्व। नररूप दिसतां मानव। आमुतें पुसतां कवण कार्या ।।५१।। स्नेहभावें करोनि। पुसतां तुम्ही अति गहनी। पूर्वी देखिले होतें नयनीं। न कळे खूण म्हणतसे ।।५२।। आप्तभाव माझ्या मनीं। स्वजन तसे दिसतां नयनीं। नाम सांगा म्हणोनि । आठवी रूप पतीचे ॥५३।। आठवोनि पतीचे रूप। करू लागली अति प्रलाप । धरणीं पडली रुदितबाष्प । महादुःख करीतसे ॥५४।। तियेचे दुःख देखोनि नयनों। कुमार विलोकी तटस्थपणीं । मुहूर्त एक सांक्रोनि। आपण दुःख करीतसे ॥५५।। दुःख करोनिया देखा। प्रक्षाळिलें आपुल्या मुखा। उगी राहें म्हणे ऐका । आमुचें नाम सिद्ध म्हणे ।।५६।। सीमंतिनी करितां शोक अपार। जवळी आला राजकुमार। हाती धरली सत्वर । संबोखीतसे प्रेमभावें ।।५७।। एकांतीं सांगे तियेसी । म्हणे तुझ्या भ्रतारासी। देखिलें आम्हीं दृष्टींसी। सुखी आतां असावें ।।५८ ।। तव व्रतपुण्यें करोनी। पति शीघ्र पहासी नयनों। चिंता करूं नको म्हणोनि । तृतीय दिनी भेटेल ।।५९।। तब पति माझा सखा। प्राण तोचि ऐका। संदेह न करी वो बालिका। आण शिवचरणाची ।।२६०।। ऐसें एकांती सांगून । प्रगट न करी म्हणून। दुःख आठवलें ऐकून। सीमंतिनी बाळिकेसी ।।६१।। सुटल्या धारा लोचनीं। प्रेमें रडे स्कुंदोनी। विचार करी सीमंतिनी। हाचि होय मम पति ।। ६२।। पतीसारिखें मुखकमळ । नयन सुंदर अति कोमळ । ध्वनि बोलतां ज्याची मंजुळ। अति गंभीर बोलतसे ।।६३।। मृदु बाणी पतीसरसी । तैसाची बोले तो हीं। धरितां माझिया करासी। अति मृदु लागले ।।६४।। माझे पतीचे लक्षण। मी जाणें सर्व खूण । हावि होय माझा प्राण। समस्त चिन्हें असती ।।६५।। यास देखोनि नयनीं। धारा सुटल्या प्रेमें जीवनीं। नवलपरी विचारूनी । मागुती अनुमान' करीत ।।६६।। दैवहीन असे आपण। कैसा पति येईल म्हणोन। बुडाला नदींत जाऊन । मागुती कैसी भ्रांति म्हणे ।।६७।। मेला पति मागुती येतां । ऐशी न ऐकिली कानीं कथा। स्वप्न देखिले कीं भ्रांता । काय कळतें माझे मना ।।६८।। धूर्त होय कीं वेषधारी। राक्षस यक्ष किंवा किन्नरी। कपटें प्रगटला नदीतीरी । म्हणोनि कल्पना करीतसे ।। ६९।। किंवा पावला शिवव्रतें। कीं धाडिला गिरिजानार्थे । संकट जाणोनि आमुच्या येथे । मैत्रेयी कारणें धाडिला ।।२७०।। ज्यास प्रसन्न शंकर। त्यास कैचा दुःखविकार । चितिलें पाहिजे निर्धार। ऐसें चिंती सीमंतिनी ।।७१।। ऐसें होतां राजकुमार। आरूढला वारूवर। निरोप मागे प्रीतिकर । सीमंतिनी नारीसी ।।७२।। निघाला अश्व मनोवेगें। पातला नगरा अतिशीघ्र । वासुकीपुत्र होता संगें। तया पाठवी नगरांत ॥७३।। त्वां जायोनि वैरियांसी। इष्टती सांगा वादीयासी। न ऐकतां तव बोलासी । संहारीन बोलावें ।।७४।। ऐसें वचन ऐकोनि। त्वरित पावला राजभुवनीं। उभा राहोनि कठोर बचनीं । बोलतसे नगराधिपतीसीं ।॥७५।। चला शीघ्र कुटुंबेंसी। चंद्रांगदाचे भेटीसी। तक्षकाचे दर्शनासी। गेला होता पाताळीं ।।७६।। कालिंदीये नदींत । बुडाला हे ऐकोनिया मात। तुम्हीं केला स्वामीपात। राज्य घेतलें इंद्रसेनाचे ।।७७।। आ आतां सांगेन तुम्हांसी ।। चाड' असे जरी प्राणासी। शरण जावें तयासी। इंद्रसेना स्थापोनि ।। ७८ ।। तक्षकासारखा मैत्र जोडला । दिधलें नवनागसहस्रचळा। शीघ्र लागा चरणकमळा। चंद्रांगदाचे जाऊनी ।।७९।। न ऐकाल माझ्या वचना । तरी आतांचि घेतों प्राणा। तक्षके पाठविलें आपणा। पारिपत्याकारणें हो ।।२८०।। ऐसें बचन ऐकोनि। शत्रु भयाभींत मनीं। हीन बुद्धि केली जाणोनी। आतां शरण रिघावें ।।८१।। जरी करूं बलात्कार । तक्षक करील संहार । लोकांत होई निंदा फार। प्राण जाईल आपुला ।।८२।। ऐसें विचारूनि मानसीं। बाहेर आणिती इंद्रसेनासी । नाना बखें आभरणेंसी। सिंहासनी बैसविला ।।८३।। सकळ विनविती त्यासी। अपराध घडला आम्हांसी। प्राण राखा वेगेंसी। म्हणोनि चरणी लागले ।।८४।। राया इंद्रसेनासी। तक्षकपुत्र सांगे त्यासी। तुमचा पुत्र आला परियेसी । वासुकी भेटी गेला होता ।।८५।। ऐकोनि राव संतोषी । आठवोनि अधिक दुःखासी । मूर्च्छा येवोनि धरणीसी। पत्नीसहित पडियेला ।।८६।। नागकुमरें उठविलें त्यासी। दुःख कासया करायें हीं। येईल पुत्र भेटीसी । त्वरें करोनि आतांचि ।।८७।। मग राव अतिहर्षी। बोलावित मंत्रियांसी। नगर श्रृगारावयासी। निरोप दिधला तये वेळीं ।।८८।। ऐसा निरोप देऊन भेटी निघाला आपण। सकळ दायाद' स्वजन । राणीवसा आदिकरूनि ।।८९।। मंत्रीपुरोहितांसहित। निघाले लोक समस्त। कौतुक पाहों म्हणत। मेला पुत्र कैसा आला ।।२९०।। आनंद झाला सकळिकां। राव मानी महाहरिखा। पाहीन म्हणे पुत्रमुखा। अति आवडीनें अवधारा ।।११।। सर्वे वाजंत्र्यांचे गजर। नगरलोकां संतोष थोर। करिताती जयजयकार । अति उल्हास करिताती ।।९२।। ऐसें प्रेमें पुत्रासी । भेटी झाली रावासी। चंद्रांगद पितयासी। नमस्कारी साष्टांगें ।।१३।। अति प्रेमें पुत्रासी । आलिंगी राव त्वरेंसी । सद्रदित' कंठेसी। नेत्रीं सुटल्या अश्रुधारा ।।९४।। पुत्रासी म्हणे इंद्रसेन । आलासी बाळ माझा प्राण । श्रमलों होतो तुजविण । म्हणोनि सांगे दुःख आपुलें ।॥९५।। मातेतें आलिंगोन। दुःख करी ती अतिगहन । विनवीत तिये संबोखोन' । मजनिमित्त कष्टलीसी ।।९६।। पुत्र नव्हे मी तुमचा शत्रु । जाऊनि आपुले सुखार्थं । तुम्हां दुखविलें कीं बहुतु । नेदौच सुख तुम्हांतें ।।९७।। आपण जावोनि पाताळीं। राहिलों सुखें शेषाजवळी । तुम्ही कष्टलीत बहुतकाळीं । मजनिमित्त अहोरात्र ।।९८।। काष्ठासरी' अंतःकरण। माझे असे कीं सत्य जाण। माताजीव जैसे मेण। पुत्रानिमित्त कष्ट बहुत ।।९९।। मातापितयांचे दुःख। जो नेणें तोचि शतमूर्ख । उत्तीर्ण व्हावया अशक्य। स्तनपान एक घडीचे ।।२००।। मातेवीण देव देखा। पुत्रासि नाहीं विशेखा। कवण उत्तीर्ण नव्हे ऐका । माता केवळ मृडानी' ।।१।। दुःख देत जननीसी। तो जाय यमपुरासी। पुत्र नव्हे त्याचे वंशीं। सप्तजन्मीं दरिद्री ।।२।। ऐसें मातेसि विनवूनी । भेटतसे तो भाऊबहिणी। इष्ट सोयरे अखिल जनीं । प्रधानासमवेत नागरिकां ।।३।। इतुकिया अवसरीं । प्रवेश केला नगराभीतरी। समारंभ केला अति घोरी। पावले निजमंदिरा ।।४।। तक्षकाचे पुत्रासी । गौरविलें सन्मानेसी। वर्षे भूषणें रत्नेंसी। इंद्रसेनें अतिप्रीतीं ।।५।। चंद्रांगद सांगे पितयासी । तक्षक उपकार विस्तारेंसी । प्राण वांचविला आम्हांसी। द्रव्य दिधलें अपार ।।६।। सुंदर वर्षे आभरणें। दिधलीं होतीं तक्षकानें । पिता देखोनि संतोषानें। म्हणे धन्य तक्षक ।।७।। निरोप दिधला नागपुत्रासी। बोळविलें तयासी । भृत्य पाठविले वेगेंसी । चित्रवर्त्यांचे नगरांत ।।८।। राव म्हणे तये वेळीं। सून माझी देवें आगळी। तिचे धर्मे वांचला बळी। पुत्र माझा अवधारा ।।९।। तिणें आराधिला शंकर। तेणें कंकणें चुड़े स्थिर। तेणें वांचला माझा कुमरः । सौभाग्यवती सून माझी ।।३१०।। म्हणोनि पाठविले वेगेंसी । लिहोनिया बर्तमानासीं । चित्रवर्मारायासी । इंद्रसेन रायाने ।।११।। हेर निघाले सत्वरी। चित्रवर्याचिये नगरी। व्यवस्था सांगितली कुसरी । चंद्रांगदशुभवार्ता ।।१२।। संतोषे राजा ऐकोनि देखा। करिता झाला महासुखा। दानें दिधली अपार ऐका। रत्नें भूषणें हेरांसी ।।१३।। इंद्रसेन राजा सत्वर । पुनरपि करावया वन्हाड भोर। चंद्रांगद बडिवार। सेना घेवोनि निघाला ।।१४।। महोत्साह झाला थोर। वन्हाड केलें धुरंधर। चंद्रांगद प्रीतिकर। सीमंतिनीसी भेटला ।।१५।। पाताळींची अमोल वस्तू। प्राणेश्वरीसी अर्पित। पाजिता झाला अमृत। महानंद प्रवर्तला' ।।१६।। कल्पवृक्षफळ देखा । देवोनि तोषविली नायका । अमोल्य वस्त्राभरणीं देखा। दश योजनें तेज फांके ।।१७।। ऐसा उत्साह केला। आपुले पुरीसी निघाला। सीमंतिनीचे वैभवाला। जोडा नसे त्रिभुवनीं ।।१८।। मग जावोनि नगरासी। राज्यीं स्थापिला पुत्रासी । दहा सहस पूर्ण वर्षी। राज्य केलें चंद्रांगदें ।।१९।। सीमंतिनी करी व्रतासी। उपवास सोमवारासी । पूजिलें गौरीहरासी । म्हणोनि पावली इष्टार्थ ।।३२०।। ऐसे विचित्र असे व्रत। म्हणोनि सांगे श्रीगुरुनाथ। ऐक सुवासिनी म्हणत । अति प्रीतीं निरूपिलें ।।२१।। ऐसें करी वो आतां व्रत। चुडे कंकणें अखंडित । कन्या पुत्र होती बहुत । आमुचे वाक्य अवधारी ।।२२।। दंपत्य विनवी श्रीगुरूसी। तुमची चरणसेवा आम्हांसी। पुरविती मनोरथासी । आम्हां व्रत कायसें ।।२३।। आमचा तूं प्राणनायक। तुजवांचोनि नेणों आणिक। तव स्मरण मात्र असे निक । म्हणोनि चरणी लागलीं ।। २४।। श्रीगुरु म्हणती तयासी। आमुचे निरोपें करा ऐसी। व्रत आचरा सोमवारासी । तेचि सेवा आम्हां पावे ।।२५।। निरोप घेऊनि श्रीगुरूचा। नेम धरिला सोमवाराचा। भेटीलागीं तयाच्या। मातापिता पावली ।।२६।। ऐकोनिया कन्यापुत्रवार्ता। संतोषली त्याची माता। द्रव्य वेचिलें' अपरिमिता' । समाराधना ब्राह्मणांसी ।।२७।। पूजा करिती श्रीगुरूसी। आनंद अति मानसीं। समारंभ दिवानिशीं। बहुत करिती भक्तीने ।।२८।। ऐशापरी बंदोनी। श्रीगुरुचा निरोप घेउनी। गेली ग्रामा परतोनि। ख्याती झाली चहूं राष्ट्री ।।२९।। पुढे त्या दंपतीसी। पांच पुत्र शतायुषी। झाले आशीवर्वादसी। श्रीगुरुरायाच्या ।।३३०।। प्रतिवर्षी दर्शनासी । दंपती येती भक्तींसी। ऐसें शिष्य परियेसीं। श्रीगुरूचे माहात्म्य ।।३१।। ऐसे श्रीगुरुचरित्र। सिद्ध सागे पवित्र । नामधारक अतिप्रीतीं । ऐकतसे अवधारा ।।३२।। गंगाधराया कुमर। सरस्वती विनवी गुरुकिंकर । स्वामी माझा पारंपार । श्रीनृसिंहसरस्वती ।।३३।। ऐसा वरदमूर्ति देखा। सकळ जन तुम्ही ऐका। प्रसन्न होईल तात्कालिका । न घरावा संदेह मानसीं ।। ३४।। साखर स्वादु म्हणावयासी। उपमा द्यावी कायसी । मनगटींचे कंकणासी। आरसा कासया पाहिजे ।।३५।। प्रत्यक्ष पाहतां दृष्टान्तेसीं। प्रमाण कास्या परियेसीं। ख्याती असे भूमंडळासी। कीर्ती श्रीगुरुयतीची ।। ३६ ।। ऐका हो जन समस्त। सांगतों मी उत्तम हित। सेवा करितां श्रीगुरुनाथ। त्वरित होय मनकामना ।।३७।। अमृताची आरवंटी'। घातली असे गोमटी। पान करा हो तुम्ही पोटीं। धणीवरी' सकळिक ।।३८।। श्रीगुरुचरित्र कामधेनु । ऐकता होय पतित पावनु। नाम ज्याचे कामधेनु। तो चिंतिलें पुरवित ।। ३९।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत। सीमंतिनी आख्यान विख्यात। पंचत्रिंशत् अध्यायांत। कथासार सांगितलें ।॥ ३४०।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३५॥
ओवीसंख्या ३४०
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । शिष्योत्तम नामकरणी। लागे सिद्धाचे चरणी। विनवीतसे कर जोडोनि। भक्तिभावें करूनिया ।।१।। जय जयाजी सिद्ध मुनि। तूंचि तारक भवार्णी। तूंचि होसी ब्रह्मज्ञानी। अविद्यातिमिरभास्कर ।।२।। मायामोहरजनींत। होतों आपण निद्रिस्त । कृपासागर श्रीगुरुनाथ। जागृत केलें आम्हांसी ।।३।। तिमिरहरण भास्करू। मज भेटलासी गुरु। कहें केलें भवसागरू। चिन्मयात्मा सिद्ध मुनि ।।४।। ऐसें म्हणोनि सिद्धासी। विनवी भावभक्तींसी। गुरुमूर्ति संतोषी। अभयकर देतसे ।।५।। पुढें चरित्र केवी झालें। विस्तारावें स्वामी वहिलें। आमुतें स्वामी कृतार्थ केलें । ज्ञानामृत प्राशवून ।।६।। कथामृत ऐकतां श्रवणीं। तुमि न होय अंतःकरणीं। निरोपावें विस्तारोनि। म्हणोनि चरणी लागला ।।७।। सिद्ध म्हणे नामधारका। पुढील कथा झाली निका। एकचित तुम्ही ऐका। ज्ञान होय समस्तांसी ।।८।। गाणगापुरी असतां श्रीगुरु। महिमा वाढली अपरंपारु। बोलतां असे विस्तारु। तावन्मात्र' सांगतसों ।।९।। महिमा एकेक सांगतां। विस्तार होईल बहु कथा। अवतार श्रीहरी साक्षता। कवण शके वर्णावया ।।१०।। तया गाणगापुरांत। होता विप्र वेदरत। विरक्त असे बहुश्रुत । कर्ममार्गे वर्ततसे ।।११।। न घेतला प्रतिग्रह त्यागें । परान्नासी न बचे नेणे। मिथ्या वाचे नेणे। अनुबाद आपण न करीच ।।१२।। नित्य शुष्क भिक्षा करी । तेणें आपुलें उदर भरी। तवाची नारी असे घरीं। क्रोधवंत परियेसा ।।१३।। याचकवृत्ति' तो ब्राह्मण। कंठी संसार सामान्यपणें। अतीतअभ्यागताविणें। न घेई अत्र प्रत्यहीं ।।१४।। तया ग्रामी प्रतिदिवसों। विप्र देती समाराधनेसी। सहस संख्या ब्राह्मणांसी। मिष्टान्न घालिती परियेसा ।।१५।। समस्त जावोनि भोजन करिती । तया विप्रवनितेप्रती। येऊनि गृहीं स्तुति करिती। अनेक परींची पकानें ।।१६।। ऐकोनि तया विप्रनारी। नानापरी दुःख करी। परमेश्वरा श्रीहरी । म्हणोनि चिती मनांत ।।१७।। कैसे दैव आपुलें हीन। नेणें स्वप्नी ऐसें अन्न। दरिद्री पतीसी वरून। सदा कष्ट भोगितसें ।।१८।। पूर्वजन्मींचे आराधन। तैसा आपणासी पति हीन । सदा पाहें दरिद्रीपण । वर्ततसों देवराया ।।१९।। समस्त विप्र स्त्रियांसहित । नित्य परान्नभोजन करीत । पूर्वजन्मींचे सुकृत । केलें होतें समस्तीं ।।२०।। आपुला पति दैवहीन। कदा नेणे परान्नभोजन। काय करावें नारायण । म्हणोनि आला परियेसीं ।।२२।। तया स्थानी विप्रांसी। क्षण दिले परियेसीं। सर्वे त्यांच्या स्रियांसीं । आवंतिलें' तिहीं परियेसा ।।२३।। देखोनि ते विप्रवनिता। पतीजवळी आली त्वरिता। सांगती झाली विस्तारता। आमंत्रण ब्राह्मणाचें ।। २४।। अनेक परीचीं पकानें। देताती वर्षे परिधान। अपार दक्षिणाद्रव्य दाने। देताती ऐके प्राणेश्चरा ।।२५।। बातें स्वामी अंगीकारणे। अथवा आपण निरोप देणें। कांक्षा करितें माझें मन। अपूर्व अन्न जेवावें ।।२६।। ऐकोनि तियेचें वचन। निरोप देत ब्राह्मण। सुखें जावें करी भोजन। आपणा न घडे म्हणतसे ।।२७।। निरोप घेउनी तये वेळीं। गेली तया गृहस्थाजवळी। आपण येऊ भोजनकाळीं । म्हणोनि पुसे तयासी ।।२८।। विप्र म्हणे तियेसी। आम्ही सांगू दंपतींसी। बोलावीं आपुल्या पतीसी। तरीच आमुच्या गृहा यावें ।।२९।। ऐकोनि तयाचे वचन। झाली नारी खेदें खिन्न। विचार करी आपुलें मन। काय करावें म्हणोनिया ।।३०।। म्हणे आतां काय करणें। कैसे देव आपुलें उणें। बरवें अन्न स्वप्नों नेणें । पतीकरितां आपणासी ॥३१॥ विचारोनि मानसीं। आली नृसिंहगुरूपासीं । नमन करी साष्टांगेंसी। अनेकापरी विनसीतसे ।।३२।। म्हणे स्वामी काय करणें । बरवें अन्न कधीं नेणें। आपुले पतीसी सांगणें। आवंतणे" बरखें येतसे ।।३३।। सांगू म्हणती दंपतीसी । माझा पति नायके वचनासी। न वचे' कधी परान्नासी। काय करूं म्हणतसे ।। ३४।। स्वामी आतां कृपा करणें। माझ्या पतीतें सांगणे । बरवीं येताती आमंत्रणें। अनवस देताती ।। ३५।। ऐकोनि तियेचें वचन । श्रीगुरुमूर्ति हास्यवदन । बोलावूनिया तत्क्षण । सांगती तया द्विजासी ।।३६।। श्रीगुरु म्हणती तयासी। जावें तुम्ही आवतणेसी । तुझे खियेचे मानसीं । असे मिष्टान्न जेवावें ।। ३७।। तिचे मनींची वासना जाण। तुवां पुरवावी कारण । सदा दुश्चित' अंतःकरण । कुलस्त्रियेचे असों नये ।।३८।। ऐकोनि श्रीगुरुर्वे बचन। नमन करी तो ब्राह्मण। विनवीतसे कर जोडून । पराज आपणा नेम असे ।।३९।। गुरुवचन जो न करी। तोचि पडे रौरवधोरी। निरोप तुमचा माझ्या शिरीं। जाईन त्वरित म्हणतसे ।।४०।। पुसोनिया श्रीगुरूसी। आले दंपत्य आवंतणेसी। आनंद झाला बहुक्सी। तया विप्रखियेतें ।॥४१॥ पितृनाम उच्चारोन । संकल्प करी तो ब्राह्मण। अनेक परीचे मिष्टान्त्र। बाढिती तयां दंपतीसी ।।४२।। भोजन करितां समयासी। दिसे विपरीत तियेसी। छान सूकर येउनी हीं। समागमें जेविताती ॥४३॥ कंटाळलें तिचे मन। उठली आपण त्यजुनी अन्न। जे जेवीत होते ब्राह्मण। तया समस्तांसी सांगतसे ॥४४॥ ऐसेंपरी पतीसिहत। आली नारी चिंताक्रांत। पतीस सांगे वृत्तान्त । चानउच्छिष्ट जेविलेंती ।।४५।। स्त्रियेसी म्हणे तो ब्राह्मण। तुझेनि आपुलें दैवहीन । पडलें आपणासी परान्न। उच्छिष्ट धानसूकरांचे ।।४६ ।। ऐसें म्हणोनि स्त्रियेसी । आली दोघे श्रीगुरूपासीं । नमन केलें परियेसीं। ऐका श्रोते एकचिर्ते ।।४७।। श्रीगुरु म्हणती तियेसी । कैसें सुख परान्नासी । सदा दुखविसी पतीसी । पुरेल तुझे मनोरथ ।।४८।। ऐसे वचन ऐकोनि। लागे नारी श्रीगुरुचरणीं । विनवीतसे कर जोडूनि । क्षणा करणें स्वामिया ।।४९।। मंदमति' आपणासी। दोष घडविले पतीसी। नेलें आपण परान्नासी । क्षमा करणें स्वामिया ।।५०।। चिंता करी द्विजवरू। म्हणे स्वामी काय करूं। दोष घडला अपारू। व्रतभंग झाला म्हणोनि ।।५१।। परान्न न घ्यावें म्हणोनि। संकल्प होता माझे मनीं। मिळाली सती वैरिणी। दोष आपणा घडविले ।।५२।। ऐकोनि तयाचे बचन। श्रीगुरु म्हणती हांसोन। पुरविली खियेची वासना। आतां तिचे मन घालें ।।५३।। कधी न बचे परान्नासी। बर्तेल तुझ्या वाक्यासरसीं । न करी चिंता मानसीं । दोष तुज नाहीं जाण ।।५४।। आणिक एक सांगें तुज। जेणें धर्म घडती सहज। अडला असेल एखादा द्विज । देवपितृकर्माविणें ।।५५।। कोणी न मिळती विप्र त्यासी। जावें तेथे भोजनासी। जरी तेथे तून जासी। अनंत दोष असे जाण ।।५६।। श्रीगुरूचें वचन ऐकोन। साष्टांगीं करी नमन। विनवीतसे कर जोडून। विनंती माझी परियेसा ।।५७।। अन्न घ्यावें कवणा घरीं। घडतील दोष कवणेपरी। जाऊ नये कवणा घरी। निरोपावें स्वामिया ।।५८।। विप्रवचन ऐकोन । श्रीगुरु सांगती विस्तारोन। सावधान करून मन। ऐका श्रोते सकळिक ।।५९।। श्रीगुरु म्हणती विप्रासी । अन्न घ्याक्या पर पुससी । गुरुभुवनादिकी हीं। जेवावें शिष्यवर्गापरी ।।६०।। वैदिकादि विद्वज्जन । मातुळ आपुला चजुर जाण । सहोदरादि साधुजन। तया घरी जेवावें ।।६१।। अडला विप्र ब्राह्मणाविण । त्याचे परी घ्यावें अन्न । करावें गायत्रीजपन। दोष जाती अवधारा ।। ६२।। विप्र म्हणे श्रीगुरूसी । विनंती माझी परियेसीं । निषिद्ध अब आम्हांसी। कवण्या घरी जेवू नये ।।६३।। श्रीगुरु सांगती ब्राह्मणासी। अववर्जित घरें ऐसी। अपार असे स्मृतिचंद्रिकेसी। ऋषिसंमतें सगिन ।।६४।। नित्य मातापितयांसी। सेवा घेती अतिदोषी। जाऊं नये तया परांसी। धनलोमिष्ठ द्विजांघरी ।।६५।। कलत्र' पुत्र कष्टवोनि। धर्म करी विप्रांलागोनि । अन्ननिषेध तया भुवनीं। दोष घडती जेविल्या ।।६६।। गर्विष्ठ चित्रिक शाघारी। विप्र जाण मल्लयुद्ध करी। वीणा वाद्य ज्याचे घरी । न घ्यावें अन्न ब्राह्मणार्ने ।।६७।। बहिष्कारी विप्रापरी। याचकवृत्तीनें उदर भरी। अन्न वर्जावें तया घरीं । आत्मस्तुति परनिंदक ।। ६८।। बहुजन एक अन्न करिती। पृथक् वैश्चदेव न करिती। वर्जावी अन्ने विप्रजातीं। महादोष बोलिजे ।।६९।। गुरु म्हणोनि समस्तांसी। आपण मंत्र उपदेशी। शिष्य रहाटें दुर्वृत्तींसी। त्या गुरुघरी जेवू नये ॥७०।। क्रोधवंत ब्राह्मण असे। अन्न न घ्यावें त्या गृहीं ऐसें। खियेसी वर्जिता पुरुष असे। जेवू नये तया घरीं ।॥७१।। धनगर्वी तामसाघरी। कृपण निर्द्रव्य व्यभिचारी। दांभिक दुराचारी विप्राघरी। अन्न तुम्हीं वर्जावें ।।७२।। पुत्रा पतीतें सोडोनि। वेगळी असे जे ब्राह्मणी। वजविं अन्न साधुजनी। महादोष बोलिजे ।।७३।। स्त्रीजित असे एखादा जरी। विप्र सुवर्णाकार करी। सदा बह वाचक जरी। तया घरी न जेवावें ।।७४।। खळ राजसेवकाघरीं। लोक काष्ठ छेदन करी । वाधुत्या रजकाधरी। दान वित्रे घेऊं नये ।।७५।। मद्यपान नराघरीं। याचनें उदरपूर्ति करी। वेश्मी सहजार असे नारी। दान वित्रे न घ्यावें ।। ७६।। तस्करविद्या असे ज्यासी। द्वारपालकाघरी परियेसीं । न घ्यावें अन्न कुटिलासी । महादोष बोलिजे ।।७७।। द्रव्य घेउनी शूद्राकरी। अध्ययन सांगे द्विजवरी। अत्र वर्जावें तया घरी। पोडी विकी जो ब्राह्मण ।।७८।। भागवतकीर्तन नाहीं घरों। द्युतकर्मी अतिनिष्ठुरी। स्नानावीण भोजन करी । तया घरी जेवू नये ।। ७९।। न करी संध्या सायंकाळीं। दान न करी कदा काळीं। पितृकर्म वर्जिता कुळीं। तया परी न जेवावें ।।८०।। दंभावर्थानं जो तप करी। अथवा कापट्चरुपें जरी। द्रव्य घेवोनि जप करी । तया घरी जेवू नये ।।८१।। ऋण देऊन एखाद्यासी। उपकार दाबी परिवेसी। द्रव्य सांची कलत्रेसी। तया घरी जेवू नये ।।८२।। विश्वासघातकी नराघरी। अनीति पक्षपात करी। स्वधर्म सांडी दुराचारी। पूर्वजमार्ग सोडिल्या घरी ।।८३।। विद्वज्जन ब्राह्मण साधूसी। एखादा करी अति द्वेषी। अन्न वर्जावे तुम्हीं हीं। तया घरी जेवू नये ।।८४।। कुळदैवत माता पिता । सोडोनि जाय जो परता'। आपुलाले गुरूसी निंदिता। जेवू नये तया परी ॥८५॥ गोब्राह्मणवध करी । स्रीवधु नर असे जरी। अन्न घेतां दोष भारी। श्रीगुरु म्हणती विप्रासी ।।८६।। आशाबद्ध सदा नरू । धरूनि राहे एका द्वारू। दान देतां वर्जी नरु। जेवू नये तया परी ।।८७।। समस्त जातीस करी शरण । तोचि चांडाळ होय जाण । घेऊं नये त्याचे अन्न। नमन न करी विप्रासी ।।८८।। आपुल्या कन्याजामातेसी। क्रोपें करून सदा दूषी। न घ्यावें अन्न त्या घरासी। निपुत्रांचे घरीं देखा ।।८९।। पंचमहायज्ञ करी आपण। जेवी आणिकाचे घरीं अन्न। परपाक करी तया नाम जाण। तया घरी जेवू नये ।।९०।। विवाह झाला असतां आपण । पंचमहायज्ञ न करी ब्राह्मण । स्थालीपाकनिवृत्ति नव जाणे। न जेवायें तया घरी ।।९१।। परचें अन्न दूषण करी । परान्नाची स्तुति करी। अन्न वर्जावं तया घरीं। अपच नाम तयाचे ।।९२।। भाणसपणे उदर भरी। अन्न घेतां तया घरीं। डोळे जाती अवधारी। आंधळा होय अल्पायुषी ।।९३।। बधिर' होय शरीरहीन । स्मृतिमेधा जाय जाण। धृतिशुद्धि जाय जाण । माणसाचे घरी जेवू नये ।।९४।। गृहस्थधर्मे असे आपण। दानधर्म न करी जाण । अद्वैतशास्त्र बोलूं जाणे । तया घरी जेवू नये ।।९५।। परगृहीं वास आपण। परात्र जेवी जो ब्राह्मण। त्याचें जितुके असे पुण्य । वजमानासी जाय देखा ।।९६।। तया यजमानाचे दोष । लागती त्वरित भोजनस्पर्श । त्याचिकारणें निषिद्ध असे। परान्न तुम्हीं वर्जावें ।॥९७।। भूदान गोदान सुवर्णदान । गजवाजीरत्नदान । घेतां नाहीं महादूषण । अन्नदाना अतिदोष असे ।।९८।। समस्त दुष्कृत परानासी। घडती देखा ब्राह्मणासी । तैसेंचि जाणा परस्त्रियेसी । संग केलिया नरक होय ।।९९।। परगृहीं वास करितां। जाय आपुली लक्ष्मी त्वरितां । अमावास्येसी परान्न जेवितां । मासपुण्य जाय देखा ।।१००।। अगत्य जाणें परान्नासी। न बोलावितां जाय संतोषी। जातां होती महादोषी । शूद्रे बोलावितां जाऊं नये ।।१।। आपुल्या कन्येच्या घरासी। जाऊं नये भोजनासी। पुत्र झालिया कन्येसी । सुखें जावें अवधारा ।।२।। सूर्यचंद्रग्रहणेसी। दान घेऊ नये परियेसीं। जात अथवा मृतसूतकेसी । जाऊं नये परियेसा ।।३।। ब्राह्मणपणाचा आचार। कवण रहाटे द्विजवर। तैसें जरी करिती नर। त्यांसी कैचे दैन्य असे ।।४।। समस्त देव त्याचे होती। अष्ट महासिद्धि साधती। ब्राह्मणकर्मे आचरती। कामधेनु तया घरी ॥५॥ वित्र मदांधे व्यापिले। आबारकर्म सांडिले। याचिकारणें दरिद्री झाले। स्वधर्म नष्ट होऊनिया ।।६।। विप्र विनवी स्वामीसी। आमुची विनंति परियेसीं। सकळ आचारधर्मासी। निरोपावे दातारा ।।७।। श्रीगुरुमूर्ति कृपासागरू । त्रिमूर्तीच्या अवतारू । भक्तजनांच्या आधारू । निरोपावे आचार ब्राह्मणाचे ।।८।। श्रीगुरु म्हणती तयासी । ब्राह्मणाचा आचार पुससी। सांगेन ऐक विस्तारेंसी। पूर्वी ऋषि आचरले जे ।।९।। नैमिषारण्यों समस्त ऋषि । तप करिती बहु दिवसीं। आला पराशर ऋषि। म्हणोनि समस्त बंदिती ।।११०।। समस्त ऋषी मिळोन । विनविताती कर जोडून। ब्राह्मणाचे आचरण। केवी करावें म्हणती ते ।।११।। आतां आम्ही आचार करितों । तेणें संशय मनीं येतो। ब्रह्मऋषि तुम्ही म्हणूनि पुसतों। तुमचा उपदेश आम्हां व्हावा ।।१२।। गुरुमुखेंवीण मंत्र । ग्राह्य नव्हे हो पवित्र। तैसा श्रीगुरु तूं सत्पात्र। आचार आम्हां सांगावे ।।१३।। पराशर म्हणे ऋषर्षीसी । सांगेन आचार तुम्हांसी। जेणें होय अप्रवासीं। सर्व सिद्धी पावती ।।१४।। ब्राह्ममुहूर्ती उठोनि । श्रीगुरुस्मरण करोनि। मग घ्यावा' मूर्ति तिन्ही । ब्रह्माविष्णुमहेश्वर ।।१५।। मग स्मरावे नवग्रह। सूर्यादि केतूसह । सनत्कुमार-सनक सनंदन सह। स्मरावे तये वेळीं ।।१६।। सह-नारद तुंबरु देखा। स्मराने सिद्ध योगी देखा। सप्त समुद्र असती जे का। स्मरावे सात पितृदेवता ।।१७।। सप्त ऋषींत स्मरोनि। सप्त द्वीपें सप्त भुवनी। समस्त नामें घेऊनि । ऐसें म्हणावें प्रातः स्मरण ।।१८।। मग उठावें शयनस्थानों। आचमन करोनि दोनी। लघुशंकेसी जाऊनि । शौचाचमन करावें ।।१९।। पराशर म्हणे ऋषीसी। ऐका आचमनविधीसी। सांगतसें विस्तारेंसी। जे जे समवीं करणें ऐका ।।१२०।। स्नानापूर्वी अपर दोनी। उदक प्राशितां येणेंचि गुणीं। निजतां उठतां समयीं दोनी। आचमनें करावीं ।।२१।। अधोवायुशब्द झालिया। वोखटें' दृष्टीं देखिलिया। दोन्ही वेळां आचमूनिया । शुचि व्हावें परियेसा ।।२२।। भोजनापूर्वी अपर दोनी। जांभई आलिया शिंकलिया दोनी। लघुशंकाशीचीं दोनी। आचमन करावें ।।२३।। जवळीं उदक नसेल जरी। श्रोत्राचमन करा निर्धारी। स्पर्श करावा अक्ष श्रोत्रीं। येणें पवित्र परियेसा ।।२४।। ब्राह्मणाचे उजवे कानीं। सप्त देवता असती निर्गुणी। त्यांसी स्पर्शितां तत्क्षणीं। आचमनफळ असे देखा ।।२५।। । श्लोक। अग्निपरापश्च चंद्रश्च वरुणार्केद्रवायवः। विप्रस्य दक्षिणे कर्णे नित्यं तिष्ठन्ति देवताः ।।१।। ।।२६।। । टीका। त्या देवतांची नांवे ऐका। सांगेन ऋषि सकळिकां। अग्रि आप वरुणार्का। वायु इंद्र चंद्र असती ।।२७।। लघुशंकाचमन करोनि। तूष्णी स्नान करा सुमनीं। बैसार्वे शुचि आसनीं। अरुणोदय होय तंव ।।२८।। गायत्रीमंत्रजपाव्यतिरिक्त। वरकड जपावे पवित्र। प्रगट होतां अरुणोदित। बहिर्भूमीसी जाईजे ॥२९॥ यज्ञोपवीत कानीं ठेवोनि । डोईस पालव' घालूनि। नैर्ऋत्य दिशे जाऊनि। अधोमुखीं बैसावें ।।१३०।। दिवसा बसावें उत्तरमुखी । रात्रीं बसावें दक्षिणमुखी। मौन असावें विवेकीं। चहुंकडे पाहूं नये ।।३१।। सूर्य-चंद्रनक्षत्रांसी। पाहू नये नदीआकाशीं। खीजन लोक परियेसीं। पाहू नये कवणातें ।।३२।। शौचाविणें कांस घाली। कांस न काढी लघुशंकाकाळीं । त्यासी होय यमपुरी अढली। नरक भोगी अवधारा ।।३३।। अगत्य पड़े उदकावीण। करूनिया गंगास्मरण। मृत्तिकेनें शौच करणें । भक्षणादि वर्जावें ।।३४।। बहिभूमि जावयासी । ठाऊ कैसा परियेसीं। ऐका समस्त तत्परेंसी। म्हणे पराशर सर्वांत ।।३५।। न बैसार्वे भूमीवरी। बैसिजे पानगवतावरी। हिरवी पणे करावीं दूरी। वाळल्या पानी बैसार्वे ।।३६।। जे ब्राह्मण उभ्यां मुतती । त्यांसी ऐका कवण गति। त्यांचे रोमें अंगी किती। तावत्काळ बर्षे नरकीं पड़ती ।।३७।। मळविसर्जन करूनि । उठावें हातीं शिश्न धरूनि। जळपात्रापासीं जाऊनि । शौच करावें परियेसा ।। ३८।। मृत्तिकाशौच करावयासी । मृत्तिका आणावी तुम्हीं ऐसी। वारुळ मूषकगृह परियेसीं। नदीमधील आणू नये ।।३९।। ज्या मार्गी लोक चालती। अथवा वृक्षाखालील माती। देवालय क्षेत्रतीर्थी। मृत्तिका आपण वर्जावीं ।॥१४०।। बापी कूप तडागांत । मृत्तिका आणितां पुण्य बहुत। उदक करी घेऊनि प्रोक्षित। मृत्तिका घ्यावी शौचासी ।।४१।। आंवळ्याएवढे गोळे करावे । लिंगस्थानीं एक लावावें। अपानद्वारी पांच स्वभावें। एकेका हस्तासी तीन सप्ते ॥४२।। एकेक पावासी सात वेळ । मृत्तिका लावावी सकळ । आणिक सांगेन समय केवळ । ऋषि समस्त परियेसा ।।४३।। या मृत्तिका शौचविधान । मूत्रशंकेसी एक गुण। बहिर्भूमीसी द्विगुणः। मैथुनाअंती त्रिगुण देखा ।।४४।। आणिक प्रकार असे देखा। करावें येणेप्रमाणें ऐका । जितुके करणे गृहस्थ लोकां । द्विगुण करावें ब्रह्मचारी ।।४५।। त्रिगुण करावें वानप्रस्थे । चतुर्गुण करावें यतीं समस्तें। न्यून पूर्ण करावें यापरतें। धर्मसिद्ध होय देखा ।।४६।। येणें प्रकारें करा दिवसीं। रात्री याच्या अर्धेसी । संकटसमयीं या अर्धेसी। मार्गस्चें अर्थ त्याहूनी ।।४७।। व्रतबंध झालिया ब्राह्मणासी । हाच आचार परियेसीं। हाचि उपदेश चहूं वर्णांसी। शौचविधी बोलिला ।।४८।। शौच केलियानंतरी। चूळ भरावे परिकरी। ब्राह्मणें आठ भरी। क्षत्रियें सहा परियेसा ॥४९।। वैश्यें चार शुद्रे दोनी वेळ। येणें विधि भरा चूळ । अधिक न करावें केवळ। म्हणे पराशर ऋषि ।।१५०।। चूळ भरावे आठ वेळां। आचमावें तीन वेळां। शुचिस्थानी बैसून निर्मळा । कुळदेवता स्मरावी ।।५१।। तूष्णीम् आचमन करावें। नाम घेतां चोवीस ठावें। आतळावें पुनः आचमावें । त्याचा विधी सांगेन ।।५२।। विप्रदक्षिणतळहातीं। पांच तीर्थे विख्यात असती। जें बोलिलें असे श्रुतीं। सांगेन तीर्थ अवधारा ।।५३।। अंगुष्ठमूळ तळहातेसी । अग्रिब्रह्मतीर्थ परियेसीं। तर्जनी अंगुष्ठ मध्यदेशीं । पितृतीर्थ असे जाण ।।५४।। चतुर्थ अंगुलीचे वरी। देवतीर्थ अवधारी। कनिष्ठिका' भागोत्तरी। ऋषितीर्थ परियेसा ।।५५।। तर्पण देवपितृऋषि । जे स्थानी तीर्थे करावी हीं। आचमन ब्रह्मतीर्थेसी। करा ब्राह्मण विदुञ्जन ।।५६।। ब्रह्मतीर्थे आचमनें तिन्ही । केशव नारायण माधव म्हणोनि । देवतीर्थ उदक सांडोनि। गोविंद नाम उच्चारावें ।।५७।। विष्णु मधुसूदन हस्त धुवोनि दोन्ही । त्रिविक्रम वामन गाला स्पर्शोनि। बिंबोष्ठ तळहस्तें स्पशोंनि। श्रीधर नाम उच्चारावें ।।५८।। पुनरपि हस्त हृषीकेशी। पद्मनाभ पादद्वय स्पर्शी। सव्य हस्त पंचांगुलींसी। दामोदर शिखास्थानी ।।५९।। चतुरंगुलि पृष्ठदेशीं। संकर्षम घ्राणेंसी। तर्जनी आणि अंगुष्ठेसी। म्हणावा वासुदेव प्रद्युम्न ।।१६०।। अंगुष्ठ अनामिकेंसी । नेत्रस्पर्श श्रोतेंसी । कनिष्ठिका अंगुष्ठेसी । अच्युत नार्थी म्हणावे ।।६१।। पंचांगुलीं उपेंद्र देखा। हरी श्रीकृष्ण भुजा एका। पांच अंगुली विधिपूर्वका। येणें विधी स्पर्शावें ।॥६२।। येणें विधीं संध्याकाळीं । आणिक करावे वेळोवेळीं। अशौच अथवा संकटकाळीं । असती विधाने तीं ऐका ।।६३।। देवतीर्थे तिन्ही घ्यावें । हस्त प्रक्षाळा गोबिंद नांवें। मुख प्रक्षाळोनि मंत्र म्हणावे। संध्याव्यतिरिक्त येणेंपरी ।। ६४।। विधान' आणिक सांगेन । देवतीर्थे तिनी घेऊन। गोविंदनामें हस्त धुऊन । चक्षु श्रोत्र स्पर्शावे ।।६५।। शूद्रादि ओबळियासी। स्पर्श होतां परियेसी। आचमनविधि ऐसी। गुरु म्हणती ब्राह्मणातें ।। ६६ ।। भिजोनि आलिया पाउसांत । द्विराचमनें' होय पुनीत। स्नान भोजनीं निश्चित । द्विराचमन करावें ।। ६७।। फलाहार भक्षण करितां । अथवा आपण उदक घेतां। आला असेल स्मशानी हिंडतां । द्विराचमनें शुद्ध होय ।। ६८।। उदक नसे जवळी जरी। ओत्राचमन करा निर्धारी। आणिक असे एक परी। तूष्णीम् आचमन करावें ।।६९।। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी। आचमनविधी आहे ऐसी। जे करिती भक्तींसी। दैन्य कैचे तया घरीं ।॥ १७०।। आतां सांगेन विधान। करावया दंतधावनः । समस्त पर्वणी त्यजून। प्रतिपदा षष्ठी वर्जावी ।।७१।। न करावें नवमीद्वादशीसी। शन्यर्कमंगळवारेसी। श्राद्धकाली विवाहदिवसीं। करूं नये दंतधावन ।।७२।। कंटकवृक्षशाखेंसी । ताडमाडकेतकीसी । खजूरनारिकेलशाखेंसी। केलिया जन्म चांडाळयोनीं ।॥७३।। खदिरकरंज आघाडेंसी। औदुंबरार्कवटशाखेंसी । अथवा वृक्ष करर्वदेसी । पुण्य वृक्ष ऐका तुम्ही ॥७४।। विप्रै द्वादशांगुलेंसी। नवांगुलें क्षत्रियासी । षडांगुले वैश्यशूद्रांसी। दंतधावन काष्ठ आणावे ।।७५।। दंतधावनकाष्ठेसी। तोडितां म्हणावें मंत्रासी। आयुः प्रज्ञा नाम परियेसीं । म्हणोनि काष्ठ तोडावें ।। ७६।। दंतधावन करोनि ऐसें। काष्ठ टाकावें नैर्ऋत्य दिशे। चूळ भरोनि द्वादश। द्विराचमन करावें ।।७७।। मग करावें प्रातःस्नान । तेणें होय सर्व साधन। तेजोबलआयुष्यवर्धन। प्रातःस्नान केलिया ॥७८॥ प्रज्ञा वाढे दुःस्वप्ननाश । सकळ दैवतें होतीं वश। सौभाग्य सुख होती हर्ष । प्रातःस्नान केलिया ।।७९।। यतीं तापसा संन्यासी। त्रिकाळ करावें स्नानासी। ब्रह्मचारी विधींसी। एक वेळ करावें ।।१८०।। नित्य केलिया पापनाश असे। करावें याचि कारणें हर्षे। गृहस्थे वानप्रस्थे विशेषे । प्रातर्मध्याह्नों करावें ।।८१।। अशक्य संकट आलें जरी। अथवा न मिळे निर्मल वारि। स्नान करावयाची परी। सांगेन ऐका ब्राह्मणहो ।।८२।। अग्निस्नान भस्मस्नान। अथवा करावें वायुस्नान। करा विधीनें मंत्रस्नान। आपोहिष्ठा मंत्रानें ।।८३।। आणिक स्नानफळे असती। ज्यास असेल भावभक्ति। गुरुदेवता दर्शनमात्रीं। तीर्थस्नानफळे असे ।।८४।। अथवा दर्शन मातापिता। चरणतीर्थ भक्तीनें घेतां। अंगावरी प्रोक्षितां । तीर्थस्नानफळ असे ।।८५।। अथवा भिजेल पर्जन्यांत । उभा राहोनि वारा घेत। किंवा बैसावें गोधुळीत। स्नानफळ असे देखा ।।८६।। स्पर्श चांडाळा होतां । जलस्नानें होय शुचिता। शूद्राचा स्पर्श होतां । उपस्नान करावें ।।८७।। दृढ असे तनु' आपूलें। स्नान मुख्य करावें जलें। संधि-विग्रह-सांकडे पडलें । उपस्नान करावें ।।८८।। प्रातः स्नान करावयासी । शीतोदक उत्तम परियेसीं। अशक्तता असेल देहासी। उष्णोदके करावें ।।८९।। स्वभावें पवित्र असे उदक । वरी झालिया अग्निसंपर्क । पवित्र झालें उदक अधिक। गृहस्थासी मुख्य असे ।।१९०।। उष्णोदकें स्नान करितां । शीतोदक करा मिश्रिता। मध्ये करावें आचमन तत्त्वतां । संकल्प तेथे म्हणावा ।।११।। घरीं स्नान करितां देखा। अघमर्षण' तर्पण नव्हे निका। वत्रे पिळू नये ऐका। आपुले हस्तें करूनिया ।।९२।। पुत्रोत्साह संक्रांतीसी । श्राद्धकाळ मृतदिवसीं । न करावें स्नान उष्णोदकेंसी। अमावास्या पौर्णिमा ।।९३।। स्नान करितां बांधा शिखा। दर्भहस्ती सूर्याभिमुखा । मौन असावें विवेका। कवणासवें न बोलावें ।।९४।। आपोहिष्ठा मंत्रेसी। गायत्री तीन म्हणा सुरसी। येणेंपरी स्नानोदकासी । अभिमंत्रायें ब्राह्मणें ।।९५।। प्रथम शीतोदक घेऊनि । पश्चात् उष्णोदक मिळवोनि। स्नान करावें प्रतिदिनीं। गृहस्थांनी घरीं देखा ।।९६।। अवधूत मंत्र म्हणत। वस्र उकलायें त्वरित । उद्यंत मंत्र जपत । वस्र सूर्यासी दाखवावें ।॥९७।। आचमन करूनि आपण । देवस्यत्वा मंत्र जपोन । भूत वस्र नेसून। आणिक मंत्र जपावे ।।९८।। आवहंती वितन्वती मंत्र। वखें नेसावीं पवित्र। द्विराचमन करावे तंत्र । वख पिळोनि आचमन कीजे ।।९९।। आतां मंत्रस्नान करणें । सांगेन त्याचीं विधानें। आपोहिष्ठादि मंत्रानें । प्रोक्षावें शरीरावरी ।।२००।। पाद मूध्नर्जी हृदयस्थानीं। मूनर्जी हृदय पाद प्रोक्षोनि। करावें तुम्हीं मार्जनी। आपोहिष्ठा मंत्रेसी ।।१।। ऐसें स्नान करोनि। पुनः आचमन करोनि। मानसस्नान विधींनीं। करावें ऐका मक्तीनें ।।२।। नारायण विष्णुमूर्तीसी । स्नान करावें भक्तींसी। चतुर्भुज अलंकारेंसी। ध्यान केलिया मानसस्नान ।।३।। अपवित्रः पवित्रो वा। येणें मंत्रे हरि ध्यावा। उदकें देहे प्रोक्षावा। स्नानफळ अवधारा ।।४।। मंगलस्नानविधान। सांगेन ऐका ब्राह्मम। रविवारी निषेध जाण। ज्वर होय अंगासी ।।५।। नदीतीरी असे नरु। अशक्त असे शरीरु। गंगास्मरणें निर्धारु । आर्द्रवखें' अंग पुसावें ।।६।। कांतिहानी' सोमवारासी। मंगळवारी मृत्यु परियेसीं । लक्ष्मी पावे बुधवारेसी । धनहानि गुरुवारी ।।७।। शुक्रवारी पुत्रघात । शनिवारी अखिल संपत। जाण ऐसें निश्चित । मंगलस्नान करावें ।।८।। नदीस्नान प्रवाहमुखी। घरी प्रातः सूर्वाभिमुखी। संध्याकाळीं पश्चिममुखी । स्नान करावें अवधारा ।।९।। स्नान करितां नदौसी। अघमर्षण करावें परियेसीं। नमोऽप्रयेऽप्सुमते मंजेंसी। नदीस्नान करावें ।।२१०।। यदकांक्रूरं मंजेंसी। उदक लोटावें द्विहस्तेंसी। तीन वेळां लोटोनि हीं। इमं में गंगे जपावें ।।११।। ऋतं च सत्यं च मंत्र जपत। स्नान करावें गंगेंत। नदीस्नानविधि ख्यात। करा तुम्ही विप्रवर्ग ।।१२।। रोदनांती वमनांती' । मैथुनदुःस्वप्नदर्शनांतीं। स्नानावेगळे शुद्ध न होती। स्नान करावें अवधारा ।।१३।। आतां बखाये विधान' । सांगन ऐका ऋषिजन। ओलें वस्त्र कांसेवीण। नेसू नये गृहस्थानें ।।१४।। रक्तादि वस्रजीर्ण धोत्र । नेसूनि जे जन जप करीत । ते पुण्य जाय राक्षसांप्रत । एक घोत्र असलिया ।।१५।। चेतवस ब्राह्मणासी । मुख्य असे परियेसीं। उपवख ब्रहिर्वासी। उत्तरक्ख म्हणिजे तया ।।१६।। घोत्र नेसलिया नंतरी । विभूति लावावी परिकरी। मंत्रविधान पुरःसरी। भस्म धारण करावें ।।१७।। भस्म शुद्ध न मिळे जरी। गोपीचंदन लावावें परी। द्वारावती मुख्य घरी। वरकड मृत्तिका अग्राह्य ।।१८।। न मिळे द्वारावती देखा। करा धारण गंगामृत्तिका । ऊर्ध्वपुंडू असे निका। विष्णुसायुज्य होय तां ।।१९।। पुष्टिकाम असे ज्यासी । लावावें तेणे अंगुष्ठेसी । ज्यासी काम असे आयुषीं । मध्यांगुली लावावें ।॥२२०।। अन्नकाम अनामिकेंसी। तर्जनी काम्य मुक्तीसी। जे लाविती नखेंसी। महापातक घडे तयां ।।२१।। उत्तम रुंदी दशांगुलीं। मध्यम नव अष्ट अंगुलीं। सप्त सहा पंचांगुलीं। शूर्पाकार' लावावें ।।२२।। चतुर्थ त्रीणि द्वयांगुलीं। अधम पक्ष असे बोली। द्वादश नामें करा भलीं। विष्णुनाम उच्चारित ।।२३।। केशव म्हणावें ललाटस्थानीं । नाभीं नारायण म्हणोनि । माधवनामें हृदयस्थानी । कमळपुष्पाकार देखा ।।२४।। गोविंदनामें कंठेसी । विष्णुनामें कटिप्रदेशीं। दक्षिणभुजा मधुसूदनेंसी। नाभीं उत्तर त्रिविक्रम ।।२५।। वामन नामें बाहु देखा। श्रीधर दक्षिणकर्णिका । हृषीकेश वामकर्णिका । पद्मनाभ दक्षिणकटी ।।२६।। दामोदर शिरस्थान। ऐका ऊर्ध्वपुंडूविधान। पायें जाती जळोन। गोपीचंदन लाबितां ।। २७।। द्वारावती लावोनि । लावा भस्म त्रिपुंड्रांनीं। हरिहर संतोषोनि। साधे भुक्ति मुक्ति देखा ।।२८।। विवाहादि शोभन दिवसीं । देवताकृत्य श्राद्धदिवसीं । अभ्यंगानंतर सूतकेसी। गोपीचंदन वर्जावें ।। २९।। ब्रह्मयज्ञतर्पणासी। कुश सांगेन विस्तारेंसी। आहेती दश प्रकारेंसी। नामें सांगेन विख्यात ।। २३०।। दूर्वा उशीर कुश काश। सकुद' गोधूम ब्रीहि मौजीष । नागमोधा दर्भ परियेसा । दश दर्भ मुख्य असती ।।३१।। नित्य आणावे दूर्वेसी। जरी न साधे आपणासी । श्रावण भाद्रपदमासीं । संग्रह संवत्सरी करावा ।।३२।। चारी दूर्वा विप्रासी। त्रीणि क्षत्रिय वैश्यांसी। एक नेमिली शूद्रासी । चतुर्वणीं धरावें ।।३३।। या दुर्वेची महिमा। सांगतां असे अनुपमा। अग्रस्थानी असे ब्रह्मा । मूळीं रुद्र मध्ये हरि ।।३४।। अग्रभागी चतुरंगुल। ग्रंथी मूळीं द्वयांगुल। धारण करावें ब्रह्मकुळे। याची महिमा थोर असे ।।३५।। चक्र धरोनि विष्णु देखा। दैत्य पराभवी ऐका। ईंडर त्रिशूल धरितां देखा। राक्षसांतक केवी होय ।।३६।। इंद्र वज्रायुध धरितां। दैत्यगिरी विभांडी' तत्त्वतां । तैसे ब्राह्मण दूर्वा धरितां। पापदुरितें पराभवती ॥३७।। जैसे तृणाचे चणवीसी। अधिस्पर्श होतां नाशी। तेवी आलिया पापराशि। दर्भस्पर्शे जळती देखा ।।३८।। ब्रह्मयज्ञ जपसमयीं। ग्रंथि बांधावी कुशाग्रीं। वर्तुळाकार भोजनसमयीं। धरावी ब्राह्मणे भक्तीनें ॥३९।। कर्म आचरतां दुर्वेसी । ग्रंथि बांधावी परियेसीं। अग्रिस्पर्श कर्पूराशीं। पाप नाशी येणेंपरी ।।२४०।। एकादशांगुल प्रादेशमात्र । द्विदल असावें पवित्र। नित्य-कर्मासी हेंच पवित्र। द्विदल जाणा मुख्य असे ।।४१।। जपहोमादि दानासी । स्वाध्याय पितृकर्मासी। सुवर्णरजतमुद्रिकेसी। कुशावेगळे न करावें ।।४२।। देवपितृकर्मासी देख । रजत करावें सुवर्णयुक्त । तर्जनीस्थानों रौप्यमुद्रिका । सुवर्ण धरावे अनामिकेसी ।।४३।। मुद्रिका असावी खड्गपात्री' । कनिष्ठिकांगुली पवित्रीं। ग्राह्य नव्हे जीवंतपित्री। तर्जनांगुलीं मुद्रिका ।।४४।। योगपट उत्तरी देखा। तर्जनी स्थानीं रौप्यमुद्रिका। पार्टी न घालाव्या पादुका। गयाश्रद्ध न करावें ।॥४५।। नवरत्न मुद्रिका ज्याचे हातीं । पापें त्यासी न लागतीं। एखादें रत्न असतां हातीं। मुद्रिका पवित्र ब्राह्मणासी ।।४६।। प्रातः संध्येचे विधान । सांगेन ऐका ऋषिजन । नक्षत्र असतांचि प्रारंभून। अर्घ्य सूर्योदयों द्यावें ।।४७।। सूर्योदय होय तंव। जप करीत उभअसावें । उदयसमयीं अर्घ्य द्यावें। तत्पूर्वी देणें सर्व व्यर्थ ।।४८।। ऋषि पुसती पराशरासी। संध्या करावया विधि कैसी । विस्तारोनि आम्हांसी। सांगावें जी स्वामिया ।।४९।। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी। सांगेन संध्याविधीसी। ऐका तुम्ही तत्परतेंसी। पराशरस्मृतीसी असे ।।२५०।। गायत्रीमंत्रजप करितां। शिखा बांधावी तत्त्वतां । आसन घालावें निरुता । दर्भपाणि होऊनी ।।५१।। देवतीर्थे द्विराचमन। विष्णुनाम स्मरोन । प्राणायाम विस्तारोन । न्यासपूर्वक करावे ।।५२।। प्रणवाचा परब्रह्म ऋषि । गायत्री नाम छंदासी। परमात्मा देवता परियेसीं। म्हणा प्राणायामे विनियोगः ।।५३।। ॐ व्याहृति सत्यज्ञानिया। नाभि हृदय मूर्जी स्पर्शावया। व्याइति सप्त अतिशया। प्रत्येक देवता ऋषि सांगेन ।।५४।। व्याइति सप्त स्थानासी। ऐका असे प्रजापति ऋषि । प्रत्येक देवता परियेसीं । सप्त नामें देवांचीं ॥५५॥ अग्निर्वायु गुरुः सूर्य। वरुणेंद्र विश्वदेव। सप्त व्याहृति सप्त देव । छंद सप्त सगिन ।।५६।। गायत्री आणि उष्णिका। अनुष्टुप बृहती पंक्ति पंचम ऐका। त्रिष्टुप जगती छंद विशेखा' । प्राणायामे विनियोगः ।।५७।। ४० भूः पादन्यास । ॐॐ भुवः जानु, स्वः गुह्यः। ॐ महः नाभि स्थान स्पर्शा। जनो हृदय, तपो कंठ ।।५८।। सत्यभूर्ललाट जाणा। गायत्री छंदेसी म्हणा। विश्वामित्र ऋषि खुणा। प्राणायामे विनियोगः ।।५९।। ॐ भूहृदयाय नम इति। ॐ भुवः शिरसे स्वाहेति । ॐ स्वः शिखायै वषडिति । ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं कवचाय हूं ।। २६०।। ॐ भर्गोदेवस्य धीमहि नेत्रत्रयाय वौषट्। घियोयोनः प्रचोदयात् अखाय फट् । ॐ भूर्भु० इति दिम्बंधः। ऐसें षडंग करावे ।। ६१।। प्राणायामे विनियोगः म्हणूनि। आपोस्तन स्पोनि । ज्योतिनेंत्रस्पर्शस्थानीं । रसो जिव्हामृतललाटे ।।६२।। प्राणायाम करावयासी। प्रजापति म्हणती ऋषि । देवतानामें परियेसी । ब्रह्माग्रिवायु सूर्य असे ।। ६३।। ब्रह्मभूर्भुवः स्वः म्हणूनि। प्राणायाम करा तिन्ही। त्रिपदा गायत्री जप कोणी । जपणारासी सर्व सिद्धी ।।६४।। गायत्रीची अधिदेवता। ब्रह्माग्निवायु सविता। ऋषि ब्रह्मा असे ख्याता। सप्त लोकन्यास सांगेन ।। ६५।। पादन्यास भूलोंक। भुवः जानु अतिविशेख । स्वः गुह्य असे लोक । नाभिन्यास महलोंक ।।६६।। जनो हृदय तपो ग्रीवे। भ्रुवोर्ललाटे सत्यलोक म्हणावें। ऐसें शिरस्थान बरवें। सत्यलोक म्हणती तयासी ॥ ६७।। गायत्रीची प्रार्थना करूनि। प्राणायाम करा विधींनी। ब्रह्मचारी गृहस्थांनीं। पंचांगुलीं धरापरमेष्ठी ।। ६८।। वानप्रस्थ संन्यासी यती । अनामिकाकनिष्ठिकांगुष्डेंसी। ओंकारादि वायुपूरकेसी । दक्षिणनासापुटे चढ़वायें ।।६९।। वामनासापुटीं विसर्जीनि। करा प्राणायाम तिन्ही। येणेंचि विधीं करा मुनि । त्रिकालसंध्या कर्मे ।।२७०।। आतां करावें मार्जनसी । सांगेन ऐका समस्त ऋषि। जैसे असे स्मृतिचंद्रिकेसी । तेणें विधीं सांगतों ।॥७१।। आपोहिष्वेति सूक्तेसी । सिंधुद्वीप ऋषि गायत्री छंदेसी। आपोदेवता मार्जनासी। हा म्हणावा विनियोग ।।७२।। येणें मंत्रे म्हणोन । कुशपवित्रे करा मार्जन। यस्य क्षयाय मंत्र जाण। आपुले पाद प्रोक्षावे ।।७३।। आपोजनयथा मंत्रंसी। प्रोक्षावें आपुल्या शिरसीं । सूर्यचेति मंत्रेसी। उदक प्राशन करावें ।।७४।। हिरण्यवर्णसूक्लेसी। मार्जन करावें परियेसीं। द्रुपदादिवेति मंत्रेसी । घ्राणोनि' उदक सोडावें ।।७५।। आचमनें करोनि दोन। मार्जनविधान सांगेन । वामहस्ती पात्र धरून । मार्जन करा विशेषी ।।७६।। औदुंबर सुवर्ण' रजत'। काष्ठाचेही असे पवित्र। ऐसें असे निर्मळ पात्र । वामहस्ती उदक बरखें ।।७७।। मृण्मय' अथवा द्विमुख पात्र। भिन्न पात्र तें जाण अपवित्र। तें अग्राह्य देवापितरां। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।।७८।। मार्जनसंख्या सांगेन ऐका। शिरसी अष्ट पादे नवका । यस्य क्षयाय स्नान भूमिका। येणेंपरी मार्जन ।।७९।। आपः पुनन्तु मंजेंसी। प्राशनोदक माध्यद्वेसी। अग्रिश्चेति मंत्रसी। सायंसंध्या करावी ।।२८०।। प्राशनांतीं तुम्ही ऐका। द्विराचमन करा निका। आघ्राण करुनी सांडिजे ऐका। एक आचमन करावें ।।८१।। अर्घ्य द्यावयाचे विधान । सांगेन ऐका ऋषिजन। गोश्रृंगाइतुकें आकारोन । अर्घ्य द्यावें मनोभावें ।।८२।। गायत्रीमंत्र जपोनि। सायंप्रातांवों हंसः शुचिषेति माध्याह्रीं। अर्घ्य द्यावें अवधारा ।।८३।। प्रातर्माध्याह्रीं उमें बरवें । सायं अर्घ्य बैसोनि द्यावें। आचमन त्रिवारी करावें। करी प्रदक्षिणा असावादित्य ।।८४।। अर्घ्य द्यावयाचे कारण। सांगेन कथा विस्तारोन। राक्षस मंदेह' दारुण। तीस कोटि आहेती देखा ।।८५।। सूर्यासर्वे युद्धासी । नित्य येती परियेसीं। संदेह पडे देवांसी। सूर्या होईल अपजय ।।८६।। अपजय येतां सूर्यासी । उदयास्तमान न होय परियेसी। कर्मे न चालती ब्राह्मणांसी। स्वाहास्वधाकार न चाले ।।८७।। स्वाहास्वधाकार रहाती । समस्त देवांस उपवास होती। सृष्टि राहिली न होय उत्पत्ति। म्हणोनि उपाय रचियेला ।।८८।। वावि कारणें अध्र्घ्य देती। तीथि वज्रायुधे होतीं। जावोनि दैत्यांसी लागती। पराभविती प्रतिदिवसीं ।॥८९॥ दैत्य असती ब्रह्मवंश'। त्यांसी वधिलिया घडती दोष। प्रदक्षिणा करितां होय नाश। असावादित्य म्हणोनिया ।।२९०।। ब्रह्महत्याचिया पातकासी। भूप्रदक्षिणा दोष नाशी। चार पावलें फिरतां कैसी। भूमिप्रदक्षिणा पुण्य असे ।।९१।। संध्या करावयाचे स्थान। सांगेन ऐका फलविधान। परी करितां प्रतिदिन। एकचि फळ अवधारा ।।९२।। दश फळ ग्रामाबाहेर देखा। नदीस केलिया शताधिका। पुष्करतीरीं सहस्र ऐका। गंगासुरनदीं कोटिफल ।।९३।। सुरापान दिवा' मैथुन । अनृतादि वाक्यें पायें जाण। संध्या बाहेर करितां क्षण। जळती दोष तात्काळीं ।।९४।। स्थानें असती जप करावयासी। विस्तारें सांगेन तुम्हांसी। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी। एकचित्तें परियेसा ।।९५।। जप केलिया घरीं ऐका। एकचि फल असे देखा। बाहेर द्विगुणी फल अधिका। नदीतीरीं त्रिगुण फल ।।९६।। गोस्थळ वृंदावन देखा। दशगुण फल अधिका। अग्रिहोत्रस्थानी निका'। शतगुणफल अधिक असे ।।९७।। तीर्थ देवतासन्निधानी। सहस्रफल असे निर्गुणी। शतकोटि फल हरिसन्निधानी। इंचरसन्निधानीं अनंत फल ।।९८।। जप करितां आसनासी । विधिनिषेध आहे परियेसीं। सांगेन ऐका तत्परेंसी। पुण्य पाप बोलिलें असे ।।९९।। काष्ठासनों बैसोनि जरी। जप करितां मनोहरी। दुःख भोगी निरंतरी। अभागी पुरुष तो होय ।।३००।। पल्लवशाखांसी बसतां। सदा होय दुचिता । वस्रासनी दरिद्रता । पाषाणासनीं व्याधि होय ।।१।। भस्मासनी व्याधिनाश । कंबलासनी सुखसंतोष । कृष्णाजिनीं ज्ञानप्रकाश । व्याघ्रचर्मी मोक्षश्री ।।२।। कुशासनी वशीकरण । सर्व रोगांचे उपहरण'। पायें जाती पळोन । आयुः प्रज्ञा अधिक होय ।।३।। ॐॐ इत्येक्षारकमंत्री। जपावा तुम्हीं पवित्री। ध्यान करावें गायत्री । समस्त पापें हरती देखा ।।४।। गायत्रीचे स्वरूप आतां । अभिनव असे वर्णितां । रक्तांगी । वास रक्ता'। हंस वाहन असे देखा ।।५।। अकार ब्रह्मा अधिदेवता। चतुर्भुजा चतुर्वक्त्रा। कमंडलु अक्षसूत्रा' । चाटु' धरिला असे करी ।।६।। ऋग्वेद असे समागमर्मी। अग्निहोत्रफल आवाहयामि। मग आयातु वरदा देवी। म्हणावें ऐका ब्राह्मणानें ।।७।। त्या मंत्रासी ऋषि देवता। गायत्रीसदृश असे ख्याता। प्रातः संध्या तुम्ही करितां। विधि तुम्हां सांगेन ।।८।। गायत्री देवता गायत्री अनुष्टुप छंदः। ओं आदित्य देवता देवा । हे प्रातः संध्या म्हणतां भेद। गायत्री देवता गायत्री छंद ।।९।। गायत्री आवाहने विनियोगः। ही माध्याह्नसंध्या म्हणावी। सविता देवता गायत्री छंद । सरस्वती आवाहने विनियोगः ॥३१०।। प्रातः संध्येचें ध्यान। सांगेन ऐका तुम्ही गहन। रक्तांगी रक्तवसन' । हंसासनी आरूढ असे ।।११।। चतुर्बाहु चतुर्मुखी। कमंडलु धरिला विशेखी। अक्षरसूत्र चाटु हस्तकीं। ऋग्वेदसहित अग्निहोत्र ।।१२।। ऐसें ध्यान करोनि। मग म्हणावें अक्षरज्ञानी। एकचित्तें असा ध्यानीं। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।।१३।। ओंकारशिखामावाहयामि। छंदऋषीनावाहयामि। श्रियमावाहयामि। बलमावाहयामि ।।१४।। ऐसें म्हणोनि प्रातःकाळीं। संध्या करावी सुवेळीं। आतां सांगेन माध्याह्नकाळीं। ध्यान आवाहनपूर्वक ।।१५।। अभिभूरों सावित्रीध्यान। यौवनस्था माध्याह्न। सांगेन ऐका ऋषिजन। एकचित्तें परियेसा ।।१६।। खेतांगी श्वेतवस्त्र । वाहन असे वृषभ पवित्र। उकार रुद्रगण दैवत। पंचमुखा असे देखा ।।१७।। बरद अभयहस्त देखा । रुद्राक्षमाळा त्रिशूलधारका । यजुर्वेद असे देखा। अमिष्टोम फल जाणा ।।१८।। ओंकारशिखामाबाहयामि । छंदऋषीनावाहयामि । श्रियमावाहयामि। न्हियमावाहयामि ।।१९।। आतां सावंसंध्या ध्यान। सांगेन ऐका विधान । एकचित्तें ऐका वचन। ध्यानपूर्वक सांगेन ।।३२०।। अभिभूरों सरस्वती वृद्धा। जाणावी तुम्हीं सायंसंध्या। कृष्णांगी कृष्णवस्त्रपरिधाना। गरुडवाहन असे देखा ।।२१।। मकार विष्णुदेवता । चतुर्भुज शंखचक्रघृता । गदापद्यधारणहस्ता । सामवेदसहित जाणा ।।२२।। वाजपेयफल जाण । सायंसंध्या असे ध्यान । करावें ऐका तुम्हीं ब्राह्मण। म्हणोनि सांगती श्रीगुरु ।।२३।। ओंकारशिखामावाहयामि । छंदऋषीनावाहयामि । श्रियमाबाह्यामि । बलमाबाहयामि ।। २४।। पंचशीर्षोपनयने विनियोगः। प्रणवस्य परब्रह्म ऋषिः। परमात्मा देवता । गायत्री छंद ।।२५।। उदात्तस्वरित स्वरः अनिर्वायुः सूर्यदेवता। गायत्री त्रिष्टुप् जगती छंदः। ब्रह्माविष्णुमहेश्वरादेवताः। ऋग्यजुःसामानि स्वरूपाणि ।।२६।। आहवनीयाश्रिगार्हपत्य । दक्षिणानिउपस्थानानि । पृथिव्यंतरिक्ष द्यौस्तत्त्वानि । उदात्त अनुदात्तस्वरितस्वराः ।। २७।। पीतविद्युतचेतवर्णी । प्रातर्मध्याह्नतृतीयसवनानि । विश्वतैजसप्राज्ञस्वरूपिणी । जागृतीस्वप्नसुषुप्त्यवस्था ।।२८।। ऐसें त्रिपदा गायत्रीसी। सांगितलें त्रिविध' ध्यानासी। आतां विधान जपासी । सांगेन ऐका एकचित्तं ।।२९।। ममोपात्तदुरितक्षयद्वारा । श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः। ओं अं नाभी। वं हृदये मं कंठे ।।३३०।। भूः अक्षरमंत्रासी। गायत्री असे छदेसी। अनिर्देवता परियेसीं। विश्वामित्र ऋषि देखा ।।३१।। षड्ज स्वर श्वेत वर्ण। पादस्पर्श उच्चारोन। प्राणायामे विनियोगून। दुसरी व्याहृति म्हणावी ।।३२।। भुवः अक्षरमंत्रासी । उष्णिक् नाम छंदासी । वायुर्देवता परियेसीं। भृगु ऋषि असे जाण ।।३३।। असे रूपं श्यामवर्ण। पादस्पर्श रूप उच्चारोन । करा तुम्ही ऐसें ध्यान। जानूममध्यें न्यासावें ।। ३४।। प्राणायाम विनियोग म्हणोनि । न्यास करावे भक्ति भावनीं । स्वः वाइति म्हणोनि । ध्यान करा भक्तीनें ।।३५।। स्वः व्याहृतिमंत्रासी। म्हणा अनुष्टुप् छंदासी। सविता देवता परियेसीं । भारद्वाज ऋषि जाण ।।३६।। स्वर गांधार पीतवर्णा। कंठीं स्पोंनि मंत्र म्हणा । प्राणायामे विनियोग जाणा । तृतीय व्याहृतिमंत्रासी ।।३७।। ॐ महः मंत्रासी। बृहती छंदासी। बृहस्पति देवता परियेसीं । वसिष्ठ ऋषि निधरि ।। ३८।। मध्यम स्वर पिशंग' वर्ण'। ऐसे करा तुम्ही ध्यान। वेगें म्हणा नाभीं स्पशोंन । प्राणायामें विनियोगः ।।३९।। जन मंत्र उच्चारासी । म्हणा पंक्ति छंदासी। वरुण देवता गौतम ऋषि पंचम स्वर असे जाम ।।३४०।। रूप असे नीलवर्ण । करा न्यास हृदयस्थान। प्राणायामे विनियोगून। जनः पंचन्यास ऐसे ।।४१।। तपः मंत्र न्यासासी। ईश्वर छंद परियेसी । ईश्वर देवता कश्यप ऋषि । धैवत स्वर परियेसा ।।४२।। असे आपण लोहवर्ण। स्पर्श करावें कंठस्थान। प्राणायामे विनियोगून। न्यास करावा ब्राह्मणहो ।।४३।। सत्यं म्हणतसे मंत्रासी। करावें जगती छंदासी । विश्वेदेव अंगिरस ऋषि। निषाद स्वर जाणावा ।।४४।। रूप असे कनकवर्ण। ध्रुवोर्ललाटा स्पर्शन। प्राणायामे विनियोगून । न्यास करावा भक्तीनें ।।४५।। इतुके न्यास करोनि। हस्त ठेवा शिरस्थानीं । ध्यान करा विधानों। सांगेन ऐका ब्राह्मणहो ।।४६।। शिरस्थान स्पर्शासी। म्हणा अनुष्टुप् छंदासी। उच्चार प्रजापति ऋषि। परमात्मा देवता जाण ।।४७।। प्राणायामे विनियोगून। मग करावें गायत्रीध्यान । ॐ आपोज्योति म्हणोन । मंत्र म्हणा भक्तीनें ।।४८।। ॐ आपोज्योतिरसोमृतं । ब्रह्मभूर्भुवः स्वरों । शिरसी येणें विधीं । अंगन्यास करावे ।।४९।। बोवीस अक्षरें मंत्रासी। न्यास सांगेन एकाएकासी'। एकचित्तें परियेंसी। म्हणे पराशर ऋषि तो ।।३५०।। वा त्रिपदा गायत्रीसी। असे विश्वामित्र ऋषि। देवी गायत्री छंदेसी। वर्ण देवता सांगेन ।।५१।। ऐसें त्रिपदा गायत्रीमंत्रासी। चोवीस अक्षरें परियेसीं । पृथक् न्यास परियेसी । सांगेन ऐक द्विजोत्तमा ।।५२।। तवर्णाक्षर मंत्रासी। जाणा विश्वामित्र ऋषि। अग्नि देवता परियेसीं। गायत्री छंद म्हणावा ॥५३।। अतसीपुष्पें वर्णं जैसी। तद्रूप वर्ण असे परियेसीं। वायव्य कोण स्थान त्यासी। गुल्फन्यास' करावा ॥५४।। त्सवर्णाक्षर मंत्रासी । असे विश्वामित्र ऋषि। वायुदेवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद देखा ।।५५।। जंघस्थानीं असे न्वास । सौम्यरूपे पिवळे सुरस। सर्व पापें दहती परयेस । त्सवर्णाचे लक्षण ।।५६।। विवर्णनाम अक्षरासी । जाणा विश्वामित्र ऋषि । सोमदेवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद देखा ।।५७।। न्यास कराक्या जानुस्थान । इंद्रनील विद्युद्वर्ण। ऐसें अक्षरविधान । महारोग हरती देखा ।।५८।। तुवर्ण नाम अक्षरासी । असे विश्वामित्र ऋषि। विद्युद्देवता परियेसीं । देवी गायत्री छंद देखा ।।५९।। न्यास करा जानुस्थानीं। दीप्ति असे जैवा पछि। रूप असे साम्यपणीं । भ्रूणहत्यापाप नाशी ॥३६०।। र्ववर्ण अक्षरासी। असे विद्यामित्र ऋषि। सोमदेवता परियेसीं । देवी गायत्री छंद देखा ।।६१।। सुवर्णस्फटिककांति। गुह्यस्थानी न्यास बोलती। समस्त अघौघ' नाशती। रूपार्ववर्णस्थाना उत्तम ।।६२।। रेवर्ण नाम अक्षरमंत्रासी। असे विश्वामित्र ऋषि। वरुण देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद देखा ।।६३।। णिकार वृषणस्थान जाणा । विद्युत्प्रकाशरूपधारणा। बार्हस्पत्यनाम खुणा । अभीयपापक्षालन ।।६४।। णिवर्णाक्षर मंत्रासी। जाणा विश्वामित्र ऋषि। बृहस्पति देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद देखा ।। ६५।। यं कटिस्थान शांताकारवर्ण । देहहत्यापापञ्वलन। न्यास करावें सगुण। विद्वज्जन ब्राह्मणा ।।६६।। यं अक्षर म्हणावयासी । असे विश्वामित्र ऋषि। तारका दैवत परियेसीं। देवी गायत्री छंद असे ।।६७।। भकारा नाभीं करा न्यास । कृष्णमेघवर्ण सुरस। पर्जन्य दैवता संकाश। गुरुहत्यापाप नाशी ।।६८।। भवर्ण नाम अक्षरासी । असे विश्वामित्र ऋषि । पर्जन्य देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।। ६९।। गर्मो अक्षरा उदर न्यास । ध्यान रक्तवर्ण सुरस । इंद्र देवता परियेस । गोहत्येचें पाप जाय ।।३७०।। गोवर्ण नाम अक्षरासी। जाणावा विश्वामित्र ऋषि । इंद्र देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ॥७१।। देकारन्यास स्तनासी। गंधर्व नाम देव परियेसीं । श्रीहत्यापाप नाशी । एकचित्ते परियेसा ॥७२॥ देवर्ण नाम अक्षरासी। जाणा विश्वामित्र ऋषि। गंधर्व देवता परियेसीं । देवी गायत्री छंद देखा ।।७३।। चकार हृदयस्थानन्यास। शुक्ल रूप वर्ण परियेस। पूषा देवता असे त्यास । बाणीजातपाप नाशी ।।७४।। ववर्णाक्षर मंत्रासी। जाणावा विश्वामित्र ऋषि। रुद्र देवता परियेसीं । देवी गायत्री छंद जाणा ।।७५।। स्य अक्षरा कंठन्यास। कांचनवर्ण रूप सुरस। मित्र देवता परियेस। मार्जारकुक्कुटपाप' जाय ।।७६।। स्ववर्ण अक्षर मंत्रासी। असे विश्वामित्र ऋषि। मित्र देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ॥७७।। घीकाराक्षरमंत्र दंतीं न्यास। शुक्लकुमुदसंकाश'। त्वष्टा देवता परियेस । पितृहत्यापाप जाय ।।७८।। धीवर्ण नाम अक्षरासी। जाणा विश्वामित्र ऋषि। विष्णु देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।७९।। मकारन्यास तालुस्थान । पच तेजोमय जाण। वासुदेव असे खूण। सर्वजन्मपाप जाय ।।३८०।। मकार वर्णाक्षरमंत्रासी। असे विश्वामित्र ऋषि । वासुदेव देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।८१।। हिकार नासिकीं करा न्यास । शंखवर्ण असे त्यास । वासुदेव देवता परियेस । सर्व पाप हरण होय ।।८२।। हिवर्ण नाम मंत्रासी। जाणा विश्वामित्र ऋषि। मेरु देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।८३।। घिकारा नेत्रस्थानी न्यास। पांडुरभास संकाश । सोम देवता परियेस । पाणिग्रहणपाप नाशी ।।८४।। धिवर्ण नाम अक्षरासी । तोचि विश्वामित्र ऋषि । सोमदेवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।८५।। योकाराक्षर मंत्रासी । ध्रुवोर्मध्ये न्यासिजे त्यासी। रक्तगौरवर्ण रूपेंसी । प्राणिवधपाप जाय ।।८६।। योकाराक्षर नामाक्षरासी। जाणा विद्यामित्र ऋषि। यमदेवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।८७।। योकार ललाटस्थानी न्यास। रूप रुक्मांभसंकाश। सर्व पाप होय नाश। भक्तिपूर्वक न्यासावें ।।८८।। योवर्णाक्षर मंत्रासी। तोचि विश्वामित्र ऋषि। विश्वे देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।८९।। नकारा उदित प्राङ्मुखा। सूर्यासमान तेज देखा। अश्चिनौ देवता असे निका। विराजमान परियेसा ॥३९०।। नकाराक्षर वर्णासी । जाणा विश्वामित्र ऋषि। अचिनी देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।९१।। प्रकाराक्षरन्यास करोनि दक्षिणे। रूप असे नीलवर्ण। प्रजापति देवता जाण । विष्णुसायुज्य पाविजे ।।१२।। प्रवर्णाक्षर मंत्रासी। असे विश्वामित्र ऋषि। प्रजापति देवता परिवेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।९३।। चोकार वर्ण मंत्रासी । न्यासिजे तया पश्चिम भागासी। कुंकुमरूपवर्ण त्यासी। सर्वदेवपदवी पाविजे ।।९४।। चोकार वर्ण मंत्राक्षरासी । जाणावा विश्वामित्र ऋषि । सर्व देवता परियेसीं। गायत्री देवी छंद जाणा ।।९५।। दकाराक्षराचा उत्तरे न्यास। शुक्लवर्ण रूप सुरस। करावे तुम्हीं ऐसे न्यास। कैलासपद पाविजे ।।९६।। दकाराक्षर मंत्रासी । जाणा विश्वामित्र ऋषि। रुद्र देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।९७।। याकार मूर्धास्थानी न्यास । सुवर्णरूप सुरस। ब्रह्मस्थाना होय वास । श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।।९८।। यावर्णाक्षर मंत्रासी। असे विश्वामित्र ऋषि । ब्रह्मदेवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।९९।। तकार न्यास शिखास्थानीं। निरुपम वैष्णवभुवनीं । विष्णुरूप धरोनि। वैकुंठवासी होय जाणा ।।४००।। तकार वर्णाक्षरमंत्रासी। जाणा विश्वामित्र ऋषि। विष्णु देवता परियेसीं। देवी गायत्री छंद जाणा ।।१।। ऐसे चोवीस अक्षरमंत्रासी। न्यास करावे विधींसी । हस्त ठेवोनिया शिरासी । आणिक न्यास करावे ।।२।। शिरस्थानी न्यासासी । म्हणावें अनुष्टुप् छंदासी। ख्याति प्रजापति ऋषि। परमात्मा देवता जाणा ।।३।। प्राणायामे विनियोग म्हणोनि । ओ आपोस्तन स्पोंनि । ज्योतिर्नेत्र स्पशोंनि। रसोजिह्वा न्यासावें ।।४।। अमृतेति ललाटेसी'। मुनि स्पोंनि ऐसी । ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोमासी। न्यास' करा येणे विधीं ।।५।। इतुके न्यास करोनि। गायत्री त्रिवार म्हणोनि। व्यापक न्यास करोनि । करशुद्धि करा तीन वेळां ।।६।। भुः स्वः विन्यसोनि। गायत्रीच्या दश पदांनी। दशांगुलीं न्यासोनि । पादप्रमाण करावें ।।७।। अंगुष्ठमूल धरोनि। कनिष्ठिका स्पोंनि। उभव हस्त न्यासोनि। दशपादांगुलीं न्यासावें ।।८।। चोवीस अक्षरमंत्रासी। अंगुलिन्यास करा हीं। तर्जनी मूलादारम्वेसी । कनिष्ठिकापर्यंत ।।९।। द्वादशाक्षरी एकैक हस्त । करावे न्यास सुनिश्चित । षडंगन्यास समस्त । प्रणवासहित करावे ।।४१०।। ओं भूः हिरण्यात्मने । अंगुष्ठाभ्यां नमः। ओं भुवः प्रजापत्वात्मने। तर्जनीभ्यां नमः ।।११।। ओं स्वः सूर्यात्मने मध्यमाभ्यां नमः। ओं महः ब्रह्मात्मने अनामिकाभ्यां नमः । ओं जनः, ओं तपः, ओं सत्यं, कनिष्ठिकाभ्यां नमः। प्रचोदयात् करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।।१२।। ओ तत्सवितुः अंगुष्ठाभ्यां हृदयाय नमः। वरेण्यं तर्जनीभ्यां शिरसे स्वाहा । भर्गोदेवस्य मध्यमाभ्यां शिखायै वषट्। धीमहि अनामिकाभ्यां कवचाय हूं ।।१३।। थियोयोनः कनिष्ठिकाभ्यां नेत्रत्रयाय वौषट् । प्रचोदयात् करतलकरपृष्ठाभ्यां अखाय फट् । उभयहस्तांगुलिन्यासां कुर्यात् । अथ षडंगन्यासः ।।१४।। ऑ भूः हिरण्यात्मने हृदयाय नमः। ओं भुवः प्रजापत्यात्मने शिरसे स्वाहा। ओं स्वः सूर्यात्मने शिखायै वषट्। ओ महः ब्रह्मत्मने कवचाय हूं ।।१५।। ओं जनः, ओं तपः, ओं सत्यं, सोमात्मने नेत्रत्रयाय वौषट् । प्रचोदयात सर्वात्मने अखाय फट । ओं तत्स० हृदयाय नमः ।।१६।। ओं वरेण्यं शिरसे स्वाहा। भगदिवस्य शिखायै वषट् । धीमहि कवचाय हूं। धियोयोनः नेत्रत्रयाय वौषट् । प्रबोदवात् अस्राय फट् ।।१७।। षडंगन्यास करोनि । अंगन्यास दशस्थानीं । त्यांची नांवे सांगेन कानीं। एकचित्तें अवधारा ।।१८।। पादजानुकटिस्थानीं । नाभिहृदयकंठभुवनीं। तालुनेत्र स्पशौनि । ललाटशिरी दशस्थान ।।१९।। गायत्रीमंत्राच्या दहा पदांसी। दशस्थान अंगन्यासासी । तत्सवितुर्वरेण्येसी। भर्गोदेवस्य पंचम स्थान ।॥४२०।। धीमहि म्हणजे षष्ठ स्थान। घियो साप्तम स्थान जाण। योकारो अष्टम अंगन्यास पूर्ण। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।।२१।। नकार नवम मंत्रस्थान । प्रचोदयात् दहावें जाण। अंगन्यास येणे गुण। करा तुम्ही द्विजोत्तमा ।॥२२॥ चतुर्विंशति अक्षरांसी। करावें अंगन्यासासी। पादांगुष्ठस्पर्श हीं। शिखादारभ्य न्यासावें ।।२३।। तं अंगुष्टाभ्यां नमः त्सं गुल्फयोर्नमः। वि जंपर्योर्नमः। तुं जानुभ्यां नमः ।।२४।। व ऊरुभ्यां नमः। रें गुह्याय नमः । णीं वृषणाय नमः। यं कटिभ्यां नमः ।। २५।। में नाभ्ये नमः। गाँ उदराय नमः। दें स्तनाम्यां नमः। वं हृदयाय नमः ।।२६।। स्यं कंठाय नमः। धीं दंतेभ्यो नमः। में तालवे नमः। हिं नासिकायै नमः ॥२७।। घि नेत्राभ्यां नमः। यों ध्रुवोर्मध्याय नमः। यो ललाटाय नमः । नः प्राङ्मुखाय नमः ।।२८।। प्र दक्षिणमुखाय नमः। चो पश्चिममुखाय नमः। दे उत्तरमुखाय नमः। यां मूध्र्ने नमः। तं शिखायै वषट् ॥२९।। ऐसें न्यास करोनि। पुनः पादांगुष्ठ धरोनि। कटिपर्यंत न्यासोनि । ऊर्ध्वन्यास करावे ।।४३०।। तकारा अंगुष्ठस्थान। त्सकार गुल्फ असे स्थान । विकार जंघास्थान । ऐका ब्राह्मणा म्हणती गुरु ।।३१।। तुकार जानूर्वकार ऊरवे। वकार गुह्यपूर्वक स्पर्श। णिकारा वृषणस्थान बरवें । तुकार कटिस्थान न्यास ।।३२।। शिखा धरोनि पादपर्यंत। करावे न्यास उतरत । त्यातें सांगेन आदिअंत। एकचित्तें परियेसा ।।३३।। तं नमः शिखायै विन्यस्य। यां नमः मुर्ध्नि विन्यस्य। दं नमः उत्तरशिखायां न्यस्य । चों नमः पश्चिमशिखायां ॥३४।। प्रं नमः दक्षिणशिखायां नं नमः प्राङ्मुखे। यों नमः ललाटे। यों नमः भुवोर्मध्ये ।।३५।। पिं नमः नेत्रत्रये। हिं नमः नासिकयोः। में नमः तालौ। धीं नमः दंतेषु ।।३६।। स्यं नमः कंठे। वं नमः हृदये । दें नमः स्तनयोः। गाँ नमः उदरे। भं नमः नाभी ।। ३७।। प्रणवादि नमोंत न्यास करावे। आकार नाभीं उकार हृदये । मकार मुखे नकार ललाटे। मकार शिरसि हस्तेन नमस्कृत्वा ।।३८।। अथ मुद्रासंपुटप्रकारी । चतुर्विंशति अवधारी । सांगेन त्यांचा विस्तार परी। ऐका ब्राह्मण एकचित्तें ।।३९।। ग्लोक । सुमुखं संपुटं चैव विततं विस्तृतं तथा । द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुः पंचमुखं तथा ।।४४०।। षण्मुखाधोमुखं चैव ध्यापकाजलिकं तथा। शकटं यमपाशं च ग्रंथितं चोल्मुकोल्मुकम् ।।४१।। प्रलंबं मुष्टिकं चैव मत्स्यकूमों वराहकम्। सिंहाक्रांत महाक्रांत मुद्ररं पल्लवं तथा ।।४२।। एता मुद्रा न जानाति गायत्री निष्फला भवेत्। एता मुद्रास्तु कर्तव्या गायत्री सुप्रतिष्ठिता ।।४३।। अस्यार्थः । सुमुखं ।।१।। संपुटं ।।२।। विततं ।।३।। विस्तृतं ।।४।। द्विमुखं ।।५।। त्रिमुखं ।।६।। चतुर्मुखं ।।७।। पंचमुख ।।८।। षण्मुखं ।।९।। अधोमुखं ।।१०।। व्यापकाजलिकं ।।११।। शकटं ।।१२।। यमपाशं च ।।१३।। ग्रंथितं ।।१४।। चोल्मुकोल्मुकं ।।१५।। प्रलंबं ।।१६।। मुष्टिकं ॥१७॥ मत्स्यः ।।१८।। कूर्मः ।।१९।। वराहः ॥२०॥ सिंहाक्रांत ।।२१।। महाक्रांतं ।।२२।। मुट्ठरं ।।२३।। पल्लवं ।।२४।। मुद्राविण गायत्रीमंत्र। जप करितां सर्व व्यर्थ । या कारणें करावें पात्र । मुद्रापूर्वक जप करावा ।।४४।। गौप्य करावा मुद्रायुक्त । प्राणायाम करा निश्चित । समस्त पापक्षयार्थ । म्हणोनि अष्टोत्तरीय संकल्पावें ।।४५।। या गायत्रीप्रथमपादासी । म्हणा ऋग्वेद असे ऋषि। भूमितत्त्व परियेसीं। ब्रह्मा देवता त्रिष्टुप् छंद ।।४६ ।। द्वितीयपाद गायत्रीसी। यजुर्वेद असे ऋषि । रुद्रदेवता प्राणापानव्यालतत्त्वेंसी। जगती म्हणा अहर्निशीं ।।४७।। गायत्री तृतीयपादासी। ऋग्यजुः सामतत्त्व परियेसीं । विष्णु देवता त्रिष्टुप् छंदेसी। समस्तपापक्षयार्थ विनियोग ।।४८।। भूमिस्तंभ परियेसीं। गायत्री छंदासी। म्हणावें ब्रह्मपदासी । ब्रह्मा दैवत जाणावें ।।४९।। गायत्रीचे ध्यान। सांगेन तुम्हां विधान। एकचित्तें करा पठण । श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।।४५०।। ।। म्लोक ।। मुक्ताविद्रुमहेमनीलघवलच्छायैर्मुखैखीक्षणैर्युक्तामिंदुकलानिबद्धमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम् । गायत्रीं वरदाभवांकुशकशां शुभ्र कपालं गदां शंखं चक्रमथारविद्युगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ।।५१।। ऐसे ध्यान करोनि। जप करावा नासिकाग्रनयनीं। अंतीं षडंग न्यासोनि। जप करा येणेंपरी ॥५२।। गायत्रीमंत्राची प्रशंसा । एकचित्तें परियेसा मंत्रनाम असे विशेषा। अक्षरें दोनी पाप हरे ।।५३।। मकार म्हणजे आपुले मन । त्रकार नाम आपुला प्राण। मन प्राण एकवटोन। जप करावा एकचित्तें ।।५४।। जप म्हणजे अक्षरें दोनी । प्रख्यात असती त्रिभुवनीं। जकार जन्म विच्छेदोनि । पकारें जन्मपाप दुरी ।।५५।। चारी बेदांस मूळ एका। गायत्रीनाम नाशी पातका। याचि कारणें करावा निका। बेदपठणफळ असे ।।५६।। ऐसा मंत्र न जरी जपे नर । वृथा जन्म जैसा सूकर। जप करा हो निर्धार। वितिलें फल पाविजे ।।५७।। न करावा उदकीं बैसोन । त्वरित होय प्रज्ञाहीन । याचि कारणें सांगेन विस्तारोन। अधि तीनि विप्रमुखीं ।।५८।। आहवनीय गार्हपत्य । दक्षिणामि तिसरा विख्यात । अधिउदकसंपर्क त्वरित । तेजत्व जाय अग्नीचे ।। ५९।। या कारणें उदक वर्जीनि । बैसिजे उत्तम आसनीं। हस्तस्पर्शी नाभिस्थानीं। जपावा माळ धरोनिया ।।४६०।। उभेनी जपावा प्रातःकाळीं । वैसोनि कीजे माध्याह्नकाळीं। अथवा उभा ठाकोनि। उभय पक्षीं करावा ।। ६१।। माध्याह्रीं हृदयस्थानीं। जपावा माळ धरोनि । हस्त मुखें स्पर्शोनि। सायंकाळीं जपावा ।।६२।। बैसोनि जपावा सायंकाळीं । पहावा वृक्ष निर्मळीं। जरी वृक्ष नसे जवळीं। नासाग्रनयनीं जपावा ।।६३।। ब्रह्मचारी गृहस्थासी। जप नेमिला अष्टोत्तरेंसी । वानप्रस्थ संन्यासी यांसी। सहस्र मुख्य करावा ।। ६४।। संधिविग्रह' होय जरी। अष्टाविंशति तरी करी। अशक्त होय जरी। दहा वेळ जपावा ।।६५।। उत्तम पक्ष मानसीं। मध्यम गौप्य सुमुखेंसी। अक्षरें प्रगट वाक्वेंसी। कनिष्ठ पुकार परियेसा ।।६६।। त्रिपाद असती गायत्रीसी। मिळोनि म्हणावी परियेसीं। न म्हणतां होय महादोषी । महानरक अवधारा ।। ६७।। पृथक करोनि त्रिपदासी। जपा मंत्र अतिहीं। ब्रह्महत्यादि पापें नाशी। अनंत पुण्य लाघिजे' ।।६८।। अंगुष्ठजपें एक पुण्य। पाँगुलीनें दशगुण । शंखमणीनें होय शतगुण । प्रवालमाला सहस्रफळ ।।६९।। स्फटिकमणि दहासहस्र । मौक्तिकें पुण्य लक्षाधिक। पद्माक्षी निर्गुण जप। दशलक्ष पुण्य असे ।।४७०।। कोटिगुणें सुवर्णमाला। कुश रुद्राक्ष अनंतफला। जप करा नित्य काळा। गौप्यमाला धरोनिया ।।७१।। गौप्यमाला करकमलीं। जप करा निश्चलीं। सौख्य पावे अनंत फळीं। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणांतें ।।७२।। जप करितां नुल्लंधिजे' मेरु। उल्लुंधितां पाप बोलिले अपारु । प्राणायाम केलिया त्रिवारु। मेरुलंघनपाप जाय ।।७३।। गायत्रीजप तीन दिवस । प्रत्यही करावा एकादश । सर्व पातके होती नाश। त्रिरात्रीचे पाप जाय ।।७४।। अष्टोत्तरशत जप करितां। अपोर पातक जाय त्वरिता । करोनि सहस्र जप एकाग्रता । उपपातके नासती ।।७५।। महापातकादि दोषासी। कोटि जप करावा परियेसीं। जें जें कर्म इच्छिसी। त्वरित होय अवधारा ।। ७६।। जप करावा मन दृढें। न पहावें मार्गे पुढें। शूद्रादिक यातीकडे । संभाषण न करावें ।।७७।। द्रव्य घेवोनि एखाद्यासी। जपतां होय अनंतदोषी । चांडाळयोनीत भरंवसीं । जन्म पावे परियेसा ।।७८।। कंडू नये शरीर आपुलें । नेणतां जरी इतुके पडलें । श्रोत्राचमन करा वहिलें। दोष नाहीं अवधारा ।। ७९।। ब्राह्मणाचे दक्षिणकर्णी। सप्त देवता ऐका निर्गुणी । स्पर्श करितां तत्क्षणीं । पायें जाती परियेसा ।।४८०।। दूदृष्टीं पडतां चांडाळासी। द्विराचमनें शुद्ध होसी। संभाषण झालिया पतितासी । आचमनस्नान करावें ।।८१।। जपतां निद्रा वेई जरी। अधोवायु जांभई आलियावरी । क्रोधरूपें जपतां जरी। पापरूपें अवधारा ।।८२।। मौन्य करावें हे उत्तमीं। अगत्यें बोलिजे संधिविषयीं। तद्विष्णो मंत्र जपतां कीं। पायें जाती सकळिक ।।८३।। नेणतां घडे इतुकें जरी। आचमन करावें श्रोत्रीं। अग्नि सूर्यधेनुदर्शन करी । विष्णुमंत्र जपावा ।।८४।। ऐसा जप करावा विधीनें। मनकामना होय पूर्ण। ऐकती समस्त ऋषिजन । म्हणोनि सांगे पराशर ।।८५।। गायत्री जपानी ऐशी। प्रातःकाळी म्हणा मित्रस्य ऋषि। उदत्यं मंत्र माध्याद्धेसी । इमं में वरुण सायंकाळीं ।।८६।। शाखापरत्वें मंत्र असती। म्हणावे विधी जैसे असती। गोत्र प्रवर म्हणा भक्तीं । वृद्धाचाराप्रमाणें ।।८७।। चारी दिशा नमोनि। प्रदक्षिणा करावी सगुणी। गोत्र प्रवर उच्चारोनि। नमस्कार करा परियेसा ।।८८।। ऐसी संध्या करून। मग करावें औपासन। सांगेन त्याचे विधान। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।।८९।। सायंत्रातर्वेळा दोन्हीं। औपासन करावें सगुणीं। मिळोनि न करावें द्विजजनीं। सर्वांनी पृथक् पृथक् हेचि जाणा ।।४९०।। न करावें बेळणी आळंद्यांत। भूमीवरी न करा नित्य। स्थंडिलीं करावें विहित । अथवा उदकें सारवावें ।।९१।। कुंडी स्थापोनि अग्रीसी। करावें नित्य उपासनेसी। बारा घालों नये त्यासी। हातें पर्णी आणि सुपें ।।९२।। व्याधिष्ठ पर्णवातें होय। सुपें दरिद्र धनक्षय। मुखें फुंकिलिया आयुष्य जाय। हस्तमूळीं होय मृत्यु ॥९३।। फुंकणी अथवा विझण्यासी। वायु घालावा अश्रीसी। काष्ठे समृद्धि परियेसीं। ज्वलित असावा अनि देखा ।।९४।। ज्वाला निघती जये स्थानीं। आहुति घालावी तया बदनीं। समिधा आणाव्या ब्राह्मणीं। शूद्रहस्ते घेऊं नये ॥९५।। समिधा पुष्पें दूर्वा देखा। आणों नये शूद्रे ऐका। होमद्रव्यें होती विशेखा। सांगेन नांवें परियेसा ।।९६।। साळी सांवे नीवार । तंदुल असती मनोहर। गोधूम जव निर्धार। वावनाळ मुख्य असे ।।९७।। साठी दाणे मिति प्रमाण । आहुति मुख्य कारण। अधिक न कीजे अथवा न्यून। घृतसंपर्क करावें ।॥९८।। घृत नसेल समवासी । तिल पवित्र होमासी । तिळांचे तेल परियेसीं। तेही पवित्र असे देखा ।।९९।। औपासन केलियावरी। ब्रह्मयज्ञ तर्पण करी। सांगेन विधि अवधारी। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ॥५००।। मुख्य सकळ प्रातः कर्मे सारोनि । ब्रह्मयज्ञ करावा माध्याह्रीं । उपासनादि कर्म करोनि। मग करावा ब्रह्मयज्ञ ।।१।। उदकसन्निध मुख्य स्थानीं। करावें तर्पण ब्राह्मणी। प्राणायाम तीन करोनि। विद्युदसि मंत्र जपावा ।।२।। दुर्वा घेऊन दक्षिण करी। पूर्वमुख अथवा उत्तरीं। बसावें वाम पादावरी । दक्षिण पाद ठेवोनि ।।३।। उभयहस्तसंपुटेंसी। ठेवावे दक्षिण जानुवासी। म्हणावें तीन प्रणवांसी । मग म्हणावें ऋचाक्षर ।।४।। ओं भूः ऐसें म्हणोनि । त्रिपदा गायत्री उच्चारोनि। तत्स० म्हणोनि । मग जपाबी दश वेळां ।।५।। स्वाध्याय दिवसासी। म्हणा वेद शक्तीसी। अनध्याय होय तया दिवसीं। एक ऋचा म्हणा पन्नासा ।।६।। तोही नये एखाद्यासी। मंत्र म्हणावा विशेषीं। नमो ब्रह्मणे मंत्रासी। तीन वेळां जपाया ।।७।। वृष्टिरसि मंत्रासी । जपोनि स्पर्शावं उदकासी। तर्पण करावें परीयेसीं। ऐक ब्राह्मणा एकचित्तं ।।८।। ब्रह्मयज्ञ करावयासी । द्रव्य दर्भ परियेसीं। वसुरुद्रआदित्यांसी। तृप्त समस्त देव पितर ।।९।। एखादे दिवसीं न घडे जरी। अथवा होय समय रात्री। जप करावा गायत्री। बेदपठण फल असे ।।५१०।। देवतर्पण कुशाग्रेंसी। मध्यस्थानें तृप्र ऋषि । मुळे पितृवर्गासी । तर्पण करावें परियेसा ।।११।। न करावें तर्पण पात्रांत। करावें आपण उदकांत। भूमीवरी घरों नित्य । निषिद्ध असे करूं नये ।।१२।। दर्भ ठेवोनि भूमीवरी। तर्पण करावें अवधारी। विधियुक्त भक्तिपुरःसरी। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।।१३।। तीळ धरोनि आपल्या करों। तर्पण करावें अवधारी। ठेवों नये शिळेवरी । भूमीं काष्ठपात्रीं देखा ।।१४।। रोमकूपादि स्थानीं देखा। तीळ ठेवितां पावती दुःखा । तीळ होती कृमि ऐका । निषिद्ध बोललीं स्थाने पांच ।।१५।। परी तर्पण करावयासी। तीळ अग्राह्य परीयेसीं । करावें आपण उदकासी। ऐका समस्त कषिजन ।।१६।। चेत तीळ देवांसी। धूम्रवर्ण ऋषिजनांसी। कृष्णवर्ण पितरांसी । तीळतर्पण करावें ।।१७।। यज्ञोपवीती सव्यें देवासी। निवीती करावी ऋषीसी । अपसव्य पितरांसी। तर्पण करायें येणें रीतीं ।।१८।। देवासी अंजुलि एक। ऋषीसी अंजुलिद्वय सम्यक। पितरांसी अंजुलि त्रिक। तर्पण ऐसें करावें ।।१९।। खिगांसी अंजुलि एक देखा। व्यतिरिक्त बंधूसी एक। सपत्नी आचार्य नामिका। द्वयांजुलि करावे ।।५२०।। देवब्रह्मऋषीश्वरांसी। अक्षता मुख्य तर्पणासी । कृष्णतिलतर्पण पितरांसी। अनंतपुण्यें परियेसा ।।२१।। आदित्य शुक्रवारेंसी। प्रतिपदा मया नक्षत्रासी । षष्ठी नवमी एकादशीसी। तिलतर्पण करूं नये ।।२२।। अथवा विवाह उपनयनासी। जन्मनक्षत्र जन्मदिवसीं। आपुल्या घरी शुभदिवसीं । तिलतर्पण करूं नये ।।२३।। जधीं न करी तिलतर्पण । उदके मुख्य करा जाण। मुद्रिका हस्तीं सुवर्ण। दर्भपवित्रे करावें ।।२४।। पाय न धुतां मंगलस्नान। तिलावीण करिता तर्पण। श्राद्ध करी दक्षिणेविण । निष्फल असे अवधारी ।।२५।। निषिद्ध बोलिलें ज्या दिवसीं । तर्पण करावें उदकेंसी। दिपवाळी चतुर्दशीसी। करावें तर्पण परियेसा ।।२६।। अंगारक कृष्ण चतुर्दशीसी। करावें तर्पण परियेसीं। यमाचे नांवें विधीसी। यज्ञोपवीत सव्यानें ।। २७।। एकेक तीळ घेऊनि । त्रिवार अंजुलि देऊनि । यमाचें नाम उच्चारोनि। तर्पण करावें भक्तीनें ।।२८।। यमाची नांवें त्रयोदशी। सांगेन ऐका विस्तारेंसी । यम धर्मराजा परियेसीं। मृत्यु अंतक चौथा जाणा ।।२९।। वैवस्वत काल देखा । सर्वभूतक्षय ऐका । आठवा औदुंबरनामिका। नीलाय परमेष्ठी दहा जाणा ।।५३०।। वृकोदर चित्ररेखा। चित्रगुप्त त्रयोदशिका। प्रत्येक नामें म्हणोनि एकेका। नदीत द्यावें परियेसा ।।३१।। समस्त पातकें नासती। रोगराई न पीडिती । अपमृत्यु कधीं न येती। ग्रहपीडा न बाधे ॥३२।। शुक्लपक्षी माघमासीं । तर्पण करावे अष्टमीसी । भीष्मनामें परीयेसी । वर्षपातके परिहरतीं ।। ३३।। ऐसें तर्पण करोनि। सूर्यनामें अध्यें तिन्ही यावीं समस्त द्विजजनीं । म्हणे श्रीनृसिंहसरस्वती ।।३४।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी । कृपामूर्ति स्वामी कर्मविधिसी। सांगतां झाला ब्राह्मणासी । येणेंपरी विहिताचार ।। ३५।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर । ऐसा ब्राह्मणांचा आचार। वर्ततां होय मनोहर । सर्वाभीष्टे साधतील ॥३६।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । नामधारक शिष्य संवादत । वेदोपनिषदमथितार्थ । आचारनिरूपणाध्याय हा ।।५३७।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३६॥
ओवीसंख्या ५३७
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक विनवी सिद्धासी। पुढे कथा वर्तली कैसी। श्रीगुरु सांगती विस्तारेंसी। काय निरूपिलें यानंतर ।।१।। ऐक नामधारका सगुणा । श्रीगुरु अवतार नारायणा। जाणे सर्व आचारखुणा । सांगतसे कृपेंसी ।।२।। त्रैमूर्तीच्या अवतारास। आचार सांगतां काय प्रयास। ज्ञान देउनी पतितास। वेद म्हणविले कवणेंपरी ।।३।। ऐसें गुरुमूर्ति दातारु । भक्तजनकल्पतरु। सांगते झाले आचारु। कृपा करोनि विप्रासी ।।४।। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी । गृहरक्षणार्थ कारणासी। अग्निमंथनकाष्ठासी। संपादावें कृष्णमार्जार ।।५।। श्रीखंडादि मणिपूते । तिळ कृष्णाजिन' छागवखें'। इतुकीं असावी पवित्रे। दुरितें बाधा करूं न शकती ।।६।। शुक्लपक्ष सारसासी। पोसावे घरी परियेसीं। समस्तपापविनाशी। धेनु असावी आपुलें परी ।।७।। देवपूजेचे विधान । सांगेन ऐका एक मन। गृह बरवें संमार्जन। देवगृह असावें ।।८।। हिरण्य रौप्य ताम्रसी। अथवा मृत्तिका पाजेंसी। संमार्जन करावें विधींसी। निषिद्ध पात्रे सांगेन ।।९।। कांस्य पात्रीं कन्यकाहस्तीं। नोवरी अथवा शूद्र जातीं। न करावें वत्र घरोनि वामहस्ती। दक्षिण हस्ती सारवावें ।।१०।। प्रारंभ करावा नैर्ऋत्यकोनीं। रात्रीं न करावें उदक घेउनी। अगत्य करणें घडे मनीं। भस्में करोनि सारवावें ।।११।। रंगमाळिका घालोनि। निर्मळ असावें देवताभुवनीं । मग बैसोनि शुभासनीं। देवपूजा करावी ।।१२।। जैसी संध्या ब्राह्मणासी। देवपूजा करावी तैसी । त्रिकाल करावें अर्चनासी। एकचित्तें मनोभावें ।।१३।। त्रिकाळीं न घडे ज्यासी। प्रातः काळीं करावी हीं। तेही न साधे परियेसीं । माध्याह्नकाळीं करावें ।।१४।। सायंकाळीं मंजेंसी। पुष्प वाहोनि भक्तींसी। ऐसें न साधे जयासी । भोजनकाळीं करावें ।।१५।। देवपूजा न करी नर। पावे त्वरित यमपुर। नरक भोगी निरंतर । ऐक ब्राह्मणा एकचित्तें ।।१६।। विप्रकुळीं जन्म जयासी। पूजा न करितां जेवी हीं। तोचि होय यमग्रासी । वैश्वदेव न करी नर ।।१७।। देवपूजा करावयासी। सहा प्रकार परियेसीं। उदकनारायण विशेषीं। पूजितां तृप्ति जगन्नाथा ।।१८।। दुसरा प्रकार सांगेन ऐका। अमिदेवपूजा अधिका। मानसपूजा अतिविशेखा। एकचित्तं परियेसा ।।१९।। सूर्यपूजा करितां जाण । संतुष्ट होय नारायण। सामान्यपक्ष स्थंडिली जाण। प्रतिमापूजा' स्वल्पबुद्धि ।।२०।। ज्ञाता असेल बुद्धिमंत । यज्ञपुरुषपूजा त्वरित । स्वर्गापवर्गा पूजा देत । यज्ञपुरुषपूजा मुख्य जाण ।।२१।। अथवा पूजावें धेनूसी। ब्राह्मणपूजा विशेषीं। गुरुपूजा मनोभावेंसी। प्रत्यक्ष तुष्टे गुरुमूर्ति ।।२२।। गुरु त्रैमूर्ति म्हणोनि। बोलती समस्त श्रुतिवचनीं । सकळाभीष्टे तयापासूनी। पाविजे चारी पुरुषार्थ ।।२३।। कलिप्रवेश होतां नरू। न करितां अंतःकरण स्थिरू । उत्पत्ति केली शार्ङ्गधरू। समस्त कलि उद्धरावया ।।२४।। शालिग्रामचक्रांकितेंसी। प्रकाश केला हृषीकेशीं । तीर्थ घेतां परियेसीं। समस्त पापें नासती ।।२५।। आज्ञा घेऊनि श्रीगुरूची। पूजा करावी प्रतिमेची । वेदोक्त मंत्र करोनि वाचीं। विधिपूर्वक पूजावें ।।२६।। श्री जनादि शुद्रांसी। न म्हणावे वेदमंत्रेसी। आगमोक्तमार्गेसी'। गुरुनिरोपें करावें ।।२७।। श्रीगुरूचे निरोपानें। पूजिजे काष्ठं पाषाणें। तेचि होती देव जाणें। होती प्रसन्न परियेसा ।।२८।। शुचि आसनीं बैसोनी। करावे प्राणायाम तिन्ही । येभ्योमाता म्हणोनि । चेतन करावा परमात्मा ।।२९।। प्रणव मंत्रोनि द्वादशी । उदक प्रोक्षावें आपुल्या शिरसी। संकल्प करोनि अंगन्यासी। कलशपूजा करावी ।। ३०।। देवाच्या दक्षिण भागेसी। कलश ठेवावा परियेसीं। पूजा करोनि भक्तीसी। शंखपूजा करावी ।।३१।। निर्माल्य काढोनि विनर्वेसी । टाकायें तें नैर्ऋत्यादिशीं। धौत वख हांतरोनि हीं। दीप प्रज्वलित करावा ।।३२।। स्मरावें मनीं श्रीगुरूसी । मनोवाक्कायकर्मेसी। अर्चन करावें पीठासी। विधिपूर्वक अवधारा ॥३३।। चारी द्वारें पूजोनि। दिशा पूजाव्या अर्जुनी। शांताकार करा ध्यानीं। मग आवाहनावें मंत्रोक्त ।।३४।। सहस्रशीर्षेति आवाहनोनि। पुरुषएवेदं आसनीं । एतावानस्य म्हणोनि । पाद्य द्यावें अवधारा ।। ३५।। मंत्र म्हणोनि त्रिपार्ध्व ऐसा । अर्घ्य द्यावें परियेसा । तस्माद्विराड् म्हणा ऐसा। देवासी आचमन समर्पावें ।। ३६ ।। यत्पुरुषेण मंजेंसी। स्नपन करा देवासी । दुग्धादि पंचामृतासी। स्नपनपूजा करावी ।। ३७।। पुरुषसूक्तादि स्ट्रेंसी। श्रुतिमार्गे करोनि न्यासासी । स्नपन करावें परियेसीं । एकचित्तें अवधारा ।।३८।। स्नपन करूनि देवासी। बैसवावें शुभासनेसी। तंयज्ञमिति मंजेंसी। वर्षे द्यावीं परियेसा ।।३९।। तस्माद्यज्ञेति मंत्रसी। यज्ञोपवीत द्यावें देवासी। येणेंचि मंत्र गंधाक्षतेंसी । वहावें अनन्यभक्तीनें ।।४०।। तस्मादश्वा अजायन्त। ऐसा तुम्ही मंत्र म्हणत। पुष्पें बहावीं एकचित्त। मनःपूर्वक देवासी ।।४१।। पुष्पें वहावयाचे विधान। सांगेन ऐका ऋषिजन। आपण पेरिलों कुसुमें' सगुण। उत्तम पक्ष परियेसा ।।४२।। पुष्पें सती अरण्यांत। तीं मध्यम प्रकार बोलिजेत । क्रय करूनि घेतां विकत। अधम पुष्पें जाणिजे ।।४३।। उत्तम न मिळतां घ्यावी विकत। उत्तम पक्ष पुष्पें श्वेत। रक्त मध्यम अध्यम पीत। कृष्णचित्र अधमाधम ।।४४।। वर्जावी शिळी पुष्पें देख। सच्छिद्र अथवा कृमिभक्षक। भूमीवरी पडे ऐक। पुष्प त्यजावें देवासी ।।४५।। शिळीं नव्हेती द्रव्ये जाणा। बिल्वपत्रे तुळसी आणा । सहस्रपत्रे कमळ माना। सदां ग्राह्य देवांसी ।।४६।। शतपत्रे बकुलचंपकासी। पाटलें कमलें पुनार्गेसी। मल्लिका जाती करवीरेंसी। कल्हारपुष्पें अर्पावी ।।४७।। विष्णुपूजा करावयासी। वर्जावीं पुष्पें तुम्हीं ऐसी। धत्तूर' अर्क' करवीरेंसी। रक्त पुष्पें वर्जावीं ।।४८।। गिरिकर्णिका निर्गुडेंसी। सेवगा कपित्थ करंजेंसी। अमलपत्र' कूष्मांडेंसी। पुष्पें विष्णूसी वर्जावों ।।४९।। हीं बाहिल्या होय दोषी । सांगेन ऐका समस्त ऋषि। पूजा करितां विष्णूसी। त्यजावीं याचि कारणें ।।५०।। अर्कपुष्प वाहिल्यासी । विनाश होय आपणासी। धत्तुरपुष्पें प्रज्ञानासी। केविदारें दरिद्रता ।।५१।। श्रीकर्णिकापुष्यें वाहतां । कुळक्षय होय त्वरिता । कंटकारीपुष्पें वाहतां। शोक होय परियेसा ।।५२।। कंदपुष्पें होय दुःख। शाल्मलीपुष्पें रोग ऐक । त्याची कारणें करूनि विवेक । पुष्पें वहावी विष्णूसी ।।५३।। वर्जा पुष्पें ईश्वरासी । सांगेन नांवें परियेसीं । कपित्थ केतकी शशांकेंसी। श्वामपुष्पें वर्जावी ।।५४।। काष्ठ पिंपळ करंज देखा। बकुल दार्डिव केतका । घातकी निंबादि पंचका। माधवीपुष्पें वर्जावीं ।। ५५।। चूत कुंद युधिका' जाती। रक्त पुष्पे वर्जावीं निरुती। ईश्वरार्चनं दोष घडती। चेतपुष्पें मुख्य देखा ।।५६।। पूजा करितां गणेशासी। वर्ज करा तुम्ही तुलसी। नित्यपूजा करा दूर्वेसी । दूर्वा वर्ज शक्तिदेवीतें ।।५७।। येणें विधीं पुष्पें वाहतां। काम्य होय तुम्हां त्वरिता । चतुर्विध पुरुषार्था । लाधाल तुम्ही अवधारा ।।५८।। यत्पुरुषेति मंजेंसी। सुगंध धूपादि परिमळेसी। ब्राह्मणोस्येति मंत्रसी । एकार्तिक्य करावें ।।५९।। चंद्रमामनसो इति मंत्रसी। नैवेद्य अर्पावा देवासी। तांबूल अर्पितां म्हणा मंत्रासी। नाभ्याआसीदिति ऐसा ।।६०।। सुवर्णपुष्पें नीरांजन। सप्तास्येति मंत्र करून। पुष्पांजलि घेऊन। देवा यज्ञेति मंत्र अर्पावीं ।।६१।। घातापुरस्तात् मंत्रेसी। नमस्कारावें देवासी। अति संमुख पृष्ठदेशीं। गर्भगृहीं करूं नये ।।६२।। नमस्काराचें विधान। सांगेन ऐका विद्वज्जन। सव्य देवप्रदक्षिण। करूनि नमन करावें ।। ६३।। आपुला गुरु माता पिता । संमुख जायें बाहेरूनि येतां। अथवा उत्तम द्विज देखतां । संमुख जावोनि बंदावें ।।६४।। सभा असेल द्विजांची । नमस्कार करा तुम्ही एकची। देवार्चनीं तैसेंची। नमस्कार पावे समस्तां ।। ६५।। माता पिता श्रीगुरूसी। नमस्काराची रीति ऐसी। उभय हस्तें कर्णस्पर्शी। एकभावें बंदावें ।। ६६।। सव्य पादावरी देखा। सव्य हस्त स्पॉनी निका। वामहस्तीं वामपादुका । धरूनि नमन करावें ।।६७।। गुरुस्थानांची नांवें। सांगेन ऐका भावें । विचारोनिया बरवें । नमस्कारावें येणें विधीं ।।६८।। माता पिता गुरु घाता। भयहर्ता अन्नदाता। व्रतबंध केल्या पुरोहिता। सापत्नी' ते गुरुस्थानीं ।। ६९।। ज्येष्ठ भ्राता अथवा चुलता। सापत्न असेल ज्याची माता । वय अधिक इष्टमित्रा । नमस्कारावें तयांसी ।।७० ।। निषिद्ध स्थानें नमावयासी। सांगेन ऐका तुम्हांसी। उणें असेल वय ज्यासी। नमूं नये विद्वज्जनीं ।।७१।। अप्रि समिधा पुष्पें कुशा। धरिला असेल अक्षतांकुशा । स्वहस्ती परहस्तीं असतां दोषा। अशख वध हाईजे नमस्कारितां ।।७२।। जप अथवा होम करितां । दूर देखिला द्विज येतां । स्नान करिता जळीं असतां । नमन करितां दोष घड़े ॥७३।। एखादा विप्र असे घावत । नेणतां' अथवा धनगर्वित । क्रोधवंत किंवा मंगलस्नान करित। नमस्कार करूं नये ।।७४।। एकहस्ते ब्राह्मणासी । नमूं नये परियेसीं। सूतकिया' मूर्ख जनांसी। करूं नये नमस्कार ।।७५।। गीतवाद्यादि नृत्येंसी। संतुष्टावे देवासी। प्रार्थना करावी भक्तींसी। मग अर्चाव सनकादिकां ।।७६।। पूजा अपूर्व देवासी। हस्त ठेवूनि पीठेसी। उत्तरपूजा करावी हीं। मग करावें उद्धासन' ।।७७।। ऐसेंपरी देवपूजा। करावी भक्तीनें ऐका द्विजा। संस्कृत अन्न व्हावया काजा । वैश्वदेव करावा ।। ७८।। अग्धि अलंकार करूनि । अन्न अग्निकुंडों दाखवूनि । घृतसंमिश्रित करूनि । पंच भाग करावे ।।७९।। एक भागाच्या दहा आहुति। दुसरा बळिहरणी योजिती। अग्रदान तिसरा करिती। चौथ्या भार्गे पितृयज्ञ ।।८०।। मनुष्ययज्ञ पांचव्यासी। वैश्वदेव अथवा मंत्रेसी। अन्न नाहीं ज्या दिवसीं । तंदुलांनी करावा ।।८१।। वैश्चदेव समयासी। अतिथि आलिया घरासी। चोर चांडाल होय हीं। पूजा करावी मनोभावें ।।८२।। यम सांगे दूतासी । वैश्वदेव करितां नरासी। जाऊं नको तयापासी। विष्णुआज्ञा आम्हां असे ॥८३॥ मातापितापातकियांसी । शुनि श्वपचचांडलासी। अतिथि आलिया परासी । अन्न द्यावें परियेसा ।।८४।। न विचारावें गोत्रकुळ । अन्न घालावें तात्काळ । विन्मुख झालिया पितृकुळ । वर्षे सोळा न येती घरासी ।।८५।। प्रवासी असेल आपण जरी। औषधि घृत दधि क्षीरीं। कंदमूळे फळे तरी। देवयज्ञ करावा ।।८६।। अन्नाविणें अग्रदान । करूं नये साधुजन। पंचमहायज्ञ करी ब्राह्मण। चांद्रायण आचरावें ।।८७।। न होतां वैद्यदेव आपुल्या घरी। भिक्षेसि आला नर जरी। भिक्षा घातितां पाप दूरी। वैश्चदेवफल असे ।।८८।। बळिहरण घालोनि काढी आपण । त्याणें आचरावें चांद्रायण। आपण काढितां दोष जाण। आणिकाकरवी काढवावें ।।८९।। बळिहरण न काढितां जेवी जरी। सहा प्राणायाम त्वरित करी। तेणें होय पाप दुरी। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।।९०।। गृहपूजा करूनि देखा। गोग्रास द्यावा विशेखा। नित्य श्राद्ध करणें ऐका। करूनि अन्न समर्पावें ।॥९१।। स्वधाकार पिंडदान। करूं नये अग्रीकरण। ब्रह्मचारियासी तांबूलदान । दक्षिणा वर्ज परियेसा ॥९२॥ वैश्वदेव झालियावरी। उभा राहोनि आपुल्या द्वारी। अतिथिमार्ग पहावा निर्धारी। आलिया पूजन करावें ।।९३।। श्रमोनि आलिया अतिथीसी । पूजा करावी भक्तींसी। अथवा अस्तमानसमवासीं। आलिया पूजन करावें ।।९४।। वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः । ऐसें बोलती वेदशाखु। अतिथि जाण सर्व गुरु। वैश्वदेवसमवासी ।।९५।। वैश्वदेवसमयीं अतिथीसी। पूजा करितां परियेसीं। ती पावे देवांसी। तुष्टे ब्रह्मा इंद्र वद्धि ।।९६।। वायुगुण अमर्यादि देव । तृप्ति पावे सदाशिव । पूजा करावी एकभाव। सर्व देवता संतुष्टती ।।१७।। अतिधिपाद प्रक्षाळिती। पितर सकळ तुप्त होती । अन्नदानें ब्रह्मा तृप्ति। विष्णुमहेश्वरां अवधारा ।।९८।। यतीश्वरादि ब्रह्मचारी। जे समयीं वेती आपुल्या घरी । अन्न द्यावें निर्धारी। महापुण्य असे देखा ।। ९९।। ग्रासमात्र दिधला एक। मेरूसमान पुण्य अधिक। बरवें द्यावें त्यासी उदक । समुद्रासमान दान असे ।।१००।। अतिथि आलिया घरासी। जेवी आपण त्यजूनि त्यासी । धानयोनी पावें हीं । गर्दभयोनी पुढे उपजे ।।१।। ऐसें अतिथि पूजोन। मग करावें भोजन आपण। सर्वधा न करावें अन्न भिन्न। प्रपंच करितां दोष असे ।।२।। सायंप्रातर्गृहस्थासी। भोजन करणें संतोषीं। प्रक्षालन करोनि पादांसी। ओले पायीं असावें ।।३।। ओली असावीं पांच स्थानें। हस्त पाद उभय जाणें। मुख ओलें पंचम स्थानें । शतायुषी पुरुष होय ।।४।। पूर्वाभिमुख वैसोन। भोजनसमयीं धरा मौन। पाद उभय जोडोन । बैसावें ऐका एकचित्तें ।।५।। मंडल करावें चतुष्कोनी। वरी भस्म प्रोक्षोनि। क्षत्रियास मंडल त्रिकोनी। वर्तुळ वैश्यासी परियेसा ।।६।। शूद्रे अर्धचंद्राकार। मंडल करावें परिकर। आवाहनाने सुरवर। आदित्य बसु रुद्र ब्रह्मा ।।७।। पितामहादि देवता । तया मंडलीं उपजवितां। याचि कारणें तत्त्वतां । मंडलाविणें जेवू नये ।।८।। न करितां मंडल जेवी जरी। अन्न नेती निशाचरी। पिशाच असुर राक्षस परी। अन्नरस नेती अवधारा ।।९।। उत्तम पूर्वाभिमुखी देख। पश्चिम मध्यम ऐक। पितृकार्या उत्तरमुख। सदा दक्षिण वर्जावी ।।११०।। धरावें पात्र। सुवर्ण रजत ताम्रपात्र। पद्मपात्र पालाशपात्र । पुण्यपात्र परियेसा ।।११।। जेविता वर्जावें गृहस्थांनी ताम्रपात्र । यतींनी सुवर्ण अथवा रजत। ताम्रशुक्तिशंखज पात्र । स्फटिक पाषाण यतीसी ।।१२।। कर्दलीगर्भपत्रेसी । पद्मपत्रजळें स्पर्शी । वल्लीपालाशपत्रेसी। जेवितां बांद्रायण आचरावें ।।१३।। वट अश्वत्थ अर्क पटोल' कदंब कोविदारपणें कोमळ । भोजन करितां तात्काळ । चांद्रायण आचरावें ।।१४।। लोहपात्र आपुले करीं। ताम्र मृण्मय' पृष्ठपर्णावरी। कार्पासपत्री वस्रावरी। जेवितां नरकाप्रती जाय ।।१५।। कांस्यपात्री जेविल्यासी। यश बळ प्रज्ञा आयुष्यासी। वाढे नित्य अधिकेसी । गृहस्थांनी नित्य कांस्यपात्र ।।१६।। असावें पात्र पांच शेर। नसावें उणें अधिक थोर। उत्तमोत्तम षट् शेर । सुवर्णपात्रासमान देखा ।।१७।। कांस्यपात्रीचे भोजन। तांबूलासहित अभ्यंगन। यतीं ब्रह्मचारी जाण । विधवा स्त्रियांनी कर्जावें ।।१८।। खानाच्या चर्माहुनी। निषेध असे एरंडपानीं। निषेध अधिक त्याहुनी। अणिक जेविल्या भिन्नताटी" ।।१९।। फुटकें कांस्यपात्रेसी। जेवितां होय महादोषी। संध्याकाळीं जेवितां हर्षी। महापातकी होय जाणा ।।१२०।। जवळी असतां पतित जरी। जेवू नये अवधारों। शूद्र जेविल्या शेषावरी। जेवू नये ब्राह्मणाने ।।२१।। सर्वे घेऊनी बाळासी। जेवू नये श्राद्धादिवसीं । आसन आपुलें आपणासी। घालू नये ब्राह्मणाने ।।२२।। आपोशन आपुले हातीं । घेऊं नये मंदमतीं। तेल घालुनी स्वहस्तीं। आपण अभ्यंग करूं नये ।।२३।। भोजनकाळी मंडळ देखा। करू नये स्वहस्तका। आयुष्यक्षय पुत्रघातका। म्हणिजे नाम तयासी ॥२४।। नमस्कारावें वाढितां अन्न। अभिघारावें पहिलेंचि जाण। प्राणाहुति घेतां क्षण । घृत घालावे स्वहस्तानें ।।२५।। उदक घेऊनि व्याहृति मंत्री। प्रोक्षोनि अन्न करा पवित्री। परिर्षिचावें तेचि रीतीं। मग नमावें चित्रगुप्तमा ।।२६।। बळी पालोनि बित्रगुप्तासी। काढवावें सर्वेचि परियेसीं। बाम हस्तक भुनोनि सरसी । पात्र दृढ धरावें ।।२७।। अंगुष्ठतर्जनीमध्यमांगुलींसी। धरावें पात्र वामहस्तेंसी। आपोशन करावें सव्यकरेंसी। आणिकाकरवीं घालावें ।।२८।। आपोशन उदक सांडोनी जरी। आणिक घेती उदक तरी। चानमूत्र घेतल्यापरी। एकचित्तं परियेसा ।।२९।। धरिलें आपोशन ब्राह्मणासी। नमस्कारितां महादोषीं। आशीर्वाद घेऊं नये तयापासी । उभयतांसी दोष पडे ।।१३०।। मौनें असावें ब्राह्मणें देख । बोलू नये शब्दादिक। आपोशन घ्यावें मंत्रपूर्वक । मग घ्याव्या प्राणाहुति ।।३१।। आपोशनाविण भोजन करी। पापविमोचन करा तरी। अष्टोत्तरशत मंत्र गायत्री। जपतां दोष परिहरे ।।३२।। प्राणाहुतीचें विधान। सांगेन ऐकिजे ब्राह्मण। प्राणाग्निहोत्र करितां जाण । समस्त पापें जाती देखा ।।३३।। जैसा कार्यासराशीसी। अघि लागतां परियेसीं। जळोनि जाय त्वरितेंसी । तैसीं पायें नासती ।।३४।। प्राणाहुतीचे लक्षण। चतुर्विध पुरुषार्थ जाण। अन्न स्पोंनि मंत्र म्हणे। गीताश्लोक प्रख्यात ।।३५।। ।। श्लोक ।। अहं वैश्वानरी भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।।३६।। ।। टीका ।। अन्नं ब्रह्म रसो विष्णु। भोक्ता देव गिरिजारमणु। ऐसा तुम्ही मंत्र म्हणोनु। अग्निरस्मि मंत्र जपावा ।। ३७।। मग ध्यावा प्राणाहुति। आहेति पंच मंत्र प्रख्याति। तर्जनी मध्यम अंगुष्ठधृतीं । प्राणाय स्वाहा म्हणावें ।।३८।। मध्यम अनामिका अंगुष्वेंसी। अपानाय स्वाहा म्हणा हीं। व्यानाय स्वाहा म्हणा यांसी । कनिष्ठिकाअनामिका अंगुष्ठेसी ।।३९।। अंगुष्ठतर्जनीकनिष्ठिकेंसी। उदानाय स्वाहा म्हणा हीं। पंचांगुलीने परियेसीं। समानाय स्वाहा म्हणावें ।।१४०।। प्राणाहुति घेतल्या अन्न। दंतां स्पशों नये जाण। जिन्हें गिळावें तत्क्षण । मग घरावें मौन देखा ।।४१।। मौन धरावयाची स्थानें। सांगेन ऐका अतिउत्तमें। स्नान समयीं घरा निर्गुणें । न धरितां फल असेना ।।४२।। होम करितां न घरी मौन। लक्ष्मी जाय तत्क्षण। जेवितां मौन न धरितां आपण । अपमृत्यु घडे त्यासी ।।४३।। अशक्य असेल मौन जरी। प्राणाहुति घेई तंववरी। मौन धरावें अवधारीं। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।।४४।। पिता जिवंत असे ज्यासी। अथवा ज्येष्ठ बंधु परियेसीं। धरू नये मौनासी । श्राद्धान जेविता धरावें ।।४५।। पंच प्राणाहुति देतां । सर्वांसी मौनग्राह्यता। असेल पिता वडील भ्राता। मौन घरिल्या अधःपात ।।४६।। जेविता प्रथम मधुरान्न। भोजन करावें नरें आपण। भक्षून पूर्वी द्रवान। कठिणांश परियेसा ।।४७।। भोजनांतीं समयासी। जेवू नये द्रवात्रांसी'। बळ जाय परियेसीं। शीघ्र भोजन करावें ।।४८।। धेनूसी उदक प्यावयासी । जितुका वेळ होय त्यासी। भोजन करावे परियेसीं। शीघ्र भोजन मुख्य जाणा ।।४९।। भोजन करावयाची स्थिति । सांगेन ऐका ग्रासमिती। संन्यासीमुनि-यतीं। अष्ट ग्रास ध्यावे जाण ।।१५०।। षोडश ग्रास अरण्यवासीं । द्वात्रिंशत् गृहस्थासी। मिति नाहीं ब्रह्मचाऱ्यासी । एकचित्तें परियेसा ।।५१।। जितुका मावेल आपुल्या मुखीं । तितुका ग्रास घ्यावा विशेखीं। अधिक घेतां ग्रास मुखीं। उच्छिष्ट भक्षिले फळ देखा ।।५२।। अर्धा ग्रास भक्षुनि । उरलें ठेविती आपुल्या भाणी'। चांद्रायण आचरावें त्यांनीं। उच्छिष्ट भोजन तया नांव ।।५३।। न बैसार्वे सहभोजनासी । इष्टसोयरे इत्यादिकांसी। व्रतबंधाविणें पुत्रासी । कन्याकुमारांसी दोष नाहीं ।॥५४।। सांडूं नये अन्न देखा। घृत पायस विशेष ऐका। सांडावे थोडे ग्रास एका। जेवू नये सर्व अन्न ।।५५।। भोजन संपेपर्यंत। पात्री धरावा वामहस्त। जरी सोडील अजाणत । अन्न वजोंनि उठावें ।।५६।। या कारणें द्विजजना । सोडू नये पात्र जाणा। अथवा न धरावें पूर्वीचे जाणा। दोष नाहीं परियेसा ॥५७।। वस्त्र गुंडाळोनि डोयीसी। अथवा संमुख दक्षिणेसी। वामपादावरी हस्तेंसी । जेवितां अन्न राक्षस नेती ।। ५८।। वामहस्त भूमीवरी। ठेवूनि नर भोजन करी। रोग होय शरीरीं। अंगुली सोडोनि जेवू नये ॥५९।। अंगुली सोडूनि जेवी जरी। दोष गोमांस भक्षिल्यापरी । दोष असती नानापरी। स्थानें असती भोजनासी ।।१६०।। अश्वगजारूढ होऊनि। अथवा बैसोनि स्मशानीं । देवालयीं शयनस्थानीं । जेवू नये परियेसा ।।६१।। निषिद्ध जेवण करपात्रंसी। ओलें नेसोनि आर्द्रकेशी'। चहिर्हस्त बहिः केशी। जेविता दोष परियेसीं ।।६२।। यज्ञोपवीताच्या उपवीतीसी'। भोजन करावें परियेसीं। जेवितां आपुल्या संमुखेसी। पादरक्षा असू नये ।।६३।। ग्रास उदक कंद मूळ। इक्षुदंडादि केवळ । भक्षोनि पात्रीं ठेवितां सकळ । उच्छिष्ट होय अवधारा ।।६४।। भोजन करी स्नानाविणें । न करितां होम जेवीं कवणें। अन्न नव्हे कृमि जाणे। म्हणे पराशर ऋषि ।। ६५।। पर्णपृष्ठावरी रात्रीसी। दीपेंविण जेविल्यासी। महादोष असे तयासी । कृमि भक्षिल्यासमान होय ।।६६।। दीप जाय भोजन करितां। पात्र धरावें स्मरोनि सविता। पुनरपि आणोनि लावितां। मग भोजन करावें ।।६७।। पात्री असेल जितुकें अन्न। तितुकेंचि जेवावें परिपूर्ण। आणिक घेतां दोष जाण। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।।६८।। स्पशा नये जेवितां केश। कथा सांगतां महादोष। दिसूं नये व्योम आकाश । अंधकारी जेवू नये ।।६९।। न ठेवितां शेष स्त्रियेसी। जेवितां होय अत्यंत दोषी। ठेविलें न जेवितां खिया दोषी। महापातके पड़ती जाणा ।।१७०।। शून्यदेवदेवालयीं। देवस्थान आपुले गृहीं। जलसमीप संध्यासमयीं। जेवू नये परियेसा ।।७१।। पात्रे ठेवूनि दगडावरी । जेवू नये अवधारी। अवलोकूं नये मुखावरी। स्रीजनाचे परियेसी ।।७२।। न करावें सहभोजन । जेवितां होय उच्छिष्टभक्षण। कुलखिर्वेसी करितां भोजन। निर्दोष असे परियेसा ।।७३।। प्राशन शेष उदकासी । घेऊ नये उच्छिष्टासी। अगत्य पडे संधीसी। किंचित् सांडूनि घेईजे ।।७४।। वस्रोदक घेतल्यासी । अपार दोष घडती तयासी। जन्म पावे चानयोनीसी। पडे मागुती नरकांत ।।७५।। शब्द होय उदक घेतां। अथवा क्षीर घृत सेवितां । आपोशनोदक प्राशितां । सुरापानसमान असे ।।७६।। महाजळीं रिघोनि। उदक घेती मुखांनी। अथवा जे घेती उभ्यांनीं। सुरापानसमान जाणा ।। ७७।। द्वयहस्तांजुलि करूनि । घेऊ नये उदक ज्ञानों। घ्यावें एक हस्ते करूनि। वाम हस्त लावू नये ।।७८।। समे बैसोनि एकासनीं। अथवा आपुले हातुरणीं। प्राप्तन करूं नये पाणी। महादोष परियेसा ।।७९।। बाढावें भिन्न पात्रेसी। पाहू नये आणिक यातीसी । रजस्वला खियांसी । चांडाळ चान पाहूं नये ।।१८०।। दृष्टि पडे इतुकियासी। ध्वनि ऐकतां कर्णांसी। त्यजावें अन्न त्वरितेंसी। जेवितां दोष परियेसी ।।८१।। कलहशब्द कांडण दळण । ऐकतां जेवू नये अन्न । अपशब्द स्पृष्टास्पृष्ट जाण । त्यजावें अन्न परियेसा ।।८२।। नेणते लोक पंक्तीसी। घेऊं नये परियेसीं। अगत्य घडे संधीसी । उदके भस्में करा पृथक ।।८३।। अथवा स्तंभ असेल मध्य। द्वारमार्ग असेल शुद्ध। उदके वेष्टितां आपुले परिघ । दोष नाहीं परियेसा ।।८४।। कृष्ण' वख नेसोनि आपण। जेवितां दोष अपार जाण । स्रीजन बाढिती कांसेविण । उच्छिष्टसमान परियेसा ।।८५।। ऐसा विचार करूनि मनीं। करावें भोजन द्विजजनीं । विकिरिद विलोहित म्हणोनि । अभिमंत्रायें शेष अन्न ।।८६।। विकिरीदे इति मंत्रासी। म्हणावा अघोर ऋषि । रुद्रदेवता परियेसीं। अन्नाभिमंत्रणे विनियोग ।।८७।। ऐसा मंत्र जपोन। हाती घ्यावें शेषान्न। यमाच्या नांवें बळी घालोन । उत्तरापोशन मग घ्यावें ।।८८।। उच्छिष्ट सर्व पात्रीचे। घेऊनि हातीं म्हणा बाचे। रौरवमंत्र असे त्याचे। पात्राजवळीं ठेवावें ।।८९।। उठोनि जावें प्रक्षालनासी। गंडूष करोनि मग हस्ती स्पर्शी। न करित गंडूष' प्रक्षाली हस्तासी । आत्मपातलकी तोचि जाणा ।।१९०।। मुख प्रक्षाळितां परियेसीं। मध्यमांगुली दात घासी। तर्जनी अंगुष्ठं महादोषी। रौरव नरकी परियेसा ।।११।। बरवें हस्तप्रक्षालन। करावें दंतशोधन। हातींचे पवित्र सोडून। टाकावें नैर्ऋत्य दिशे ।।९२।। अंगुष्ठमात्र पुरुषा । म्हणावा मंत्र परियेसा । हस्त घासोनि चक्षुषा। उदक लावावें अवधारा ॥९३।। ऐसा जरी न म्हणा मंत्र। चक्षुरोग होय त्वरित। या कारणें करा निश्चित। हस्तादके आरोग्यता ।।१४।। द्विराचमन करोनि । आयंगी मंत्र म्हणोनि । दुपदादिवेन्मुमुचा म्हणोनि । पादप्रक्षालन करावें ।।९५।। ऐसा तुम्ही मंत्र जपतां । भोजनठायीं जाऊनि बैसतां । द्विराचमन करूनि निगुता। नासिकास्पर्श मग करावा ।।९६।। स्मरावे मग अगस्त्यासी । कुंभकर्ण बडवाग्रीसी। वृकोदर शनैश्चरासी। इल्बल वातापि जीर्य म्हणावें ।।९७।। हस्त दाखवावे अग्रीसी । आणिक सांगेन परियेसीं । बंधुवर्ग असती जयासी। पुसू नये वर्षे कर ।।१८।। मग स्मरावें श्रीगुरूसी । आणिक स्मरावें कुळदेवतेसी । येणेंपरी विधीसी। भोजन करावें द्विजोत्तमें ।।९९।। विप्र विनवी श्रीगुरुसी । भोजनप्रकार सांगितला आम्हांसी। विधिनिषिद्ध अनें कैसीं। निरोपावर्वी दातारा ॥२००।। विप्रवचन ऐकोनि । निरोपिती श्रीगुरु संतोषानी। ऐक ब्राह्मणा म्हणोनि । अतिप्रेमें निरोपिती ।।१।। म्हणे सरस्वती गंगाधरू । ब्राह्मणपणाचा आचारु । निरोपिला गुरुनायें समनु। म्हणोनि विनवी संतोषे ।।२।। वैश्वदेवाविणें अन्न । अथवा गणान्न परिपूर्ण । घातले असेल बहु लवण । बहुमिश्रितान्न जेऊ नये ।।३।। लशुन गाजर कंद मुळा । वृंताका श्वेत जो असे भोपळा । छत्राकार शाखा सकळा । वर्णाव्या तुम्हीं परियेसा ।।४।। घेनुअजामहिषीक्षीर। प्रसूतीचे वर्भाव दशरात्र । नूतनोदक पर्जन्य पूर। त्रिरात्रीचें वर्जावें ।।५।। कूष्मांड डोरलीं पडवळेंसी। मुळा बेल आंवळेसी। न भक्षावें प्रतिपदेसी । भक्षितां पाप परियेसा ।।६।। स्वर्गापवर्ग चाड ज्यासी। अष्टमी कर्जाची औदुंबरासी । अमलकफळ रात्रीसी । कर्जावें भानुवासर सप्तमी ।।७।। बेलफळ वर्ज शुक्रवारी। शमीफळ मंदवारी। भक्षितां लक्ष्मी जाय दुरी। वर्जावें ते दिवसीं परियेसा ।।८।। घात्रीफळ रात्रीसी। भक्षितां हानि प्रज्ञेसी। नाश करी वीर्यासी। घात्रीफळ वर्जावें ।।९।। नख केश पडिलिया अन्ना। स्पर्श केलिया मार्जार जाणा। बायस घारी कुक्कुट जाणा । स्पर्श केलिया अन्न त्यजावें ।। २१०।। घेनुमूषक मुखस्पर्शे। अथवा स्पर्श अध केशें। त्यजावें अन्न भरंबसें । असेल उच्छिष्ट अन्नाजवळी ।।११।। एक हातीं वाढलें अन्न। शिळे असेल शीत जाण। वर्जावें तुम्हीं ब्राह्मण। निषिद्ध बोलिले आचार्य ।।१२।। घृततैलमिश्रित । शिळे अन्न अपवित्र। तळिलें असेल सर्वत्र। शिळे नव्हे सर्वधा ।।१३।। विप्र विकिती गोरस । घृत क्षीर परियेस। घेतां पडती महादोष। साक्षात् वद्धिपक जेवू नये ।।१४।। माषान्नाचे बटक' देखा। शिळे न होती कधीं ऐका। जैसे लाह्यापीठ देखा। शिळे नव्हे परिवेसा ।।१५।। कंदमूलादि सुरान्न। जवांचे असेल परमात्र । गुडयुक्त असेल अन्न। शिळे नव्हे परियेसा ।।१६।। ऐशा शिळ्या अन्नासी। दोष नाहीं परियेसीं । विटाळ होतां महादोषी । शुबि स्थानों असावें ।।१७।। भोजन केलिया नंतर। तांबूल घ्यावे परिकर। क्रमुकचूर्ण' पर्ण सत्वर। ध्यावे द्यावे ब्राह्मणर्थी ।।१८।। तिळमिश्रित भक्ष्यासी। जेवू नये रात्रीसी। जेवितां होय महादोषी। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणाते ।।१९।। क्रमुक एक सुखारोग्य । द्वय देता निश्चळ आरोग्य। त्रीणि द्यावीं महा भाग्य । चतुर्वे दुःख होय जाणा ।।२२०।। पांच क्रमुक देतां जरी। आयुष्य प्रज्ञा वाडे भारी। देऊं नये सहा सुपारी। मरण सांगे परियेसा ।।२१।। पर्ण अग्र मूल न काढी जरी। व्याधि संभने अवधारी। अग्र भक्षितां पाप भारी। चूर्णपणें आयुष्य क्षीण ।।२२।। पर्णपृष्ठीं बुद्धिनाश। द्विपर्ण खातां महादोष । ऐश्वर्याचा होय विनाश। ऋषिसंमत असे जाणा ।।२३।। पर्णेविण क्रमुक मुखीं। घालितां आपण होय असुखी। सप्त जन्म दरिद्री दुःखी। अज्ञानी होय अंतकाळीं ।॥२४।। यतीश्चरादिब्रह्मचारी । रजस्वला खी विधवा जरी। तांबूल भक्षितां मांसपरी। रस त्याचा सुरापानसम ।।२५।। तांबूल भक्षिल्यानंतर । सायंसंध्या करावी विप्रै। सूर्यअर्धमंडळ उतरे। अध्यॆ द्यावीं परियेसा ।।२६।। बैसोनि द्यावीं अध्ये तिन्ही । चारी द्यावीं काळ क्रमूनि । गायत्री मंत्र जपूनि। इमंमेवरुण म्हणावा ।। २७।। गोत्रप्रवर उच्चारोन । मग करावें औपासन । करावें निशिभोजन। क्षीरमिश्रित मुख्य असे ।। २८ ।। रात्रीं करितां परिसिंचना। ऋतंत्या सत्यं मंत्र म्हणा। येणें विधी करा भोजना। पूर्वी जैसे बोलिले असे ।।२९।। भोजन झालियानंतर । वेदाभ्यास एक प्रहर। मग जावें शयनावर । येणे विधीं आचरावें ।। २३०।। शयन करावयाचे विधान। सांगेन ऐका विद्वज्जन। पराशर सांगे वचन। तेंचि विधान सांगतसें ॥३१।। खट्वा असावी निर्मळ जाण। वर्जावी त्रिपाद भिन्न दूषण । औदुंबर अश्वत्थ पिंपरी निर्गुण। न करावी खट्वा परियेसा ।।३२।। निषिद्ध जांबूळ काष्ठाची। वर्जावी प्रेतगजदंताची । भिन्नकाष्ट त्यजावी साची। बरवी असावी खट्वा देखा ।। ३३ ।। सुमुहूर्ते विणावी खट्वा देखा। धनिष्ठा भरणी मृगशीर्षी दूषका। वार सांगेन विशेखा। शुभाशुभफळ असे ॥३४।। आदित्यवारी लाभ देखा । बंद्रवारी महामुखा । भौमवारी पाविजे दुःखा। बुधवारी सांगे महापीडा ।।३५।। गुरुवारी विणल्यासी। सहा पुत्र होती त्यासी। शुक्रवारी अतिविशेषीं। मृत्यु पावे मंदवारी ।।३६।। स्वगृहीं शयन पूर्वशिरेंसी। वशुरालयी दक्षिणेसी । प्रवासकाळीं पश्चिमेसी। शयन करावें परियेसा ।। ३७।। सदां निषिद्ध उत्तर दिशा। वर्जलें फळ सांगितली दिशा । विप्रं आचरावा ऐसा। ऋषिमार्ग शुभाचार ।। ३८।। पूर्ण कुंभ ठेऊनि उशीं। मंगळ द्रव्य पालायें बहुवशी । रात्रिसूक्त म्हणावे हर्षी। विष्णुस्मरण करावें ।।३९।। मग स्मरावा अगस्त्यऋषि । माधव मुचुकुंद परियेसीं । आस्तिक कपिल महाऋषि। सर्पस्तुति करावी ।।२४०।। निषिद्ध स्थानें निजावयासी । सांगेन सर्व परियेसी । मातापिता निजले स्थळासीं। निजू नये परियेसा ।।४२।। वर्जाव वारुळा जवळीं। आणिक तळ्याचे पाळीं । नदीतीरीं नसता जवळी। घोर स्थळीं निजू नये ।।४३।। वजवि शयन धान्यावरी। निजू नये मोडके घरों। वडील खालीं निजतील तरी। खट्वा वर्जावी त्यांपुढे ।।४४।। नेसून ओले अथवा नम्र। निजूं नये शिर वेष्टन । आकाशाखालीं वर्जावें शयन। दीप असता निजू नये ।।४५।। पूर्वरात्रीं अपरात्रीसी। निजू नये परिवेसीं। असू नये खियेपासीं । रजस्वला चतुर्थदिनों ।।४६।। असावें जानवें उपबीतीसी। दृष्टी न पडावी योनीसी। आयुष्य क्षीण परियेसीं । दीप वर्जावा या कारणें ।।४७।। नीळ वस्त्र नेसलें स्त्रियेसीं। करितां संग परिवेसीं। पुत्र उपजे चांडाळेसी। शुभ्र वस्त्र विशेष ।।४८।। रजस्वला न होतां खियेसीं। न करावा संग परियेसीं। संग करितां महादोषी । आणिक प्रकार एक असे ।।४९।। दश वर्षे होतां कन्येसी । रजस्वला सर्वत्रांसी। ऐका तुम्ही सर्व ऋषि । पराशर सांगतसे ।।२५०।। ऋतुकाळ असतां खियेसी । गांवासी जातां परियेसीं। भ्रूणहत्या होय दोषी। प्रख्यात असे परियेसा ॥५१।। वृद्ध अथवा वांझेसी। असती पुत्र जिसी। बहु कन्या होती जियेसी। चुकतां ऋतुकाळ दोष नाहीं ।॥५२।। ऋतु देतां चतुर्थ दिवसीं । पुत्र उपजे अल्पायुषी। कन्या होय पांचवे दिवसीं। सहावे दिनीं पुत्र परियेसा ।।५३।। विषम दिवसीं कन्या जाण । सम दिवसीं पुत्र सगुण। दहा दिवस ऋतुकाळ खूण। चंद्रबळ असावें ।।५४।। मूळ मघा रेवती दिवसीं । संग न करावा परियेसीं। कोप नसावा उभयतांसी। संतोषरूपें असावें ।।५५।। ऋतुकाळी स्रीपुरुषांसी। जें जे असेल मानसीं । सत्त्वरजतमोगुणेंसी । तैसा पिंड उपजे देखा ।।५६।। ऐसा ब्राह्मणाचा आचार। सांगता झाला पराशर । ऐकोनि समस्त ऋषीच्चर। येणेंपरी आचरती ।।५७।। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणांसी। ऐसा आचार परियेसीं। जे आचरती विधींसी। दैन्य कैचें तयां परी ।।५८।। ते बंद्य होत देवांसी। कामधेनु येईल परासी। लक्ष्मी राहे अखंडेंसी। पुत्रपौत्री नांदती ॥५९।। होव आपण शतायुषी। न घडती दोष कांहीं त्यासी। तो न भिई कळिकाळासी। ब्रह्मज्ञानी होय जाणा ।।२६०।। काळमृत्यु बुके देखा। अपमृत्यु घडे कैचा ऐका। ऐसा आचार आहे निका। नित्य रहाटावें येणेंपरी ।।६१।। ऐसें ऐकोनिया वचना। विप्र लागे श्रीगुरुचरणा। झाला उपदेश उद्धारणा। कृपासागर गुरुमूर्ति ।। ६२।। भक्तजन तारावयासी। अवतरलासी हृषीकेशी। परिहरिलें अंधकारासी। ज्ञानज्योती प्रकाशली ।।६३।। ऐसे विनवोनि ब्राह्मण । पुनरपि धरिले श्रीगुरुचरण। श्रीगुरुमूर्ति संतोषोन। प्रसन्न झाले तये वेळीं ।। ६४।। म्हणती श्रीगुरु तयासी । आचार सांगितला तुज हीं। नव जावे आतां भिक्षेसी। आचार करूनि सुखी असे ।। ६५।। जे जे इच्छिसी कामना। होईल निस्ती सत्य जाणा। कन्या पुत्र नांदती सगुणा। संदेह न घरावा मानसीं ।॥६६।। ऐसा बर लाघोनि। विप्र गेला संतोषोनि । होता तैसा आचरोनि। सकळाभीष्टं लाधला ।। ६७।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। श्रीगुरुचरित्र ऐसें परियेसीं। ऐकता ज्ञान समस्तांसी। मूद होय ब्रह्मज्ञानी ।।६८।। अज्ञानतिमिर अंधकारासी। ज्योतिप्रकाश कथा सुरसी। जें जें इच्छिलें मानसीं । पाविजे त्वरित अवधारा ।।६९।। म्हणे सरस्वतीगंगाधरू। श्रीगुरुचरित्र असे सुरतरू । ऐकतां होय संतोष फारू । सकळाभीष्टे साधती ।।२७०।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । नामधारका शिष्य सांगत। आचार जो का समस्त। निरोपिला श्रीगुरुनार्थे ।।२७१।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३७॥
ओवीसंख्या २७१
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक विनवी सिद्धासी। पुढे कथा वर्तली कैसी। विस्तारावी जी कृपेंसी। म्हणोनि चरणीं लागला ।।१।। आर्त झालों मी तृषेचा। घोट भरवीं गा अमृताचा। प्रताप वर्णनी श्रीगुरूचा। माझे मन निववीं वेंगीं ।।२।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। जो जो मज तू पुससी। संतोष होतो मानसीं। श्रीगुरुचरित्र आठवितां ।।३।। तुज करितां आम्हांसी । लाभ जाहला परियेसीं। आठविली कथा सुरसी। विचित्र एक झालें असे ।।४।। चरित्र मार्गे सांगितले। जें भक्तानें द्रव्य आणिलें। स्वामी तें नाहीं अंगिकारिलें। समाराधना करा म्हणती ।।५।। नित्य समाराधना देख । करीत होते भक्त अनेक कधीं न होय आराणूक'। ऐसा दिवस एक नाहीं ।।६।। ऐसें असतां एके दिवसीं । दुर्बळ' द्विज आला परियेसीं। असे काश्यप गोत्र त्यासी। नाम तयाचे भास्कर ।।७।। अतिक्षीण तो ब्राह्मण । आला दर्शना म्हणोन । साष्टांग नमस्कार करून। भक्तिपूर्वक विनविलें ।।८।। ते दिवसीं भक्तजन। करीत होते समाराधन । उठविती तया ब्राह्मणा । भोजन करा म्हणोनि ।।९।। संकल्प करोनि तो ब्राह्मण। गुरुभिक्षा करीन आपण । सर्वे सोपस्कार घेऊन । आला होता परियेसा ।।१०।। त्रिवर्गापुरते देख। स्वल्प होते तंडुल कणिक। चरकड त्या प्रमाणिक' । असे सोपस्कार त्यापासीं ।।११।। सर्व असे वीं बांधिलें। नेऊनि मठांत ठेविलें । भक्ते आपणासी बोलाविलें । म्हणोनि गेला भोजनासी ।।१२।। भोजन करितां झाली निशी आपण आला मठासी। गांठोडी ठेविली आपुल्या उशीं । मग निद्रा करी देखा ।।१३।। नित्य घडे ऐसें तयासी। भक्त येती समाराधनेसी। आराणूक होय त्यासी। नित्य जेवी समाराधनों ।।१४।। समस्त लोक त्यासी हासती। पहा हो समाराधनेची आयती। घेऊनि आला अतिभक्तीं। आपण जेवी समाराधनी ।।१५।। एकासी न होय पुरतें अन्न। श्रीगुरुशिष्य बहुत जाण। काय करील हा ब्राह्मण । समाराधना करीन म्हणतो ।।१६।। लाज न वाटे तया कैसी। समाराधना म्हणावयासी । विनोद करिताती ब्राह्मणासी। तूं आजि करी माधुकरी ।।१७।। नाना प्रकारे त्या ब्राह्मणासी। विनोद' करिती परियेसीं। मासत्रय ऐशिया विधींसी। क्रमिले तेथे ब्राह्मणें ।।१८।। नित्य होतसे समाराधन । त्यांचे घरी जेवी आपण । गांठोडी उशेसी घेऊन। निद्रा करी प्रतिदिवसीं ।।१९।। मासत्रय क्रमिलियावरी। समस्त मिळोनि द्विजवरी। परिहास' करितां परोपरी। श्रीगुरुमूर्तीनं ऐकिले ।।२०।। बोलाविती त्या ब्राह्मणासी। आजि भिक्षा करावयासी । स्वयंपाक करी वेगेंसी। श्रीगुरु म्हणती कृपासिंधु ।।२१।। ऐकोनिया श्रीगुरूच्या बोला। संतोष अपार द्विजासी झाला । चरणावरी माथा ठेविला। हर्षे गेला आयतीसी ।।२२।। आणिलें द्वय शेर घृता। शाखा दोनी तात्पुरत्या । स्नान करूनि शुचिर्भूता। स्वयंपाक केला तये वेळीं ।।२३।। समस्त ब्राह्मण तये वेळीं । मिळोन आले श्रीगुरुजवळी । म्हणती आमुची आली पाळी। यावनाळ' अन्न परी ।। २४।। नित्य होतसे समाराधन । आम्ही जेवितों मिष्टान्न । कैचा आला ब्राह्मण। आजि समाराधना राहिली ।।२५।। श्रीगुरु म्हणती तयासी । नका जाऊं आपुल्या घरांसी। शीघ्र जावें स्नानासी। येथेचि जेवा तुम्हीं आज ।।२६।। ब्राह्मण मनीं विचारिती। मठीं असे सामग्री आयती । स्वयंपाक आतां करविती। आम्हां निरोपिती याचि गुणें ।॥२७।। समस्त गेले स्नानासी। श्रीगुरु बोलती ब्राह्मणासी । शीघ्र करी गा होईल निशी । ब्राह्मण अपार सांगितले ।।२८।। स्वयंपाक झाला तत्क्षण । सांगतसे श्रीगुरूसी ब्राह्मण। श्रीगुरु निरोपिताती जाय धावोन। ब्राह्मण समस्त पाचारी ।।२९।। ब्राह्मण गेले गंगेसी। पाचारितसे ब्राह्मण त्यासी। स्वामी बोलाविती तुम्हांसी। शीघ्र यावें म्हणोनिया ।।३०।। ब्राह्मण म्हणती विप्रांसी। स्वयंपाक करावया होय निशी। तुबां शीघ्र श्रीगुरुसी। भिक्षा करी गा जाय वेगी ।।३१।। ऐसें ऐकोनि ब्राह्मण । गेला श्रीगुरूजवळी आपण। म्हणोन न येती ब्राह्मण। रात्री आपण जेवू म्हणती ।।३२।। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी। नेम असे आजि आम्हांसी। सहपंक्तीनें ब्राह्मणांसी। जेवू आम्ही निर्धारी ॥३३।। ब्राह्मणांसहित आम्हांसी। जेवू वाढीं गा परियेसीं। जरी तूं अंगिकार न करिसी। न जेवू तुझे घरी आम्हीं ॥३४।। ब्राह्मण म्हणे श्रीगुरुसी। जो निरोप द्याल मजसी। तोचि निरोप माझे शिरसीं। ब्राह्मणांसहित जेवू घालीन ।।३५।। ब्राह्मण मनीं विचारी। श्रीगुरु असती पुरुषावतारी। न कळे बोले कवणेंपरी। आपुले वाक्य सत्य करितील ।। ३६ ।। मग काय करी तो ब्राह्मण । विनवीत असे कर जोडून। मज न येती ब्राह्मण। विनोद करिती माझ्या बोला ।॥ ३७।। श्रीगुरु आणिक शिष्यांसी। निरोपिती जावें वेगेंसी। बोलावूनि आणावें ब्राह्मणांसी। भोजन करा म्हणोनिया ।।३८।। शिष्य गेले धावत। समस्त ब्राह्मणांत बोलावित। स्नानें करोनि आले त्वरित । श्रीगुरु-मठाजवळिक ।।३९।। श्रीगुरु निरोपिती तयासी । पत्रावळी करा वेगेंसी। जेवा आज सहकुटुंबेसी । ब्राह्मण करितो समाराधना ।१४०।। चारी सहस्र पत्रावळी। कराव्या तुम्ही तात्काळीं । उभा होता ब्राह्मण जवळी । तयासी स्वामी निरोपिती ।।४१।। या समस्त ब्राह्मणांसी। विनति करा तुम्ही ऐसी। तुम्हीं यावें सहकुटुंबेंसी। आपण करितों समाराधना ।।४२।। श्रीगुरूचा निरोप घेऊन । विनवीतसे तो ब्राह्मण। द्विज म्हणती हासोन। काय जेवा म्हणतोसि आम्हां ।॥४३।। आम्हां इतुकिया ब्राह्मणांसी । एकेक शीत न ये वांट्धासी। आमंत्रण सांगावया न लाजसी। विनंति करितोसि ब्राह्मणा ॥४४।। वृद्ध ब्राह्माम ऐसें म्हणती । निंदा न करावी गुरु ऐकती। जैसे श्रीगुरु निरूपिती। तैसें बोलतो ब्राह्मण ।।४५।। हो कां बरवें बरवें म्हणती। सर्व पत्रावळी करिती। ब्राह्मण श्रीगुरुपूजा त्वरिती। करिता झाला उपचारें ।।४६।। मनःपूर्वक करी भक्ति। बरवी केली मंगल आरती। तेणें श्रीगुरु संतोषती। ठाय घाला म्हणती वेगें ।।४७।। स्वयंपाक आणूनि आपुल्या जवळीं। ठेवीं म्हणती तये वेळी। आणोनिया तात्काळीं । श्रीगुरुजवळीं ठेविला ॥४८।। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी। आमुचे वस घेऊनि अन्नासी। झाकोनि ठेवीं आम्हांपासीं । देती क्ख त्याजवळी ।।४९।। झाकिलें वस्र अन्नावरी। कमंडलुउदक घेऊनि करीं। श्रीगुरु प्रोक्षिती अन्नावरी । अभिमंत्रोनि तये वेळीं ।।५०।। मग म्हणती ब्राह्मणासी। उघडू नको अन्नासी। काढूनि नेऊन समस्तांसी। वाढीं वेगीं अन्नातें ।॥५१।। तूप घालिती घटांत। ओतूनि घेऊन आणिकांत। बाढी वेगीं ऐसें म्हणत। निरोप देती श्रीगुरु ॥५२।। ठाव घातले समस्तांसी। बाढितसे परियेसीं। लोक पहाती कौतुकासी। महदाखर्य म्हणताती ।।५३।। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणांसी । बाढा उठा त्वरेंसी। आणिक उठिले बहुतेंसी। वाढू लागले तये वेळीं ।।५४।। भरोनि नेती जितुकें अन्न। पुनः मागुती परिपूर्ण घृत भरले असे पूर्ण। घट ओतुनी नेताती ।।५५।। वाढिलें समस्त पंक्तीसी । सहपंक्ती श्रीगुरूसी। जेविताती अतिहर्षी। द्विजवर पुसतसे ।।५६।। जें जें मागती हैं वाढा म्हणत। परिपूर्ण जेवा असे प्रार्थित। भागलेत क्षुधाक्रांत । क्षमा करणें म्हणतसे ।।५७।। घृत असे आपुले करीं। वादितसे महापुरी। विप्र म्हणती पुरे करी । आकंठमर्यादा जेविलों ।।५८।। भक्ष्य परमात्र पत्र शाका। ब्राह्मण वाद्विताती अनेका। शर्करा लवण दधि शाका । अनेकपरी जेबिले ।।५९।। तृप्त जाहले ब्राह्मण देखा। हस्तप्रक्षालन करिती ऐका। उच्छिष्टे काडिताती तात्काळिकां। आश्चर्य म्हणती तये वेळीं ।।६०।। तांबूल देती समस्तांसी। गुरु बोलावूनि म्हणती त्यांसी। पाचारा आपुल्या कलत्रपुत्रांसी। समस्त येऊनि जेविती ।।६१।। आलें विप्रकुळ समस्त । जेवून गेलें पंचामृत । श्रीगुरु मागुती निरोपित। शूद्रादि ग्रामलोकां पाचारा ।। ६२।। त्यांच्या स्त्रियांपुत्रांसहित। बोलावीं शीघ्र ऐसें म्हणत । पाचारिल्या समस्त येत। जेवुनी गेलीं तये वेळीं ।॥६३।। श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी। आतां कोण उरले ग्रामवासी। ते सांगती स्वामियासी। अंत्यज जाती उरली असे ।।६४।। पाचारावे समस्तांसी। अन्न वाढून द्यावें तयांसी । जितुकें मागती तृप्तीसी । तितुके द्यावें अन्न वेगीं ।।६५।। तेही तृप्त झाले देखा। प्राणिमात्र नाहीं भुका। सांगती श्रीगुरु द्विजलोकां । डांगोरा पिटा गांवांत ।।६६।। कोणी असती सुधाक्रांत । तयांसी पाचारावें त्वरित । ऐसें श्रीगुरु निरोपित । हिंडती ग्रामों तये वेळीं ।।६७।। प्राणिमात्र नाहीं उपवासी। सर्व जेवले परियेसी । मग निरोपित त्या द्विजासी । भोजन तुवां करावें ।॥६८॥ श्रीगुरुनिरोपें भोजन केलें। मागुती जाऊनि अन्न पाहिलें । आपण जितुकें होतें केलें । तितुकें अन्न उरलें असे ।।६९।। ऐकोनि श्रीगुरु म्हणती । घेऊनि जा रे अन्न त्वरिती । घालावें जळीं जळबरें खाती। तृप्त होती तींही जीवनीं ।॥७०।। ऐसें तया दिवसीं विचारिती। चारी सहस्र झाली मिती'। भूमीवरी झाली ख्याति । लोक म्हणती आश्चर्य ।।७१।। इतुकें झालियावरी। श्रीगुरु द्विजातें पाचारी। वर देता दरिद्र दुरी पुत्रपौत्र होती तुज ।।७२।। समस्त तटस्थ झाले लोक। म्हणती देखिलें आजि कौतुक । अन्न केलें होतें स्वल्पएक। चारी सहस्र केवी जेविले ॥७३।। एक म्हणती श्रीगुरुकरणी। स्मरली असेल अन्नपूर्णा । अवतारपुरुष परिपूर्णा । झाला श्रीनृसिंहसरस्वती ॥७४।। एक म्हणती अपूर्व देखिलें । पूर्व कथानक होतें ऐकिलें। पांडवगृहीं दुर्वास गेले। ऋषीश्वरांसमवेत ।।७५।। सत्त्वभंग होईल म्हणोन । कृष्ण आला ठाकून'। तेणें केलें अन्न पूर्ण । दुसरें आजी देखिलें ।। ७६।। नर दिसे तो दंडधारी। सत्य त्रिमूर्ति अवतारी। न कळे महिमा असे अपारी। म्हणती लोक अनेक ।।७७।। यातें नर जे म्हणती। ते जाती अधोगति। वर्णाक्या आम्हां नाहीं मति । परब्रह्ममूर्ति श्रीगुरु ।। ७८ ।। नव्हे हा जरी ईश्वर। केवी केलें अन्नपूर। होतें तीन अडीच शेर। चारी सहस्र जेविले केवी ।।७९।। आणिक एक नवल झालें। आम्हीं समस्ती देखिलें। प्रेताचे संजीवन केलें । शुष्क काष्ठासी आले पल्लव' ।।८०।। आणिक ऐका त्याची महिमा। कोणाची देऊं आतां उपमा। कुमसीस होता त्रिविक्रमा । तयासी दाखविलें विश्वरूप ।।८१।। ग्रामांत होती वांझ महिषी। क्षीर काडिलें भिक्षेसी। वेद म्हणविले पतितमुखासी । अभिमंत्रितां श्रीगुरूंनीं ।।८२।। आणिक झालें एक नवल। कुष्ठी आला विप्र केवळ। दर्शनमात्रे झाला निर्मळ । आम्हीं देखिला दृष्टीने ।।८३।। विणकर होता एक भक्त। तयासी दाखविला श्रीशैल्यपर्वत । काशीक्षेत्र क्षण न लागत । एका भक्तासी दाखिवलें ।।८४।। आणिक अपार चरित्रे। सांगतां आहेत अपारें। क्षितीवरी समस्त दैवते । तयाचे नव्हे सामर्थ्य ॥८५।। समस्त देवांतें आराधितां। आलस्यें होय मनकाम्यता । दर्शनमात्रे श्रीगुरुनाथा । सकळाभीष्टे होताती ।।८६।। ऐसें म्हणती विप्रलोक। अपूर्व झालें कौतुक। ख्याति ऐकती समस्त लोक। येती अनेक दर्शना ।।८७।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। श्रीगुरुचरित्र ऐसें परियेसीं। याचि निमित्तं बहुवसीं । शिष्य झाले श्रीगुरूचे ।।८८।। नाना राष्ट्रींचे भक्त येती। श्रीगुरूची सेवा करिती। अंतःकरणी एकचित्तीं। भजणारांसी प्रसन्न ।।८९।। गंगाधराचा सुत। सरस्वती असे विनवित। जनहो ऐका तुम्ही समस्त । भजा भजा हो श्रीगुरूसी ।।९०।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । अन्नपूर्ति गुरु करीत। चार सहस्र जेवित । अष्टत्रिंशत्तमोऽध्याय हा ।।९१।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३८॥
ओवीसंख्या ९१
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः। सिद्ध म्हणे नामधारका। पुढे अपूर्व वर्तलें ऐका। साठ वर्षी वांझेसि एका। कन्या पुत्र झाली परियेसा ।।१।। आपस्तंबशाखेसी। ब्राह्मण एक परियेसीं। शौनकगोत्री प्रवरेसी। नाम तयाचें सोमनाथ ।।२।। गंगा नामें तयाची पत्नी । पतिव्रता शिरोमणि । बेदशास्त्र जाणे सगुणी। असती झाली उभयतां ।।३।। बर्षे झाली साठ तियेसी । पुत्र नाहीं तिचे कुशी। वांझ म्हणोनि ख्याति ऐसी। होती तया गाणगापुरी ।।४।। पतिसेवा निरंतरी । करीतसे भक्तिपुरस्सरी । नित्य नेम असे नारी। गुरुदर्शना येत असे ।।५।। निरांजन प्रतिदिवसीं । आणोनि करी श्रीगुरूसी । येणेंपरी बहुत दिवसीं। वर्तत होती परियेसा ।।६।। ऐसें असतां वर्तमानी । संतुष्ट झाले श्रीगुरुमुनि । पृच्छा' करिती हासोनि । तया द्विजखियेसीं ।।७।। श्रीगुरु पुसती तियेसी। काय अभीष्ट असे मानसीं। आणित्येसी प्रतिदिवसीं । नीरांजन परोपरी ।।८।। तुझ्या मनीं अभीष्ट कोण। त्वरित सांग विस्तारोन। सिद्धि पाववील नारायण। गौरीरमण' गुरुप्रसादें ।।९।। ऐकोनि श्रीगुरूचें वचन । करी साष्टांग नमन। विनवीतसे कर जोडून । निपुत्रिका मी लोकनिंद्या ।।१०।। पुत्राविणें खियेसी । न पाहावें तिच्या मुखासी। पापरूपी महादोषी । म्हणती मातें स्वामिया ।।११।। जिये पोटीं नाहीं बाळ। तिचा जन्म निष्फळ । बाट पाहती उभयकुळ । बेचाळिस पितृलोकीं ।।१२।। पितर चिंतिती मनांत। म्हणती एखादे समवी वंशांत। पुत्र झाल्या आम्हां हित। तो उद्धरील सकळांतें ॥१३।। पुत्रावेगळे जें घर। तें सदा काळीं अघोर। अरण्य नाहीं तयास दूर। यथारण्यं तथा गृहं ।।१४।। नित्य गंगास्नानासी। आपण जातसें परियेसीं। घेऊनि येती बाळकांसी। समस्त खिया कौतुकें ।।१५।। कड़िये घेऊनि बाळा । खेळविती खिया सकळा। तैसे नाहीं माझे कपाळा। मंदभाग्य असें देखा ।।१६।। जलो माझे वक्षस्थळ। कडे घ्यावया नाहीं बाळ। जन्मोनिया संसारी निष्फळ। नव्हे पुरुष अथवा सती ।।१७।। पुत्रपौत्र असती वर्षे जयासी । । परलोक लोभ तयांसी। अधोगति' निपुत्रिकासी। लुप्तपिंड होय देखा ।।१८।। आतां पुरे जन्म मज। साठी झालीं सहज । आम्हां आतां वर दीजे। उत्तम जन्म पुढे होव ।।१९।। पुत्रवंती व्हावें आपण। अंतःकरणी वासना पूर्ण में। ऐसा कर द्यावा म्हणोन। विनवीतसे तये वेळीं ।।२०।। ऐकोनि तिवेचें बचन । श्रीगुरु म्हणती हांसोन । पुढील जन्म जाणे कवण । तूतें कैवें स्मरण सांग ।।२१।। नित्य आरती आर आम्हांसी। भक्तिपूर्वक अहर्निशी। करितां झालों संतोषी। कन्या-पुत्र तूत होती ।।२२।। इहजन्म जन्मीं तूतें जाण । कन कन्या पुत्र सुलक्षण । होती निश्चयें मानीं वचन । श्रीगुरु म्हणती तियेसी ।।२३।। श्रीगुरूचें वचन ऐकोनि। पालवी' गांठ बांधोनि। विनवीतसे कर जोडूनि । ऐके स्वामी कृपासिंधु ।।२४।। साठीं वर्षे जन्मासी । झालों स्वामी परियेसीं। होत नाहीं विटाळसी । मातें कैचे पुत्र होती ।।२५।। नाना व्रतें नाना ताना तीर्थे । मी हिंडलें पुत्रार्थे । अनेक ठायीं पूजिलीं दैवतें। मनोभावें स्वामिया ।।२६।। लोक सांगती मजलाग लागी जाणा कराव्या अश्वर अश्वत्थप्रदक्षिणा । तेणें पुरतील मनकामना। होतील पुत्र म्हणती मज ।।२७।। चिरकाळ अश्वत्थाला। सेवा करितां जन्म गेला। विश्वास आपण बहु केला। पुत्र होतील म्हणोनि ।।२८।। साठी बर्षे येणेंपरी। कष्ट केले अपरंपारी। सेवा करीतसें अद्यापिवरी। अश्वत्थासी प्रदक्षिणा ।।२९।। पुत्र न होती या जन्मीं। पुढें होतील ऐसि ऐसिया कामी मी। सेवा करीतसे मी स्वामी। अश्वत्थाची परियेसा ।।३०।। आतां स्वामी प्रसन्न होसी। इहजन्मीं पुत्र देसी। अन्यथा न होय बोलासी। तुमच्या स्वामी नरहरी ।।३१।। स्वामींनी दिधला मातें वर। माझे मनीं हाचि निर्धार। हासें न करी स्वामी गुरुवर। शकुनगांठी बांधिली म्यां ।।३२।। पुढील जन्म काम्यासी। करीतसे सेवा अश्वत्थासी। स्वामी आतांच वर देसी। इहजन्मों कन्या पुत्र ।।३३।। अश्वत्थसेवा बहुत दिवसीं। करितां झाले मी प्रयासी। काय होईल आम्हांसी। अश्वत्थ सेवित्यें मूर्खपणे ।।३४।। ऐकोनि तियेचे वचन। श्रीगुरु म्हणती हासोन। अश्वत्थसेवा महापुण्य। वृद्धा न होय परियेसीं ।।३५।। निंदा न करी अश्वत्थासी। अनंत पुण्य परियेसीं। सेवा करी वो आम्हांसरसी । तूंतें पुत्र होतील ।।३६।। आतां तुमचें वचन घरीं। नित्य जाई संगमातीरीं। अमरजा बाहे निरंतरी। भीमरथीसमागमें ।॥ ३७।। तेथे अश्वत्थ असे गहन। करितों आम्ही अनुष्ठान। सेवा करीं एकमन । आम्हांसहित अश्वत्थाची ।। ३८ ।। अश्वत्थाचें महिमान। सांगेन ऐका परिपूर्ण । अश्वत्थनाम नारायण। आमुचा वास तेथे असे ।।३९।। ऐकोनि श्रीगुरुचें वचन । विनवीतसे कर जोडून । अश्वत्थवृक्षाचे सेवन । विस्तारोनि सांगा म्हणे ।।४०।। कैसें माहात्म्य असे तयाचें। स्वामी निरोपार्ने मज साचें । स्थिरत्व' होय मनाचे। सेवा करीन भक्तीनें ।।४१।। श्रीगुरु म्हणती तियेसी । अश्वत्थवृक्ष तूं निदिसी। सांगतां महिमा अपारेसी। समस्त देव तेथे असती ।।४२।। अश्वत्थाचें महिमान । ब्रह्मांडपुराणर्णी निरूपण । नारदमुनीतें विस्तारोन । ब्रह्मदेवें सांगितलें ॥४३।। ब्रह्मकुमार नारदमुनी। ज्याचे गमन त्रिभुवनीं । ब्रह्मयासी पुसोनि। आता ऋषि आश्रमासी ।।४४।। नारदातें देखोनि । अर्घ्यपाद्य देवोनि। पूजा केली उपचारोनि । पुसते झाले तये वेळीं ।।४५।। ऋषि म्हणती नारदासी। विनंति ऐका परियेसीं। अश्वत्थमहिमा आहे कैसी। विस्तारावी स्वामिया ।।४६।। ऋषिवचन ऐकोनि। सांगतसे नारदमुनि । गेलो होतों आजिच्या दिनीं। ब्रह्मलोका हिंडत ।।४७।। आपण पुसिलें ब्रम्ह्यासी। अश्वत्थमहिमा आहे कैसी। समस्त मानिती तयासी । विष्मुरूप म्हणोनि ।।४८।। ऐसा वृक्ष असे जरी। सेवा करिजे कवणेंपरी। कैसी महिमा विस्तारी। निरोपाची दातारा ।।४९।। ब्रह्मा सांगे आम्हांसी । अश्वत्थमुळी आपणांसी। मध्ये वास हृषीकेशी। अग्रीं रुद्र वसतसे ।।५०।। शाखापल्लव-अधिष्ठानी। दक्षिण शाखे शूलपाणि। पश्चिम शाखे विष्णु निर्गुणी। आपण उत्तरे वसतसे ।।५१।। इंद्रादि देव परियेसीं । वसती पूर्वशाखेसी। आदित्य देव अहर्निशीं । समस्त शाखे वसती जाणा ।।५२।। गोब्राह्मण समस्त ऋषि। वैदादि यज्ञ परियेसीं। समस्त मूलांक्रेसी। असती देखा निरंतर ।।५३।। समस्त नदीतीर्थे देखा । समस्त सागर लवणादिका। वसती जाणा पूर्व शाखा। ऐसा अश्वत्थ वृक्ष असे ।।५४।। अकारशब्द मूळस्थान । स्कंद शाखा उकार जाण । फळ पुष्प मकार वर्णं। अश्वत्थ ऐसा ओंकाररूपी ।।५५।। एकादश रुद्रादिक। अष्ट वसु आहेत ऐक । जे स्थानीं त्रैमूर्ति देख। समस्त देव तेथे वसती ।। ५६।। ऐसा अश्वत्थनारायण। महिमा वर्णं शके कवण । कल्पवृक्ष याचि कारण । ब्रह्मा म्हणे नारदासी ।।५७।। नारद म्हणे ऋषींसी। त्रिमूर्ति असे वृक्षापासीं । किती वर्णं त्याचे महिमेसी । भजतां कार्यसिद्धि त्वरित होय ।।५८।। ऐकोनिया समस्त ऋषि। विनविताती नारदासी । आचारावया विधि कैसी । कवणेंपरी भजावें ।।५९।। पूर्वी आम्हीं एके दिवसीं। पुसिलें होतें आथर्वणासी । त्याणे सांगितलें आम्हांसी । अश्वत्थसेवा करावया ।।६०।। तूं नारद ब्रह्मऋषि । समस्त धर्माते जाणसी। विस्तारोनि आम्हांसी। विधिपूर्वक निवेदावें ।। ६१।। नारद म्हणे मुनिवरा। सांगेन ऐका तत्परा। वित्त करोनिया स्थिरा । विधान असे ब्रह्मवचनीं ।॥ ६२।। आषाढ पौष चैत्रेसी। अस्तंगत गुरु-शुक्रांसी। चंद्रबळ नसल्या दिवसीं। करू नये प्रारंभ ।।६३।। याव्यतिरिक्त आणिक मासीं । बरवा पाहोनिया निया दिवसीं । प्रारंभ करावा उपवासीं। शुचिर्भूत होऊनिया ।।६४।। भानुसोमवारदिवसीं । आ आतळू नये अश्वत्यासी । भृगुवार संक्रातिदिवसीं । स्पर्शों नये सर्वथा ।।६५।। संधि रात्रीं रिक्तातिथीं। पर्वणीस व्यतीपातीं। दुर्दिनादि वैधृतीं। अपराण्हसमयीं स्पशू नये ।।६६।। सबैल' स्नान करोनि । निर्मळ वरुन नेसोनि। गंगा यमुना कलश दोनी। आणोनि ठेवणें पारावरी ।। ६८।। पूजा करावी कलशांसी । पुण्याहवाचनकर्मेसी। संकल्पावें विधींसी। काम्यार्थ आपुलें उच्चारिजे ।।६९।। मग कलश घेवोनि । सात वळा भरोनि। स्नपन करावें आणोनि । अश्वत्थ वृक्षासी अवधारा ।।७०।। पुनरपि करोनिया स्नान। मग करायें वृक्षस्नपन। पुरुषसूक्त म्हणोन। पूजा करावी षोडशोपचारें ।।७१।। मग घ्यावी विष्णुमूर्ति । अष्टभुजा आहेत विख्याती । शंखचक्र उभय हस्तीं। वरदहस्त असे जाणा ।।७२।। खङ्ग खेटक एके करी। धनुष्यबाणा सविस्तरी । अष्टभुजीं येणेंपरी। आयुधे असती परियेसा ॥७३।। पीतांबर प्रावरण' । सदा लक्ष्मी-सन्निधान। ऐसी मूर्ति घ्याऊन । पूजा करणें वृक्षासी ।।७४।। त्रैमूर्तींचे असे स्थान । शिवभक्तीविणें नाहीं जाण । समस्त देवता आवाहन । षोडशोपचारे पूजावें ।।७५।। बखें अथवा सुतासी। बेष्टावें तया वृक्षासी। पुनरपि संकल्पेंसी। प्रदक्षिणा कराव्या ।।७६।। अथवा सहस्रनामेसी। कराव्या प्रदक्षिणा हीं। अथवा करा मौन्येसी । तयाचें फळ अनंत देखा ।।७७।। मनसा वाचाकर्मेसी। भक्तिपूर्वक भावेसी। प्रदक्षिणा कराव्या हीं। पुरुषसूक्त म्हणत देखा ।। ७८ ।। चाले जैसी श्री गर्भिणी। की उदककुंभ घेउनी। तैशा महामंद गतींनीं। प्रदक्षिणा कराव्या ॥७९।। पदोपदीं अश्वमेध । पुण्य जोडे फळप्रद । प्रदक्षिणासमाप्तमध्य। नमस्कार करावा ।।८०।। ब्रह्महत्यादि पापांसी। प्रायश्चित्त नाहीं परियेसी । प्रदक्षिणा द्विलक्षांसी । ब्रह्महत्यादि पायें जाती ।।८१।। त्रिमूर्ति बसती जया स्थानीं। फल काय सांगू प्रदक्षिणीं । समस्त पाप होय पुणी । गुरुतल्पादि दोष जाती ।।८२।। नाना हरती व्याधि-दोष। प्रदक्षिणा करितां होय निःशेष । कोटि ऋण असेल ज्यास। परिहारेल परियेसा ॥८३।। जरामृत्यु व्याधिउत्पत्ति। संसारताप भवें नासती। ग्रहपीडा बाधों न शकती। सहस्र प्रदक्षिणा केलिया ।।८४।। पुत्रकाम्य असे ज्यासी। पुत्र होती भरंवसीं। मनोवाक्कायकर्मेसी। एक भावे करावें ।।८५।। चतुर्विध पुरुषार्थ। देता होय तो अग्रत्थ। पुत्रकाम्य पावती त्वरित। न घरावी शंका ऋषीहो ।।८६।। शनिवारी वृक्ष घरोनि। जप करावा मृत्युंजयनी। काळमृत्यूतें जिंकोनि। राहे नर अवधारा ।।८७।। ते अपमृत्यु न पावती। पूर्णायुषी होती निश्चितीं। शनिग्रह न पीडिती। प्रार्थावं अश्वत्थासी ।।८८।। ग्लोक ।। कोणस्थको रौद्र यमश्च बच्नुः कृष्णः शनिः पिंगल एव मंदः। नित्यं स्मरेत् व्याहरते च पीडां । तस्मै नमस्ते रविनंदनाय ।।८९।। टीका।। शनिनामें घेवोनि । उच्चारावें आपुले वदनीं। बभ्रु पिंगल म्हणोनि। कोणस्थ कृष्ण म्हणावें ।।९०।। अंतक यम महारौद्री। मंद शनैश्वर शौरि। जप करावा येणेंपरी। शनिपीडा न होय ।।९१।। ऐसें दृढ करोनि मन। अखत्थ सेवितां कामना पूर्ण। पुत्रकाम्य तत्क्षण । होय निरुतें' अवधारा ।।९२।। अमावास्या गुरुवारेंसी। अग्रत्थछायेंत जळासीं। स्नान करितां नरासी । ब्रह्महत्या पापें जाती ।।९३।। अश्वत्थतळीं ब्राह्मणासी। अन्न घालितां एकासी। कोटि ब्राह्मणां परियेसीं। भोजन दिल्हें फळ असे ।।९४।। अश्वत्थतळीं बैसोन। एकदां मंत्र जपतां क्षण। फळ होय अनंतगुण। वेदपठण केलिया ।।९५।। नर एखादा अश्वत्थासी। स्थापन करी भक्तींसी। सह बेचाळिस पितरांसी। स्वर्गों स्थापी निरंतर ।।९६।। छेदितां अश्वत्थवृक्षासी । महापाप परियेसीं। पितरांसहित नरकासी। जाय देखा तो नर ॥९७॥ अश्वत्थातळीं बैसोन । होम करितां महायज्ञ । अक्षय सुकृत' असे जाण। पुत्रकाम्य' त्वरित होय ।।९८।। ऐसें अश्वत्थमहिमान । नारदासी सांगे चतुरानन । म्हणोनि ऐकती ऋषिजन। तया नारदापासोनि ।।९९।। नारद म्हणे ऋषीश्वरासी। प्रदक्षिणांच्या दहावे अंशीं। हवन करावें परियेसीं । आगमोक्त विधीनें ॥१००।। हवनाच्या दहावे अशीं। ब्राह्मणभोजन करावें हीं। ब्रह्मवर्य हविष्यार्जेसी । व्रत आपण करावें ।।१।। येणेंपरी आचरोन। मग करावें उद्यापन। शक्त्यनुसार सौवर्ण। अश्वत्थवृक्ष करावा ।।२।। तो द्यावा ब्राह्मणासी। विधिपूर्वक परिययेसीं। चेतधेनु सवत्सेंसी। द्यावी ब्राह्मणाकारणें ।।३।। वृक्षातळीं तिलराशी । करावी यथाशक्तींसी। वरी झाकोनि चेतवस्त्रासी। द्विजालागी द्यावें ।।४।। ऐशा अवत्वविधाना। सांग नारद ऋषिजना। यावरी मुनि आचरणा। करूनि अभीष्ट लाधले ।।५।। श्रीगुरु म्हणती बंध्येसी । अश्वत्थमहिमा आहे ऐशी। भावभक्ति असे ज्यासी। त्यासी होय फलश्रुति ।।६।। आचार करी हो येणेंपरी। संशय आतां चित्तीं न धरों। वृक्ष असे भीमातीरीं। जेथे अमरजासंगम ।।७।। तेंचि आमुचें स्थान जाण। सेवा करावी एकमन । होईल कामना शीघ्र कन्या पुत्र तुझे उदरीं ।।८।। ऐकोनिया श्रीगुरुच्या वचना। नमस्कार करी ते अंगना। विनवी कर जोडोनि जाणा । भक्तिभावें करोनिया ।।९।। आपण वांझ वर्षे साठी। कैचे पुत्र माझे पोटीं। वाक्य असें तुमचे शेवटी । म्हणोनि आपण अंगिकारीन ।।११०।। गुरुवाक्य सुरभीसमान। ऐसें सांगती वेदपुराण। आतां नाहीं अनुमान। करीन सेवा स्वामिया ।।११।। चाड नाहीं अश्वत्थासी। निर्धार तुमच्या बोलासी। करीन सेवा तुमची ऐशी। म्हणोनि चरणी लागली ।।१२।। ऐसा निरोप घेवोनि। जावोनिया संगमस्थानों। षट्कुलांत स्नान करूनि। सेवा करी अश्वत्थासी ।।१३।। श्रीगुरूचा निरोप जेणेंपरी। तैसीच सेवा करी नारी। येणेंपरी तीन रात्रीं। आराधिला परियेसा ।।१४।। श्रीगुरुनिरोपें अश्वत्थासी। सेवा करी रात्रंदिवसीं । तिसरे रात्रीं स्वप्न तियेसी । झालें ऐका एकचित्तं ।।१५।। स्वप्नामध्यें विप्र एक । येवोनि देतो तिसी भाक। कार्य तुझें झालें ऐक। सांगेन एक तें करी म्हणे ।।१६।। जावोनि गाणगापुरांत । तेथे असे श्रीगुरुनाथ। प्रदक्षिणा करी वो सात। नमन करी भक्तींसी ।।१७।। जे काय देतील तुजसी। भक्षण करीं वेगेंसी । निर्धार करी वो मानसीं। त्वरित जावें म्हणे वित्र ।।१८।। ऐसें देखोनि सुषुप्तीत'। सर्वेचि झाली जागृत' । कल्पवृक्ष असे अश्वत्थ। कल्पिले फळ त्वरित होय ।।१९।। सेवा करोनि चवथे दिवशीं । आली आपण मठासी । प्रदक्षिणा करोनिया हर्षी। नमन केलें तये वेळीं ।।१२०।। हासोनिया श्रीगुरुमुनि । फळे देती तिसी दोनी । भक्षण करी को संतोषोनि। कार्य झालें तुझें आतां ।।२१।। भोजन करी आतां त्वरित। काम्य होईल तुझे सत्य । कन्या-पुत्र दोनी सुत। दिल्हे आज परियेसा ।।२२।। पारणें करोनि विधींसी। मग भक्षावे यांसी। दान द्यावें ब्राह्मणासी । जें का पूर्वी निरोपिलें ।॥२३॥ व्रत संपूर्ण करोनि। करी दान ती भामिनी। त्याच दिवशीं अस्तमानीं । झाली आपण विटाळशी ॥२४।। मौनी दिवस तीनवरी। हविष्यान्न भोजन करी। चेत वस्त्र नेसोनि नारी । कोणाकडे न पाहेचि ।।२५।। येणेंपरी तिन्ही निशी'। क्रमिल्या नारीनें परियेसीं । सुस्नात होवोनि चवथे दिवशीं । आली श्रीगुरुदर्शना ।।२६।। पतीसमवेत येऊनि । पूजा करी एकाग्रमनीं। श्रीगुरु म्हणती संतोषोनि । पुत्रयंती व्हावें तुवां ।।२७।। ऐसें नमुनि श्रीगुरूसी। आली आपुल्या घरासी। ऋतु दिधला पांचवे दिवसीं । म्हणोनि कन्या परियेसीं ।।२८।। येणेंपरी ते नारी झाली ऐका गरोदरी। ग्रामस्थ लोक विस्मय करी। काय नवल म्हणतसे ।।२९।। म्हणती पहा नवल वर्तलें। बांझेसी गर्भधारण झालें। सोमनाथ विप्रे भलें। मनी मानिले सुखातें ।॥१३०।। सातवे मासीं ओटी भरिती। अक्षय वाणे ओवाळिती। श्रीगुरूसी विनोदावरी प्रीती। वाणें द्यावीं म्हणतसे ।।३१।। आठवे मासीं तो ब्राह्मण। करी सीमंतविधान। गुरुनिरोपें संतोषोन। देववी बाणें ग्रामांत ।।३२।। अभिनव' करिती सकळ जन । म्हणती वांझेसी गर्भधारण। पांढरे केश म्हातारपण। बाणें देतसे कौतुकें ।।३३।। एक म्हणती गुरुप्रसाद। श्रीनृसिंहमूर्ति भक्तवरद । त्याची सेवा करितां आनंद। लाभे चारी पुरुषार्थ ।।३४।। त्रैमूर्तिचा अवतार । झाला नृसिंहसरस्वती नर । भक्तजनमनोहर। प्रगटला भूमंडळीं ।।३५।। ऐसें नानापरी देखा। स्तोत्रे करिती गुरुनायका । वाणें देतसे बायकां । अति उल्हास तिच्या मनीं ।। ३६ ।। वाणें देऊनि समस्तांसी। येऊनि नमिती श्रीगुरूसी । भक्तवत्सल परियेसीं । आशीर्वाद देतसे ।। ३७।। संतोषोनि विप्रवनिता। साष्टांग करी दंडवता। नानापरी स्तोत्र करितां । विनवीतसे गुरुनाथा ।।३८।। जय जयाजी परमपुरुषा। तूंचि ब्रह्माविष्णुमहेशा। तुझ्या वाक्यपरिसा । सुवर्ण केला माझा देह ।।३९।। तारावया विश्वासी । म्हणोनि तू अवतरलासी। त्रैमूर्ति तूंचि होसी। अन्यथा नव्हे स्वामिया ॥१४०।। तुझी स्तुति करावयासी। अशक्यता या वाचेसी। अपार तुझे महिमेसी। नाहीं साम्यता कृपासिंधु ।।४१।। येणेंपरी स्तोत्र करोनि । श्रीगुरुबरण बंदोनि। गेली निरोप घेवोनि। आपुल्या गृहासी परियेसा ।।४२।। ऐसें नवमास क्रमोनि । झाली प्रसूत शुभदिनीं। कन्या प्रसवली तत्क्षणी। आनंदली मातापिता ॥४३।। ज्योतिषी म्हणती तये वेळीं। होईल कन्या मन निर्मळी। अष्टपुत्री बाढेल कुळी। पुत्रपौत्री नांदेल ।।४४।। येणेंपरी ज्योतिषों। जातक वर्तविलें परियेसीं। सोमनाथ आनंदेसी । दानधर्म करिता झाला ।।४५।। दहा दिवस क्रमोनि। सुस्नात' झाली भामिनी। कड़िये बाळ घेवोनि । आली श्रीगुरुदर्शना ।।४६।। बाळ आणोनि भक्तींसी। ठेवी श्रीगुरुवरणापासीं । नमन करी साष्टांगेंसी । एकभावें करोनिया ॥४७।। आश्वासोनि श्रीगुरुमूर्ति। उठीं बाळे पुत्रवंती। बहुतापरी संतोषविती । प्रेमभावें करोनिया ॥४८। उठोनि विनवी श्रीगुरुमूर्तीसी। पुत्र न होय आमचे कुशीं। सरस्वती आली घरासी। बोल आपुला सांभाळिजे ।।४९।। ऐकोनि तियेचें वचन । श्रीगुरु म्हणती हासोन। न करी मनीं अनमान। तूंतें पुत्र होईल ।।१५०।। म्हणोनि तिये कुमारीसी । कड़िये घेती प्रीतींसी। सांगतात समस्तांसी। तये कन्येचे लक्षण ।।५१।। पुत्र होतील बहु इसी । होईल आपण शतायुषी । पुत्रपौत्र नयनेंसी। पाहील आपण अहेवपणें ॥५२।। होईल इवा ज्ञानी पति। तयातें चारी वेद येती। अष्टैश्वर्ये नांदती । प्रख्यात होईल भूमंडळी ।।५३।। होईल आपण पतिव्रता। पुण्यशील धर्मरता। श्ची ख्याति होईल बहुता । समस्त ईतें वंदिती ॥५४।। दक्षिणदेशी महाराजा। येईल इच्छा दर्शनकाजा। आणिक पुत्र होईल तुझा। ज्ञानवंत म्हणती गुरु ।। ५५।। येणेंपरी श्रीगुरुमूर्ति। कन्यालक्षण सागंती। विप्रवनिता' विनयवृत्तीं । पुत्र व्हावा म्हणे ती ।।५६।। श्रीगुरु म्हणती तियेसी । पुत्र व्हावा कैसा तुजसी। योग्य पाहिजे तरी तीस वर्षों। अथवा मूर्ख शतायुषी पैं ।।५७।। ऐकोनि श्रीगुरूच्या वचना। विनवीतसे विप्रांगना। योग्य पाहिजे पुत्र जाणा । तयासी पुत्र पांच व्हावें ।।५८।। भक्तवत्सल श्रीगुरुमूर्ति। वर देती तेणें रीतीं। संतोषोनि घरा जाती। परमानंदें दंपत्यें ।।५९।। पुढे तियेसी पुत्र झाला। वेदशास्री विख्यात भला। पांच पुत्र तो लाधला। नामकरणी श्रीगुरूच्या ।।१६०॥ कन्यालक्षण श्रीगुरुमूर्ति । निरोपिले होतें जेणें रीतीं। प्रख्यात नामें सरस्वती। महा आनंद वर्तला ।। ६१।। यज्ञ करोनि तिचा पति । दीक्षित नाम मिरवी क्षितीं। चोहों राष्ट्रीं त्याची ख्याति । म्हणोनि सांगे सिद्धमुनि ।।६२।। साठ वर्ष बांझेसी। पुत्र झाला परियेसीं । सिद्ध म्हणे नामधारकासी। ऐसी कृपा श्रीगुरुची ।।६३।। निर्धार असे ज्याचे मनीं। तयातें बर देती तत्क्षणीं। एकभावें या कारणी। भक्ति करावी श्रीगुरूची ॥६४।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर । सांगे गुरुथरित्रविस्तार। भजतां भावे श्रीगुरु उदार। सकळाभीष्टें लाधती' ।। ६५।। जो भजे श्रीगुरूसी । एकभावें भक्तींसी। दैन्य काय बाधेल त्यासी। जें जें मागेल तें देईल ।। ६६।। श्रीगुरु म्हणजे कामधेनु । अंतःकरणी नको अनुमानु। जें जें इच्छित भक्तजनु। समस्त देईल परियेसा ।।६७।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । विप्रस्त्रियेसी झाला सुत। तेचि कथा अद्भुत। एकूणचाळिसाव्यांत निवेदिली ।।१६८।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥३९॥
ओवीसंख्या १६८
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । सिद्ध म्हणे नामधारका। अपूर्व वर्तलें आणिक ऐका। वृक्ष होता काष्ठत शुष्का । विचित्र कथा ऐका पां ।।१।। गाणगापुरी असतां श्रीगुरु। आला एक कुष्ठी द्विजवरु। आपस्तंब भार्गवगोत्रु। नाम तयाचे नरहरि ।।२।। येवोनिया श्रीगुरुमूर्तीसी । नमन करी भक्तींसी। करी स्तोत्र बहुवसी। करसंपुट जोडोनिया ।।३।। जय जयाजी गुरुमूर्ति। ऐकोनि आलों तुझी कीर्ति। भक्तवत्सला परंज्योती। परमपुरुषा जगद्गुरु ।।४।। आपण जन्मोनि संसारी । वृथा झालों दगडापरी । निंदा करिताती द्विजवरी। कुष्ठी म्हणोनि स्वामिया ।।५।। वाचिला वेद यजुःशाखा । निंदा करिताती माझी लोका। ब्राह्मणार्थी न सांगती देखा। अंगहीन म्हणोनिया ।।६।। प्रातः काळीं उठोनि लोक । न पाहती माझे मुख । तेणें होतें मनांत दुःख। जन्म पुरे आता मज ।।७।। पाप केलें आपण बहुत । जन्मांतरी असंख्यात । तेणें हा भोग भोगित । आतां न साहें स्वामिया ।।८।। नाना तीर्थ नाना व्रत। हिंदोनि आलों आचरत। म्यां पूजिले देव समस्त । माझी व्याधि न बंचेची' ।।९।। आतां धरोनि निर्धारु। आलों स्वामी जवळी जगदुरु। तुझा न होतां कृपावरु। प्राण आपुला त्यजीन ।।१०।। म्हणोनिया निर्वाणसी। विनवीतसे श्रीगुरूसी। एकमायें भक्तींसी। करुणा भाकी द्विजवर ।।११।। म्हणोनि मागुती' नमस्कारी। नानापरी स्तुति करी। लोहपरिसा भेटीपरी । तुझ्या दर्शनमात्रेसी ।।१२।। करुणावचन ऐकोनि। भक्तवत्सल श्रीगुरु मुनि। निरोप देती कृपा करोनि। ऐक शिष्या नामधारका ।।१३।। श्रीगुरु म्हणती द्विजासी पूर्वजन्मी महादोषासी। तुवां केलें बहुवसी । म्हणोनि कुष्टी झालास ।।१४।। आतां सांगेन तें करी। तुझीं पापें जाती दुरी। होशील दिव्यशरीरी। एकभावें आचरावें ।।१५।। इतुकिया अवसरी। काष्ठ एक औदुंबरी। शुष्क होतें वर्षे चारी। घेवोनि आले सर्पणासी ।।१६।। ते देखिले श्रीगुरुमूर्ती। तया विप्रा निरोप देती। एकभावें करोनि चित्तीं। घेऊ काष्ठ झडकरी ।।१७।। काष्ठ घेवोनि संगमासी । त्वरित जाय भावेंसी। संगमनाधपूर्व भागेसी। भीमातीरी रोवीं पां ।।१८।। तुवां जावोनिया संगमांत । स्नान करोनिया त्वरित । पूजा करोनि अश्वत्थ। पुनरपि जाय स्नानासी ।।१९।। हातीं धरोनिया कलश दोनी। आणी उदक तत्क्षणी। शुष्क काष्ठा वेळ तिन्ही। स्नपन करी मनोभावें ।।२०।। ज्या दिवसीं काष्ठासी। पर्णे येतील संजीवेसी । दोष गेले तुझें परियेसीं। अंग तुझे होय बरवें ।।२१।। येणेंपरी श्रीगुरुमूर्ति। तया विप्रासी निरोप देती। विश्वास झाला त्याचे चिलीं। धावत गेला काष्ठाजवळी ।।२२।। काष्ठ उचलोनि डोईवरी। घेवोनि आला भीमातीरी। संगमेश्वरासमोरी । रोबिता झाला द्विजवर ।।२३।। जेणें रीतीं श्रीगुरुमूर्ति। तया विप्रा निरोप देती। आचरतसे एकवित्तीं । भावभक्ति करोनिया ।।२४।। येणेंपरी सात दिवस। द्विजें केले उपवास। तया काष्ठा दोनी कलश । भरोनि घाली वेळोवेळीं ।। २५।। देखोनि म्हणती सकळजन। तया विप्रा बोलावोन। सांगताती विवंचून' । गुरुनिरोपलक्षण ।।२६।। म्हणती तूतें काय झालें। शुष्क काष्ठ कां रोविलें। यांचे तुवां संजीवन योजिलें। मग तूतें काय होय ।।२७।। यातें तूं सजीव करिसी। मागुती काय येती पल्लव यासी। ऐसे पाहिलें नाही भूमीसी। श्रीगुरूची इच्छा कळेना ।।२८।। श्रीगुरुमूर्ति कृपासिंधु। भक्तजना असे वरदु। त्याची कृपा असे अगाधु । समस्तांतें कृपा करी ।।२९।। नसेल निष्कृती' तुझिया पापा। म्हणोनि दिधलें काष्ठ बापा। वायां काष्ठ करिसी कां पां। तूंतें श्रीगुरुंनी निरोपिलें ।।३०।। ऐकोनि तयांचे वचन। विप्रवर करी नमन। गुरुवाक्य मज कामधेनु । अन्यथा केवी होईल ।।३१।। सत्यसंकल्प' श्रीगुरुनाथ। त्याचें वाक्य न होय मिथ्य। माझे मनीं निर्धार सत्य। होईल काष्ठ वृक्ष जाणा ।। ३२।। माझ्या मनीं निर्धारु। असत्य न होय वाक्यगुरु। प्राण बेचीन साचारु। गुरुवाक्य कारण आपणा ।।३३।। येणेंपरी समस्तांसी। विप्र सांगे परियेंसी। सेवा करितो भक्तींसी। तया शुष्क काष्ठासी ।।३४।। एके दिवशीं गुरुमूर्तीसी। शिष्य सांगती परियेसी । स्वामींनी निरोपिलें द्विजासी। शुष्क काष्ठा भजे म्हणोनि ।।३५।। सात दिवस उपवासी । सेवा करितो काष्ठासी। एकभावें भक्तींसी। निर्धार केला गुरुवचनीं ।॥३६॥ किती रीतीं आम्हीं त्यासी । सांगितले सर्व हितासी । वायां कां गा कष्ट करिसी । मूर्खपणे म्हणोनि ॥ ३७।। विप्र आम्हातें ऐसें म्हणे। चाड' नाहीं काष्ठाविणें । गुरुवाक्य मजकरणें करील आपुले बोल साच ॥३८।। निर्धार धरोनि मानसीं। सेवा करितो काष्ठासी । सात दिवस उपवासी। उदक मुखीं घेत नाहीं ।।३९।। ऐकोनि शिष्यांचे वचन। निरोप देती श्रीगुरु आपण। जैसा असे भाव अंतःकरण। तैसी सिद्धि पावेल ।।४०।। गुरुवाक्य शिष्यासी कारण। सर्वथा न होय निर्वाण। जैसे भक्तांचे अंतःकरण । तैशी सिद्धि पावेल ॥४१॥ याकारणें तुम्हांसी। सांगेन कथा इतिहासी। सांगे सूत ऋषीश्वरांसी । स्कंदपुराणी परियेसा ।।४२।। गुरुभक्तीचा प्रकार। पुसती सूतासी ऋषीश्वर। सांगे सूत सविस्तर । तेबि कथा सांगतसे ।।४३।। सूत म्हणे ऋषीचरांसी। गुरुभक्ति असे विशेषीं। ताराक्या संसारासी। आणिक नाहीं उपाय ।।४४।। अयोग्य अथवा ज्ञानवंत । म्हणोनि न पाहिजे अंत। गुरुमूर्ति मनीं ध्यात। सेवा करणें भक्तिभावे ।।४५।। दृढ भक्ति असे जयापासीं । सर्व धर्म साधती त्यासी। सदेह' न धरावा मानसीं। एकचित्ते भजावें ।।४६।। श्रीगुरु नर ऐसा न म्हणावा। त्रैमूर्ति तोचि जाणावा । गुणदोष न विचाराचा म्हणावा तोचि ईश्वर ।।४७।। येणेंपरी धरोनि मनीं। जे जे भजती श्रीगुरुचरणीं । प्रसन्न होय शूलपाणि। तात्कालिक परियेसा ।।४८।। श्लोक ।। मंत्रे तीर्थे द्विजे दैवज्ञे भेषजे गुरी। यादृशीं भावां कुर्यात् सिद्धिर्भवती तादृशी ।।४९।। टीका ।। मंत्रतीर्थद्विजस्थानीं । देवभक्तीं औषधगुणीं। गुरूसी पाहे शिवसमानी। भाविल्यासारखें फल होय ।।५०।। म्हणे सूत ऋषीश्वरांसी। गुरुभक्ति म्हणिजे आहे कैसी। सांगेन साक्ष तुम्हांसी। अपूर्व एक वर्तलेंसे ।।५१।। पूर्वी पांचाल नगरांत। होता राजा सिंहकेत। तयासी होता एक सुत। नाम तयाचे धनंजय ।।५२।। एके दिवसीं राजसुत । गेला पारधीसी अरण्यांत । तेथे नसती मनुष्यमात्र। उदकवर्जित स्थळांसी ।।५३।। राजकुमार तृषाक्रांत' । हिंडतसे अरण्यांत। संगें होते शबरसुत'। अमले बहुत अवधारा ।।५४।। तेथे एक शबरसुत। हिंडत होता वनांत । देखता झाला अवचित। जीर्ण एक शिवालय ।।५५।। मिन्नलिंग' तया स्थानीं। पडिलें होतें मेदिनी । शबरें घेतलें उचलोनि। म्हणे लिंग बरवें असे ।।५६।। हातीं पेवोनि लिंगासी। पहात होता शबर हीं। राजसुत तया संधीसी। आत्ता तया जवळीक ।।५७।। राजकुमार म्हणे तयासी। भिन्न लिंग काय करिसी। पडिलीं असर्ती भूमीसी। लिंगाकार अनेक ।।५८।। शबर म्हणे राजसुतातें। माझ्या मनीं ऐसें येतें। लिंगपूजा करावयातें। म्हणोनि घेतलें परियेसा ।।५९।। ऐकोनि तयाचे वचन। राजपुत्र सुहास्यवदन। म्हणे पूर्वी एकमनें। लिंग बरखें असे सत्य ।।६०।। ऐसें म्हणतां राजकुमार। तयासी करी नमस्कार। कोण विधि पूजाप्रकार। निरोपावें म्हणतसे ।।६१।। तुवां व्हावें मातें गुरु। मी तंव असें शबरु। नेणें पूजेचा प्रकारु। विस्तारावें म्हणतसे ।।६२।। राजपुत्र म्हणे तयासी। न्यावा पाषाण घरासी। पूजा करावी भक्तींसी। पत्रपुष्ये अर्कोनिया ।। ६३।। दंपत्यें दोघे जण। पूजा करणें मर्ने पूर्ण। हेंचि लिंग गिरिजारमण। म्हणोनि मनीं निर्धारी पां ।। ६४।। नानापरी पुष्यजाती । आणाव्या तुवां शिवाप्रती। धूप दीप नैवेद्य आरती। नैवेद्यासी भस्म जाण ।।६५।। भस्म असेल में स्मशानी। आणावें तुवां प्रतिदिनीं । द्यावा नैवेद्य सुमनीं। प्रसाद आपण भक्षावा ।।६६।। आणिक जें जें जेवी आपण । तोही द्यावा नैवेद्य जाण। ऐसे आहे पूजाविधान। म्हणोनि सांगे राजकुमारु ।।६७।। येणेंपरी राजकुमारु । तया शबरा झाला गुरु। विश्वासें केला निर्धारु। शबरें आपुले मनांत ।।६८।। संतोषोनि शबर देखा। नेलें लिंग गृहांतिका । खियेंसी सांगे कौतुका म्हणे लिंग प्रसन्न झालें ।।६९।। गुरुनिरोप जेणें रोतीं। पूजा करीन एकचित्ती । चिताभस्म अतिप्रीतीं। आणोनि नैवेद्य देतसे ॥७०।। क्रचित्काळ येणेंपरी। पूजा करी शबर शबरी। एके दिवशीं तया नगरी। चिताभस्म न मिळेचि ।।७१।। हिंडोनी पाहे गांवोगांवी। चिताभस्म न मिळे कांही। येणेंपरी सात गांवों। हिंडोनि आला घरासी ।।७२।। चिंता लागली शबरासी। पुसता झाला स्त्रियेसी । काय करूं म्हणे तिसी। प्राण आपुला त्यजीन म्हणे ।।७३।। पूजा राहली लिंगासी। भस्म न मिळे नैवेद्यासी। हिंडोनी आलों दाही दिशीं । चिताभस्म न मिळेचि ॥७४।। जैसे गुरूंनी आज्ञापिलें। त्या विधीनें पाहिजे अर्चिलें'। नाहीं तरी वृद्धा गेलें । शिवपूजन परियेसा ।।७५।। गुरूचें वाक्य जो न करी। तो पडेल रौरवपोरीं। तयातें पाप नाहीं दूरी। सदा दरिद्री होय नर ।।७६।। त्यासी होय अधोगति। अखंड नरकीं तया वस्ती। जो करी गुरूची भक्ति। तोचि तरेल भर्वाणवी ।।७७।। सकळ शाखें येणेंपरी। बोलताती वेद चारी। वाचि कारणें ऐक हो शबरी । प्राण आपुला त्यजीन ।।७८।। ऐकोनि पतीचे वचन । बोले शबरी हासोन। चिंता करितां किंकारण। चिताभस्म देईन मी ।।७९।। मज घालोनि गृहांत। अनि लावा तुम्ही त्वरित । काष्ठं असती बहुत। दहन करा आपणासी ।।८०।। तेंथि भस्म ईश्वरासी। उपहारावें तुम्ही हर्षी। व्रतभंग न करावा भरंवसीं। संतोषरूपें बोलतसे ।।८१।। कीं तरी शरीरासी। नाश असे परियेसीं। ऐसे कार्यकारणासी। देह आपुला समर्पीन ।।८२।। ऐकोनि खियेचें वचन। शबर झाली मनीं खिन्न। प्राणेश्वरी तुझा प्राण। केवी घ्यावा म्हणतसे ।।८३।। रूपें दिससी रतीसरसी'। अद्यापि तूं पूर्वक्यासी'। पुत्रअपत्य न देखिलेंसी। या संसारासी येउनी ।।८४।। मन नाहीं तुझे धाले। संसारसुख नाहीं देखिलें। तुझे मातापित्याने मज निरविले। प्राणप्रिया रक्ष म्हणोनि ।।८५।। चंद्रसूर्वसाक्षीसी। तुज वरिलें म्यां संतोषीं। प्राण रक्षीन म्हणोनि हर्षी। घेवोनि आलों मंदिरांत ।।८६।। आतां दहन करितां तूतें। घडती पापें असंख्यातें। स्रीहत्या महादोषातें। केवी करूं म्हणतसे ।।८७।। तू माझी प्राणेश्वरी। तूतें मारूं कवर्णपरी। कैसा तुष्टेल त्रिपुरारि। पुण्य जावोनि पाप घडे ॥८८॥ दुःखें तुझीं मातापिता। मातें म्हणती श्रीपाता। अजूनि तुझी लावण्यतां । दिसतसे प्राणप्रिये ।।८९।। नाना व्रतें नाना भक्ति। या शरीरालागी करिती। दहन करूं कवणें रीतीं। पापें मातें घडतील ।। ९० ।। ऐकोनि पतीचे वचन। विनवीतसे सती आपण। कैसे असे तुम्हां अज्ञान। मिथ्या बोल बोलतसां ।।९१।। शरीर म्हणे स्वप्नापरी। जैसा फेण गंगेवरी। स्थिर न राहे क्षणभरी। मरणें सत्य परियेसा ।।९२।। आमुचे मायबापें जाण । तुम्हां दिधलें मातें दान। तुमची अर्धांगी मी पूर्ण। भिन्नभावना कोठे असे ।।९३।। मी म्हणजे तुमचा देहे। विचार करोनि मनीं पाहें। आपुलें अर्धे शरीर आहे। काय दोष दहन करितां ।।९४।। जें जें उपजे भूमीवरी। तें तें नाश पावे निर्धारीं। माझे देहसाफल्य' करीं। ईसराप्रती पावेल ।।९५।। संदेह सोडोनि आपणासी। दहन करी वो बेगेंसी। आपण होवोनि संतोषीं। निरोप देतें परियेसा ।। ९६।। नानापरी पतीसी। बोधी शचरी परियेसीं । घरांत जाबोनि पतीसी। म्हणे अग्नि लावीं आतां ।।९७।। संतोषोनि तो शबर। बांधिता झाला गृहाचे द्वार। अमि लावितां थोर । ज्वाळा व्यापिती गगनासी ॥९८।। दहन झालें शबरीसी। भस्म घेतलें परियेसीं। पूजा करोनि शिवासी । नैवेद्य दिधला अवधारा ।।९९।। पूजा करितां इंचरासी। आनंद झाला बहुबसीं। श्री दिधली हुताशी'। स्मरण ऐसें त्यास नाहीं ।।१००।। ऐसी भक्तिभावेंसी। पूजा केली महेश्वरासी। प्रसाद घेवोनि हस्तेंसी। पाचारिले खियेतें ।।१।। जैसी पूजा नित्य करोन। प्रसाद हातीं घेऊन। आपुले स्त्रियेतें बोलावून देत असे तो शबर ।।२।। तया दिवसीं त्याचपरी । आपल्या खियेतें पाचारी। कृपासागर त्रिपुरारि। प्रसन्न झाला परियेसा ।।३।। तेबि शबरी येवोनि। उभी ठेली' सुहास्यवदनी। घेतला प्रसाद मागोनि। घेवोनि गेली घरांत ।।४।। जैसे तैसेंचि घर दिसे । शबर विस्मय करीतसे। म्हणे दग्ध केलें स्रियेसरिसे। घर कैसे दिसताहे ।।५।। बोलावोनि खियेसी । शबर पुसतसे तियेसी । दहन केलें मी तुजसी। पुनरपि कैसी आलीस ।।६।। शबरी सांगे पतौसी। आपणास आठवण आहे ऐसी। अग्नि लावितां परासी। निद्रिस्थ झाल्यें परियेसा ।।७।। महाशीतें पीडित । आपण होत्यें निद्रिस्थ । तुमचे बोल ऐकोन सत्य। उठोनि आल्यें परियेसा ।।८।। हे होईल देवकरणी। प्रसन्न झाला शूलपाणि । ऐसें म्हणतां तत्क्षणीं । निजस्वरूपी उभा ठाकला ।।९।। नमन करिती लोटांगणी। घावोनि लागती दोघे चरणीं । प्रसन्न झाला शूलपाणि। मागा वर म्हणतसे ।।११०।। होईल सुख संसारी। राज्य दिधलें धुरंधरी । गति होईल त्यानंतर । कल्पकोटि स्वर्गवास ।।११।। येणेंपरी ऋषीश्वरांसी। सूच सांगे विस्तारेंसी। गुरुचरणीं विश्वास असे ज्यासी। तैसें फळ होय जाणा ।।१२।। म्हणोनि श्रीगुरु शिष्यासी। सांगते झाले परियेसीं। विश्वासें करोनि द्विज हीं। शुष्क काष्ठ सेवितसे ।।१३।। जैसा भाव तैसी सिद्धि। होईल सत्य हे त्रिशुद्धि। श्रीगुरुनाथ कृपानिधि । सहज निधाले संगमासी ।।१४।। जावोनि करिती अनुष्ठान। पहावया येती ते ब्राह्मण। देखोनि त्याचे अंतःकरण । प्रसन्न झाले तत्क्षणीं ।।१५।। होता कमंडलु करकमळीं। भरला सदा गंगाजळी। उचलोनिया हस्तकमळीं । घालिती उदक काष्ठासी ।।१६।। तेचि क्षणीं काष्ठासी। पल्लव आले परियेसीं। औदुंबर वृक्ष जनासी। दिसतसे समस्तां ।।१७।। जैसा चिंतामणिस्पर्श । सुवर्ण करी लोहास। तैसा श्रीगुरु सुधारस । काष्ठ झाला औदुंबर ।।१८।। काष्ठ दिसे औदुंबर। सुदेही झाला तो विप्र। दिसे सुबर्णकांति नर। गेलें कुष्ठ तात्काळीं ।।१९।। संतोषोनि द्विजवर। करी साष्टांग नमस्कार। करिता झाला महास्तोत्र। श्रीगुरुचें तये वेळीं ।।१२०।। श्लोक ।। इंदुकोटितेज' करुण सिंधु-भक्तवत्सलम्। नंदनात्रिसूनुदत्त', इंदिराक्ष श्रीगुरुम् । गंधमाल्यअक्षतादिवृंददेववंदितम्। बंदयामि नारसिंह सरस्वतीश पाहि माम् ।।२१।। मायापाश अंधकारछायदूरभास्करम्। आयताक्ष, पाहि श्रियावल्लभेशनायकम्। सेव्यभक्तत्वृंदवरद, भूयो भूयो नमाम्यहम्। बंदवामि नारसिंह सरस्वतीश पाहि माम् ।।२२।। चित्तजादिवर्गषट्क्रमत्तवारणांकुशम्। तत्त्वसारशोभितात्मदत्त श्रियाक्लभम्। उत्तमावतार- भूतकर्तृ-भक्तवत्सलम्। बंदद्यामि नारसिंह सरस्वतीश पाहि माम् ।।२३।। व्योमवायुतेज आपभूमिकर्तृमीश्चरम् । कामक्रोधमोहरहितसोमसूर्यलोचनम्। कामितार्थदातृभक्तकामधेनु श्रीगुरुम् । बंदवामि नारसिंह सरस्वतीश पाहि माम् ।।२४।। पुंडरीक-आयताक्ष, कुंडलेंद-तेजसम्। चंडुदुरितखंडनार्थ दंडघारि श्रीगुरुम्। मंडलीकमौलि' मार्तंडमासिताननं'। बंदयामि नारसिंह सरस्वतीश पाहि माम् ।।२५।। वेदशास्रस्तुत्यपाद, आदिमूर्तिश्रीगुरुम् । नादबिंदुकलातीत कल्पपाद-सेव्ययम्। सेव्यभक्तवृंदवरद, भूयो भूयो नमाम्यहम्। बंदयामि नारसिंह सरस्वतीश पाहि माम् ।।२६।। अष्टयोगतत्त्वनिष्ठ, तुष्टज्ञानवारिधिम् । कृष्णावेणितीरवासपंचनदीसंगमम् । काटदैन्यदूरिभक्ततुष्टकाम्यदायकम्। चंदद्यामि नारसिंह सरस्वतीश पाहि माम् ।।२७।। नारसिंहसरस्वतीनामअष्टमौक्तिकम्। हारकृत्यशारदेन गंगाधर आत्मजम् । धारणीकदेवदीक्षगुरुमूर्तितोषितम्। परमात्मानंदक्षियापुत्रपौत्रदायकम् ।। २८ ।। नारसिंह सरस्वतीय अष्टकं च यः पठेत्। घोरसंसारसिंधुतारणाख्यसाधनम् । सारज्ञानदीर्घ आयुरारोग्यादिसंपदम् । चारुवर्गकाम्बलाभ', वारंवारं यज्जपेत् ।।२९।। स्तोत्र केलें येणेंपरी । आणिक विनवी परोपरी। म्हणे देवा श्रीहरी। कृपा केला स्वामिया ।।१३०।। म्हणोनि मागुती नमस्कारी। श्रीगुरुनाथ अभयकरी। उठविता झाला अवधारी। ज्ञानराशि म्हणोनिया ।।३१।। समस्त लोक विस्मय करिती । श्रीगुरुतें नमस्कारिती। नानापरी स्तोत्रे करिती । भक्तिभावेंकरोनिया ।।३२।। मग निपाले मठासी। समस्त शिष्यादि द्विजांसरसी । ग्रामलोक आनंदेसी। घेऊनि येती आरत्या ।।३३।। जावोनि बैसती मठात । शिष्यांसहित श्रीगुरुनाथ । समाराधना असंख्यात । झाली ऐका ते दिनीं ।।३४।। तया विप्रा बोलावोनि। सद्गुरु म्हणती संतोषोनि। कन्यापुत्रगोधनीं । तुझी संतति बाढेल ।।३५।। तुझे नाम योगेश्वर। आम्ही ठेविलें निर्धार। समस्त शिष्यांमाजी थोर। तूंचि आमुचा भक्त जाण ।। ३६ ।। वेदशास्त्रीं संपन्न। तुझ्या वंशोवंशीं जाण होतील पुरुष निर्माम। म्हणोनि देती निरोप ।।३७।। श्रीगुरु म्हणती तयासी। जावोनि आणी कलत्रासी । तुम्हीं रहावें आम्हांपासीं । वेचि ग्रामी नांदत ।॥३८॥ म्हणोनि तया द्विजासी। श्रीगुरु मंत्र उपदेशी। विद्यासरस्वती या मंत्रासी। उपदेशिलें परियेसा ॥३९।। तूंतें होतील तिघे सुत । एकाचें नांव योगी विख्यात'। आमुची सेवा करील बहुत । बंशोवंशीं माझे दास ।।१४०।। जैसें श्रीगुरूंनी निरोपिलें । तयापरी त्यासी झालें । म्हणोनि सिद्धे सांगितलें । नामधारकशिष्यासी ।।४१।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर। सांगे श्रीगुरुचरित्रविस्तार। उतरावया पैल पार। कथा ऐका एकचित्ते ।।४२।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत। कुष्ठी उद्धरिला भक्त । गुरुमहिमा अत्यद्धत। प्रकट झाला येणेंपरी ।।१४३।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४०॥
ओवीसंख्या १४३
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः। नामधारक शिष्य देखा। उभा राहोनि संमुखा। कर जोडुनी कौतुका। नमन करी साष्टांगी ।।१।। जय जयाजी सिद्धमुनि । तूं तारक भवार्णी। नाना धर्म विस्तारोनि। गुरुचरित्र निरोपिलें ।।२।। तेणें धन्य झालों आपण। प्रकाश केलें महाज्ञान। सुधारस' गुरुस्मरण। प्राशविला दातारा ।।३।। एक असे माझी विनंती। निरोपावें मजप्रती। आमुच्या पूर्वजें कवणें रीतीं। सेवा केली श्रीगुरुची ।।४।। तुम्ही सिद्ध महाज्ञानी। होतां श्रीगुरुसन्निधानीं। शिष्य झाले कवणे गुणीं । निरोपावे दातारा ।।५।। ऐकोनि शिष्याचे वचन । सिद्ध सांगे विस्तारोन। एकचित्तें करोनि मन । ऐक शिष्या नामधारका ।।६।। पूर्वी कथानक सांगितले। जे कां श्रीगुरुशी भेटले। वोसरग्रामी एक होते भले । पूर्वज तुमचे परियेसा ।।७।। तयाचें नाम सायंदेव। केली पूजा भक्तिभाव। त्यावरी प्रीति अतिस्नेह। आमुचे श्रीगुरुमूर्तिचा ।।८।। तेथून आले दक्षिणदिशीं। गाणगापुरीं परियेसीं। ख्याति झाली दश दिशीं। कीर्ति वाढली बहुवस ।।९।। ऐकोनि येती सकळ जन। करिती श्रीगुरुदर्शन। जे मनीं करिती चिंतन । पूर्ण होय तयांचे ।।१०।। येणेंपरी श्रीगुरुमूर्ति। होते गाणगापुरा वस्ती। नाम श्रीनृसिंहसरस्वती। भक्तवत्सल निर्धारी ।।११।। तुमचा पूर्वज जो का होता। सायंदेव भक्त विख्याता। त्याणें ऐकिलें वृत्तान्ता। महिमा श्रीगुरु यतीचा ।।१२।। भक्तिपूर्वक वेर्गेसी । आला गाणगापुरासी । आनंद बहु मानसीं। हर्षे निर्भर होउनी ।।१३।। दुरूनि देखिलें गाणगाभुवन । आपण पाली लोटांगण। करी दंडप्राय' नमन। ऐशापरी चालिला ।।१४।। ऐसा दंडप्रमाण करीत। गेला विप्र मठांत । देखिले तेथे मूर्तिमंत। परात्पर श्रीगुरू ।।१५।। साष्टांग नमस्कार करीत। असे चरणावरी लोळत। केशेंकरून पाय झाडीत । भक्तिभावें करोनिया ।।१६।। करसंपुट जोडोनि। स्तुति करी एकाग्र मनीं। त्रैमूर्ति तूंचि ज्ञानीं । गुरुमूर्ति स्वामिया ॥१७।। धन्य धन्य जन्म आपुलें। कृतार्थ पितर माझे झाले । कोटि जन्मांचे पाप गेलें । म्हणोनि चरणी लागला ।।१८।। जय जयाजी श्रीगुरुमूर्ति। त्राहि त्राहि विश्वपती। परमात्मा परंज्योती । नृसिंहसरस्वती स्वामिया ।।१९।। तुझे चरण वर्णाक्यासी। शक्ति कैची आम्हांसी। परमात्मा तूंचि होसी। भक्तवत्सला स्वामिया ।।२०।। तुमचे चरणाचिये प्रौढ़ी। वसती तेथे तीथै कोडी। वर्णिती श्रुति' घडोघड़ी। चरणं पवित्रं विततं पुराणं ।।२१।। त्रैमूर्तीचा अवतार। मज दिससी साक्षात्कार। भासतसे निरंतर । त्रैमूर्ति तूंचि होसी ।।२२।। परब्रह्म तुम्ही केवळू। हात्ती दंड कमंडलू। अमृत भरलें सोज्वळू। प्रोक्षितां प्रेत उठतसे ।।२३।। दंड धरिला या कारणें। शरणांगतातें रक्षणें। दुरितदैन्य निवारणें। निज भक्त रक्षावया ।।२४।। रुद्राक्षमाळा भस्मधारण । व्याघ्रचर्माचे आसन। अमृतदृष्टि इंदुनयन। क्रूरदृष्टी अग्निसूर्य ।।२५।। चतुर्विध पुरुषार्थासी । भक्तजनां तूंचि होसी। तूंचि रुद्र सत्य होसी। तूं नृसिंह जगद्गुरु ।।२६।। विष्णुरूपें करिसी रक्षण। पीतांबर पांघरूण । तीर्थ समस्त तुझे चरण। भक्ताभिमानी विष्णु तूंचि ।।२७।। बांझे कन्या पुत्र देसी। शुष्क काष्ठ आणिलें पल्लवासी । दुभविली वांझ महिषीसी। अन्न पुरविलें ब्राह्मणा ।।२८।। विष्णुमूर्ति तूंचि जाण । त्रिविक्रमभारती ऐसी खूण। साक्ष दिधली अंतःकरण। विश्वरूप दाखविलें ।। २९।। म्हणबिले वेद पतिताकरवी । अपार महिमा झाला पूर्वी। नरहरि अवतार मूर्ति बरवी। आलेति भक्त तारावया ।।३०।। ऐसी नानापरी स्तुत्ति करीत । पुनः पुनः नमन करीत। सद्गदित कंठ होत। रोमांच अंगीं उठले ।।३१।। आनंदाश्रुलोचनीं । नियती संतोषे बहु मनीं । नव विधा भक्ति करोनि। स्तुति केली श्रीगुरुची ।।३२।। संतोषोनि श्रीगुरुमूर्ति । तया विप्रा आश्वासिती । माथां हस्त ठेवोनि म्हणती। परम भक्त तूंचि आम्हां ।। ३३ ।। तुवा जें कां स्तोत्र केले। तेणें माझे मन धालें। तुज वरदान दिधलें। वंशोवंशीं माझा दास ।।३४।। ऐसा वर देउनी। गुरुमूर्ति संतोषोनि। मस्तकीं हस्त ठेवोनि। म्हणती जाय संगमासी ॥३५।। स्नान करून संगमासी। पूजा करी अखत्यासी। त्वरित यावें मठासी। पंक्तीस भोजन करी गा ।।३६।। येणेंपरी श्रीगुरुमूर्ति। तया विप्रा निरोप देती। गुरुनिरोप जेणें रीतीं। आला स्नान करोनिया ।।३७।। षोडशोपचारे श्रीगुरुसी। पूजा करी भक्तींसी। अनेक परी पकानेंसी। भिक्षी करवी परियेसा ।।३८।। भक्तवत्सल श्रीगुरुमूर्ति । तया विप्रा आपुले पंक्ति। समस्त शिष्यांहूनी प्रीती। ठाव देती आपलेजवळी ।।३९।। भोजन झालें श्रीगुरूसी । शिष्यांसहित विप्रांसी। संतोषोनि आनदेसी। बैसले होते मठांत ।।४०।। तया सायंदेवविप्रासी। श्रीगुरू पुसती प्रीतींसी। तुझे स्थान कोणे देशीं। कलत्र पुत्र कोठे असती ।।४१।। पुसती क्षेमसमाधान। कैसें तुमचें वर्तन । कृपा असे परिपूर्ण । म्हणोनि पुसती संतोषे ।।४२।। ऐकोनि श्रीगुरुचें वचन । सांगे सायंदेव विस्तारोन। कन्या पुत्र बंधुजन । समस्त क्षेम असती स्वामिया ।।४३।। उत्तरकांची म्हणोनि ग्रामीं। तेथे वसोनि आम्ही । तुझ्या कृपें समस्त क्षेमी। असों देवा कृपासिंधु ।।४४।। पुत्रवर्ग बंधु जाणा। करिती संसारयातना। आपुले मनींची वासना। करीन सेवा श्रीगुरुची ।।४५।। करूनि सेवा श्रीगुरुची। असेन स्वामी परियेसीं। ऐसा माझे मानसीं । निर्धार असे देवराया ।।४६।। ऐकोन तयाचें वचन । श्रीगुरु म्हणती हासोन। आमुची सेवा असे कठीण। आम्हां बास बहुतां ठायीं ।।४७।। एके समयीं अरण्यांत । अथवा राहूं गांवांत । आम्हांसर्वे कष्ट बहुत । तुम्ही केवी साहूं' शका ।।४८।। येणेपरी श्रीगुरुमूर्ति। तया विप्रा निरोपिती। ऐकोन विनवी मागुत्ती। म्हणे स्वामी अंगिकारा ।।४९।। गुरुची सेवा करी नरु। तोचि उतरे पैल पारु। तयासी कैसें दुःख अधोरु। सदा सुखी तोचि होय ।।५०।। चतुर्विध' पुरुषार्थ। देऊ शके श्रीगुरुनाथ। त्यासी नाहीं यमपंथ। गुरुभक्ति मुख्य कारण ।।५१।। येणेंपरी श्रीगुरुसी । सायंदेव भक्तींसी। विनवीतसे परियेसीं। संतोषी झाले श्रीगुरुमूर्ति ।।५२।। श्रीगुरू तया विप्रा म्हणती । जैसे असे तुझे चित्तीं। दृढ असेल मनीं भक्ति। तरीच करी अंगीकार ।।५३।। स्थिर करोनि अंतःकरण । करितां सेवा-गुरुचरण झाले मास तीन जाण। ऐक शिष्या नामकरणी ।।५४।। वर्ततां ऐसें एके दिवशीं । श्रीगुरू निघाले संगमासी। सर्वे घेतलें सायदेवासी। समस्तांते वारुनी ।।५५।। भक्तायें अंतःकरण । पहावया गेले श्रीगुरू आपण । पूर्वज तुमचा भोळा जाण। जात असे संगमासी ।।५६।। भक्तासहित संगमासी। गेले श्रीगुरू समयीं निशी । बैसते झाले अश्वत्थासी। सुखें गोष्टी करिताती ॥५७।। दिवस गेला अस्तमानीं। श्रीगुरू विचार करिती मनीं । दृढ याचे अंतःकरणी। कैसी करणी पाहूं म्हणती ।।५८।। उठविती वारा अवचित । तेणें वृक्ष पड़ों पाहत । पर्जन्य झाला बहुत । मुसळधारा वर्षतसे ।।५९।। सार्यदेव होता जवळी । सेवा केली तये वेळीं। केला आश्रय वृक्षातळीं । वर्षेकरूनि श्रीगुरुसी ।।६०।। पर्जन्य वारा समस्त देखा। साहिले आपण भावें ऐका । उभा राहोनि संमुखा । सेवा करी एकभावें ।।६१।। येणेंपरी याम' दोन। पर्जन्य आला महा क्षोभोन। आणिक वारा उठोन । वाजे शीत अत्यंत ।।६२।। श्रीगुरू म्हणती ब्राह्मणासी। शीत झालें बहुवसी। तुवां जाउनी मठासी। अग्रि आणावा शेकावया ।।६३।। गुरुनिरोंपें तत्क्षणीं । ऐक्यभाव धरोनि मनीं। निघाला विप्र महाज्ञानी। आणावया वैश्चानर ।।६४।। निधाला शिष्य देखोनि। श्रीगुरु म्हणती हासोनि। नको पाहू आपले नयनीं। उभयपार्श्वभागातें ।।६५।। गुरुनिरोपें येणेंपरी। निघता झाला झडकरी। न दिसे वाट अंधकारी। खुणें खुणे जात असे ।। ६६।। अंधकार महाघोर । पाऊस पडे धुरंधर। न दिसे वाटेचा प्रकार। जात असें भक्तिपूर्वक ।।६७।। मनीं ध्याय श्रीगुरूसी । जातसे तैसा मार्गेसी। लवतां वीज संधीसी। तेणें तेजें जातसे ।। ६८।। येणेंपरी द्विजवर। पावला त्वरित गाणगापुर । वेशीपाशीं जाऊनि सत्वर। हाक मारिली द्वारपाळा ।। ६९।। तयासी सांगे वृत्तान्त। आणोनि दिधला अग्नि त्वरित । घालूनिया भांड्धांत। घेवोनि गेला परियेसा ॥७०।। नसे मार्ग अंधकार। विजेचे तेजें जातसे नर। मनी करितसे विचार । श्रीगुरुंनी मातें निरोपिलें ।।७१।। दोहींकडे न पाहें निगुती। श्रीगुरू मातें निरोपिती। याची कैसी आहे स्थिति' । म्हणोनि पाहे तये वेळीं ।॥ ७२।। आपुले दक्षिणदिशेसी। पाहतां देखे सर्पासी । भिऊनि पळतां उत्तरेसी । अद्भुत दिसे महानाग ।।७३।। पांच फणी दिसती दोनी। सर्वेचि येताती धावोनि। विप्र भ्याला आपुले मनीं। धावत जातसे भिऊनिया ।।७४।। बाट सोडुनी जाय रानीं। सर्वेचि येताति सर्प दोनी। जातां भयभीत होउनी। अति शीघ्र धावतसे ।।७५।। स्मरतां झाला श्रीगुरुंसी। एकभावें धैर्येसी। जातां विप्र परियेसीं। पातला संगमाजवळीक ।।७६।। दुरूनि देखे श्रीगुरुंसी। सहखदीपज्योतीसरसी। दिसती विप्र बहुवसी। वेदध्वनि ऐकतसे ।।७७।। जवळी जातां द्विजवरु । एकला दिसे श्रीगुरु। गेला समस्त अंधकारू। दिसे चंद्र पौर्णिमेचा ।। ७८ ।। प्रज्वलित केलें अग्रीसी। उजेड झाला बहुवसी। झाला विप्र सावधेसी। पाहतसे श्रीगुरुंतें ।॥७९।। दोनी सर्प येवोनि । श्रीगुरुंतें बंदोनि । सर्वेचि गेले निघोनि। तंव हा पूर्वीच भ्यालासे ।।८०।। श्रीगुरुं पुसती तयासी। कां गा भयभीत झालासी। आम्ही तूतें रक्षावयासी। सर्प दोन पाठविले ।।८१।। न घरी आतां भय कांहीं। आमुची सेवा कठीण पाहीं । विचार करूनि आपुल्या देहीं। अंगिकारी मुनि सेवा ।।८२।। गुरुभक्ति असे कठिण । दृढमक्तीनें सेवा करणें । कळिकाळाचें नाहीं भेणे'। तया शिष्या परियेसा ।।८३।। सायंदेव तये वेळीं। लागतसे श्रीगुरुचरणकमळीं । विनवीतसे करुणा बहाली। कृपा करी म्हणोनिया ।।८४।। गुरुभक्तीचा प्रकारु। निरोपावा मातें श्रीगुरू। जेणें माझे मन स्थिरु । होवोनि राहे तुम्हांजवळी ।।८५।। श्रीगुरू म्हणती विप्रासी। सांगे कथा सुरसी। न गमे वेळ रात्रीसी। ब्राह्म मुहूर्त होय तंव ।।८६।। पूर्वी कैलासशिखरासी । बैसला होता व्योमकेशी'। अर्धांगी पार्वतीसी । कथा एकान्ती सांगतसे ।।८७।। गिरिजा पुसे ईचरासी। गुरुभक्ति म्हणिजे आहे कैसी। विस्तारोनि आम्हांसी । सांगा म्हणे तये वेळीं ।।८८।। शिव सांगे गिरिजेसी। सर्व साध्य गुरुभक्तीसी। करावें एकभावेंसी। शिव जो तोचि गुरू होय ।।८९।। याचें एक आख्यान। सांगेन तुज विस्तारोन। एकचित्तं करोनि मन । ऐक गिरिजे म्हणतसे ।।१०।। गुरुभक्ति म्हणिजे सुलभपण । तात्काळ साध्य होय जाण । अनेक तप अनुष्ठान । करितां विलंब परियेसीं ।।९१।। नाना तपें अनुष्ठानें। करिती यज्ञ महाज्ञानें। त्यांतें होती महाविघ्ने। साध्य होतां दुर्लभ।।९२।। जो गुरुभक्ति करी निर्मळ । साध्य होईल तात्काळ । यज्ञदान तपफळ । सर्व सिद्धी त्यासी होती ।।९३।। सुलभ असे अप्रयास । जो जाणे गुरुकुलवास। एकभावें धरोनि कांस। आराधावे श्रीगुरुंसी ।।१४।। याचा एक दृष्टान्त । सांगेन ऐका एकचित्त । ब्रह्मयाचा अवतार व्यक्त। त्वष्टाब्रह्मा परियेसा ।।९५।। तयासी झाला एक कुभार । अतिलावण्य सुंदर। सर्वधर्मकुशल धीर। योग्य झाला उपनयना ।।९६।। त्वष्टाब्रह्मा पुत्रासी । ब्रतबंध करी परियेसीं । करावया विद्याभ्यासासी। गुरुचे घरीं निरविला ।।९७।। गुरूची सेवा नानापरी। करीतसे ब्रह्मचारी । वर्ततां ऐशियापरी। अपूर्व एक वर्तलें ।। ९८।। वर्ततां ऐसें एके दिवशीं। आला पर्जन्य बहुवशी । पर्णशाळा परियेसीं । गळतसे गुरुची ।।९९।। तये वेळीं शिष्यासी। निरोपिती गुरु त्यासी। त्वरित करावें आम्हांसी । एक गृह दृढा ऐसें ।।१००।। पर्णशाळा प्रतिवर्षी। जीर्ण होतसे परियेसीं। गृह करावें दृढतेंसी। कधीं जीर्ण नोहे ऐसें ।।१।। न तुटे कधीं राहे स्थिर । दिसावें रम्य मनोहर। असावें सर्व परिकर'। करी शीघ्र ऐसे गृह ।।२।। ऐसें गुरू निरोपिती । तेच समयीं गुरुची सती । सांगतसे अतिप्रीतीं। मातें कंचुकी' आणावी ।।३।। नसावी विणली अथवा शिवली । विचित्र रंगीत पाहिजे केली। माज्या अंगप्रमाण वहिली। त्वरित आर्णी म्हणतसे ।।४।। गुरुपुत्र म्हणे शिष्यासी। मागेन तें आणी वेगेंसी। पादुका पाहिजेत आम्हांसी। उदकावरूनि चालती ऐशा ।।५।। अथवा चिखल न लागे त्यांसी। न व्हाव्या अधिक पायांसी। जेथे चितुं मानसीं। तेथे घेऊनि जाती ऐशा ।।६।। इतुकिया अवसरों । गुरुकन्या काय करी। जातां तयाचा पल्लव' घरी आपणा कांहीं आणावें ।।७।। उंच तानवडे आपणासी । घेऊनि यावें परियेसीं। आणिक आणा खेळावयासी। घरकुल एक आपणा ।।८।। कुंजराचे दांत बरखें। घरकुल तुवां आणावें । एकस्तंभी असावे । कीं न तुटे न होय जीर्ण ।।९।। जेथे नेईन तेथे यावें । सोपस्कारासहित आणावें । पाट ठाणवी असावें। तया घराभीतरी ।।११०।। सदा दिसावें नूतन । वावरत असावें आपें आपण । करावया पाक निष्पन्न। मडकीं करूनि आणी पां ।।११।। आणिक एक सांगेन तुज । रांधप करावया शिकवी मज । पाक केलिया उष्ण सहज । असों नये अत्र आणा ।।१२।। पाक करिता मडकियेसी । न लागे काजळ परियेसीं । आणोनि दे गा भांडीं ऐसी। आणिक सर्व सोपस्कार ।।१३।। गुरुकन्या ऐसें म्हणे। अंगिकारिलें शिष्यराणे। निघता झाला तत्क्षणे। महा अरण्यांत प्रवेशला ।।१४।। मनीं चिंता बहु करी। आपण बाळ ब्रह्मचारी। काय जाणें त्यांचे परी। केवी करूं म्हणतसे ।।१५।। पत्रावळी करूं नेणें। इतुकें मातें कधीं होणें। स्मरतसे एकाग्र मर्ने । श्रीगुरुचरण देखा ।।१६।। म्हणे आतां काय करूं। मातें कोण आधारु। बोल ठेवील माझा गुरू। शीघ्र इतुकें न करितां ।।१७।। कवणापासीं जाऊं शरण। कवण राखील माझा प्राण। कृपानिधि गुरुविण। ऐसा कवण असे दुजा ।।१८।। जरी नायके गुरूचा बोल। शाप देईल तात्काळ । ब्रह्मचारी आपण बाळ । म्हणोनि अंगिकार कां केला ।।१९।। काय गति आपणासी। आतां जाऊं कवणापासीं। अशक्त बाळ मी अज्ञानेसी। अंगिकार कां केला ।।१२०।। गुरुवाक्य मज कारण। मातें न करी निर्वाण। वैचीन आतां आपुला प्राण। गुरुनिरोप करीन मी ।।२१।। ऐसे महा अरण्यांत । जातसे बाळ चिंता करीत। श्रमोनिया अत्यंत । निर्वाणमने जातसे ।।२२।। पुढे जातां मार्ग क्रमित । भेटला एक अवधूत'। तेणें बाळ देखिला तेथ। पुसता झाला तये वेळीं ।।२३।। कवण बाळा कोठे जासी। चिंताव्याकुळ मानसीं । विस्तारोनि आम्हांसी। सांग म्हणे तये वेळीं ।।२४।। ऐसें म्हणतां ब्रह्मचारी। जाऊनिया नमस्कारी । म्हणे स्वामी तारी तारी। चिंतासागरी बुडतसें ।। २५ ।। भेटलासि तूं निधानु'। जैसी वत्सालागीं धेनु । दुःखी झालों होतो आपणु। देखतां मन निवालें ।।२६।। जैसे चकोरपक्षियातें। चांदणें देखतां मन हर्षतें। तैसें तुझ्या दर्शनमात्रे । आनंद झाला स्वामिया ॥२७।। माझें पूर्वार्जित पुण्य। कांहीं होतें म्हणोन । तुम्ही भेटलेती निधान । कृपासिंधु परमपुरुषा ।।२८।। सांगा आपुलें नाम कवण। आगमन झालें कोठून। पहा है निर्मनुष्य अरण्य। येथे तुम्ही भेटलेती ।।२९।। व्हाल तुम्ही ईश्वरु। मातें कृपा केली गुरू। तुम्हां देखता मनोहरु। अंत करण स्थिर झालें ।।१३०।। कीं होसील कृपाळू। सत्त्वप्रिय भक्तवत्सलू। मी दास तुझा करी सांभाळू। म्हणोनि चरणीं लागला ।।३१।। नमितां तया बाळकासी । उठवीतसे तापसी। आलिंगोनि महाहर्षी। आश्वासीतसे तये वेळीं ।।३२।। मग पुशिला वृत्तान्त। बाळ सांगे समस्त । गुरुंनी जी जी मागितली वस्तू। कवणेंपरी साध्य होय ।।३३।। आपण बाळ ब्रह्मचारी। न होय तें अंगिकारी। आतां पडिलों चिंतासागरी। तारी स्वामी म्हणतसे ।। ३४।। मग अभय देऊनि अवधूत । तया बाळातें म्हणत । सांगेन तुज एक हित'। जेणें तुझें कार्य साधे ।।३५।। विश्वेश्वर आराधन । असे एक निधान। काशीपूर महास्थान। सकळाभीष्टे साधती ।। ३६।। पंचक्रोश असे क्षिति । तया आगळी विख्याति । विष्णुमुख्य ऋषि प्रजापति। तेथे वर लाघले ।। ३७।। ब्रह्मा सृष्टि रचावयासी। वर लाधला त्या स्थळासी। वर दिधला विष्णूसी। समस्त सृष्टि पाळावया ।।३८।। काशीपुर महास्थान। तुवां तेथे जातांचि जाण । होईल तुझी कामना पूर्ण। संदेह न घरीं मनांत ।।३९।। तुवां जायें त्वरितेंसी। जें जें वसे तव मानसीं । समस्त विद्या लाधसी । विश्वकर्मा तूंचि जाण ।।१४०।। चतुर्विध पुरुषार्थ। साध्य होतील त्वरित । यापरीस आणिक स्वार्थ। काय असे सांग मज ।।४१।। तोचि देव असे दयाळ। विचित्र असे त्याचा खेळ। उपमन्यु म्हणोनि होता बाळ । तयातें दिधला क्षीरसिंधु' ।।४२।। नामें आनंदकानन । विख्यात असे महास्थान। समस्तांची कामना पूर्ण। तये ठायीं होतसे ।।४३।। नाम असे पुरी काशी। समस्त धर्मांची हे राशी। सकळ जीवजंतूंसी। मोक्षस्थान परियेसा ।।४४।। जे वास करिती तये स्थानीं । त्यांतें देखताचि नयनीं। जाती दोष पळोनि स्थानमहिमा काय सांगू ।।४५।। ऐसें काशीस्थान असतां । कां वा करिसी तूं चिंता। तेथील महिमा वर्णितां । अशक्य माझे जिव्हेसी ।।४६।। तया काशीनगरांत। जे जन तीर्थे हिंडत । एकेक पाऊली पुण्य बहुत । अश्वमेधफळ असे ।।४७।। धर्म अर्थ काम मोक्ष । जी जी मनीं असे कांक्ष'। जातांचि होईल प्रत्यक्ष संदेह न घरी मनांत ।।४८ ।। ऐकोनिया ब्रह्मचारी । साष्टांगी नमस्कारी। कोठे असे काशीपुरी। आपण असे अरण्यात ।।४९।। आनंदकानन म्हणसी । स्वर्गों असे कीं भूमीसी। अथवा जाऊं पाताळासी। कोठे असे सांगा मज ।। १५०।। या संसारसागरासी । तूंचि तारक जगा होसी । ज्ञान मातें उपदेशीं। तारी मातें स्वामिया ।।५१।। ऐशिया काशीपुरासी। मातें कोण नेईल हीं। विनवू जरी तुम्हांसी। घेवोनि जावें म्हणोनिया ।।५२।। कार्य असलिया तुम्हांसी। आम्हां कैसी बुद्धि देशी। मी बाळक तुम्हांसी। म्हणोनि चरणी लागला ।।५३।। ऐसें म्हणता तापसी। आपण नेईन म्हणे हीं। तुजकरितां आपणासी। यात्रालाभ घडे थोर ।।५४।। वापरतें आम्हांसी। काय लाभ विशेषीं। वृथा जन्म मानवासी । काशीवास न करितां ।।५५।। तुजकरितां आपणासी। दर्शन घडे पुरी काशी। चला जाऊं त्वरितेंसी। म्हणोनि दोघे निघाले ।।५६।। मनोवेगें तात्काळीं । पातले विश्वेश्वराजवळीं। तापसी म्हणे तये वेळीं। बाळका यात्रा करी आतां ।।५७।। बाळ म्हणें तयासी। स्वामी मातें निरोप देसी। नेणें यात्रा आहे कैसी। कवणेंपरी रहाटावें ।।५८।। आपण बाळ ब्रह्मचारी। नेणें तीर्थ कवणेंपरी। कवणें विधिपुरःसरीं। विस्तारोनि सांगा मज ।।५९।। तापसी म्हणे तयासी । सांगेन यात्राविधीसी। तुवां करावें भावेंसी। नेमें भक्तिपूर्वक ।।१६०।। पहिलें मणिकर्णिकेसी । स्नान करणें नेर्मेसी । जाऊनिया विनायकासी। पांचाळेश्वरा नमावें ।। ६१।। मग जावें महाद्वारा। विश्वेश्वरदर्शन करा । पुनरपि यावें गंगातीरा । मणिकर्णिकास्नान करावें ।। ६२।। मणिकर्णिकेचा ईश्वर। पूजूनिया निर्धार । जाऊनिया कंबळेश्वर । पूजा करी गा भावेसी ।। ६३।। पुढें ईश्वरवासुकीसी। पूजा करी भक्तींसी। पर्वतेश्वर पूजोनि हर्षी । गंगाकेशव पूर्वी मग ।।६४।। ललिता देवी पूजोनि। मग जावें तेथूनि । जरासंधेश्वर ध्यानीं। पूजा करी गा मक्तींसी ।। ६५।। सोमनाथ असे थोर। पूजावा शूळटंकेश्वर। तयापुढे बाराहेश्वर। पूजा करी गा ब्रह्मेश्वरी ।।६६।। अगस्त्येश्वर कश्यपासी। पूजा करी हरिहरेश्वरासी। वैजनाथ महाहर्षी। ध्रुवेश्वर पूर्जी मग ।।६७।। गोकर्णेश्वर असे थोर । पूजा करी गा हाटकेश्वर। अस्थिक्षेप तटाकेश्वर। किंकरेश्वर पूजावा ।।६८।। भारतभूतेश्चरासी । पूजा करी गा भावेंसी। चित्रगुप्तेश्वरासी। चित्रघंट पूजावा ।।६९।। पाशुपतेश्वर निका। पूजा करोनि तेथे बाळका । पितामह असे जो का। ईचरातें पूजावें ।।१७०।। कल्लेश्वरातें वंदूनी। पुढे जावें एक मनीं। चंद्रेश्वरातें पूजोनि। पूजा करी गा विश्वेश्वरा ।।७१।। पुढें पूजीं विघ्नेश्वर। त्यानंतर अधीश्वर । मग पूजा नागेश्वर। हरिश्चंद्रेश्वर पूजी जाण ॥७२।। चिंतामणि विनायका । सोमनाथ विनायक देखा। पूजा करोनि ऐका। वसिष्ठ वामदेव पूजावा ।।७३।। पुढें त्रिसंध्येश्वर। पूर्वी लिंग असे थोर । विशालाक्ष मनोहर। धर्मेश्वर पूजावा ।।७४।। विश्वबाहुपूजा निका। पुढें आशा-विनायका । वृद्धादित्य असे जो का। पूजा करीं वो मनोभावे ॥७५।। चतुर्वक्रेश्वर असे थोर। लिंग असे मनोहर। पूजा करी गा ब्रह्मेश्वर । अनुक्रमें करूनिया ।।७६।। पुनः प्रकामेश्वर असे धोर। लिंग असे मनोहर। पूजा करीं गा ब्रह्मेश्वर। अनुक्रमें करूनिया ।।७६।। पुनः प्रकामेश्वर असे खूण। पुढें ईश्वरईशान। चंडी चंडेश्वरा जाण। पूजा करी भक्तींसी ।।७७।। पूजीं भवानीशंकर । धुंडिराज मनोहर। अर्ची राजराजेश्वर। लांगूलेश्वर पूर्वी मग ।।७८।। नकुलेश्वर पूजेसी तुवां जावें भक्तींसी। परान्नपरद्रव्येश्चरासी। पाणिग्रहणेश्वर पूर्वी मग ।।७९।। गंगेश्वर मोरेश्वर पूजोन। ज्ञानवापीं करीं स्नान । ज्ञानेश्वर अर्जुन । नंदिकेश्वर पूर्जी मग ।।१८०।। निष्कलंकेश्वर थोर। लिंग असे मनोहर। पूर्जी मार्कडेयेश्वर । असुरेखर पूर्वी मग ।।८१।। तारकेश्वर असे थोर। लिंग बहु मनोहर। पूजा महाकाळेश्वर। दंडपाणि पूर्वी मग ।।८२।। महेश्वरातें पूजोनि । अर्ची मोक्षेश्वर ध्यानीं। वीरभद्रेश्वरसुमनीं। पूजा करीं गा बाळका ।।८३।। अविमुक्तेश्वरापासीं । तुवां जाऊनियां हीं। पूजा करी गा भावेंसी। मोदादि पंच विनायका ।।८४।। आनंदभैरवपूजा करीं। पुनरपि जाय महाद्वारी। जेथे असे मन्मथारि। विश्वनाथ पूजावा ।।८५।। बाळा तूंचि येणेंपरी। अंतरगृहयात्रा करीं। मुक्तिमंडपाभीतरीं। जाऊनिया मंत्र म्हणावा ।।८६।। श्लोक ।। अंतर्गृहस्य यात्रेयं वधावद्या मया कृता। न्यूनातिरिक्तया शंभुः प्रीयतामनया विभुः ।।१।। इति मंत्रं समुच्चार्य क्षणं वै मुक्तिमान्भवेत्। विश्रम्य यायाद्भवने निष्पापः पुण्यभाग्भवेत् ।।२।। ऐसा मंत्र जपून। विश्वनाथातें नमून। मग निघावें तेथून । दक्षिणमानसयात्रेसी ।।८७।। मणिकर्णिकेसी जाऊननी। स्नान उत्तरवाहिनी । विश्वानाधातें पूजोनि । संकल्पाचे यात्रेसी ।।८८।। तेथोनि निघावे हर्षी। मोदादि पंच विनायकांसी। पूजा करी गा भक्तींसी। धुंडिराज पूर्जी मग ।।८९।। पूर्वी भवानीशंकर। दंडपाणि नमन कर। विशालाक्षा अवधार। पूजा तुम्ही भक्तींसी ।।१९०।। स्नान धर्मकूपेसी। श्राद्धविधि करा हीं। पूजा धर्मेश्वरासी। गंगाकेशब पूजीं मग ।।९१।। पूजावी देवी ललिता। जरासंधेश्वर नमितां। पूर्जी मग सोमनाथा। वराहेश्वरा भक्तींसी ।। ९२।। दशाश्वमेधतीर्येसी। स्नान करी श्राद्धेसी। प्रयागतीर्थे परियेसीं । स्नान श्राद्ध करावें ।। ९३।। पूजोनिया प्रयागेश्वरासी। दशाश्वमेध ईश्वरासी। पूजा करी गा भक्तींसी। शीतलेश्वर अचर्ची मग ।।९४॥ अर्ची मग बंदि देवी। सर्वेश्चर मनोभावीं । धुंडिराज भक्तिपूर्वी। पूजा करी गा ब्रह्मचारी ।।९५।। तिळभांडेश्वर देखा। पूजा करोनि पुढे ऐका। रेवाकुंडीं स्नान निका। मानससरोवरी मग स्नान ।।९६।। श्रद्धादि पितृतर्पण । मानसेश्वर मग पूजोन। मनकामना पावे जाण। ऐक बाळा ब्रह्मचारी ।।९७।। केदारकुंडों स्नान । करावें तेथे तर्पण। केदारेचर पूजोन। गौरीकुंडीं स्नान करा ।।९८।। पूजीं वृद्धकेदारेश्वर। पूर्वी मग हनुमंतेश्वर। पूजोनिया रामेश्वर। स्नान श्राद्ध कृमिकुंडी ।।९९।। सिद्धेचरा करी नमन। करूनि स्वप्नकुंडीं स्नान । स्वप्नेश्वखर पूजोन । स्नान करीं गा संगमांत ।।२००।। संगमेश्वर पूजोन। लोलार्ककूपीं करीं स्नान। श्राद्धकर्म आचरोन। गतिप्रदीप ईश्वरासी ।।१।। पूर्जी अर्कविनायका। पाराशरेश्वरा अधिका। पूजा करोनि बाळका । सनिहत्य कुंडीं स्नान करी ।।२।। कुरुक्षेत्र कुंड देखा। स्नान करावें विशेखा। सुवर्णादि दानादिका। तेथे तुम्हीं करावें ।।३।। अमृतकुंडीं स्नान निका। पूर्वी दुर्गा विनायका । दुगदिवीसी बाळका। पूजा करी मनोभावें ।।४।। पुढें चौसष्ट योगिनी। पूजा करों गा मनकामनीं। कुकुट द्विजातें बंदुनी। मंत्र तेथे जपावा ।।५।। श्लोक ।। वाराणस्यां दक्षिणे भागे कुकुटो नाम वै द्विजः। तस्य स्मरणमात्रेण दुःस्वप्नः सुस्वप्नो भवेत् ।।६।। पुढें मासोपवासासी। पूजिजे गोबाईसी । सात कवड्या घालूनिया तिसी । नमन भावें करावें ।।७।। पूजा करी रेणुकेसी। पुढें स्नान करी हर्षी। शंखोद्धारकुंडेसी। शंखविष्णु पूजिजे ।।८।। कामाक्षिकुंडीं करीं स्नान। कामाक्षिदेवी पूजोन। अयोध्याकुंडीं करीं स्नान । सीताराम पूजावा ।।९।। लवांकुशकुंडीं करीं स्नान। लवांकुशातें पूजोन। लक्ष्मीकुंडीं करीं स्नान। लक्ष्मीनारायण पूजावा ।।२१०।। सूर्यकुंडीं करी स्नान। श्राद्धकर्म आचरोन। सांबादित्य पूजोन। जावें पुढें बाळका ।।११।। वैजनाथकुंड बरवें । तेथे स्नान तुवां करावें। वैजनाथातें पूजावें। एकभावेंकरूनिया ।।१२।। गोदावरीकुंडेसी। स्नान करा भक्तींसी। गौतमेश्वर लिंगासी। पूजीं बाळ ब्रह्मचारी ।।१३।। अगस्तिकुंडीं जावोनि। अगस्तेश्वरा नमूनि । स्नान करीं मनापासोनि । पूजा करी भक्तिभावें ।।१४।। शुक्रकूपीं करीं स्नान। करी शुक्रेश्वर अर्चन। मग पुढें अन्नपूर्णा नमून । पूजा करी भावेंसी ।।१५।। धुंडिराजातें पूजोन। ज्ञानवापीं कीं स्नान। ज्ञानेश्वर अर्थोन । दंडपाणि पूजावा ।।१६।। आनंदभैरव बंदोनि । महाद्वारा जाऊनि । साष्टांगेसी नमोनि । विश्वनाथा अर्चिजे ।।१७।। ऐसें दक्षिणमानस। यात्रा असे विशेष । ब्रह्मचारी करी हर्ष। योगिराज सांगतसे ।।१८।। आतां उत्तरमानसासी । सांगेन विधि आहे कैशी। संकल्प करोनिया हर्षी। निघावें तुवां बाळका ।।१९।। जायें पंचगंगेसी। स्नान करी महाहीं । कोटिजन्मपाप नाशी। प्रख्यात असे पुराणर्णी ।।२२० ।। पंचगंगा प्रख्यात नामें। सांगन असती उत्तमे । किरणा धूतपापा नामें। तिसरी पुण्यसरस्वती ।।२१।। गंगा यमुना मिळोनी। पांचही ख्याति जाणोनि। नामें असती सगुणी। ऐक बाळा एकचित्ते ।। २२ ।। कृतयुगीं त्या नदौसी। धर्मनदी म्हणती हीं। भूतपापा नाम तिसी। त्रेतायुगीं अवधारा ।। २३ ।। बिंदुतीर्थ द्वारापासी। नाम जाण विस्तारेंसी। कलियुगाभीतरी तिसी। नाम झालें पंचगंगा ।। २४ ।। प्रयागासी माधमासीं। स्नान करितां फळे जैसीं। कोटिगुण पंचगंगेसी। त्याहूनि पुण्य अधिक असे ।। २५ ।। ऐशापरी पंचगंगेसी। स्नान करी गा भावेंसी। बिंदुमाधवपूजेसी। पूजा करी गा केशवा ।। २६ ।। गोपालकृष्ण पूजोनि। जायें नृसिंहभुवनीं। मंगळागौरी वंदोनि। गभस्तेश्वर पूजावा ।। २७ ।। मयूखादित्यपूजेसी। तुवां जायें भक्तींसी। पुनरपि जावें हर्षी। विश्वेश्वरदर्शना ।। २८ ।। मागुती मुक्तिमंडपासी। तुवां जावें भक्तींसी। संकल्पावें विधींसी। निधावें उत्तरमानसा ।। २९ ।। मग निघा तेथून। आदित्वातें पूजोन। अमर्दकेश्वर अचॉन। पापभीक्षखरा पूजिजे ।। २३० ।। नवग्रहातें पूजोनि। काळभैरवातें वंदूनि। क्षेत्रपाळातें अर्थोनि। काळकूपीं स्नान करी ।। ३१ ।। पूजा करोनि काळेश्वरा। हंसतीथीं स्नान करा। श्राद्धपितृकर्म सारा। ऐक बाळा एकचित्ते ।। ३२ ।। कृत्तिवासेश्चरा देखा। पूजा करोनि बाळका। पुढें जाऊनि ऐका। शंखवापीं स्नान करी ।। ३३ ।। तेथे आचमन करोनि। रत्नेश्चरातें पूजोनि। सीतेश्वरा अर्कोनि। दक्षेश्वर पूर्वी मग ।। ३४ ।। चतुर्वक्रेश्वरी पूजा। करी वो बाळा तूं योजा। पुढें स्नान करणें काजा। वृद्धकाळकूपा जावें ।। ३५ ।। काळेश्वराचे पूजेसी। तुवां जावें भक्तींसी। अपमृत्येश्वरा हीं। पूजा करी गा बाळका ।। ३६ ।। मंदाकिनी स्नान करणें। मध्यमेश्वरातें पूजणे। तेथोनि मग पुढे जाणें। जंबुकेश्वर पूजाक्या ।। ३७ ।। वक्रतुंडपूजेसी। तुवां जावें भक्तींसी। दंडखात कूपेसी। स्नान श्राद्ध तूं करी ।। ३८ ।। पुढे भूतभैरवासी। पूजिजे ईशानेश्वरासी। जैगीषव्यगुहेसी। नमन करूनि पुढे जावें ।। ३९ ।। घंटाकुंडीं स्नान करी। व्यासेश्वरातें अर्चन करी। कंटुकेश्वरातें अवधारीं। पूजा करी गा भक्तींसी ।। २४० ।। ज्येष्ठवापीं स्नान करणे। ज्येष्ठेश्वरातें पूजणे। सर्वेचि तुवां पुढे जाणें। स्नान सप्तसागरांत ।। ४१ ।। तेथोनि वाल्मीकेश्वरासी। पूजा करीं गा भक्तींसी। भीमलोटा जाऊनि हों। भीमेश्वर पूजाना ।। ४२ ।। मातृ पितृकुंडेसी। करणें श्राद्धविधीसी। पिशाचमोचन तीर्थेसी। पुढे जावे अवधारा ।। ४३ ।। पुढे कपर्देश्वरासी। पूजा करी गा भक्तींसी। कर्कोटकवापीसी। स्नान करी गा बाळका ।। ४४ ।। ककर्कोटकेश्वरासी। पूजा करी गा भक्तींसी। पुढें ईश्वरगंगेसी। स्नान दान करावें ।। ४५ ।। अग्नीश्वराचे पूजेसी। चक्रकुंडीं स्नानासी। तुवां जावें मक्तींसी। श्राद्धकर्म करावें ।। ४६ ।। उत्तरार्क पूजोन। मत्स्योदरी करीं स्नान। ओंकारेश्वर अर्थोन। कपिलेश्वर पूर्वी मग ।। ४७।। ऋणमोचन तीर्थेसी। श्रद्धादि करावीं भक्तींसी। पापविमोचनतीर्थेसी। स्नानादि श्राद्धे करावीं ।। ४८ ।। तीर्थ कपालमोचन स्नान श्राद्ध तर्पण । कुलस्तंभाप्रती जाऊन। पूजा करी गा भक्तींसी ।। ४९ ।। असे तीर्थ वैतरणी। बाद्ध करावें तेथे स्नानीं। विधिपूर्वक गोदानीं। देतां पुण्य बहुत असे ।। २५० ।। मग जानें कपिलधारा। स्नान श्राद्ध तुम्ही करा। सवत्सेसी द्विजवरा। गोदान द्यावें परियेसा ।। ५१ ।। वृषभध्वजातें पूजोन। मग निघावें तेथून। ज्यालानृसिंह बंदोन। वरुणासंगमी तुम्हीं जावें ।। ५२ ।। स्नान श्रद्ध करोनि। केशवादित्य पूजोनि। आदिकेशव अोंनि। पुढें जावें परियेसा ।। ५३ ।। प्रल्हादतीर्थ असे बरखें। स्नान श्राद्ध तुवां करावें। प्रल्हादेश्वरातें पूजावें। एक भावें परियेसी ।। ५४ ।। कपिलधारा तीर्थ थोर। स्नान करावें मनोहर। पूजोनि त्रिलोचनेश्वर। असंख्यातेश्वरा पूजिजे ।। ५५ ।। पुढे जावें महादेवासी। पूजा करी गा भक्तींसी। दुपदेश्वर सादरेसी। एक भावें अर्चावा ।। ५६ ।। गंगायमुनासरस्वतींशी। तिन्ही लिगें विशेषीं। पूजा करीं गा भक्तींसी। काम्यतीर्थ पाहे मग ।। ५७।। कामेश्वरातें पूजोनि। गोप्रतारतीर्थ स्नानी। पंचगंगेसी जाऊनि। स्नान मागुतीं करावें ।। ५८ ।। मणिकर्णिकास्नान करणें। जलशायीतें पूजणें। हनुमंतातें नमन करणें। मोदादि पंच विनायकांसी ।। ५९।। पूजा अन्नपूर्णसी। धुंडिराज परियेसीं। ज्ञानवापीं स्नानेंसी। ज्ञानेश्वर पुजावा ।। २६० ।। पूर्वी दंडपाणीसी। मोक्षलक्ष्मीविलासासी । पूजा पंचपांडवासी । द्रौपदीद्रुपदविनायका ।।६१।। पूजा आनंदभैरवासी। अविमुक्तेवर हीं। पूजोनिया संभ्रमेंसी । विश्वनाथ संमुख सांगें ।।६२।। श्लोक ।। उत्तरमानसयात्रेयं यथावद्या मया कृता। न्यूनातिरिक्तया शंभुः प्रीयतामनया विभुः ।।६३।। ऐसा मंत्र जपोनि। साष्टांग नमस्कारूनि। मग निधायें तैयोनि। पंचक्रोशयात्रेसी ।।६४।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। गुरुचरित्र ऐकतां संतोषीं। येणेचि तूं पावशी। वारी पुरुषार्थ इह सौख्य ।।६५।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर । सागे गुरुचरित्रविस्तार। ऐकतां होय मनोहर। सकळाभीष्टें साधिजे ।।६६।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । काशीखंडों यात्रा निरोपित। कथा असती पुराणविख्यात । एकचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ २६७।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४१॥
ओवीसंख्या २६७
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । संकल्प करोनिया मनीं। जावें स्वर्गद्वारा भुवनीं। गंगाकेशव पूजोनि। हरिश्चंद्र मंडपा जावें ।।१।। स्वर्गद्वार असे जाण। मणिकर्णिकातीर्थ विस्तीर्ण। तुवां तेथे जावोन। संकल्पावे विधीनें ।।२।। हविष्यान्न पूर्व दिवशी । करोनि असावें शुचीसी। प्रातःकाळी गंगेसी। स्नान आपण करावें ।।३।। पुंडिराजाते प्रार्थोनि । मागावें करुणावचनीं । पुनर्दर्शन दे म्हणोनि। विनवावें परियेसा ।।४।। मग गंगेतें नमोनि। जायें विश्वनाथभुवनीं । मग तयातें पूजोनि । भवानीशंकर पूजावा ।।५।। मग जावें मुक्तिमंडपासी। मनोनि निघावें संतोषीं। धुंडिराजाचे पूजेसी । पुनरपि जावें परियेसा ।।६।। मागुती यावें महाद्वारा। विश्वेश्वर-पूजा करा। मोदादि पंच विघ्नेश्वरा । नमन करावें दंडपाणीसी ।।७।। पूजा आनंदभैरवासी । मागुतीं यावे मणिकर्णिकेसी। पूनोनिया ईश्वरासी । सिद्धिविनायक पूजावा ।।८।। गंगाकेशव पूजोनि। ललितादेवीसी नमोनि। राजसिद्धेश्वर आणा ध्यानीं । दुर्लभेश्वर पूजावा ।।९।। सोमनाथ पूजा करीं। पुढें शूलटकेश्वरी। मग पूजा बाराहेश्वरी। दशाश्वमेध पूजा मग ।।१०।। बंदी देवीतें पूजोनि । सर्वेश्वरातें नमोनि। केदारेश्वर धरा ध्यानीं। हनुमंतेश्वर पूजावा ।।११।। मग पूजावा संगमेश्वरी । लोलाकर्कात अवधारी । अर्कविनायका पूजा करीं। दुर्गाकुंडी स्नान मग ।।१२।। आर्यादुर्गा देवी पूजोनि । दुर्गा गणेश ध्याऊनि । पुनर्दर्शन दे म्हणोनि । प्रार्थावें तयासी ।।१३।। विश्वकृपेंत ईश्वरासी। कर्दमतीीं स्नान हीं। कर्दमेश्वरपूजेसी । तुवां जायें बाळका ।।१४।। जायें कर्दमकूपासी। पूजा मग सोमनाथासी। मग विरूपालिंगासी । पूजा करी ब्रह्मचारी ।।१५।। पुढे जावें नीलकंठासी। पूजा करों गा भावेंसी। कर जोडोनि भक्तींसी। कर्दमेश्वर पूजावा ।।१६।। पुनर्दर्शन आम्हांसी। दे म्हणावें भक्तींसी। मग निघावें वेगेंसी। नागनाथाचे पूजेते ।।१७।। पुढें पूर्जी चामुंडेसी। मोक्षेश्वरा परियेसीं। वरुणेश्वर भक्तींसी। पूजा करी गा बाळका ।।१८।। वीरभद्रपूजेसी । जावोनि द्वितीय दुर्गेसी । अर्चावं विकटाक्षा देवीसी। पूजा करी मनोभावें ।।१९।। पूर्वी भैरव उन्मत्त। विमळार्जुन प्रख्यात । काळकूटदेवाप्रत । पूजा करी गा बाळका ।।२०।। पूजा करी महादेवासी। नंदिकेश्वर भैरवासी। भुंगेश्वर विशेषीं। पूजा करी मनोहर ।।२१।। गणप्रियासी पूजोनि। विरूपाक्षातें नमोनि। यक्षेश्वर अवोनि। विमलेश्वर पूजीं मग ।।२२।। भीमचंडी शक्तीसी। पूजीं चंडिविनायकासी। रविरक्ताक्ष गंधर्वासी। पूजा करी मनोभावें ।।२३।। ज्ञानेश्वर असे थोर । पूजा पुढे अमृतेश्वर । गंधर्वसागर मनोहर। पूजा करी गा भक्तींसी ॥२४।। नरकार्ण तरावयासी। पूर्वी भीमचंडीसी । विनवावें तुम्हीं त्यासी । पुनर्दर्शन दे म्हणावें ।।२५।। एकपादविनायकासी। पुढें पूजीं भैरवासी। संगमेश्वरा भरंवसीं । पूजा करी गा ब्रह्मचारी ।।२६।। भूतनाथ सोमनाथ। कालनाथ असे विख्यात। पूजा करीं गा त्वरित। कपर्देश्चरलिंगाची ।।२७।। नागेश्वर कामेश्वर । पुढें पूजी गणेश्वर। पूजा करी विश्वेश्वर। चतुर्मुख विनायका ।। २८।। पूजीं देहलीविनायकासी । पूजीं गणेश षोडशीं । उदंडगणेश षोडशीं। पूजा करी मनोहर ।।२९।। उत्कलेबर महाथोर। असे लिंग मनोहर । पुढें एकादश रुद्र । तयांचे पूजन करावें ।। ३०।। जायें तपोभूमीसी। पूजा करी गा भक्तींसी। रामेश्वर महाहर्षी। पूजीं मग सोमनाथ ।।३१।। भरतेवर असे घोर। लक्ष्मणेवर मनोहर। पूजीं मग शत्रुध्नेखर। भूमिदेवी अचर्ची मग ।।३२।। नकुळेश्वर पूजोन । करी रामेश्वरध्यान। पुनर्दर्शन दे म्हणोन। बिनवावें परियेसा ।।३३।। असंख्यात तीर्थ वरुण । तेथे करा तुम्हीं नमन । असंख्यात लिंगे जाण। पूजा करावी भक्तींसी ॥३४॥ पुढे असे लिंग थोर। नामें देव सिद्धेश्वर । पूजा करी गा मनोहर । पशुपाणि विनायक ।।३५।। याची पूजा करोनि। पृथ्वीश्चरातें नमोनि। शरयूकूपीं स्नान करोनि । कपिलधारा स्नान करी ।। ३६ ।। वृषभध्वजा पूजोनि। ज्वालानृसिंहाचे वंदी चरणी। वरुणासंगमी स्नान करोनि । श्रद्धादि कर्मे करावीं ।।३७।। संगमेश्वर पूजावा । सर्वविनायक बरवा । पुढें पूर्वी तूं केशवा । भायें करूनि ब्रह्मचारी ।।३८।। पूजा प्रल्हादेवरासी । स्नान कपिलातीर्थासी। त्रिलोचनेवरासी। पूजा करी गा भक्तीनें ।।३९।। पुढे असे महादेव। पंचगंगातीर ठाव । पूजा करी गा भक्तिभावें । तया बिंदुमाधवासी ।।४०।। पूजीं मंगळागौरीसी। गमस्तेश्वरा परियेसीं। वसिष्ठ वामदेवासी। पर्वतेवर पूजावा ।।४१।। महेश्वराचे पूजेसी। पुढें सिद्धिविनायकासी । पूजा सप्तवर्णेश्वरासी। सर्वगणेश पूजावा ।।४२।। मग जावें मणिकर्णिके। स्नान करावें विवेकें । विश्वेश्वरातें स्मरोनि निके। महादेव पूजावा ।।४३।। मग जावें मुक्तिमंडपासी। नमन करावें विष्णूसी। पूर्जी दंडपाणिसी । धुंडिराज अर्चावा ।।४४।। आनंदभैरव पूजोनि । आदित्येशा नमोनि। पूजा करी गा भक्तींसी। मोदादि पंचविनायका ॥४५।। पूजा करी गा विद्येश्वरासी । मोक्षलक्ष्मीविलासासी। नमोनि देवा संमुखेसी। मंत्र म्हणावा येणेंपरी ।।४६।। ।। ग्लोक।। जय विश्वेश विश्वात्मन् काशीनाथ जगत्पते। त्वत्प्रसादान्महादेव कृता क्षेत्रप्रदक्षिणा ।।४७।। अनेकजन्मपापानि कृतानि मम शंकर । गतानि पंचक्रोशात्मा कृता लिंगप्रदक्षिणा ॥४८।। ऐसा मंत्र जपोन। पुढें करावें शिवध्यान । मुक्तिमंडपा येवोन । आठां ठायीं बंदावें ।।४९।। प्रथम मुक्तिमंडपासी। नमन करावें परियेसीं। बंदोनि स्वर्गमंडपासी । जावें ऐश्वर्यमंडपा ।॥५०॥ ज्ञानमंडपा नमोनि। मोक्षलक्ष्मीविलासस्थानीं। मुक्तिमंडपा बंदोनि। आनंदमंडप डपा जावें तुवां ।।५१।। पुढे वैराम्यमंडपासी तुवां जावें भक्तींसी। येणेंपरी यात्रेसी। करी गा बाळा ब्रह्मचारी ।। ५२ ।। २।। आणिक एक प्रकार । सांगेन ऐक विचार। नित्ययात्रा मनोहर । ऐक बाळका गुरुदासा ॥५३॥ सचैल शुचि होवो योनि । चक्रपुष्करणों स्नान करोनि। देवपितर तपोंनि। ब्राह्मण पूजा करावी ॥५४।। मग निघावें तेथोनि । दुपदादित्येश्वर पूजोनि । दंपत्येश्वर नमोनि। श्रीविष्णूतें पूजावें ।।५५।। मग नमावा दंडपाणि। महेश्वरातें पूजोनि। मग निघावें तेथोनि । धुंडिराज अर्चिजे ।।५६।। ज्ञानवापीं करी स्नान। नंदिकेश्वर अर्थान। तारकेश्वर पूजोन। पुढें जावें मग तुवां ।॥५७।। महाकाळेश्वर देखा। पूजा करी भावें एका। दंडपाणि विनायका। पूजा करी मनोहर ।।५८।। मग यात्रा विश्वेश्वर। करीं गा बाळका मनोहर। लिंग असे ओंकारेश्वर। प्रतिपदेसी पूजावा ॥५९।। मत्स्योदरी तीर्धासी। स्नान करावें प्रतिपदेसी । त्रिलोचन महादेवासी। दोन्ही लिंगे असती जाण ।।६०।। तेथे बीजतिजेसी। जावें तुवां यात्रेसी । यात्रा जाण चतुर्थीसी। कांचीवास लिंग जाणा ।। ६१।। रत्नेश्वर पंचमीसी। चंद्रेश्वरपूजेसी। षष्ठीसी जावें परियेसीं । ऐक शिष्या एकचित्तें ।।६२।। सप्तमीसी केदारेश्वर। अष्टमीसी लिंग धूमेश्वर। विश्वेश्वर लिंग धोर। नवमी यात्रा महापुण्य ।।६३।। कामेश्वर दशमीसी। एकादशीसी विश्वेश्वरासी। द्वादशीसी मणिकर्णिकसी। मणिकेश्वर पूजावा ।। ६४।। त्रयोदशी प्रदोषेसी । पूजा अविमुक्तेश्वरासी। चतुर्दशीसी विशेषी। विश्वेश्वर पूजावा ।। ६५।। जे कोणी काशीवासी । असती नर परियेसीं । त्यांणी करावी यात्रा ऐसी। नाहींतरी विघ्न घडे ।। ६६ ।। शुक्लपक्षीं येणेंपरी। यात्रा कीं मनोहरी । कृष्णपक्ष आलियाचरी। यात्रा करा सांगेन ।।६७।। चतुर्दशी धरोनि। यात्रा करा प्रतिदिनीं। सांगेन ऐका विधानीं । एकचित्तं परियेसा ॥६८।। वरुणानदीं करा स्नान। करा शैल्येश्वरदर्शन। संगमेश्वर पूजोन। संगमीं स्नान तये दिनी ।।६९।। स्वर्गतीर्थस्नानेंसी। स्वर्गेश्वर पूजा हीं। मंदाकिनी येरे दिवसीं । मध्यमेश्वर पूजावा ॥७०।। मणिकर्णिका स्नानेंसी। पूजा ईशानेश्वरासी। हिरण्यगर्भ परियेसीं। दोनी लिंगे पूजिजे ।।७१।। स्नान घर्मकूपेसी। करी पूजा गोपद्येश्वरासी । पूजा करा तया दिवसीं । एकचित्ते परियेसा ॥७२॥ कपिलधारा तीर्थासी। स्नान करा भक्तींसी । वृषभध्वज लिंगासी । सप्तमीचे दिवसीं पूजीं पै ॥७३।। उपशांतिकूपेसी। स्नान करा भक्तींसी। उपशांतेचरासी । पूजा करी तया दिनीं ।।७४।। पंचचूडडोहांत। स्नान करा शिव ध्यात। ज्येष्ठेश्वरा त्वरित । पूजावें तया दिनीं ।॥७५।। चतुःसमुद्रकूपासी। स्नान करी भावेंसी। समुद्रेखर हीं। पूजा करों तया दिनीं ।। ७६।। देवापुढे कूप असे। स्नान करावें संतोष । शुक्रेश्वर पूजा हर्षे। पूजा करीं तया दिनी ।।७७।। दंडखात तीर्थेसी। स्नान करोनि देवासी। व्याप्रेश्वरपूजेसी । तुवां जावें तया दिनीं ।।७८।। शौनकेश्वरतीर्थेसी । स्नान तुम्ही करा हर्षी। तीर्थनामें लिंगासी। पूजा करा मनोहर ।।७९।। जंबुतीर्थ मनोहर। स्नान करा शुभाचार। पूजावा भावें जंबुकेश्वर चतुर्दश लिगें येणेंपरी ।।८०।। शुक्लपक्षकृष्णेसी । अष्टमी तिथि विशेषों। पूजावें तुम्हीं लिंगासी। सांगेन ऐका महापुण्य ।।८१।। मोक्षेश्वर पर्वतेश्वर । तिसरा पशुपतेश्वर । गंगेश्वर नर्मदेश्वर। पूजा करी मनोभावें ।।८२।। आणिक भक्तेश्वर गभस्तीश्वर। मध्यमेश्वर असे थोर । तारकेश्वरनामें निर्धार। नव लिंगे पूजावीं ।।८३।। आणिक लिंगे एकादश। नित्ययात्रा विशेष। लिंग असे अग्रिष्नुवेश । यात्रा तुम्हीं करावी ।।८४।। दुसरा असे उर्वशीश्वर। नकुलेश्वर मनोहर। चौथा असे आषाडेश्वर । भारतभूतेश्वर पंचम ।।८५।। लांगूलेश्वरी करा पूजा। करा त्रिपुरांतका ओजा। मनः प्रकामेश्वरकाजा। तुम्हीं जायें परियेसा ।।८६।। प्रीतेखर असे देखा। मंदालिकेवर ऐका। तिलपर्णेश्वर निका। पूजा करी भावेंसी ।।८७।। आतां शक्तियात्रेसी । सांगेन ऐका विधीसी। शुक्लपक्षतृतीयेसी । आठ यात्रा कराव्या ।।८८।। गोप्रेक्षतीर्थ देखा । स्नान करोनि ऐका । पूजा मुख्य भाळनेत्रिका। भक्तिभावें करोनिया ।।८९।। ज्येष्ठवापीं स्नानेंसी। ज्येष्ठागौरी पूजा हीं । स्नान पान करा वापीसी। शृंगार सौभाग्य गौरीपूजा ॥९०।। विशाळगंगास्नानासी। पूजा विशाळगौरीसी । ललितातीर्थस्नानेसी । ललिता देवी पूजावी ।।९१।। स्नान भवानीतीर्थेसी। पूजा करा भवानीसी। विदुतीर्थ स्नानासी । मंगळागौरी पूजावी ।।९२।। पूजा इतुके शक्तींसी। मग पूजिजे लक्ष्मीसी। येणें विधी भक्तींसी। यात्री करी मनोहर ।।९३।। यात्रातीर्थ चतुर्थीसी। पूजा सर्व गणेशासी। मोदक द्यावे गौरीपुत्रासी। विघ्न न करी तीर्थवासियांतें ।।९४।۱۱ मंगळ अथवा रविवारेंसी। यात्रा करी भैरवासी। षष्ठी तिथि परियेसीं। जावें तुम्हीं मनोहर ॥९५।। रविवारी सप्तमीसी। यात्रा रविदेवासी। नवमी अष्टमी चंडीसी। यात्रा तुम्हीं करावी ।।९६।। अंतर्ग्रहयात्रेसी । करावी तुम्हीं प्रतिदिवसीं । विस्तारकाशीखंडासी। एक शिष्या ब्रह्मचारी ।।९७।। ऐशी काशीविश्वेश्वर । यात्रा करावी तुम्हीं परिकर । आपुल्या नामीं सोमेश्वर । लिंगप्रतिष्ठा करावी ।।९८।। इतुकें ब्रह्मचारिवासी। यात्रा सांगितली परियेसीं । आचरण करीं येणें विधींसी। तुझी वासना पुरेल ।।९९।। तुझे चित्तीं असे गुरु। प्रसन्न होईल शंकरु। मनीं धरीं गा निर्धारु । गुरुस्मरण करी निरंतर ।।१००।। इतके सांगोनि तापसी। अदृश्य झाला परियेसीं। ब्रह्मचारी म्हणे हीं । हाचि माझा गुरु सत्य ।।१।। अथवा होईल ईश्वर। मज कृपाळू झाला सत्वर। कार्य लाघेल निर्धार । म्हणोनि मनीं धरियेलें ।।२।। न आराधितां आपोआप । भेटला मातें मायबाप। गुरुभक्तीनें अमूप। सकळाभीष्टें पाविजे ।।३।। समस्त देवा ऐशी गति । दिल्यावांचोन न देती। ईश्वर भोळा चक्रवर्ती। गुरुप्रसादें भेटला ।।४।। यज्ञ दान तप सायास । कांहीं न करितां सायास । भेटला मज विशेष । गुरुकृपेंकरोनिया ।।५।। ऐसें गुरुस्मरण करीत। ब्रह्मचारी जाय त्वरित । विधिपूर्वक आचरत । यात्रा केली भक्तीनें ।।६।। यात्रा करितां भक्तींसी। प्रसन्न झाला व्योमकेशी। निजस्वरूपें संमुखेसी । उभा राहिला शंकर ।।७।। प्रसन्न होवोनि शंकर। म्हणे दिधला माग वर। संतोषोनि त्वष्टकुमार। निवेदिता झाला वृत्तान्त ।।८।। जें जें मागितलें गुरुवयें। आणिक त्याचे कन्याकुमारें। सांगता झाला विस्तारें। शंकराजवळी देखा ।।९।। संतोषोनि ईश्वर । देता झाला अखिल वर। म्हणे बाळा माझा कुमार। सकळ विद्याकुशल होसी ।।११०।। तुवां केली गुरुभक्ति । तेणें झाली आपणा तृप्ति। अखिल विद्या तुज होती। विश्वकर्मा तूंचि होसी ।।११।। चतुर्विध पुरुषार्थ । लाधला तुज परमार्थ। सृष्टि रचावया समर्थ। होसी जाण त्वष्टपुत्रा ।।१२।। ऐसा वर लाधोन । त्वष्टा ब्रह्मानंदन । केलें लिंग स्थापन। आपुले नार्मी परियेसा ।।१३।। मग निघाला तेथोनि। केली आयती तत्क्षणीं । प्रसन्न होतां शूलपाणि। काय नोहे तयासी ॥१४।। जें जें मागितलें श्रीगुरुवरें। सकळ वस्तु केल्या चतुरें। घेऊनिया सत्वरें । आला श्रीगुरुसंमुख ।।१५।। सकळ वस्तु देऊनि । लागतसे श्रीगुरुचरणीं। अनुक्रमें गुरुरमणि। पुत्र-कन्येंसी बंदिलें ।।१६।। उल्हास झाला श्रीगुरुसी। आलिंगितसे महाहषीं । शिष्य ताता ज्ञानराशि । तुष्टलों तुझे भक्तीनें ।।१७।। सकल विद्याकुशल होसी। अष्टैश्वर्ये नांदसी। त्रैमूर्ति तुझिया वंशीं। होतील ऐक शिष्योत्तमा ।।१८।। घर केलें तुवां आम्हांसी। आणिक वस्तु विचित्रेसी। चिरंजीव तूंचि होसी। आचंद्रार्क तुझे नाम ।।१९।। स्वर्गमृत्युपाताळासी । पसरवीं तुझे चातुर्यासी। रचिसी तूंचि सृष्टीसी। विद्या चौसष्टी तूंचि ज्ञाता ॥१२०॥ तुज वश्य अष्ट सिद्धि। होतील जाण नव विधि। चिंता कष्ट न होती कीं। म्हणोनि वर देतसे ।।२१।। ऐसा वर लाधोनि। गेला शिष्य महाज्ञानी । येणेंपरी विस्तारोनि । सांगे ईश्वर पार्वतीसी ।।२२।। ईश्वर म्हणे गिरिजेसी। गुरुभक्ति आहे ऐसी। एकभाव असे ज्यासी । सकळाभीष्टें पावती ।।२३।। भव म्हणिजे सागर। उत्तराच्या पैल पार। समर्थ असे एक गुरुवर। त्रैमूर्तीचा अवतार ।।२४।। या कारणें त्रैमूर्ति । गुरुचरणीं भजती। वेदशाखें बोलती। गुरुविणें सिद्धि नाहीं ।।२५।। ।। ग्लोक।। यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरी। तस्यैते कथिता हार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।२६।। ऐसें ईश्वर पार्वतीसी। सांगता झाला विस्तारेंसी । म्हणोनि श्रीगुरु प्रीतीसी। निरोपिलें द्विजातें ।।२७।। इतुकें होतां रजनीसी। उदय झाला दिनकरासी । चिता अंधकारासी । गुरुकृपा ज्योती जाणा ।।२८।। संतोषोनि द्विजवर। करिता झाला नमस्कार। ऐसी बुद्धि देणार । तूंचि स्वामी कृपानिधि ।।२९।। नमन करूनि श्रीगुरुसी। विनवीतसे भावेंसी। स्वामी कथा निरोपिलीसी। अपूर्व मातें वाटलें ।।१३०।। काशीयात्राविधान। निरोपिले मज विस्तारोन। तया वेळीं होतों आपण। तुम्हांसहित तेथेवि ।।३१।। पाहिलें आपण दृष्टान्तीं । स्वामी काशीपुरी असती। जागृतीं कीं सुषुप्तीं। नकळे मातें स्वामिया ।।३२।। म्हणोनि विप्र तये वेळीं । वंदी श्रीगुरुचरण कमलीं। विनवीतसे करुणा बहाळी। भक्तिभावें करोनिया ।।३३।। जय जया परमपुरुषा । परात्परा परमहंसा । भक्तजनमानसहंसा। श्रीनृसिंहसरस्वती ।।३४।। ऐसें तया अवसरों। पूर्वज तुझा स्तोत्र करी । सांगेन तुज अवधारीं। एकचित्तें करूनिया ।।३५।। श्लोक ।। आदी ब्रह्म त्वमेव सर्वजगतां वेदात्ममूर्ति विभुं । पश्चात् श्रोणिजडा' विनाश-दितिजां कृत्वाऽवतारं प्रभो। हत्वा दैत्यमनेकधर्मचरितं, भूत्वाऽत्मजोऽत्रेगृहे । बंदेऽहं नरकेसरीसरस्वतीश्रीपाद्युग्मांबुजम् ।।३६।। भूदेवाखिलमानुषं' विदुजना बाधायमानं कलि। वेदादुश्यमनेकवर्णमनुजा, भेदादि-भूतोन्नतम् । छेदः कर्मतमांधकारहरणं श्रीपादसूर्योदयं । वदेऽहं नरकेसरीसरस्वतीश्रीपादयुग्मांबुजम् ।।३७।। घातस्त्वं हरिशंकरप्रतिगुरो', जाताग्रजन्मं विभो। हेतुः सर्वविदोजनाय तरणं, ज्योतिः स्वरूपं जगत्। चातुर्थाश्रमस्थापितं क्षितितले, पातुः सदा सेव्ययं । वंदेऽहं नरकेसरीसरस्वतीश्रीपादयुग्मांबुजम् ।।३८।। चरितं चित्रमनेककीर्तिमतुलं, परिभूतभूमंडले' । मूकं वाक्यदिवांधकस्य नयनं, वंध्यां च पुत्रं ददौ। सौभाग्यं विधवां च दायकश्वियं, दत्त्वा च भक्त जनं । बंदेऽहं नरकेसरीसरस्वतीश्रीपाद्युग्मांबुजम् ।।३९।। दुरितं, घोरदरिद्रदाबतिमिरं, हरणं जगज्जोतिषं । स्वर्धेनु सुरपादपूजितजना, करुणाब्धिभक्तार्तितः । नरसिंहेंद्रसरस्वतीश्वर विभो, शरणागतं रक्षकं । बंदेऽहं नरकेसरीसरस्वतीश्रीपाद्युग्मांबुजम् ।।१४०।। गुरुमूर्तिचरणारविंदयुगलं, स्मरणं कृतं नित्यसौ। चरितं क्षेत्रमनेकतीर्थसफलं सरितादि-भागीरथी । तुरगामेधसहस्रगोविदुजनाः सम्यक् दर्दस्तत्फलं । वदेऽहं नरकेसरीसरस्वतीश्रीपादयुग्मांबुजम् ।।४१।। नो शक्यं तव नाममंगल स्तुवं, वेदागमागोचरं । पादद्धं हृदयाब्जमंतरजलं निर्धारमीमांसतं । भूयो भूयः स्मरन्नमामि मनसा, श्रीमद्गुरुं पाहि मां। बंदेऽहं नरकेसरीसरस्वतीश्रीपाद्युग्मांबुजम् ।।४२।। भक्तानां तरणार्थ सर्वजगतां, दीक्षां ददन्योगिनां । सुक्षेत्र पुरगाणगस्थित प्रभो, दत्त्वा बतुष्कामदं । स्तुत्वा भक्तसरस्वतीगुरुपदं, जित्वाऽद्यदोषादिकं । बदेऽहं नरकेसरीसरस्वतीश्रीपादयुग्मांबुजम् ।।४३।। एवं श्रीगुरुनाथमष्टकमिदं स्तोत्रं पठेन्नित्यसौ । तेजोवर्चबलोत्रतं श्रियकरं आनंदवर्धं वपुः । पुत्रापत्यमनेकसंपदशुभा दीर्घायुरारोग्यतां । बदेऽहं नरकेसरीसरस्वतीश्रीपादयुग्मांबुजम् ।।४४।। येणेंपरी स्तोत्र करीत। मागुती करी दंडवत । सद्गदित कंठ होत। रोमांच अंगीं उठियेले ।।४५।। म्हणे त्रैमूर्ति अवतारु । तूंचि देवा जगदूरु। आम्हां दिसतोसी नरु। कृपानिधि स्वामिया ।।४६।। मज दाविला परमार्थ । लाधलों चारी पुरुषार्थ । तूंचि सत्य विश्वनाथ। काशीपुर तुजपाशीं ।।४७।। ऐसेंपरी श्रीगुरुसी। विनवीतसे परियेसीं । संतोषोनि महाहषर्षी । निरोप देती तये वेळीं ।।४८।। श्रीगुरु म्हणती द्विजासी। दाखविली तुज काशी। पुढे तुझ्या वंशीं एकविसांसी। यात्रा फळ तयां असे ।।४९।। तूंचि आमुचा निजभक्त। दाखविला तुज दृष्टान्त। आम्हांपासी सेवा करीत । राहें भक्ता म्हणती तया ।।१५०।। जरी राहसी आम्हांपासी। तरी त्वां न बंदिजे म्लेंच्छासी । आणोनिया स्रीपुत्रांसी। भेटी करी आम्हांतें ।॥५१।। निरोप देऊनि द्विजासी। गेले गुरू मठासी। आनंद झाला मनासी। श्रीगुरुदर्शनीं भक्तजना ।।५२।। नामधारक शिष्यराणा। लागे सिद्धाचिया चरणां। विनवीतसे कर जोडोनि जाणा । भक्तिभावें करोनिया ।।५३।। मागें कथानक निरोपिलें। सायंदेव शिष्य भलें श्रीगुरुंनों त्यातें निरोपिलें । कलत्रपुत्र आणी म्हणत ।।५४।। पुढें तया काय झालें। विस्तारोनि सांगा वहिलें। पाहिजे आतां अनुग्रहिलें । म्हणोनि चरणीं लागला ।।५५।। संतोषोनि सिद्ध मुनि। सांगतसे विस्तारोनि। सायंदेव महाज्ञानी। गेला श्रीगुरुनिरोपें ।।५६।। जाऊनि आपुले स्त्रियेसी। सांगता झाला पुत्रासी। आमुचा गुरु परियेसीं। असे गाणगापुरांत ।।५७।। आम्हीं जायें भेटीसी । समस्त कन्यापुत्रांसी। म्हणोनि निघाला वेगेंसी। महानंदें करोनिया ।।५८।। पावला गाणगापुरासी । भेटी जहाली श्रीगुरूसी । नमन करी भक्तींसी। साष्टांगी तये वेळीं ।।५९।। कर जोडुनी तये वेळीं। स्तोत्र करी वेळोवेळीं । ओं नमोजी चंद्रमौलि । त्रैमूर्ति तूंचि होसी ।।१६०।। तूं त्रैमूर्तिचा अवतार। अज्ञानदृष्टीं दिससी नर । वर्णावया न दिसे पार । तुझा महिमा स्वामिया ।।६१।। तुझा महिमा वर्णावयासी। शक्ति कैची आम्हांसी। आदिपुरुष भेटलासी । कृपानिधि स्वामिया ।।६२।। जैसा चंद्र चकोरासी। उदय होतां संतोष त्यासी। तैसा आनंद आम्हांसी । तुझे चरण लक्षितां ।।६३।। पूर्वजन्मीं पापराशि। केल्या होत्या बहुवशी। श्रीगुरुंचे दर्शनेसी। पुनीत झालों म्हणतसे ।।६४।। जैसा चिंतामणि स्पशीं। हेमत्व होय लोहासी। मृत्तिका पडतां जंबूनदीसी । उत्तम सुवर्ण होतसे ।।६५।। जातां मानससरोवरासी । हंसत्व येई वायसासी। तैसें तुझे दर्शनेंसी। पुनीत झालों स्वामिया ।।६६।। ॥ श्लोक।। गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुस्तस्था। पापं तापं च हरति दैन्यं च गुरुदर्शनम् ।।१।। ।। टीका ।। गंगा स्नानाने पापें नाशी । ताप निवारी देखा शशी। कल्पवृक्षछायेसी । कल्पिलें फळ पाविजे ।। ६७।। एकेकाचे एकेक गुणें। असतीं ऐसी हीं लक्षणें। दर्शन होतां श्रीगुरुचरणें । तिन्ही फळे पाविजे ।।६८।। पापें हरती तात्काळीं । तापचिंता जातीं सकळी । दैन्यकानन समूळ जाळी। श्रीगुरुचरणदर्शनं ।। ६९।। चतुर्विध पुरुषार्थ। देता होय गुरुनाथ । ऐसा बोले वेदसिद्धान्त । तोचि आम्हीं देखिला ।।१७०।। म्हणोनिया आनंदेसी। गायन करी संतोषीं। अनेक रार्गे परियेसीं । कर्नाटक भाषे करोनि ।।७१।। राग श्रीराग। कंडेनिंदु भक्तजनरामम्यनिधियभूमंडलदोळगेनार सिंहसरस्वतीया ।।७२।। कंडोर्निदुउंडेनिदुवारिजादोळपादद्वाराजाकमळांदोळदं तध्यानिसी ।।७३।। सुखसुवाजनारुगळा । भोरगेलानेकामिफळफळा। नित्यसकळाहुवा। धीनारसिंहसरस्वतीवरानना ।।७४।। वाक्यकरुणानेनसुवा । जगदोळगदंड कमंडलुधराशी। सगुणानेनीशीसुजनरिगे। वगादुनीवासश्रीगुरुयतिवरात्र ।।७५।। घारगे गाणगापुरडोलके लाशीहरी । दासिसोनुनादयाकरुणादली। वरावीतुंगमुनाहोरावनु अनुबिना । नारसिंहसरस्वतीगुरुचरणक्त्र ।।७६।। राजगखंडीकंडीनेननमा । इंदुकडेनेनमा। मंडलादोळगेयती कुलराये। चंद्रमन्ना ।।७७।। तत्त्वबोधायाउपनिषदतत्त्वचरित नाव्यक्तवादपरब्रह्मामूर्तीयनायना। शेषशयनापरवेशकायना । लेशकृपयनीवनेव भवासौपालकाना ।।७८।। गंधपरिमळादिशोभितानंदासरसाछंदालयोगेंद्रेगोपीवृंदवल्लभना ।। ७९।। करीयनीयानांषापगुरु । नवरसगुसायनी । नरसिंहसरस्वत्यन्ना । नाट्पुरुषवादना ।। १८०।। यापरी स्तोत्रे श्रीगुरुसी। स्तुति केली बहुवसीं । संतोषोनि महाहर्षी। आश्वासिताती तये वेळीं ।॥८१॥ प्रेमभावें समस्तांसी। बैसा म्हणती समीपेसी। जैसा लोभ मायेसी । या बाळकावरी परियेसा ।।८२।। आज्ञा घेऊनी सहज। गेला तुमचा पूर्वज। सकळ पुत्रांसहित द्विज । आला श्रीगुरुदर्शना ।।८३।। भाद्रपद चतुर्दशीसी। शुक्लपक्ष परियेसीं। आला शिष्य भेटीसी। एका भावें करोनिया ।।८४।। बेती शिष्य लोटांगणीं। एका भावें तनुमनीं। येऊनि लागती चरणीं। सद्गदित कंठ झाला ।।८५।। स्तोत्र करिती तिहीं काळीं । कर जोडोनि तये वेळीं। ऑ नमोजी चंद्रमौळी। त्रैमूर्ति तूंचि होसी ।। ८६ ।। त्रैमूर्तिया अवतारू । झालासी तू जगदूरु । येरां दिसतोसी नरु। न कळे पार तुझा स्वामिया ।।८७।। सिद्ध म्हणे नामकरणी। काय सांगू तये दिनीं । कैशी कृपा अंतःकरणी। तया श्रीगुरु यतीचे ।।८८।। आपुले पुत्रकलजेंसी। जैसा लोभ परियेसीं । तैसा तुमचे पूर्वजासी । प्रेमभावें पुसताती ।।८९।। गृहवार्ता सुरसी। क्षेम पुत्रकलजेंसी। द्विज सांगे मनोहर्षी। सविस्तारी परियेसा ।।१९०।। पुत्रकल궃सहित नमोन। सांगे क्षेम समाधान होते पुत्र चौघेजण । चरणावरी घातले ।।९१९।। ज्येष्ठसुत नागनाथ । तयावरी कृपा बहुत । कृपानिधि गुरुनाथ। माथां हस्त ठेविती ।।९२।। श्रीगुरु म्हणती द्विजासी । तुझ्या ज्येष्ठसुतासी । आयुष्य पूर्ण असे त्यासी। संतति बहु याची वाढेल ।।९३।। हाच भक्त आम्हांसी। असेल श्रियायुक्तेसी । तुवां आतां म्लेंच्छासी। सेवा न करावी म्हणितलें ।।९४।। आणिक तूंतें असे नारी। पुत्र होती तीस चारी । नांदतील श्रेयस्करी । तुवां सुखें असावें ।।९५।। जया दिवसीं म्लेंच्छासी। तुवां जाबोनि बंदिसी। हानि असे जीवासी । म्हणोनि सांगती तये वेळीं ।।९६।। तुझा असे वडील सुत। तोचि आमुचा निज भक्त। त्याची कीर्ति वाढेल बहुत । म्हणती श्रीगुरू तये वेळीं ।।१७।। मग म्हणती द्विजासी। जावें त्वरित संगमासी। स्नान करोनि त्वरितेंसी। यावे म्हणती तये वेळीं ।।९८।। ग्रामलोक तया दिवसीं । पूजा करितां अनंतासी। येऊनिया श्रीगुरूसी। पूजा करितो परियेसा ।।९९।। पुत्रमित्रकलजेंसी । गेले स्नाना संगमासी। विधिपूर्वक अश्वत्थासी। पूजूनि आले मठातें ॥२००।। श्रीगुरु म्हणती द्विजासी । आजि व्रतचतुर्दशी। पूजा करी अनंतासी। समस्त द्विज मिळोनि ।।१।। ऐसें म्हणतां द्विजवरू । करितां होय नमस्कारू। आमुचा अनंत तूंचि गुरु। व्रतसेवा तुमचे चरण ।।२।। तये वेळीं श्रीगुरू । सांगतां झाला विस्तारु । कौंडिण्यमहाऋषीश्वरू । केलें व्रत प्रख्यात ।।३।। ऐसें म्हणतां द्विजवरू। करितां होय नमस्कारू । कैसें व्रत आचरावें साचारू । पूर्वी कोणी केलें असे ।।४।। ऐसें व्रत प्रख्यात । व्रत दैवत अनंत। जेणें होय माझें हित । कथामृत निरोपिजे ।।५।। येणें पुण्य काय घडे। काय लाभतसे रोकडें। ऐसें मनींचे साकडें। फेडावें माझें स्वामिया ।।६।। ऐसें विनवीतसे द्विजवरू। संतोषोनि गुरु दातारु । सांगते झाले व्रताचारू । सिद्ध म्हणे नामधारका ।।७।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधरू । सांगे गुरुचरित्रविस्तारु । ऐकतां भवसागरु। पैल पार पाववी श्रीगुरू ।।८।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । काशीयात्रा समस्त करीत । श्रोते ऐकती आनंदित । तेणें सफल जन्म होय ।।९।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । सांगतसे नामधारक विख्यात । जेणें होय मोक्ष प्राप्त। द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ।।२१०।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४२॥
ओवीसंख्या २१०
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । श्रीगुरु म्हणती द्विजासी । या अनंतव्रतासी। भक्तीपूर्वक निश्चयेंसी। पूर्वी बहुतीं आराधिलें ।।१।। युधिष्ठिर पंडुसुत । त्यानें आचारिलें हें व्रत। राज्य लाधला त्वरित। ऐसें व्रत हैं उत्तम ।।२।। ऐसें म्हणतां द्विजवर । करिता झाला नमस्कार। पूर्वी राजा पंडुकुमार। आणिक राज्य केवी झालें ।।३।। श्रीगुरू म्हणती द्विजांसी । होतें राज्य पांडवांसी। द्यूतकर्म कौरवांसी। करूनि राज्य हारविलें ।।४।। मग निघाले वनांतरा। कष्ट होते वर्षे बारा। ऐसें तया युधिष्ठिरा। राज्य त्यजिलें परियेसा ।।५।। तया घोर अरण्यांत । युधिष्ठिरबंधूसहित । असे चिताव्याकुलित । सदा घ्याय श्रीहरीसी ।।६।। समस्त राज्य सांडूनि । वास केला त्यांहीं वनीं। कौरव कपट करोनि । नानापरी विघ्नें करिती ।।७।। सत्त्व यांचे टाळावयासी। पाठविलें दुर्वासासी । त्यांसी सर्वा ठायीं हृषीकेशी । रक्षीतसे सर्वदा ।।८।। नाना तीर्थे नाना व्रतें। आचरले तेथे बहुतें। कष्टत होते चनीं ते। निर्वाणरूप' होऊनिया ।।९।। भक्तवत्सल नारायण । तयांचे कष्ट पाहून। आला तेथे ठाकोन। जेथे होते पंडुकुमार ।।१०।। कृष्ण येतां देखोनि । धर्म जाय लोटांगणीं । दंड-प्रणाम करूनि । बंदीतसे तये वेळीं ।।११।। केश आपुले मोकळी। झाडी कृष्णचरणधुळी । सर्वोपस्कारपूजा तये वेळीं। करीतसे विनयेसी ।।१२।। अर्घ्यपाद्य देवोनि। गंधाक्षता लावूनि । जीं कां पुष्पें होती रानीं । त्यांहीं पूजा करीतसे ।।१३।। पूजोनिया भक्तींसी। विनवीतसे परियेसीं। जय जयाजी इषीकेशी । भक्तवत्सला कृष्णनाथा ।।१४।। जय जया अनंत नारायणा । भवसागरउद्वारणा। कृपाळुवा लक्ष्मीरमणा । क्षीराब्धिवासा वासुदेवा ।।१५।। परमात्मा परंज्योति। तूंचि करिसी उत्पत्ति स्थिति। लय करिसी तूंचि अंतीं। त्रैमूर्ति तूंचि देवा ।।१६।। विश्वाचा जिव्हाळा । होऊनि रक्षिसी सकळां। वास तुझा सूक्ष्म स्थळा । अणुरेणुतृणकाष्ठीं ।।१७।। नमन तुझे चरणासी । त्रिगुणात्मक हृषीकेशी। रजोगुणें सृष्टीसी। तुवां रचियेली संयोगें ।।१८।। दुष्ट निग्रह करणें । साधुजना संरक्षणें । असें सामर्थ्य वेदपुराणें । बोलताती प्रसिद्ध ।।१९।। फेडावया भूमिभार। घेतला तुवां अवतार । जड झाला युधिष्ठिर । तरी कां तुवां ठेविला ॥२०॥ आपुले प्राण आम्हांसी। म्हणवोनि जगीं वानिसी । पाठवूनि अरण्यासी । कष्टविलें नानापरी ।।२१।। तुझी कृपा होय जयासी। तयासी तूं रक्षिसी। उपेक्षूनि आम्हांसी । अरण्यांत कां ठेविलें ।।२२।। तुजवांचोनि आम्हीं हृषीकेशी। दुःख सांगावें कवणापासीं । जरी आम्हां उपेक्षिसी। काय कांक्षा जीवातें ।।२३।। इतुकियावरी भीमसेन। येऊनि घरी कृष्णचरण। उपेक्षावया काय कारण। कृपा करोनि सांगा म्हणे ।।२४।। धनंजय तये वेळीं। बंदीतसे चरणकमळीं। विनवीतसे करुणा बहाळी। कृपालुवा मुरारि ।।२५।। तुझे कृपादृष्टींसी । होतों आम्ही अरण्ययासी। घडले कष्ट सावासी। उबगलों' स्वामी बहुत ।।२६।। आतां आमुचे कष्टहरण । पांडवांचा तूंचि प्राण। ब्रीद राखें नारायण। म्हणतसे तये वेळीं ।। २७।। माद्रीदेवीचे कुमार। करोनिया नमस्कार । द्रौपदी येऊनि सत्वर। पाय वंदी तये वेळीं ।।२८ ।। तूं आमुचा कैवारी। आम्ही असों अरण्यघोरी । आमुचा बंधु राज्य करी। काय उपयोग आम्हांसी ।।२९।। तुजसारिखें छत्र असतां। आम्हां कष्ट अपरिमिता । कवणे प्रकारें स्वस्थचित्तता । राज्यप्राप्ति आम्हांसी ।।३०।। असा उपाय आम्हांसी। सांगा स्वामी हषीकेशी। ऐसें म्हणतां कृष्णासी । कृपा उपजे मनांत ।।३१।। कृष्ण म्हणे पंडुसुता। सांगेन तुम्हां एकव्रता। तात्कालिक तुम्हां प्रसन्नता । राज्य होईल जाण पें ।।३२।। व्रतांमध्ये उत्तम व्रत । अनंतनाम विख्यात । आचरावें तुम्हीं त्वरित । राज्य तुम्हां होईल ।।३३।।। आतां सांगेन तुम्हांसी। अनंतव्रत म्हणसी। सर्वा ठायीं आपण वासी। अनंतनाम आम्हां असे ।।३४।। कला काष्ठा मुहूर्त आपण । दिन रात्रि शरीर जाण। पक्ष मास वर्ष आपण। युग कल्प आदि करोनि ।। ३५।। अवतरलों मी नारायण । भूभार उत्तराक्या लागोन। दानव दुष्ट निर्दालीन। जन्मलों वसुदेवकुळीं ।॥३६।। अनंत मीच जाणसी । संशय न धरीं गा मानसीं । त्रैमूर्ति अवतरलों सर्वांशी। ब्रह्माविष्णुमहेश्वर ।।३७।। आपणचि सूर्य शशी देखा । चतुर्दश भुवनें मी ऐका। अष्टवसु आहेत निका। द्वादशार्कचि ।। ३८ ।। रुद्र आपण असती एकादश। सप्त समुद्र परियेस । ऋषि सम विशेष । पर्वतादि आपणचि ।।३९॥ जितुके वृक्ष आहेती क्षिती। आकाशीं नक्षत्रे दिसतीं। दश दिशा आहेती ख्याति । भूमि आपण म्हणे देखा ।।४०।। असती सप्त पाताळ । भूर्भुवादि लोक सकळ । विश्वात्मा आपणचि ।।४१।। न धरीं संशय युधिष्ठिरा। अनंत म्हणजे मी निर्धारा। विधिपूर्वक पूजा करा। व्रत तुम्हांसी बरवें असे ।।४२।। विनवी युधिष्ठिर कर जोडोनि। स्वामी सांगा विस्तारोनि । व्रत करावें कवणें विधानीं। कवण दान कवण पूजा ।।४३।। करायें व्रत कवणे दिवशीं। विस्तारोनि सांग आम्हांसी। निरोपायें वेगेंसी। पूर्वी कवणें आचरिलें ।॥४४।। कृष्ण म्हणे युधिष्ठिरासी। तुवां पुसिलें आम्हांसी। शुक्ल पक्ष भाद्रपद मासीं । चतुर्दशी परियेसा ।।४५।। आराधितां अनंतासी। त्वरित राज्य पावसी। पूर्वी कोणीं केलें म्हणसी। सांगेन ऐका तत्पर ।।४६।। असे पूर्वी कृतयुगेसी । सुमंतू नामें विप्र परियेसीं। उत्पन्न झाला वसिष्ठगोत्रासी । भृगुकन्या दीक्षा नामें ।।४७।। तेबि झाली सुमंतुची भार्या। पतिव्रता औदार्या। कन्या तिसी झाली सुतनया। नाम तिचे सुशीला ।।४८।। सुशीला कन्या सुमंतुधरी । नित्य भक्ति सदाचारी। करीतसे विचित्रपरी। सर्वमंगळ स्वरूपें ।।४९।। गृहशोभा करी बहुत । नानापत्रे तोरणें करीत । पंचवर्ण चूर्णयुक्त रंगमाळिकासहित देखा ।।५०।। स्वस्तिकादि शंख पद्म । चक्रगदादि उत्तम । नमस्कारादि मनोधर्म । देवतार्चन सोपस्कारी। बर्ततां ऐसें एके दिवशीं। विचित्र पडलें दैववशीं। सुमंतुपत्नी पंचत्वासी । पावती झाली तये वेळीं ।।५२।। सुमंतुसी भार्याहीनत्व झालें। समस्त कर्म राहिलें। पुनःसंधान' पाहिजे केलें । म्हणोनि नारी आणिक केली ।।५३।। तिचे नांव असे कर्कशी। दुःशीला' आचरणी परियेसीं। नित्य कलह करी चहुवसीं । कन्या पतीसवें देखा ॥५४।। सुशीला कन्या झाली उपवर। सुमंतु चिंती वारंवार। इशीं एखादा मिळतां वर । कन्यादान करीन म्हणे ।।५५।। ऐसें चिंतितां एके दिवशीं। तेथे आला कौंडिण्य ऋषी । विचारिता कन्येसी । सुमंतुनें अंगिकारिलें ।।५६।। कन्यादान गृह्योक्तंसी। देता झाला कौंडिण्यासी। मिळोनि होती दोन मासीं । आषाढ़ आणि श्रावण ।।५७।। माता करी कन्येसी वैर। सापत्नपणाचा हाचि प्रकार। कौंडिण्य पुसे सुमंता विचार । जाऊं आश्रमा आणिक ठायां ।।५८।। सुमंतु बहु दुःख करी। म्हणे स्त्री नव्हे माझा वैरी। कन्या जाईल आतां दूरी । कैची पापिणी वरिली मी ।।५९।। शांत पत्नी नाहीं ज्याचे परी। तयासी अरण्य नाहीं दूरी। ऐक स्वामी त्रिपुरारि । संसारसागरी बुडालों ।।६०।। न चाले माझें कर्म तापस। नायके हित बोले कर्कश। कन्या असतां संतोष । नित्यदर्शन जामाता ।।६१।। ऐसा सुमंतु चिंता करी। कौडिण्य ऋषि त्यासी वारी। दोघे तापसी एके घरी। असू नये धर्महानि ।।६२।। जाऊं आम्ही आणि स्थाना। तप करोनि अनुष्वाना। भेटी होईल पुनः पुनः। जवळीं करूं आश्रम ।।६३।। सुमंतु म्हणे कौंडिण्यास। आणिक रहावें बारा दिवस। सर्वसिद्धा त्रयोदशीस। प्रस्थान तुम्हीं करावें ।।६४।। सुमंतुची विनंती ऐकोन । आणिक राहिले तेरा दिन। सुमुहूर्त बरवा पाहून। येरे दिवशी निघाला ।। ६५।। सुमंतु म्हणे कर्कशेसी । कन्या जाईल पतिसरसी। भोजन घालावे जामातासी। ब्रीही' गोधूम' दे म्हणे ।।६६।। पति सांगतांची काय जहाले । धावत घरांत गमन केले। दृढ कवाड' लाविलें । पाषाण लावी द्वारवंटा' ।।६७।। कांहीं केलिया न उघडी द्वार । सुमंतु विनवी आफळी शिर। सुशीला कन्या घरी कर। म्हणजे जाऊं तैसींच ॥६८॥ पाहूं गेला स्वयंपाकघरा । होता कोंडा गोधूम खरा। देता झाला कन्यावरा। निरोप दिधला दोघांसी ।।६९।। दोघे बैसोनि रथावरी । निघालीं कौंडिण्य संतोष करी। माध्याह्नकाळीं नदीतीरीं। अनुष्ठानालागी उतरलें ।।७०।। ऋषि बैसला अनुष्ठाना। सुशीला होती तये स्थाना। तीरीं पाहतसे रम्य बना। स्रीसमुदाय बहु असे ।।७१।। रक्तांबर वर्सेसी । परिधान केलें बहुवसीं । व्रत म्हणती चतुर्दशी। करिती पूजा पृथक पृथक ॥७२।। पाहूनि सुशीला हळूहळू । गेली तया सुवासिनींजवळू । पुसती झाली वेल्हाळू। काय व्रत करितां तुम्ही ॥७३॥ खिया म्हणती सुशीलेसी ।अनंतव्रत आहे परियेसी । पूजितां होय तात्काळेंसी। सकळाभीष्टें पावती ॥७४।। सुशीला म्हणे नारीसी । कवण विधान सांगा मजसी । कृपा करोनि विस्तारेंसी। निरोपावें मजलागीं ॥७५।। समस्त नारी मिळोनि । सांगताती विस्तारोनि । ऐक सुशीले बैस म्हणोनि । व्रत आद्यंतेंसी निरोपिती ।।७६।। भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशीसी। व्रत करावें परियेसीं । सांगू तुज विस्तारेंसी। ऐक सुशीले म्हणताती ॥७७।। रक्तपट्टसूत्रेसी'। अनंत करावा परियेसीं । पेवोनि जावें नदीसी । स्नान करावें विधीनें ।।७८।। दिव्यांबर परिधानूनि । हळदीकुंकुम लावूनि । आणावे कलश नूतन दोनी । गंगा यमुना महणोनिया ।।७९।। उदक भरोनि तयांत। पंचपल्लव रत्नसहित। घालोनि पूजावें त्वरित। षोडशोपचारें करूनि ।।८०।। नाना प्रकारें आरती। कराव्या गंगायमुनांप्रती। मग पूजावा दर्भग्रंथी। शेषरूपें करोनिया ।।८१।। दोनी कलशांवरी देखा। नूतन वर्षे ठेवूनि निका। पद्म लिहूनि अष्टदलिका। कलशांरून ठेवावें ।।८२।। तया कलशांपुढे देखा। पंचवर्ण चूणें देखा। शंखपद्यादि अनेका। रंगमाळिका घालाव्या ।।८३।। शेष पूजावा दर्भाचा। षोडशोपचारी बरवा साचा। ध्यानीं ध्यास विष्णूचा। शेषशायी म्हणोनिया ।।८४।। सप्तफणी शेषासी। सदा विष्णु त्यापासीं । याचि कारणे नाम तयासी । अनंत ऐसें ध्यान करावें ।।८५।। पिंगलाक्ष चतुर्भुजेंसी। शंख पद्म सव्य करेसी। चक्र गदा वाम हस्तेसी। ऐसी मूर्ति त्वां ध्यावी ।।८६।। ओं नमो भगवते मंजेंसी। षोडशोपचारे दर्भग्रंथीसी। आणोनि नव्या दोरकासी'। ध्यान करावें मग तेथे ।।८७ ।। अनंतगुणरत्नाय मंत्रेसी। नव दोरक ठेवावे कलशांसी। पूजा करावी पुरुषसूक्तंसी। अतोदेवेति मंत्रसहित ।।८८।। षोडशोपचारें पूजोन। संसारेति मंत्र दक्षिण करी बांधोन। नमस्ते वासुदेव मंत्र करून । जीर्ण दोरक विसावे ।।८९।। दाता च विष्णुर्भगवान् म्हणत । वायन द्यावें गोधूम घृत। प्रस्थ गोधूमाचे सघृतः । फळासह वायन द्यावें ।।१०।। अपूपादि पायसेसी। सदक्षिणा तांबूलेंसी। अर्धे द्यावें ब्राह्मणासी । अर्थ आपण भक्षावें ।।११।। ऐसें चौदा वर्षे देखा। व्रत आचरावें विशेखा। उद्यापन' करावें निका। चतुर्दश कलश द्यावे ।।१२।। ब्राह्मणभोजन करोन । भक्तीनें करावें उद्यापन। कामना होईल संपूर्ण । चतुर्विध पुरुषार्थ ।।९३।। ऐसें सांगती सुशीलेसी। व्रत आचरावें त्वरितेंसी। आजचि असे चतुर्दशी। व्रत करी आम्हांसवें ।।९४।। समस्त नारी मिळोनि तिसी। तंतु देती अनंतासी। ग्रंथी बांधोनि चतुर्दशी। पूजा करविती आपणांसवें ॥९५।। कोंडा होता गोधूमाचा। आणोनि देतसे अर्थ साचा। वाण देऊनि सुवाचा। निरोप स्रियांचा घेतला ।।९६।। समस्त खियांसी बंदोनि बाळी। आली आपुले रथाजवळी। अनुष्ठान सारूनि ऋषि तये वेळीं । येता झाला झडकरी ॥९७।। चला म्हणोनि पुढें जाती। दोघे वैसूनिया रथीं। जाता पुढें देखती। अमरावती ऐसें नगर ।।९८।। नगरलोक सामोरे येती। चला स्वामी ऐसें म्हणती । तुम्ही वा नगरीचे अधिपति। तपोनिधि महाराजा ।।९९।। नाना समारंमें देखा। नगरी प्रवेशलीं दंपती ऐका। ऐश्वर्ये भोगिली बहुसुखा । श्रीमदनंतप्रसादें ।।१००।। ऐसे कितीएक दिवसावरी। होतां कौंडिण्य सहनारी'। बैसले असतां संतोष करीं। देखला झाला अनंता ।।१।। ऋषि पुसे खियेसी । काय बांधिलें हस्तासी। वशीकरण आम्हांसी। रक्त दोर बांधिला ।।२।। सुशीला बोले भ्रतारासी । अनंत दोरा परिवेसीं। याचिया प्रसादें तुम्हांसी। अष्टैश्वर्य प्राप्त झालें ।।३।। म्यां जे दिवशीं व्रत केलें । तेणेंकरोनि देव तुम्हां आलें। पहा दैवत प्रसन्न झालें। म्हणोनि बोले सुशीला ।।४।। ऐसें बचन ऐकोनि । ऋषि कोपला बहु मनीं । दोरक घेतला हिरोनि। अग्रीमध्ये टाकिला ।।५।। मग म्हणे कैचा अनंत। आपण केलें असे तप बहुत । तेणें करोनि ऐश्वर्य अद्भुत । प्राप्त झाले आम्हांसी ।।६।। वशीकरण केलें आम्हांसी। दोरा बांधूनि अनंत म्हणसी। रागें भरोनि कौंडिण्य तिसी। हिरोनि अर्शीत टाकिला ।।७।। हा हा सुशीला म्हणोनि । धावत गेली अप्रिस्थानीं । क्षीरांत घातला काहोनि। विझविती झाली दोरका ।।८।। अनंत टाकिला अग्रीसी। हानि झाली ऐश्वर्यासी । दरिद्री झाला परियेसीं । द्विजवर कौडिण्य तत्क्षणीं ।।९।। नगरी झाले सर्व शत्रु । गोधनादि आभरण वस्तु । समस्त नेते झाले तस्करू। दरिद्र झालें तात्काळ ।।११०।। गृह दग्ध झालें देखा। अवकृपा होतां रमानायका । उरलें नाहीं वरुख एका। सर्व गेलें तत्क्षणीं ।।११।। मग विचारी मानसीं। म्हणे अनंत रुसला आम्हांसी । वायां घातले अग्रीसी। मदांचें बेशिलों ।।१२।। आतां करीन नेम एक। जंव भेटेल लक्ष्मीनायक। श्रीमदनंत देखेन मुख । तंब अन्नोदक न घेई ।।१३।। म्हणोनि निर्वाण करोनि। निघता झाला घोर काननीं। भार्येसहित कौंडिण्य मुनि । निघता झाला परियेसा ।।१४।। हा हा अनंत अनंत म्हणत । शीघ्र जातसे अरण्यांत। तंव देखिला वृक्ष चूत । पुष्पों फळीं भरला असे ।।१५।। कीटकादि पक्षिजाति । कोणी त्यासी नातळती। कौडिण्य पुसे तयाप्रती। अनंतासी देखिलें कीं ।।१६।। वृक्ष म्हणे ब्राह्मणासी। दृष्टीं न पडेवि आम्हांसी। तुवां जरी देखिला अससी। तरी आम्हांसी सांगावें ।।१७।। ऐसें ऐकोनि पुढे जात। धेनु देखिली वत्सासहित। हिंडतसे तृणांत । तोंडी न ये भक्षावया ।।१८।। द्विज म्हणे धेनूसी। जरी तुवां अनंत देखिलासी। कृपा करोनि आम्हांसी। सांग म्हणे द्विजवर ।।१९।। नाहीं देखिलें अनंतासी । तुम्हां भेटला जरी तयासी। मजविषयों सांगा त्यासी। अवस्था ऐसी धेनु म्हणे ।।१२०।। ऐसे ऐकोनि द्विजवर । पुढे जाता देखिला वृषभ थोर । तयातें पुसे मुनीचर। तुवां अनंतातें देखिलें कीं ।।२१।। वृषभ म्हणे तयासी। नेणों आम्ही अनंतासी । जरी तुम्हीं देखिला त्यासी। आम्हांविषयी विनवावें ।।२२।। पुढे जातां देखे कौंडिण्य। सरोवरें दोन रम्य । उदक मिळालें अन्योन्य। हंसादि पक्षी न सेविती ।।२३।। कमळ कुमुदादि पुष्पेंसी। मिरविती सरोवरें ऐसी । द्विज पुसे तवांसी। अनंतातें देखिलें कीं ।।२४।। सरोवरें म्हणती तयासी। नेणों कैचा अनंतासी। भेटी होईल जरी तुम्हांसी । आम्हांविषयीं सांगावें ।।२५।। पुढे जातां द्विजवर। देखिले गर्दभ कुंजर। पुसतसे तयां विचार। ते न बोलती तयासी ।।२६।। निर्वाण झाला तो ब्राह्मण। त्यजू पाहे आपुला प्राण। अनंत अनंत म्हणोन। धरणीवरी पडियेला ।। २७।। इतुकिया अवसरी । वृद्ध ब्राह्मण वेषधारी। जवळ येवोनि हांक मारी। उठीं उठीं म्हणतसे ।।२८।। ऊठ विप्रा काय पुससी । श्रीमदनंत कोठे असें विचारिसी। दाखवीन चल आम्हांसरसी'। म्हणोनि धरिलें उजवें करी ।।२९।। उठवूनिया कौडिण्यासी। घेऊनि आई गव्हरासी। नगरी पाहे अपूर्व तैसी। महदाक्षर्य पाहतसे ।।१३०।। घेऊनि गेला नगरांत । सिंहासन रत्नखचित। नेऊनि तेथे बैसवित। आपण दाखवी निजस्वरूप ।।३१।। रूप देखोनि कौंडिण्य । स्तोत्र करी अतिगहन। चरणावरी माथा ठेवून। कर जोडुनी विनवीतसे ।।३२।। नमो नमस्ते गोविंदा । श्रीवत्सला सच्चिदानंदा । तुझे स्मरणमात्रे दुःखमदा। हरोनि जातीं सर्व पापें ।।३३।। तूं वरेण्य यज्ञपुरुष। ब्रह्मा विष्णु महेश । तुझे दर्शनमात्रे समस्त दोष। हरोनि जातीं तात्काळीं ।। ३४।। नमो नमस्ते वैकुंठवासी। नारायण लक्ष्मीनिवासी । जगद्व्यापी प्रतिपाळिसी। अनंतकोटि ब्रह्मांडें ।। ३५।। पापी आपम पापकर्मी। नेणों तुझी भक्ति धमाँ। पापात्मा पापसंभव अधर्मी । क्षमा करी गा देवराया ।।३६।। तुजबांचोनि आपण । अनाथ असें दीन। याचि कारणें धरिले वरण। शरणागत मी तुम्हांसी ।। ३७।। आजि माझा जन्म सफळ । धन्य माझें जिणें सकळ । तुझें देखिले बरणकमळ । भ्रमर होयोनि वास घेतो ।।३८।। ऐसें स्तवितां कौंडिण्य। प्रसन्न झाला लक्ष्मीरमण। भक्तजन चिंतामणिरत्न । वरत्रय देता झाला ।।३९।। धर्मबुद्धि दारिद्र्धनाश। शाश्वत वैकुंठनिवास। वरत्रय देत हृषीकेश। ऐक युधिष्ठिरा कृष्ण म्हणे ।।१४०।। पुनरपि द्वज विनवी देख। म्यां देखिले आश्चर्य एक। अरण्यांत वृक्ष एक। महाफलित आम्न देखिला ।।४१।। त्याची फळें पक्षिजाती। कोणी प्राणी नातळती। पुढे येतां मागुती। देखिली घेनु सवत्सका ।।४२।। तृण तेथे असे प्रबळ । परी तिचे तोंडा नये कवळ । आणिक देखिलीं निर्मळ । सरोवरें दोनी तेथें ।॥४३॥ अन्योन्यें एकमेकां । मिसळती तेथे दोन्ही उदका। पुढे पाहिलें अपूर्व ऐका। वृषभ एक महाथोर ।।४४।। त्याचे मुखा नये ग्रास । सर्वकाळीं उपवास । पुढें देखिला सुरस। कुंजर एक मदोन्मत्त ।।४५।। सर्वोचि देखिले गर्दभासी। ऐका स्वामी मार्गेसी । हिंडतसे बनासी । देखिला वृद्ध ब्राह्मण ।।४६।। न कळे याचा अभिप्राय। विस्तारोनि मज सांगा भाव ।जगन्नाथा केशव । म्हणोनि चरणी लागला ।।४७।। कृपानिधि नारायण। सांगतसे विस्तारोन। ऐकतसे भक्त कौंडिण्य । वृक्ष तुवां जो देखिला ।।४८।। पूर्वी होता द्विजवर । तयासी येती वेदशास्त्र। उन्मत्तपणें गर्वे थोर । शिष्यवर्गा न सांगेची ।।४९।। तेणें पायें वृक्ष झाला। तुवां देखिलें घेनुवत्साला। पूर्वी होती भूमि निष्फला'। दिली होती ब्राह्मणासी ।।५०।। देखिला तुवां वृषभ एक। पूर्वी विप्र महाधनिक। केलें नाहीं दानादिक। तेणें पायें ऐशी गति ।।५१।। सरोवरें तुवां दोनी। म्हणसी देखिली नयनीं। पूर्वी होत्या दोघी बहिणी। घेतलें दान आपआपणांत ।।५२।। खर म्हणजे तुझा क्रोध । कुंजर तो तुझा मद। जहालें मन तुझे शुद्ध। भेटलों ब्राह्मण आपणची ॥५३।। जें जें तुवां देखिलें। त्या त्या समस्तांतें मुक्त केलें । अखिल ऐश्वर्य भोगी वहिलें। अंतीं जाय स्वर्गासी ॥५४॥ तुवां करावा तेथे वासू । नक्षत्रांमाजी पुनर्वसू । ऐसा वर देतां हर्ष। जाहला ताय कौंडिण्या ।। ५५।। ऐसा वर लाधोनि। राज्य केलें बहुदिनी। अंतीं गेला स्वर्गभुवनों । ऐक राया युधिष्ठिरा ।।५६।। ऐसी कथा धर्मासी। सांगता झाला हृषीकेशी। आचरिलें भक्तींसी । अनंतव्रत तये वेळीं ।।५७।। युधिष्ठिर दंपत्येंसीं । व्रत आचारिला भक्तींसी। श्रीमदनंतप्रसादें त्वरितेंसी। पांडव राज्य पावलें ।।५८।। आणिक हेचि भूमिवरी। व्रत केले ऋषिश्वरी। आचरावें नरनारी। लाधे चारी पुरुषार्थ ।।५९।। व्रतांमध्यें उत्तम व्रत । प्रख्यात असे अनंत। तुवां आचरावें सतत । द्यावे तुझे ज्येष्ठ सुतासी ।।१६०।। व्रत कौंडिण्य आचरला । अखिल सौख्य लाधला । आचरावे या व्रताला। अनंत पुण्यफल असे ।। ६१।। अनंतव्रत महापुण्यें । आमुचे निरोपें करणें । व्रत करा एकभावपणें । एकभक्ति करोनिया ।।६२।। ऐसें गुरुनिरोपेंसी। व्रत केलें संतोषी । पूजा केली श्रीगुरुसी । नानापरी अवधारा ।।६३।। नीरांजन बहुवसीं । गीतवाद्यनृत्येंसी। पूजा करिती श्रीगुरुसी ॥ भक्तिभावेंकरूनिया ।।६४।। समाराधना ब्राह्मणांसी। भोजन करविलें श्रीगुरुसी। आनंद झाला बहुवसीं । श्रीगुरुमूर्ति संतोषे ।।६५।। येणेंपरी श्रीगुरुसी। आराधोनि संतोषी। गेला आपुले ग्रामासी। ऐक शिष्या एकचित्तें ।।६६।। विप्र जो का सायंदेव । कलत्रपुत्र पाठवी ठाव । मागुती आला असे भाव। श्रीगुरुचरणसेवेसी ।। ६७।। राहोनिया श्रीगुरुपासीं । सेवा केली बहुवसीं। ऐसे तुझे पूर्वजासी। प्रसन्न झाले श्रीगुरु ।।६८।। सिद्ध म्हणे शिष्यासी। येणेंपरी तुम्हांसी। निधान लाघलें परियेसी । श्रीनृसिंहसरस्वती ।।६९।। म्हणोनि सरस्वतीगंगाधर। सांगे गुरुचरित्रविस्तार । ऐकतां होय मनोहर । लाघे चारी पुरुषार्थ ।।१७०।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । अनंतव्रताकथा विख्यात । नामधारका सांगत । त्रिचत्वारिंशोऽध्याय हा ।।१७१।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४३॥
ओवीसंख्या १७१
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः। नामधारक म्हणे सिद्धासी । पुढें चरित्र झालों कैसीं। विस्तारावें आम्हांसी। कृपा करी गा दातारा ।।१।। समस्त भक्त सेवा करिती। समस्त भक्त सेवा करिती। त्यांत एक विणकर तंती'। अत्यंत करीतसे भक्ती । नित्य येवोनि नमस्कारी ।।२।। तीन प्रहर संसारयात्रा। करोनि येतसे पवित्रा। राजांगण झाडी विचित्रा । नमस्कारी दुरोनी ।।३।। ऐसे कित्येक दिवस क्रमिले। शिवरात्रीचे व्रत आलें। समस्त यात्रेसीं निघाले। मातापिता तंतुकाचे ।।४।। त्यासी बोलाविती यात्रेसी। तो म्हणतसे तयांसी। तुम्ही मूर्ख असा पिसीं। माझा श्रीपर्वत येथेंचि असे ।।५।। श्रीगुरू माझा मल्लिकार्जुन। पर्वत म्हणजे श्रीगुरुभुवन। आपण न येचि येथूनि। चरण सोडोनि श्रीगुरुचे ।।६।। समस्त लोक त्यासी हासती। पिसें लागलें यासी म्हणती। चला जाऊं म्हणोनि निघती । भ्राता माता पिता त्याचे ।।७।। नरलोक समस्त गेला। आपण एकला राहिला। श्रीगुरुचे मठासी आला। दर्शनालागी परियेसा ।।८।। श्रीगुरु म्हणती तयासी। कां गा यात्रेसी न जासी। तंतुक म्हणे स्वामीसी। माझी यात्रा तुमचे चरण ।।९।। नाना तीर्थे यात्रा देखा । तुमचे चरणी असती ऐका। वायां जाती मूर्ख देखा। पाषाणदर्शन करावया ।।१०।। ऐसे म्हणोनि तंतुक । नमस्कारी नित्य देख। पावली शिवरात्र ऐक। माघ वद्य चतुर्दशी ।।११।। श्रीगुरु होते संगमासी। दोन प्रहर होठां परियेसीं। आपण गेला स्नानासी। उपवास असे शिवरात्रीचा ।।१२।। संगमीं स्नान करोनि । श्रीगुरुतें नमस्कारोनि । उभा ठेला कर जोडोनि। भक्तिपूर्वक एकभावें ।।१३।। श्रीगुरू म्हणती तयासी । तुझे समस्त गेले यात्रेसी । तूं एकलाचि राहिलासी। पहासी विनोद' श्रीपर्वताचा ।।१४।। पुसिलें कधीं आहे देखिलासी । म्हण स्वामी नेणें कैसी। तुमचे चरण आम्हांसी। पर्वतवात्रा सदा असती ।।१५।। त्याचा भाव पाहोनि । जवळ बोलाविती श्रीगुरुमुनि । बैस म्हणती कृपा करोनि। तुज दाखवू श्रीपर्वत ।।१६।। नयन झाकोनि पादुकेसी । दृढ घरीं गा वेगेसी। ऐसें म्हणोनि तयासी। मनोवेगें घेवोनि गेले ।।१७।। क्षण न लागतां श्रीगिरीसी। घेऊनि गेले भक्तासी। तीरी बैसले पाताळगंगेसी। नयन उघडी म्हणती श्रीगुरु ।।१८।। क्षण एक त्यासी निद्रावस्था । म्हणतां झाला जागृता । अवलोकितां दिसे पर्वता। स्वप्न किंवा सत्य म्हणे ।।१९।। श्रीगुरू निरोपिती तयासी। कां गा भ्रांतपणे पाहसी। वेगीं जाई दर्शनासी। स्नाना कौर करोनिया ।।२०।। श्रीगुरू निरोप देतां । शीघ्र गेला स्नानाकरितां। तेथे देखिले माता पिता। भ्राता ग्रामलोक संकळ ।।२१।। ते पुसती तयासी। तूं कवणें मार्गे आलासी। आमची भेट कां गा न घेसी। लपून येणे कोण धर्म ।।२२।। विनवीतसे मातापितयांसी। आम्ही निघालों आजि दोन प्रहरेंसी। एक घटिका लागली वाटेसी । आतां आलों गुरुसमागमें ।।२३।। एक हासती मिथ्या म्हणत । आम्हांसवेंचि आला लपत। ऐसें बडिवारें बोलत । लब्धप्रतिष्ठ म्हणतात ।।२४।। तो कोणासवें न बोले। शीघ्र स्नान क्षौर केले। पुष्पें अक्षता बिल्वदलें। घेऊनि गेला पूजेसी ।।२५।। पूजा करितां लिंगस्थानों। तेथे देखिले श्रीगुरुमुनि। मनीं विस्मय करोनि। पूजा केली मनोभावें ।।२६।। समस्त लोक पूजा करिती। श्रीगुरू सर्व पूजा घेती। तंतुकार म्हणतसे चित्तीं। श्रीगुरुमूर्तिच आपण शंकर ।।२७।। ऐसा निर्धार करोनि । पाविजे प्रसाद खूण म्हणोनि। मग तो आला गुरुसन्निधानी'। एकचित्तें परियेसा ।।२८।। श्रीगुरू पुसती तयासी । आतां राहसी किंवा जासी। तंतुक विनवी स्वामीयासि। एक देखिलें नवल आजी ।।२९।। समस्त लोक जाऊनि । देवलयाभीतरी बैसोनि । पूजी करिती तुमचे चरणीं। लिंग न देखें तुम्हीच तेथें ।। ३० ।। श्रीगुरू जवळी असता । इतुके दुरी कां कष्ट करितां। लोक येताति बहुता। काय कारण स्थानासी ।।३१।। तूं तरी केवळ परमेश्वर । दिसतोसि आम्हां नर। न कळे तुझा महिमा अपार। गौप्यरूपी गुरुनाथा ।।३२।। सर्व जन मूढ होऊनी। नेणती तुझा महिमा कोणी । कां हो येती या स्थानीं। विस्तारोनि सांगा मज ।।३३।। श्रीगुरू म्हणती ऐक भक्ता । सर्वत्र ईश्वरपूर्णता । स्थानमहिमा असे पूज्यता। जे अपार त्रिभुवनीं ।॥ ३४।। तंतुक म्हणे स्वामिवासी। तूं पूर्ण ब्रह्म होसी । हा स्थानमहिमा वानिसी। विस्तारोनि सांगा आम्हा ।। ३५।। श्रीगुरू निरोपिती भक्तासी। येथील महिमा पुससी। सांगेन ऐक विस्तारेंसी। स्कंदपुराणी असे कथा ।।३६।। माघ वद्य चतुर्दशी। अपार महिमा पर्वतासी । सांगेन ऐक विस्तारेंसी । म्हणोनि श्रीगुरू सांगतसे ।।३७।। पूर्वी विख्यात किरातदेशीं। विमर्षण राजा परियेसीं। शूर असे पराक्रमेसी । समस्त शत्रु जिकिले तेणें ॥३८।। आणिक त्या एक बुद्धि असे। पारधी करी बहुवसे। बलावध असे विशेष । चंचळ सकळ खीरत ।। ३९।। सर्वमांस भक्षण करी। ग्राह्य अग्राह्य' न विचारी। ऐसा वर्ते दुराचारी । ईश्वर पूजी भक्तिभावें ।।४०।। नित्य पूजा करी अपार। शिवरात्र आलिया हर्षनिर्भर'। गीत नृत्य वामपरिकर। भक्तिपूर्वक करी पूजा ।।४१।। आचार तरी बरवा नसे। शिवपूजा करी बहुवसे। पत्नी एक त्यासी असे। सुलक्षण नाम कुमुद्धती ॥४२।। सुशील सुगुणी पतिव्रता । मनीं करी बहु चिंता। पुरुष आपुला परदारता । ईधरभक्ति करीतसे ॥४३॥ ऐसें क्रमितां एक दिवसीं। पुसों लागली श्री भ्रतारासी। म्हणे प्राणेश्वरा परियेसीं। विनंती माझी एक असे ।।४४।। क्षमा करावे माझे बोल । विस्तारोनि सांगा सकळ । तूं दुराचारी भक्षिसी सकळ । परद्वार निरंतर ॥४५॥ तुज ईश्वरावरी। भक्ति उपजली कवणेंपरी । सांगावे मज विस्तारी । कोप न घरी प्राणनाथा ॥४६॥ राजा म्हणे स्रियेसी । बरवें पुसिले आम्हांसी। ज्ञान झालें आतां मानसीं । पूर्व जन्म माझें सगिन ।।४७।। पूर्वी धनगरा घरी आपण। चानयोनीं जन्मोन। होती तेथे काळ क्रमोन । शिवरात्री आली एक दिवशीं ॥४८।। त्या नगरी होतें शिवालय। समस्त लोक आले पूजावया। आपण हिंडत गेलों तया ठायां । भक्षण कांहीं मिळेल म्हणोनि ।।४९।। उत्साहें लोक पूजा करिती। नाना वाचें वाजविती। गर्भगृहीं प्रदक्षिणा करिती। धरोनि आरती ही सकळिक ।।५०।। आपण गेलों द्वारांत। विनोद पाहीन म्हणत । मज देखोनि आले घावत । काष्ठ पाषाण घेवोनि ।॥५१॥ आपण पौळीमध्ये होतों पळत । द्वार घातलें' मारू म्हणतां । घरा घरा मारा त्वरितां । मारू लागले पाषाणी ॥५२।। वाट नाहीं बाहेर जावयासी। सांभाळीतसें जीवासी । पळतसें देवालयासी। मार्ग नाहीं कोठें देखा ।।५३।। बाहेर जाईन म्हणत । द्वाराकडे मागुती येत। सर्व लोक पाठीं लागत। सव्य प्रदक्षिणा करीतसें ।॥५४।। लपावया ठाव नाहीं। वेष्ठिलों पौळी न दिसे कांहीं। पाठी लागले सकळिकही। मागुती पळतसें तैसाचि ।।५५।। उच्छिष्ट मिळेल म्हणोनि । देऊळांत गेलों भामिनी। काकुळती बहु मनीं। प्राण वांचवीन म्हणतसे ।।५६।। ऐसा तीन वेळां पळालों। मारतील म्हणोनि भ्यालों। अंतर्गृहीं रिघालों। पूजा देखिली शिवाची ।।५७।। द्वार धरोनि समस्त लोक। शखें मारिती मज अनेक। ओढोनि टाकिती सकळिक। शिवालयाबाहेरी ।।५८।। मज पुण्य घडलें प्रदक्षिणीं । पूजा देखिली नयनीं। तेणें पुण्यें राजा होउनी। जन्मलों ऐक प्राणेवरी ।। ५९।। शिवरात्री होती ते दिवशीं । न मिळे उच्छिष्ट भुक्तीसी। प्राण त्यजिला उपवासी। तेणें पुण्य मज घडलें ।।६०।। आणिक घडलें पुण्य एक । दीपमाळीस उजळले दीपक। ते म्यां डोळां देखिले अनेक । प्राण त्यंजिला शिवद्वारीं ।।६१।। तेणें पुण्यें झालें ज्ञान । ऐक शिवरात्रीचे महिमान। म्हणसी दुराचारी आपण त्याचा संदेह सांगेन ।।६२।। पूर्वजन्मी झालों चान। त्या स्वभावे सर्वभक्षण। सर्वां ठायीं जाय मन। तोचि स्वभाव मज असे ।।६३।। ऐसे स्रियेसी सांगितलें । पुन्हा तिणें विचारिलें। म्हणे स्वामी जें सांगितलें। आपुलें जन्म पुरातन ।।६४।। तूं अससी सर्वज्ञानी । माझा जन्म सांगा विस्तारोनि। म्हणोनि लागतसे चरणीं । कृपा करी गा प्राणेचरा ।।६५।। ऐके वधू ज्ञानसती । तुझा पूर्व जन्म कपोती। करीत होतीस उदपूर्ती। एके दिवसीं अवधारी ।।६६।। पडला होता मांसगोळा । तो तुवां चोंचीं धरियेला। उडत होतीस आकाशमंडळा। तें देखिलें घारीनें ।॥६७।। कवळ घेईन म्हणोनि । घार आली घावोनि । तूं गेलीस पळोनि। महाअरण्य क्रमित ऐका ।।६८।। पाठीं लागली ते घारी । मार्गे पुढे न विचारी । तूं पळत बनांतरों। श्रीगिरिपर्वतावरी गेलीस ।।६९।। सर्वेचि आली ते घारी। तूं गेलीस देवालयावरी । भोंवों लागलीस प्रदक्षिणाकारी। श्रम पावलीस तये वेळां ।।७०।। दुरोनि आलीस घावंत । प्राण होता कंठगत । श्रमोनि तूं शिखरी बैसत। घारीनें येऊनि मारिलें चोंचीं ।।७१।। घेऊनि गेली मांसगोळा । तुझा देह पंचत्व पावला । प्रदक्षिणा पुण्यफला। झालीस वो राजपत्नी ।।७२।। इतुकिया अवसरी। पुनः पतीस प्रश्न करी। आतां तुझे निरोपावरी। ईखरपूजा करीन ।।७३।। पुढें माझें काय होईल । तुम्हीं कवणें स्थाना असाल। तें भविष्य सांगा सकळ। प्राणप्रिया राजेंद्रा ।। ७४।। राजा सांगे सतीसी। पुढील जन्म मज पुससी। आपण राजा सिंधुदेशीं । जन्म पावेन अवधारी ।।७५।। माझी भार्या तूंचि होसी। जन्म होईल सूंजयदेशी। तेथील राजा पवित्रवंशी । त्याची कन्या होशील ।।७६।। तिसरा जन्म आपणासी। राजा होईन सौराष्ट्रदेशीं। तू उपजशील कलिंगराजवंशीं। माझी पत्नी होशील ।।७७।। चवथा जन्म आपणासी। राजा होईन गांधार देशीं । तूं उपजशील माधवकुळेसी। तैं माझी होशील प्राणेश्वरी ।।७८ ।। पांचवा जन्म आपणासी। राजा होईन अवंतिदेशीं। तू दाशहराजकुळीं जन्मसी। माझी भार्या होशील तूं ।।७९।। सहावा जन्म आपणासी। अनंत नाम राजा परियेसीं। ययातिराजकन्या होसी । तें माझि तूंचि प्राणेश्वरी ।।८०।। सातवा जन्म आपणासी। राजा होईन पांड्यदेशीं । रूप लावण्य मजसरसी। न देखे कवण संसारी ।।८१।। ज्ञानी सर्वगुणी होईन। सूर्यकांति चंदन । जैसा रूपें असे मदन। नाम माझें पद्मवर्ण ।।८२।। तूं जन्मशील वैदर्भकुळीं। रूपें सौंदर्ये आगळी। जैसी सुवर्णाची पुतळी । अतिलावण्य मुख सुरस ।॥८३॥ सुमती असे नाम पावसी। तुज वरीन मी स्वयंवरेंती। दमयंती नळा जैसी । स्वयंवर होईल तुज मज ।।८४।। राज्य करीन बहुत दिवसीं। यज्ञ करीन सहसेसी। जिंकीन समस्त देशांसी। मंत्रशास्र शिकेन बहुत ।।८५।। देवद्विजार्चन' करीन। नाना अग्रहारें दान देईन। ऐसें वार्धक्य पावोन। राज्यी स्थापीन पुत्रासी ।।८६।। मग आश्रम घेईन । अगस्त्यऋषिपासीं जाईन । ब्रह्मज्ञान शिकेन। अंती होईल मोक्षप्राप्ति ।।८७।। देहावसान समय येतां । तुज घेईन सांगातां। दिव्य विमानीं बैसोनि तत्त्वतां। स्वर्गाप्रती जाऊं मग ।।८८।। ईश्वर-पूजेचा महिमा। शिवरात्री व्रत उत्तमा। श्रीशैल्यपर्वताचा महिमा। विशेष पुण्य कोण वर्षी ।।८९।। यापरी सांगोनि खियेतें । आतां पाहूं श्रीशैल्यपर्वतातें। म्हणोनि राजा घेउनी खीतें। यात्रा करी शिवरात्री ।।१०।। श्रीगुरू म्हणती तंतुकासी। शिवरात्री महिमा आहे ऐसी। ऐसा तो राजा राणी परियेसीं । सप्तजन्मीं राज्य पावली ।।९१।। अंती पावला स्वर्गलोक। पर्वतमहिमा चापरी ऐक। तुज जाहलें गुरुमुख । ईश्चरा पूजा करी गा बरवी ।।१२।। गाणगाग्रामी भीमातीर। तेथे असे कल्लेश्वर। पूजा करी निरंतर। मल्लिकार्जुनासमान ।।९३।। मग संगमेश्वर संगमेसी। पूजा करी अहर्निशीं । मल्लिकार्जुन तोचि परियेसीं। न धरी संदेह मनांत ।।९४।। तंतुक म्हणे स्वामियासी। किमर्थ मातें चाळविसी। पूजायासि गेलों मल्लिकार्जुनासी। लिंगस्थानी तुम्हां देखिलें ।।९५।। सर्वा ठायीं तूंचि एक। झाला अससी व्यापक । कलेश्वर संगम नामक । हैं काय सांगसी मजपुढें ।।९६।। ऐकोनि श्रीगुरू हासती। मग पादुका घरी म्हणती। नयन तयाचे झाकिती। संगमा आले तात्काळी ।।९७।। इतुकिया अवसरी। मार्गे भक्त गाणगापुरी। श्रीगुरू पाहती गंगातीरीं। कोठे गेले म्हणोनि ।।९८।। एक म्हणती संगमीं होते । एक म्हणती नाहींत तेथे। कोठे गेले पहा म्हणत। चुकर होती भक्तजन ।।९९।। श्रीगुरू आले संगमासीं। तंतुका पाठविलें मठासी। बोलावया शिष्यांसी। आपण राहिले संगमर्मी ।।१००।। तंतुक आला गांवांत। लोक समस्त पहात । कां रे क्षौर केलें म्हणत । श्रीपर्वतासी गेलों होतों ।।१।। दवणा प्रसाद विभूति। नानापरींचे हार दाविती। लोक बिस्मय' मनीं करिती। म्हणती दोन प्रहरी घरी होतां ।।२।। एक म्हणती सत्य मिथ्या। त्यासी म्हणती सांग सत्या। तंतुक म्हणें सर्वे' गुरुनाथा। गेलो होतों वायुवेगें ।।३।। श्रीगुरू आले संगमासी । मज पाठविलें मठासी । बोलाविलें शिष्यांसी। राहूं म्हणती आजि संगमी ।।४।। एक म्हणती होईल सत्य। मूर्ख म्हणती नव्हे मिध्य । तंतुक गेला त्वरित । शिष्यवर्गों जाणविलें ।।५।। सांगितला सर्व वृत्तान्त। समस्त गेले संगमा त्वरित । पूजा झाली संगमी बहुत । सिद्ध म्हणे नामधारका ।।६।। मिथ्या म्हणती जे जे लोक त्यांसी होईल महापातक । पंधरा दिवसीं यात्रिक। लोक आले ग्रामासी ।।७।। मग पुसती तयांसी। तींहीं सांगतां भरंवसीं। आनंद झाला भक्तांसी। म्हणे सरस्वतीगंगाधर ।।८।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। तें मी सांगतसें परियेसीं। श्रीगुरुमहिमा अपारेसी। अमृत सेवितां निरंतर ।।९।। यापरी सरस्वतीगंगाधर। सांगे श्रीगुरुचरित्रविस्तार। भावें ऐके जो नर। अमृत निरंतर सेवितसे ।।१०।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत। कथा वर्णिली अद्भुत । सिद्ध नामधारका सांगत। श्रीशैल्यगमनमहिमाऽध्याय हा ।।१११।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४४॥
ओवीसंख्या १११
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक म्हणे सिद्धासी। श्रीगुरुचरित्र देखिलें दृष्टींसी। तुमचे भाग्य बहुवसीं। परब्रह्म देखिलें असे ।।१।। तुमचेनि प्रसादेसी। अमृतपान झालें आम्हांसी। आतां कट आम्हां कासयासी । सकळाभीष्ट लाधलों ॥२॥ तू भेटलासी मज तारक । दैन्य गेलें सकळिक। सर्वाभिष्ट लाधलें सुख। गुरुचरित्र ऐकतां ।।३।। मार्गे कथानक सांगितलें। श्रीगुरू संगमी राहिले। पुढें काय बर्तलें । ते सांगावें दातारा ।।४।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी । ऐक वत्सा विस्तारेंसी । चिचित्र झाले येरे दिवसीं । एकचित्तें परियेसा ।।५।। नंदिनामा एक ब्राह्मण। सर्वांगी चेत' कुष्ठ' जाण । अंबा तुळजापुरा जाऊन । वर्षे तीन आराधिली ।।६।। संवत्सर तीन उपवास। द्विज कष्टला बहुवस । निरोप झाला स्वप्नी त्यास । जाय चंदलापरमेश्वरीसी ।।७।। जगदंबेचा निरोप घेउनी। आला चंदलापरमेश्वरीस्थानीं । मास सात पुरश्चरणीं । पुनरपि केले उपवास ।।८।। नानापरी कष्टत । स्वप्न झालें अवचित । तुवां जावें त्वरित । गाणगापुर ग्रामासी ।।९।। तेथे असे श्रीसदुरु। त्रयमूर्तीचा अवातरु। वेष धरिला असे नरु। तेथे होसी उत्तमांगी ।।१०।। ऐसे देवीनें निरोपिले। विप्र म्हणे भले झालें। सहा मास कां कष्टविलें। जरी तुझे हातीं नोहेचि ।।११।। जगन्माता तुळजा भवानी। तिचा निरोप घेऊनी। आलों तुजपाशीं ठाकोनि'। तूं दैवत म्हणोनिया ।।१२।। देवपण ठाऊके झालें । आम्हांसी निरोप दिधले। मनुष्यापासीं जा म्हणितले। तुझेनि नोहे काहींच ।।१३।। विश्वासे पातलों तुजपासीं । तूं मनुष्यासत्रिध घाडिसी। सीमा झाली देवपणासी। भाग्य माझे म्हणतसे ।।१४।। मनुष्यापासीं जा म्हणावयासी । लाज न ये तुम्हां कैसी। वळखिलें म्यां देवपणासी। उपवासी सात महिने ।।१५।। पहिलेच जरी निरोप देत । इतुके कष्ट कासया होत। दुराशा धरिली चित्त। परमेखरी म्हणोनि ।।१६।। ऐसें अनेक प्रकारें कष्टोन । दुःख करितसे ब्राह्मण । मागुती पुरश्चरण'। करीन म्हणे तो द्विज ।।१७।। म्हणे मज बरवें होणे। अथवा आपुला प्राण देणें। ऐसें बोलोनि निर्वाणें। विप्र धरणें बैसला ।।१८।। पुनरपि स्वप्न तयासी। तैसेचि होय परिवेसीं । आणिक समस्त भोपियांसी। तेणेंचि परी निरोप होय ।।१९।। समस्त भोपी म्हणती तयासी। आजि स्वप्न झालें आम्हांसी। छळ न करी गा देवीसी। निरोपासरसा जाय वेगें ।।२०।। तूं जरी आतां न जासी। आम्हां आज्ञा झाली ऐसी । बाहेर घालवू तुजसी । देवलवांत येऊ न देऊं ।।२१।। इतुकें झालियावरी। पारणें केलें द्विजवरी। पूजा करोनि नानापरी । निरोप घेऊनि निघाला ।।२२।। गाणगाग्रामासी आला। मठांत पुसू लागला। भक्तजन सांगती त्याला। संगमर्मी आहेती श्रीगुरू ।।२३।। भक्त म्हणती तयासी। श्रीगुरु येतील पारणेसी। काल शिवरात्री उपवासी। आतां येतील परियेसीं ।।२४।। इतुकिया अवसरी। श्रीगुरू आले साक्षात्कारी। ग्रामलोक द्विजातें बारी'। दूर राहे संमुख ।।२५।। श्रीगुरू आले मठांत। द्विज उभा होता तेथ। भक्तजन सांगती मात' । विप्र एक आला असे ।।२६।। सर्वांगी कुष्ठ असे श्वेत। स्वामिदर्शना आलों म्हणत । श्रीगुरु म्हणती आपण जाणत । संदेहरूपे आला असे ।।२७।। म्हणती बोलवा मठांत। भक्त गेला धांवत। तया द्विजाते पाचारित आला विप्र आंगणी ॥२८।। दुरोनि देखिलें श्रीगुरुसी। नमस्कार करीत लोळे भूमीसी। श्रीगुरू म्हणती तयासी। संदेहरूपे आलासी कां ।।२९।। देवीपासीं कां न गेलासी । मनुष्यापासीं येणें कायसीं। संदेह घरितां मानसीं। काय होय कार्यसिद्धि ।।३०।। ऐसे वचन ऐकोनि। साक्ष आली आपुले मनीं । क्षमा करणें स्वामी म्हणोनि । लोटांगणी येतसे ॥३१॥ म्हणे स्वामी आपण तमांध । स्वामीचे दर्शन झालों शुद्ध। अज्ञानें वेष्टिलों मतिमंद। नेणें सोय पखीं ।।३२।। तूं साक्षात वस्तु म्हणोनि। नेणों आपण तमोगुणी। आजि दिवस माझा सुदिनी। दर्शनं झालों पुनीत ॥३३॥ पापकर्मे पापी आपण। पापात्मा नेणें खूण। पार्षे संभवलों निर्गुण। शरण आलों तुजपासीं ।। ३४।। तूं भक्तजनांचा आधार । शरणागता वज्रपंजर' । ब्रीद वानिता सचराचर । हे नृसिंहसरस्वती ।।३५।। आजि माझें कर्म गेलें। परब्रह्म डोळां देखिलें। मनोरथ माझे पुरले । कृपासागर यतिराया ।। ३६।। तूं भक्तजनकामधेनु । मनुष्यदेहीं अवतरोनु। तुझा पार जाणे कवणु। त्रैमूर्ति तूंचि होसी ।।३७।। जैशी सगरांकारणें गंगा। पावन कराक्या आली जगा। तैसें भक्तसेवकवर्गा। ताराक्या अवतरलासी ।। ३८ ।। कां अहिल्या झाली पाषाण । दिव्यदेहीं झाली लागतां चरण। तैसा मी आजि देखोनि दीन। केलें तुवां गुरुनाथा ।।३९।। व्रतबंध विवाह झालियावरी। उद्भवली व्यापि आपुले शरीरी। श्री राहिली माहेरी। स्पशू नये शरीर म्हणे ॥४०।। आपुले असती मातापिता। सकळ म्हणती जाई परता। दुःख झाले अपरिमिता । संसार त्यजूनि निघालों ॥४१।। गेलो होतों तुळजापुरीं। उपवासों कष्टलों अपारी। मज म्हणती तूं पापी भारी। न होय चरखें तुज आतां ।।४२।। निरोपा तुळजादेवी प्रीतीं। जेथे चंदलापरमेश्वरी वसती। तेथे होय पापनिवृत्ति। जाईल रोग म्हणोनिया ।।४३।। तेथे कष्ट केले बहुत। न होयचि काय देवी उबगत'। निरोप झाला जा म्हणत। कृपामूर्ति तुजपासीं ।॥४४॥ ऐसे माझे देव हीन। उबगताती देव आपण। मज देखोनि निर्वाण। बाहेर घाला म्हणताती ।।४५।। देव मातें उबगताती। मनुष्य कैसे मज देखती। निर्वाणी' आलों तुम्हांप्रती। निर्धार केला मरणासी ।।४६।। ऐसा पापी असोनि आपण । आतां काय करावें अंगहीन। तोंड न पाहती कुष्ठी म्हणोन। मरण बरवें यापरतें ।।४७।। आतां असे एक विनंती । होय अथवा न होय निश्चिती। शीघ्र निरोपावें ये रोतीं। आशापाशी न गोंविजे ।।४८।। मज चाड नाहीं या देहाची । प्राण देईन साथ तुमची। तूं रक्षक माउली शरणागताची। निरोपावें दातारा ।।४९।। जैसें देवीं बाळविले। आशाबद्धते गोंबिलें । निदानीं मज सोडिलें। तैसें न करी दातारा ।।५०।। ऐसें करुणावचन ऐकोन । गुरू बोलती हासोन। बोलाविला सोमनाथ ब्राह्मण। निरोप देती यातें न्या संगमासीं ।॥५१।। त्वरेनें संकल्प सांगोनि । स्नान करावें पुष्करजीवनीं। अश्वत्थप्रदक्षिणा करवोनि। वर्षे टाका दूर त्याचीं ॥५२।। नवीं वर्षे द्यावीं यासी । शीघ्र आणा पारणेसी। ऐसा निरोप देती त्यासी। दोघे गेले झडकरी ।।५३।। स्नान करोनि बाहेर आला । शरीर वर्ण पालटला । अद्यत्यप्रदक्षिणा केल्या। सुवर्ण' झाले सर्वांग ।।५४।। चखें देती ब्राह्मणासी । जीर्ण वर्षे टाकिती दूरेसी । जेथे टाकिली भूमीसी। क्षार भूमि होय त्वरित ।।५५।। सांगातें घेऊनि द्विजासी। सोमनाथ आला मठासी । चरणावरी पातले तयासी। लोक सर्व विस्मित ।। ५६।। नंदिनामें केला नमस्कार। संतोष स्तोत्र करी अपार । हर्षे झाला असे निर्भर । लोळत असे पादुकावरी ॥५७।। श्रीगुरु पुसती तयासी। तुझी मनकामना झाली परियेसीं। सर्वांग आहे कैसें त्यासी । अवलोकोनि पाहें म्हणती ।।५८।। सर्वांग पाहतां बरखें झालें। तावन्मात्र' जंघेसी' राहिलें । पाहतां मन त्याचे भ्यालें। म्हणे स्वामी असे कीं थोडे ।।५९।। तुझी कृपादृष्टी झाली असतां । थोडे राहिलें केवी अर्था । करीतसे दंडवता । कृपा करीं गा महात्म्या ।। ६०।। गुरुमूर्ति निरोपिती त्यासी। तूं संशय धरोनि आलासी। मनुष्य काय देईल म्हणसी। तेणें गुणे राहिलें शेष ।।६१।। वासी असे एक प्रकार। तुवां कवित्व करावें अपार । आमुची स्तुति करीं निरंतर । जाईल त्वरित निश्चये ।। ६२।। नंदिनामा म्हणे स्वामियासी। लिखित नेणे वाचावयासी। कैसें करूं कवित्यासी। मंदमित आपण ।।६३।। काय जाणें कवित्वरीति । नाहीं मज काव्यव्युत्पत्ति। स्वामी ऐसा निरोप देती। म्हणोनि चरणीं लागला ।।६४।। श्रीगुरू म्हणती त्या द्विजासी। मुख उघडर्डी काढीं जिह्वेसी । विभूति प्रोक्षितां तयासी। ज्ञान उपजलें ब्राह्मणातें ।। ६५।। चरणांवरी ठेविला माथा। उभा केला स्तोत्र करितां । म्हणे स्वामी मी नेणता । सेवेसी नव्हे आराणूक ।।६६।। मायापाशीं बेष्टोनि। बुडत होतों संसारगहनी । आठवण न करी कधीं मनीं। तुझे चरम विसरलों ।। ६७।। संसार म्हणजे मायाजाळ । योनीं जन्मोनि चौऱ्यायशी कुळ। न आठवलें तुझे नाम केवळ । मंदमति झाली स्वामिया ।। ६८।। स्वेदज अंडज उद्भिजेंसी। जन्म पावलों पशुयोनीसी। ज्ञान कैवें आम्हांसी। स्थावर जंगम र्जे होतों ।। ६९।। नानायोनि मनुष्य विशेष । शूद्रादि याती बहुवस। जरी होतों त्या जन्मास । काय जाणें तुझी सोय ॥७०॥ समस्त जन्मांमध्ये एक। ब्राह्मणजन्म विशेष। काय करावें होऊनि मूर्ख । गुरुसोय नेणता नर ।।७१।। मातेचे शोणित पित्याचे रेत। संपर्क झाला जननीगर्भात। जैसे सुवर्ण असे कढत । दिवस पांच बुद्धदाकार' ।।७२।। पंधरा दिवस होय थोर। एक रस होऊनि निर्धार। तीं मी काय जाणें पामर । नाहीं पंचतत्त्वें झाली मज ।।७३।। मासें एक पिंड होय। द्वय मासीं शिर पादद्वय। त्रयमासीं सर्व अवयव । नवद्वारें झाली मग ।।७४।। पंचतत्त्वे होतीं एक। पृथ्वी वायु तेज आकाश उदक। प्राण आला तात्कालिक । तथीं स्मरण कैचें मज ।।७५।। पांचवे मासीं त्वचा रोम। सहावे मासीं उच्छ्वासस्तोम। सातवे मासीं श्रोत्र जिह्वा प्राण। मेद मज्जा दृढ झाली ।।७६।। ऐसा नव मास कष्टत। होतों जननीगर्भात । रुधिर विष्ठा मूत्रांत । कष्टलों फार स्वामिया ।।७७।। माता भक्षी उष्ण क्षार। कटु तीक्ष्ण असे अपार पडे लोळे अनेक प्रकार। दुःख कोणा सांगू तेव्हां ।।७८।। मनास आलें भक्षण करी। दुःख होय मज अपारी। ऐसें नवमासावरी। मातागर्मी कष्टलों ।।७९।। तभीं कैचें तुझे स्मरण। वेष्टिलों होतों मायेंकरून । देखिले नाहीं तुझे चरण। मग योनिद्वारें जन्मलों ।।८०।। उपजतांची आपणासी । आयुष्य लिहिले ललाटेसी। अर्थ गेलें वृथा निर्देसी। रात्री निद्रा मानवा ।।८१।। उरल्या आयुष्यांत देखा। तीन भाग केले ऐका। बाल यौवन वृद्धपण निका। निर्वाण केलें तये वेळीं ।।८२।। बाळपणीं आपणासी। कष्ट झाले बहुवसीं। मज घालिती पाळण्यासी । मळमूत्रांत लोळतसे ।।८३।। बाळपणींचे दुःख आठवितां । हृदयस्फोट होय आतां । काय सांगू गुरुनाथा। नाना आपदा' भोगिल्या ॥८४।। शयनस्थळी मळसूत्रांत । निरंतर असे लोळत । आपली मिष्ठा आपण खात। अज्ञानतिमिरें वेष्टिलों ।॥८५।। एखादे समयों आपणासी। पोट दुखे बहुवसीं। रुदन करितां परियेसीं । स्तनपान करविती ।।८६।। क्षुधाक्रांत होय बहुत । मग म्हणती पोट याचे दुखत। अंगुली घालूनिया मुखांत । औषध मज घालिती ॥८७॥ ऐसें क्षुधेनें पीडित बहुत। मज घालिती पाळण्यांत । हालविती पर्यदें' गात । सुधाक्रांत रुदन करी ।।८८।। म्हणती रुदन करितें बाळ। मुखीं शिंपिती कांजीतेल । रक्षा बांधिती मंत्रबोनि केवळ । नेणें माता भूक माझी ।।८९।। पाळण्या पालिती कौतुक । प्रावरणांत असतां वृश्चिकः। मारीतसे पाठीसी डंख। प्रलाप मी करीतसे ॥९०।। आणिक पाळण्या घालिती। राहें राहें उगा म्हणती । स्तनपान मज करविती । वृश्चिकविष नेणतां ।।११।। तेणें दुःखें स्तनपान न करी। मागुती घालितीं पाळण्याभीतरी । वृश्चिक मज डंख मारी । प्राणांतिक मज होय ।।९२।। माता खाय आम्ल तीक्ष्ण घार। स्तनपान करविती मज अपार । क्षीर आंबट आणि मपुर । आपण खोके सर्वकाळीं ।॥९३।। नाना औषधे मज देती। तेणें माझे डोळे दुखती। कुंकू लवणक्षार घालिती। डोळे आले म्हणोनि ।।९४।। ऐसे कष्ट धुरंधर। बाळपणीं साहिले अपार। बाढलों कष्ट करितां फार। वर्षे बारा लोटलीं ।।९५।। तधीं कैचें तुझे चरणस्मरण। मजला कैची आठवण । कटलों मी याचि गुणें। पूर्वजन्म नाठवेची ।।९६।। दोन भाग उरले आयुष्यासी। मदनें व्यापिलें शरीरासी। जैसा पतंग दीपासी। भ्रमित तैसा उन्मत्त ।।९७।। नेणें गुरू माता पिता । समस्तांतें निंदा करितां। परस्त्रीवरी करी चित्ता। कुळाकुळ न विचारी ।।९८।। ब्राह्मणनिंदा परोपरी। वृद्ध देखोनि विनोद करीं। मदें व्यापिलों असें भारी। मग नाठवें तुझे चरण ।।९९।। मांसाचे कवळाकारणे। मत्स्य जाय जेवीं प्राणे। तैसा आपण मदनबाणें। वश झालों इंद्रियांस ।।१००।। नानावर्ण श्रियातें अंगिकारिलें । परद्रव्य अपहारिलें। सिद्धमहंतां निंदिले। दृष्टीं न दिसे माझें कांहीं ।।१।। ऐसा मदनें व्यापूनि । पुढे मार्गे न पाहें नयनीं। पतंग जाय धावोनि। दीपावरी पुढे जैसा ।।२।। ऐसा बेष्टोनि मदनबाणीं। नायकै सुबुद्धि श्रवणीं। सोय न घरी तुझे बरणीं । यौवनपण ऐसें गेलें ।।३।। वृद्धपण आले शरीरासी। उबग' होय खीपुत्रांसी। वासोच्छ्वास कफेसीं । सदा खोकला होय मज ।।४।। अवयव सर्व कांपती। कृष्ण केश पांढरे होती। दंतहीन भक्ष्यें न चावती । श्रवणीं नायकें दृष्टि नाहीं ।।५।। ऐसा नानापरि कष्टितां। तुमची सेवा न घडे आतां । स्वामी तारका गुरुनाथा । संसारसागराकडे करी ।।६।। ऐसा मंदमति आपम। न ओळखेंचि तुझे चरण। तूंचि केवळ नारायण। अवतार श्रीगुरुमूर्ति ।।७।। तूंचि विश्वाचा तारक। धरोनिया नरवेष देख। त्रयमूर्ति तूंचि एक। परब्रह्म गुरुनाथा ।।८।। दिवांध नेणती तुज लोक । तूंचि विश्वाचा पाळक। मी किंकर तुझा सेवक । संसारसागरी तारी मज ।।९।। ऐसे नानापरी स्तोत्र। करीतसे नंदिनामा पवित्र। जन पाहती विचित्र त्यांसी म्हणे नंदिनामा ।।११०।। ऐका हो जन समस्त । श्रीगुरू परब्रह्मवस्त । आपण पाप केलें बहुत। दर्शनमात्रे सर्व गेलें ।।११।। जैसें तृणाचे बणवीसी। अप्रि पडतां गति जैसी। गुरुकृपा होय जयासी। पाप जळे येणेंपरी ।।१२।। चरणं पवित्रं विततं पुराणं। ऐसें बोले वेद पुराण। सेवा सेवा हो गुरुचरण। गुरुवेगळा देव नाहीं ।।१३।। ब्रह्मदेवें आपण देखा। दुष्टाक्षरें लिहिलीं ऐका। तैसें हैं होय निका । श्रीगुरुचरणी लागतां ।।१४।। जवळी असतां निधान। कां न ओळखा तुम्ही जन। नृसिंहसरस्वती कामधेनू । भजा भजा हो म्हणतसे ।।१५।। इह सौख्यदाता अनेक । अंतीं पायें वैकुंठलोक। संदेह नाहीं होईल सुख । सत्य सत्य बोल माझे ।।१६।। नंदिनामा स्तोत्र करीत । श्रीगुरू संतोष अत्यंत । भक्तांतें निरोप देत । कविश्वर म्हणायासी ।।१७।। कविश्वर नाम तयासी। निर्धार केला भरंक्सी। ऐसे कृपेनें चोलती त्यासी । ऐकोनि चरणीं लागला ।।१८।। शेष होतें जंघेवरी। तात्काळ गेलें दूरी। नंदिनामा आनंद करी। राहिला सेवा करीत देखा ।।१९।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी । गुरुचरित्र परियेसीं। कवि नृसिंह नार्मेसी। तोहि राहिला गुरुसेवे ।।१२०।। नामधारक म्हणे सिद्धमुनि । दुसरा कवि नृसिंह म्हणोनि । कवि झाला श्रीगुरुभवनीं। कविश्वर सांगा मज ।।२१।। तें विस्तारोनि आम्हांसी। सांगा स्वामी कृपेंसी। वांछा असे मानसीं । गुरुचरित्र ऐकावया ।।२२।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर । पुढील कथेचा विस्तार । ऐकतां होय मनोहर । नामस्मरण कामधेनु ।।२३।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । सिद्ध मुनि संवादत । कविश्वराख्यानं येथ। निरोपिलें प्रेमळ ।।१२४।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४५॥
ओवीसंख्या १२४
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक विनवी सिद्धासी। मागें कथा निरोपिलीसी। नंदिनामा कवि ऐसी दुसरा कवि आला म्हणोनि ।।१।। कवणेंपरी झाला शिष्य। तें सांगायें जी आम्हांस। विस्तारावें आदि सुरस। कृपा करोनि दातारा ॥२॥ सिद्ध म्हणे नामधारका । सांगेन विचित्र ऐका। आचर्य झालें असे देखा। श्रीगुरुचरित्र अलौकिक ।।३।। गाणगापुरीं असतां गुरू । ख्याति झाली अपरंपारु। लोक येती घोरथोरु। भक्तजन बहु झाले ।।४।। नंदिनामा कवि होता । कवित्व केलें अपरिमिता । समस्त लोक शिकतां । प्रकाश' झाला चहूं राष्ट्रीं ।।५।। ऐसे असतां एके दिवसीं देखा । श्रीगुरु नेले भक्त एका। आपुले घरीं शोभनदायका'। म्हणानि नेले आपुले ग्रामा ।।६।। हिपरगी नाम ग्रामासी । नेलें आमुचे श्रीगुरुसी । पूजा केली बहुवसीं । समारंभ थोर केला ।।७।। तया ग्रामी शिवालय एक। नाम कल्लेश्वर ऐक । गृहस्थ प्रख्यात असे निक। तेथे एक द्विज सेवा करी ।।८।। तया नाम नरकेसरी। लिंगसेवा बहु करी। नित्य पांच कवित्वें करी। आणिक नवीं निरंतर ।।९।। कल्लेग्ररावांचून । आणिक नाणी' कदा वचन । एकचित्ते एकवचन । शिवसेवा करीतसे ।।१०।। समस्त लोक त्यासी म्हणती । तुझे कवित्वाची असे ख्याति । श्रीगुरुची कवित्यावरी प्रीति। गुरुस्मरण करी एक ।।११।। तयांसी म्हणे तो नर। कलेश्वरासी विकिलें जिद्वार। अन्यत्र देवपूजें अपार । नरस्तुति न करी म्हणे ।।१२।। ऐसें बोलोनिया आपण। गेला देवपूजेकारण। पूजा करितां तत्क्षण। निद्रा आली तया द्विजा ।।१३।। नित्य पूजा करोनि आपण कवित्वें करी शिवस्मरण। ते दिवशी सर्व विसरोन। निद्रा आली तया द्विजा ।।१४।। निद्रा केली देवालयांत। विचित्र देखिलें स्वप्नांत। लिंगावरी श्रीगुरु बैसत। आपण पूजा करीतसे ।।१५।। लिंग न दिसे श्रीगुरुची दिसे। आपण त्यासी पुसती हर्षे। नरावरी तुझी भक्ति न असे। कां गां आमुतें पूजितोसी ।।१६।। षोडशोपचारें आपण। पूजा करी स्थिर मन। ऐसें देखोनिया स्वप्न । जागृत झाला तो द्विज ।।१७।। विस्मय करी आपुले मनीं। म्हणे नृसिंहसरस्वती मुनी। आला असे अवतरोनि । आपण पूजा त्याची केली ।।१८।। हाचि होय श्रीजगदुरु। त्रयींचा अवतारू। भेट घ्यावी हा निर्धारु। धरुनि आला गुरुपासीं ।।१९।। आला विप्र लोटांगणेसी। विनवू लागला चरणापासीं । कृपा करीं गा अज्ञानासी। नेणों तुझें स्वरूप आपण ।।२०।। प्रपंचमायेनें वेष्टोन। न ओळखूं आपण अज्ञान। तूंचि साक्षात् शिव निर्गुण। निर्धार झाला आजि मज ।।२१।। कल्लेश्वर कर्पूरगौर। तूंचि होसी जगदूरु। माझे मन झालें स्थिरु। तुझे चरणीं विनटलों ।।२२।। तूंचि विश्वाचा आधार। शरणागता वज्रपंजर। चरणकमळीं मी भ्रमर। ठाकोनि' आलों स्वामिया ।।२३।। जवळीं असता निधानु। कां हिंडावें रानीरानु। परा आलिया कामधेनु । दैन्य काय आम्हांसी ।।२४।। पूर्वी समस्त ऋषि देखा । तप करिती नसे लेखा। तूं न पावसी तयासंमुखा अनेक कष्ट करितांही ।।२५।। न करितां तप अनुष्ठान । आम्हां भेटलासी निधान। झाली आमची कामना पूर्ण। कल्लेश्वर प्रसन्न झाला ।।२६।। तूंचि सत्य कल्लेश्वरु । ऐसा माझे मनीं निर्धारु। कृपा करीं गा जगदूरु। म्हणोनि चरणी लागला ।।२७।। श्रीगुरू म्हणती तयासी । नित्य आमुची निंदा करिसी। आजि कैसी तुझे मानसीं। भक्ति उपजोनि आलासी ।।२८।। विप्र म्हणे स्वामिवासी । अज्ञानांधकारी आम्हांसी। कैसा भेटलासी परियेसीं। ज्योतिर्मय आनंदमूर्ति ।।२९।। म्यां कल्लेश्वराची पूजा केली। तेणें पुण्ये तुम्हां भेटी झाली। आजि आपुली पूजा केली। लिंगस्थानीं तुम्हां देखिलें ।।३०।। स्वप्नामध्ये लिंगस्थानों आपण प्रत्यक्ष देखिले तुझे चरण। स्थिर झालें अंतःकरण । मिसळवा शिष्यवर्गांत ।।३१।। ऐसे विनवी द्विजवर। स्तोत्र करीतसे अपार। स्वामीची पूजा षोडशोपचार। कैचें कवित्व केलें देखा ।।३२।। मानसपूजेचे विधान। पूजा व्यक्त केली जाण । श्रीगुरु म्हणती तत्क्षण। आइका स्वप्न लोकांसी ।।३३।। प्रत्यक्ष आम्ही असतां देखा। स्वप्न अवस्थें कवित्व ऐका। त्याने केले वरकड निका । स्वप्नी भेटलों म्हणोनि ।।३४।। ऐसें सांगोनि समस्तांसी। वर्षे देवविती त्या कवीसी। लागला श्रीगुरुचरणासी । म्हणे आपण शिष्य होईन ।॥३५।। श्रीगुरु म्हणती तयासी कल्लेश्वर श्रेष्ठ आम्हांसी। पूजा कीं गा नित्य त्यासी। आम्ही तेथे सदा वसों ।।३६।। विप्र म्हणे स्वामीसी। प्रत्यक्ष सांडोनि तुम्हांसी। काय पूजू कलेश्वरासी । तेथे तुम्हांसी म्यां देखिलें ।॥३७।। तूंचि स्वामी कल्लेश्वर। त्रयमूर्तीचा अवतार । हाचि माझा सत्य निर्धार। न सोडीं आतां तुझे चरण ।।३८।। ऐसे विनसी स्वामियासी। आला सर्वे गाणगापुरासी। कवित्व केले बहुवसीं । सेवा करीत राहिला ।।३९।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। कवीश्वर दोघे शिष्य गुरुपासीं। आले येणें रीतींसी। भक्ति करीत राहिले ।॥४०॥ म्हणे सरस्वतीगंगाधरु । ज्यासी प्रसन्न होय गुरु। तयाचे घरी कल्पतरु । चितिलें फळ देतसे ।।४१।। कथा कवीश्वरासी ऐसी। सिद्ध सांगे नामधारकासी । पुढील कथा विस्तारेंसी। एकचित्तें परियेसा ।।४२।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । सिद्धमुनिसंवाद होत । भक्त ज्ञानी परिसोत । नरहरि कवि उद्धारण' ।॥४३।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४६॥
ओवीसंख्या ४३
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक म्हणे सिद्धासी। पुढें कथा वर्तली कैसरी। ते विस्तारोनि आम्हांसी। कृपा करोनि सांगावी ।।१।। नामधारका श्रीमंता। ऐकेन म्हणसी गुरुचरित्रा। तुज होतील पुत्रपौत्रा। सदा श्रियायुक्त तूं होसी ।।२।। सांगेन कथा एक विचित्र। जेणें होती पतित पवित्र। ऐसें श्रीगुरुचरित्र। तत्परेंसी परियेसा ।।३।। गाणगापुरी असतां गुरु। सण दिपवाळी आला थोरु । शिष्य आले पाचारू' आपले घरी यायें भिक्षेसी ।।४।। सप्त शिष्य बोलाविती। एकाहूनि एक अधिक प्रीती। सातहीजण पायां पड़ती। यावें आपुल्या घरासी ।।५।। एकेक ग्राम एकेक देशीं। श्रीगुरू म्हणती शिष्यांसी। समस्ता घरी यावें कैसी। तुम्ही मनीं विचार करा ।।६।। तुम्हीं वाटावे आपणातें। कोठे आधी यावे निरुपा तें। तेथे जाऊं निश्चितें। शिष्याधीन आम्ही असों ।।७।। आपणांत आपण पुसती । समस्त आधीं नेऊ म्हणती। एकमेकां झगडती। आपुला स्वामी म्हणोनिया ।।८।। श्रीगुरु वारिती तयांसी। तुम्ही भांडतां कासवासी । आम्ही गुरु सातांसी। एका घरी येऊं आम्ही ।।९।। ऐसे वचन ऐकोनि। समस्त विनविती कर जोडोनि। स्वामी प्रपंच' न पाहावा मनीं । समर्थ दुर्बळ म्हणू नये ।।१०।। समस्तांसी पहावे समान । न विचारावें न्यून पूर्ण। उपेक्षिसी दुर्बळ म्हणोन । गंगाप्रवेश करूं आम्ही ।।११।। विदुराचिया घरासी। श्रीकृष्ण जाय मक्तींसी। कौरवराजमंदिरासी। न बचे भक्तवत्सल ।।१२।। आम्ही समस्त तुझे दास। कोणासी न करावें उदास। जो निरोप द्याल आम्हांस । तेंचि करू आपण म्हणती ।।१३।। ऐसें म्हणोनिया समस्त । करिती साष्टांग दंडवत । समस्त आम्हां पहा हो म्हणत। ऐसे विनविती श्रीगुरुसी ।।१४।। श्रीगुरु म्हणती समस्तांसी। येऊं तुमचे घरासी। चिंता न घरा हो मानसीं। भाक आमुची ध्या म्हणती ।।१५।। ऐसें ऐकोनि गुरुवचन। विनविताती सातही जण। समस्तांसी म्हणतां येईन। कोणी करावा भरवसा ।।१६।। श्रीगुरू मुनी विचारिती। अज्ञान लोक हे नेणती। आतां सांगू एकांतीं। एक एकातें बोलावून ।।१७।। जवळी बोलावोनि एकासी। कानीं सांगती तयासी। आम्ही येतों तुझे ग्रामासी। कोणाजवळी न सांगावें ।।१८।। ऐसी भाक' त्यासी देती। उठोनि गांवा जा म्हणती । येऊं तुझ्या ग्रामाप्रती। संशय मनीं न धरावा ।।१९।। ऐसें सांगोनि तयासी । पाठविलें प्रामासी। बोलावून दुसऱ्यासी। येणेंचि रीतीं सांगितलें ।।२०।। ऐसें सातही जणां देखा। समजावोनि गुरुनायका। पाठविले तुम्ही ऐका। महदाश्चर्य वर्तले ।।२१।। एकमेकां न सांगत। गेले सातही भक्त। श्रीगुरु आले मठांत । अतिविनोद प्रवर्तला ।।२२।। ग्रामांतील भक्तजन। ऐसें कौतुक ऐकोन। विनविताती कर जोडोन। आम्हां सांडोनि जातां स्वामी ।।२३।। तयांसी म्हणती श्रीगुरुनाथ। राहू आम्ही नाहीं जात। न करा चिंता मनांत । आम्ही येथेचि असों देखा ।। २४।। ऐशा संधीस श्रीगुरुसी। होऊं आली जवळी निशी'। दिपवाळीची त्रयोदशी। रात्री मंगळस्नान करावें ।।२५।। आउरूप झाले आपण । अपार महिमा नारायण। सात ठाईंतही गेले जाण । गाणगापुरी होतेबी ।।२६।। ऐसी दिपवाळी झाली। समस्तां ठायीं पूजा घेतली। पुनः एकचि मूर्ति ठेली'। गौप्यरूपें कोणी नेणे ।।२७।। कार्तिकमासीं पौर्णिमेसी। कराक्या दीपारापनेसी। समस्त आले परियेसीं। गाणगापुरी गुरूजवळी ॥२८।। समस्तही नमस्कारिती । भेटी दहावे दिवशीं म्हणती। एकमेकांतें झगडती। म्हणती आपुले घरी गुरू होते ।।२९।। एक सत्य मिथ्या म्हणत । समस्त शिष्या खुणा दाखवित । आपण दिल्हें तें हैं वख। श्रीगुरुजवळी असे ।।३०।। समस्त राहिले तटस्थ । ग्रामस्थ लोक असत्य म्हणत । आम्हांजवळी गुरू असत। दिपवाळी येथेची केली ।।३१।। विस्मय करिती सकळ जन। म्हणती त्रैमूर्ति हाचि आपण। अपार महिमा नारायण। अवतार असे श्रीहरीचा ।।३२।। ऐसे मिळोनि भक्त समस्ती। नानापरी स्तोत्रे करिती। न कळे महिमा तुमचा म्हणती। वेदमूर्ति गुरुनाथा ।।३३।। तूंचि विश्वव्यापक होसी। महिमा न कळे आम्हांसी। काय वूर्ण चरणासी। त्रैमूर्ति तूंचि एक ।। ३४।। नानापरी स्तुत्ति करिती । दीपाराधना अतिप्रीती। ब्राह्मणभोजन अतिभक्ति। करिते झाले भक्तजन ।।३५।। श्रीगुरुमहिमा झाली जगतीं । सिद्ध सांगे नामधारकाप्रती । भूमंडळीं झाली ख्याति । श्रीनृसिंहसरस्वतीबी ।।३६।। म्हणे सरस्वतीगंगाधरु । जवळी असतां कल्पतरु । न ओळखिती अंध बधिरू। वायां कष्टती दैन्यरीतीं ।॥ ३७।। भजा भजा हो श्रीगुरुसी। जे जें काम्य तुमचें मानसीं । सिद्ध होईल त्वरितेंसी। आम्हां प्रचीति आली असे ॥३८।। अमृत मिळतां पानासी' । क्षार' कटु' आवडे मूर्खासी । ज्ञानवंत भक्तजनांसी। नामामृत गुरुचे ।।३९।। श्रीगुरुसेवा तुम्ही करा। ऐसा पिटीं मी डांगोरा। सांगती शास्र अपारा। गुरू तोचि त्रैमूर्ति ।।४०।। गुरुवेगळी गति नाहीं। जे निंदिती नर देहीं। वेदशाखें बोलती पाहीं। सूकरयोनीत जन्मती ।।४१।। तुम्ही म्हणाल मज ऐसें । आपुले इच्छेनें लिहिलें कैसें। वेदशास्त्री सांगितलें ऐसे। असे तरी अंगिकारा ।।४२।। संसारसागर धुरंधर। उत्तराच्या पैल पार। गुरुविणें निर्धार। तारक कोण त्रिजगीं ।।४३।। निर्जळ संसार अरण्यांत । पवई घालणे असे अमृत। सेवा सेवा हो तुम्ही समस्त। अमरत्व तुम्हां होईल ।।४४।। श्रीगुरुनृसिंहसरस्वती। अवतार असे त्रिमूर्ति। गाणगाग्रामी असे ख्याति। आतां असे प्रत्यक्ष ।।४५।। जे जाती तया स्थाना। तात्काळ होती मनकामना। कांहीं न करा हो अनुमाना। प्रत्यक्ष देव तेथे असे ।।४६।। आम्ही सांगतों तुम्हां हित । प्रशस्त झालिया तुमचे चित्त। गाणगापुरी जावें त्वरित । म्हणे सरस्वतीगंगाधर ।।४७।। श्रीगुरुचरित्रामृत । सिद्धमुनि संवादत । अष्टरूपें श्रीगुरु धरित। सप्तचत्वारिंशोऽध्याय हा ।।४८।। इतिआति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४७॥
ओवीसंख्या ४७
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः ।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। अपूर्व झालें परियेसीं। गुरुचरित्र विस्तारेंसी। सांगतां संतोष होतसे ।।१।। गाणगापुरीं असतां गुरू। ख्याति झाली अपरंपारू। भक्त होता एक शुद्र। तयाची कथा ऐक पां ।।२।। श्रीगुरु नित्य संगमासी । जात असता अनुष्ठानासी। मार्गी तो शूद्र परियेसीं। आपुले शेती उभा असे ।।३।। श्रीगुरुतॆ नित्य देखोनि । धावत येऊनि शेतांतुनी। आपण साष्टांगी नमोनि। पुनरपि जात आपुले स्थाना ।।४।। माध्याह्नकाळी मठासी येता। पुनरपि चरणी ठेवी माथा। ऐसे कितीएक दिवस होतां। शुद्राची भक्ति वाढली ।।५।। श्रीगुरु तयासी न बोलती। नमन केलिया उभे असती। येणें विधीं बहु काळ क्रमिती। आला शुद्र नमस्कारा ।।६।। नमस्कारितां शूद्रासी । श्रीगुरु पुसती संतोषों। कां गा नित्य तू कष्टतोसी। नमन करिसी येऊनिया ।।७।। तुझे मनीं काय वासना। सांग त्वरित आम्हां जाणा । शूद्र म्हणे आवड मना। शेत अधिक पिकावें ।।८।। तयासी पुसती गुरुनाथ। काय पेरिलें शेतांत। शूद्र म्हणे यावनाळ' बहुत । पीक आलें तुझे धर्मी ।।९।। नमस्कारितां तुम्हां नित्य। पीक आलें असे अत्यंत। पोटरी येतील त्वरित । आतां तुझेनि धर्मी जेवू ।।१०।। स्वामी यावे शेतापासीं। पहावें अमृतदृष्टींसी। तूं समस्तां प्रतिपालिसी। शूद्र म्हणोनि न उपेक्षावें ।।११।। श्रीगुरु गेले शेतापासीं । पाहूनि म्हणती त्या शूद्रासी। सांगेन एक ऐकसी। विश्वास होईल बोलाचा ।।१२।। जें सांगेन मी तुजसी। जरी भक्तीनें अंगिकारिसी। तरीच सांगू परियेसों। एकभावें त्वां करावें ।।१३।। शूद्र विनवी स्वामियासी । गुरुवाक्य कारण आम्हांसी। दुसरा भाव आम्हांसी। नाहीं स्वामी म्हणे तो ।।१४।। मग निरोपिती श्रीगुरु तयासी। आम्ही जातों संगमासी। परतोनि येऊं माध्याह्नासी। तंव कापावें सर्व पीक ।।१५।। ऐसें सांगोनि शूद्रासी। श्रीगुरु गेले संगमासी। शुद्र विचारी मानसीं। गुरुवाक्य आपणा कारण ।।१६।। शीघ्र आला ग्रामांत। अधिकारियासी विनवीत। खंडोनि द्यावें मला शेत। गत संवत्सराप्रमाणें धान्य देईन ।।१७।। अधिकारी म्हणती तयासी। पीक झालें असे बहुवसीं। या कारणें उक्त मागसी। अंगिकार न करिती ।।१८।। नाना प्रकारें विनवी त्यांसी। द्विगुण देऊन गतसंवत्सरेसी। अंगिकारिलें संतोषर्षी। वचनपत्र लिहून घेती ।।१९।। आपण अभयपत्र घेऊनि । लोक मिळबोनि तत्क्षणी। गेला शेतांत संतोषोनि। म्हणे कापा तयासी ।।२०।। कापू लागतां शेतासी। स्त्री-पुत्र वर्जिती तयासी। पाषाण घेऊनि स्त्रियेसी । मारूं आला तो शूद्र ।।२१।। पुत्रातें मारी येणेंपरी। पळत आले गांवाभीतरी। आड पडतां राजद्वारी। पिसें लागलें पतीसी ।।२२।। पीक असे बहुवसी। कापून टाकितो मूर्खपणेंसी। वर्जिता पहा आम्हांसी। पाषाणयाई मारिलें ।।२३।। संन्याशाचे माहात्म्य वाचें बोले। पीक सर्व कोमळ कापिलें। आमुचें जीवित्व भाणास गेलें । आणिक भक्षितों एक मास आम्ही ।।२४।। अधिकारी म्हणती तयासी। कापी ना का आपुल्या शेतासी । पत्र असे आम्हांपासी । गतसंवत्सरा द्विगुण धान्य द्यावें ।।२५।। वर्जावया माणसें पाठविती। शूद्र न ऐके कवणे गतीं। शूद्र म्हणे अधिकारी भीतीं। पेवीचे कण आतां देईन ।।२६।। दूत सांगती अधिकारियासी। आम्हीं सांगितलें शूद्रासी। सांगोनि पाठविलें तुम्हांसी। विनोद असे परियेसा ।। २७।। जरी भितील अधिकारी । तरी देऊन आतांचि घरीं। गुरें बांधीन तयांचे द्वारीं। पत्र आपण दिलें असे ।।२८।। दूत सांगती ऐशा रितीं । पुढे वर्तली काय स्थिती। राजा अधिकारी तयाप्रती। काय उत्तर बोलतसे ॥ २९।। अधिकारी म्हणती तयासी । आम्हां चिंता कायसी। पेव ठाउके आहे आम्हांसी। धान्य आहे अपार ।।३०।। इतुकें होतां शूद्रे देखा। पीक कापिलें मनःपूर्वका । उभा असे मार्गों ऐका। श्रीगुरु आले परतोनि ।।३१।। नमन करोनि श्रीगुरुसी । शेत दाखविलें कापिलें ऐसी। श्रीगुरु म्हणती तयासी। वायां कापिलें म्हणोनि ।।३२।। विनोदें तुज सांगितलें । तुवां निधर्धार कापलें । शूद्र म्हणे तुमचे वाक्य भलें । तेंचि मज कामधेनु ।। ३३।। ऐसें एकोनि श्रीगुरु म्हणती । निर्धार असे तुझे चित्तीं । होईल अत्यंत फळप्राप्ति। चिंता न करी मानसीं ।। ३४।। ऐसें सांगोनि श्रीगुरुनाथ । आले आपण ग्रामांत। सर्वे शुद्र असे येत। आपुले घराप्रति गेला ।।३५।। पुसावया वेती समस्त । तयाचे घरी होतो आकांत । खी-पुत्र सर्व रुदन करीत। म्हणती आपुला ग्रास गेला ।।३६।। शूद्र समस्तांतें संबोखी । न करी चिंता रहा सुखी। गुरुसोय नेणती मूर्खी। कामधेनु वाक्य तयांचे ।। ३७।। एकेकाचे सहस्रगुण । अधिक लाभ तुम्हां जाण। स्थिर करा अंतःकरण। हानि नव्हे निर्धार पैं ।। ३८।। गुरुकृपा होय ज्यासी। दैन्य कैचे होय त्यासी । निधान जोडलें आम्हांसी। म्हणोनि शूद्र सांगतसे ।।३९।। नर म्हणून नये श्रीगुरुसी। शिवस्वरूप जाणा भरंवसी । असे कारण पुढें आम्हांसी। म्हणोनि निरोपिलें असे मज ।।४०।। नानापरी खी-पुत्रांसी । संबोधित असे शूद्र अति हर्षी। इष्टजन बंधुवर्गासी। येणेंचि रीतों सांगतसे ।।४१।। समस्त राहिले निवांत । ऐसें आठ दिवस क्रमित । वायु झाला अति शीत। समस्त पिके नासलीं ।।४२।। समस्त ग्रामींची पिकें देखा। शीतें' नासीं सकळिका । पर्जन्य पडला अकाळिका। मूळ नक्षत्री परियेसा ॥४३।। ग्राम राहिला पिकावीण । शूद्रशेत वाढलें शतगुणे। वाढला यावनाळ सगुण। एकाका अकरा फरगडेंसी ।।४४।। तै शुद्र-श्री संतोषोनि। शेता आली पूजा घेऊनि । अवलोकितसे आपुले नयनीं। महानंद करितसे ।।४५।। पीक झाले अत्यंत । देखोनिया समस्त । येऊनि जन समस्त तेथ। महदाश्चर्य करीत देखा ।।४६।। येऊनि लागे पतिचरणीं । विनवीतसे कर जोडोनि । बोले मधुर करुणावचनीं । क्षमा करी म्हणतसे ।।४७।। अज्ञानमदें अति वेष्टिलें । नेणतां तुम्हातें निंदिले । गुरु कैचा काय म्हणितलें । क्षमा करणे प्राणनाथ ।।४८।। ऐसे पतीसी संबोधोनि। शेतींचा देव पूजोनि। विचार केला दोघांनी । गुरुदर्शना जावें आतां ।।४९।। म्हणोनि सांगे स्त्रियेसी। पूजों आलीं श्रीगुरुसी। स्वामी पुसती तयांसी। काय वर्तमान म्हणोनिया ।।५०।। चरणी लागली तेव्हां दोन्हीं। हस्तद्वय जोडोनि। स्वामीदर्शन उल्हासोनि । उभी ठाकलीं संमुख ॥५१।। दोघेजणें स्तोत्र करिती। जय जयाजी श्रीगुरुमूर्ती। कामधेनु कुळदैवत म्हणती। तूंचि आमुचा गुरुराया ।।५२।। तुझे अमृतवचन' आम्हां । चिंतामणिप्रकार महिमा। पूर्ण केलें आमुच्या कामा। शरण आलों तुज आम्ही ।।५३।। भक्तवत्सल' ब्रीदङ्ख्याति। ऐसें जगीं तुज वानिती'। आम्हीं देखिले दृष्टांती। म्हणोनि चरणी लागली ॥५४॥ नाना प्रकारें पूजा आरती। शूद्र-खी करीतसे भक्तीं। श्रीगुरु बोलती अतिप्रीतीं। लक्ष्मी अखंड तुझे घरीं ॥५५।। निरोप घेऊनि दोघे जण । गेली आपुले आश्रमी जाण। करिता मास काळक्रमण। पीक आलें अपार ।॥५६।। गतसंवत्सराहूनि देखा । शतगुणी झालें धान्य अधिका। शुद्र म्हणतसे ऐका। अधिकारियातें बोलोवोनि ।।५७।। शुद्र म्हणे अधिकारियासी। पीक गेले सर्व गांवासी। वोस दिसे कोठारासी। आपण देऊ अर्धा भाग ।।५८।। गतवर्षा द्विगुण तुम्हांसी । अंगिकारिलें मीं परियेसीं । धान्य झाले बहुवसीं। शतगुणें अधिक देखा ।।५९।। परी देईन अर्थ संतोषीं। सदेह न धरा हो मानसीं । अधिकारी म्हणती तयासी। धर्महानि केवी करूं ।॥ ६०।। गुरुकृपा होतां तुजवरी। पीक झालें बहुतांपरी। नेऊनिया आपुले घरीं। राज्य करी म्हणती तया ।।६१।। संतोषोनि शूद्र देखा। विप्रांसी वांटी धान्य अनेका। घेऊनि गेला सकळिका। राजधान्य देऊनि ।।६२।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी। श्रीगुरुचरित्र-महिमा परियेसीं । दृढ भक्ति असे ज्यासी । दैन्य कैचे तया परी ।। ६३।। सकळाभिष्ट त्यासी होती। लक्ष्मी राहे अखंडिती। गुरु सेवा हो निश्चिती । म्हणे सरस्वतीगंगाधर ।।६४।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत। गुरुशिष्यसंवाद विख्यात। भक्ता शूद्रा वर प्राप्त । आष्टचत्वारिंशोऽध्याय हा ।।६५।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४८॥
ओवीसंख्या ६५
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः। नामधारक शिष्य सगुण । सिद्धमुनीतें नमन करून। विनवीतसे कर जोडून। भक्तिभावें करोनिया ।।१।। त्रैमूर्तीचा अवतार । झाला वेषधारी नर। राहिला प्रीतीं गाणगापुर। कवण क्षेत्र म्हणोनिया ।।२।। भूमीवरी प्रख्यात । तीर्थे असती असंख्यात । समस्त सांडोनिया येथ। काय कारण वास केला ।।३।। या स्थानाचे महिमान । सांगा स्वामी विस्तारोन । म्हणोनि घरी सिद्धाचे चरण। नामधारक तये वेळीं ।।४।। ऐकोनि तयाचें वचन । सिद्धमुनि संतोषोन । सांगतसे विस्तारोन। ऐका श्रोते एकचित्तें ।।५।। आश्विन वद्य चतुर्दशीसी। दिपवाळी पर्वणीसी। श्रीगुरु म्हणती शिष्यांसी। स्नान करावें त्रिस्थळीचे ।।६।। गवा प्रयाग-वाराणशौसी। बला यात्रे पुत्रकलजेंसी। विप्र म्हणती श्रीगुरुसी । आइती करणें म्हणोनिया ।।७।। ऐकोन श्रीगुरु हांसती । ग्रामाजवळी तीर्थे असती। करणें न लागे तुम्हीं आइती । चला नेईन तुम्हांसी ।।८।। ऐसें म्हणोनि भक्तांसी। गेले अमरजासंगमासी। स्नान केलें महाहीं । शिष्यांसहित श्रीगुरुंनीं ।।९।। गुरु म्हणती शिष्यांसी। महिमा अपार संगमासी। प्रयागसमान परियेसीं। षट्कुळामध्ये स्नान करणें ।।१०।। विशेष नदी भीमातीर। अमरजासंगम थोर। गंगा यमुना चाहे निर्धार। तीर्थ बरवें परियेसा ।।११।। विशेषे आपण उत्तरे बाहे। याचे पुण्य अपार आहे। शताधिक पुण्य पाहे। काशीहून परियेसा ॥१२।। आणिक अष्ट तीर्थे असती। तयांचा महिमा विख्यात जगतीं। सांगेन ऐका एकचित्तीं। श्रीगुरु म्हणती शिष्यांसी ।।१३।। ऐकोनि श्रीगुरूंचे वचन । विनविताती भक्तजन। अमरजानदी नाम कोण। कोणापासाव उत्पत्ति ।।१४।। श्रीगुरु म्हणती भक्तांसी। बरवें' पुसिलें' आम्हांसी। जालंधर पुराणासी। असे कथा प्रख्यात ।।१५।। जालंधर नामें निशाचर । समस्त जिंकिले सुरवर । आपुलें केलें इंद्रपुर। समस्त देव पळाले ।।१६।। देवां दैत्यां झालें बुद्ध । सुरवर मारिले बहुविध । इंद्रे जाऊनि प्रबोध। ईश्वराप्रती सांगितला ।।१७।। इंद्र म्हणे ऐक शिवा। दैत्ये मारिलें असे देवां । शीघ्र प्रतिकार करावा । म्हणोनि चरणों लागला ।।१८।। आम्ही मारितों दैत्यांसी। रक्त पडतसे भूमीसी। अखिल दैत्यबिंदूंसी। अधिक उपजबी भूमीवरी ।।१९।। स्वर्ग मृत्यु पाताळ । सर्वत्र मारिलें दैत्यकुळ । मारिले आमुचे देव सकळ । म्हणोनि आलों तुम्हांपासीं ।।२०।। ऐसें बचन ऐकोनि। ईश्वर प्रज्वाळला मनीं। निघाला रुद्र होऊनि । दैत्यनिर्दाळण करावया ।।२१।। इंद्र विनवी ईश्वरासी। वधाच्या दैत्यांसी। जीवन आणावया देवांसी। ऐसा प्रतिकार करावा ।।२२।। संतोषोनि गिरिजारमण। अमृतमंत्र उच्चारोन। घट दिधला तत्क्षण। संजीवनी उदक देखा ।।२३।। तें उदक घेवोनि इंद्रराव । शिंपताचि समस्त देव। उठोनिया अमर सर्व। स्वर्गास जाती तये वेळीं ।॥२४।। उरलें अमृत घटीं होतें। घेऊनि जातां अमरनाथें। पडिलें भूमी अवचितें। प्रवाह झाला क्षितीवरी ।।२५।। ते संजीवनी नामें नदी। उद्भवली' भूमी प्रसिद्धी। अमरजा नाम बाचि विधीं। प्रख्यात झाली अवधारा ।।२६।। या कारणें या नदौसी। जे स्नान करिती भक्तींसी। काळमृत्यु न बाचे त्यासी। अपमृत्यु घडे केवी ।।२७।। शतायुषी पुरुष होती। रोगराई न पीडिती। अपस्मारादि रोग जाती। ब्रह्महत्यादि पाठकें ।।२८।। अमृतनदी नाम तिवेसी। संगम झाला भीमरथीसी। तीर्थ झालें प्रयागसरसी। त्रिवेणीचा संगम ।।२९।। कार्तिकादि माघमासीं। स्नान करिती भक्तींसी । इह सौख्य परलोकासी। मोक्षस्थाना पावती ।।३०।। सोम-सूर्य ग्रहणासी। संक्रमण सोम-अमावास्येसी । पुण्यतिथि एकादशीसी। स्नान करावें अनंत पुण्य ।।३१।। साधितां प्रतिदिवस जरी। सदा करावें मनोहरी। समस्त दोष जाती दूरी। शतायुषी श्रियायुक्त होय ।।३२।। ऐसा संगममहिमा ऐका। पुढे सांगतसे तीर्थ विशेखा। दिसे अच्चत्थ संमुखा । मनोहर तीर्थ असे ॥ ३३।। या तीर्थों स्नान केलिवा। मनोहर पाविजे कावा। कल्पवृक्षस्थानी अनुपम्या । कल्पिलें फळ पाविजे ।।३४।। अचत्थ नव्हे हा कल्पतरु। जाणावें तुम्हीं निर्धारु। जें जें चिंतिती मनीं नरु। पार्वती काम्ये अवधारा ।। ३५।। ऐसें मनोहर तीर्थ। ठावें असे प्रख्यात। संमुख असे अश्वत्थ। सदा असो याचिया गुणें ।।३६।। जे जन येऊनि सेवा करिती । तयांचे मनोरथ पुरती। न धरावा संदेह आतां चित्तीं। ऐसें म्हणती श्रीगुरुनाथ ।।३७।। आम्ही बसतों सदा येथे। ऐसें जाणा तुम्ही निरुतें । दृष्टीं पडतां मुक्ति होते। खूण तुम्हां सांगेन ।।३८।। कल्पवृक्षातें पूजोनि। मग जावें शंकरभुवनीं। संगमेश्वर असे त्रिनयनी। पूजा करावी मनोभावें ।॥३९॥ जैसा पर्वतीं मल्लिकार्जुन । तैसा संगमी रुद्र आपण। भक्तिपूर्वक प्रदक्षिण। करावी तुम्ही अवधारा ॥॥४०॥ नंदिकेश्वरातें नमोनि । नमन करावें चंडस्थानीं। पूर्ण नदीं सव्य करोनि। मग जायें सोमसूत्रासी ।।४१।। सर्वेचि परतोनि वृषभासी । नमोनि जायें चंडापासीं । पुनः जावें सोमसूत्रासी। येणें विधीं प्रदक्षिणा ।।४२।। ऐसी प्रदक्षिणा देखा। तीन वेळां करोनि ऐका। वृषभस्थानीं येऊनि निका। अबलोकावें शिवासी ।।४३।। वामहस्तीं वृषण धरोनि। तर्जनी अंगुष्ठ शृंगी ठेवोनि। पूजा पहाबी दोनी नयनीं। इंद्रासमान होय नर ।।४४।। धनधान्यादि संपत्ति । लक्ष्मी राहे अखंडिती। पुत्र पौत्र त्यासी होती। संगमेश्वर पूजिलिया ।।४५।। पुढे तीर्थ वाराणशी। अर्ध कोश परियेसीं । ग्राम असे नागेशी। तेथोनि उद्भव असे जाण ।।४६।। याचे असे आख्यान। कथा नव्हे प्रत्यक्ष जाण । होता एक ब्राह्मण । भारद्वाज गोत्राचा ॥४७।। विरक्त असे ईश्वरभक्त। सर्वसंग त्याग करीत। आपण रत अनुष्ठानांत । सदा ध्याई' शिवासी ।।४८।। प्रसन्न झाला चंद्रमौळी। सदाशिव दिसे जवळी। विप्रा आल्हाद सर्व काळीं। देहभाव विसरोनि हिंडत ।।४९।। लोक म्हणती पिसा' त्यासी। निंदा करिती बहुवसीं। दोघे बंधु असती तयासी। नामें त्यांची अवधारा ।।५०।। एका नाम असे ईश्वर। दुसरा नामें असे पांडुरंगेश्वर। बंधु एकला करोनि अव्हेर । आपण निघाले काशीसी ।।५१।। करोनिया सर्व आइती। सर्व निघाले त्वरिती। तया पिशातें पाचारिती। चला जाऊं म्हणोनिया ।।५२।। ब्रह्मज्ञानी द्विज निका। पिसा म्हणती मूर्ख लोका। बंधूसि म्हणे द्विज ऐका। नका जाऊं काशीसी ॥५३।। विश्वेश्वर असे मजजवळी। दाबीन तुम्हां तात्काळीं। आश्चर्य करिती सकळी। दावी म्हणती बंधुजन ।।५४।। काशीस जाने अति प्रयास। येथे भेटे तरी का सायास। म्हणोनि बोलताती हर्ष। तये वेळी अवधारा ॥५५।। इतुकिया अवसरी । विप्र गंगास्नान करी। ध्यानस्थ होता साक्षात्कारी । ईश्वर आला तयाजवळी ।।५६।। विनवीतसे शिवासी। आम्हां नित्य पाहिज काशी। दर्शन होय विश्वेश्वरासी। म्हणोनि चरणी लागला ।।५७।। ईश्वर भोळा चक्रवर्ती । प्रसन्न झाला अतिप्रीतीं। दिसे तीच काशी त्वरितीं। मणिकर्णिका कुंड झालें ।॥५८॥ विश्वेश्वराची मूर्ति एक । निघाली कुंडों विशेख। नदी उत्तरे दिसे निक। एकबाणप्रमाण' असे ।।५९।। उदक निघालें कुंडांतून । जैसे भागीरथी गहन । ज्या ज्या असती काशींत खुणा । समस्त असती तयासी ।।६०।। संगम झाला नदी भीमा । तीर्थ असे काशी उत्तमा। आचार करिती सप्रेमा। बंधु ज्ञानी म्हणती मग ।।६१।। म्हणे ब्राह्मण बंधूसी । काशीस न जावें आमुचे वंशीं। समस्तें आचरावे ही काशी। आम्हां शंकरें सांगितले ।।६२।। आपुलें नाम ऐसें जाणा । गोसावी नाम निर्धारी खुणा । तुम्हीं बंधु दोघेजणां। आराधानें ऐसें निरोपिलें ॥६३।। दोपी जावें पंढरपुरा । तेथे असे पुंडलीकवरा। सदा तुम्ही पूजा करा। आराध्या नामें विख्यात ।। ६४।। प्रतिवर्षी कार्तिकीसी। येथे वावें निधरिंसी। तीर्थ असे विशेषीं। ऐसें म्हणे ब्राह्मण ।। ६५।। श्रीगुरु म्हणती भक्तासी। काशीतीर्थ प्रगटलें ऐसी। न धरावा संशय तुम्हीं मानसीं। वाराणसी प्रत्यक्ष ही ।।६६।। ऐकोनि समस्त द्विजवर। करिती स्नान निर्मळ आचार । तेथोनि पुढे येती गुरुवर। सिद्ध सांगे नामधारका ।।६७।। श्रीगुरु म्हणती सकळिकांसी । तीर्थ दाविती पापविनाशी । स्नानमात्रे पाप नाशी। जैसा तृणा अग्नि लागे ।।६८।। आपुले भगिनी रत्नाईसी। दोष असे बहुवसीं । बोलावोनि त्या समयासी । पुसताती श्रीगुरुमूर्ति ।।६९।। ऐक पूर्वदोष भगिनी। तू आलीस आमुचे दर्शनी। पाप तुझे असे गहनीं । आठवणें करी मनांत ।।७०।। ऐकोनि श्रीगुरुच्या बोला। पायां पडे वेळोवेळां। अज्ञान आपण मूढ़ केवळा । इतुकें कैसे ज्ञान मज ॥७१।। तूं जगदात्मा विश्वव्यापक। तूंचि ज्ञानज्योतिप्रकाशक' । सर्व जाणसी तूंचि एक । विस्तारोनि सांग मज ।।७२।। श्रीगुरु म्हणती तियेसी । आपुलें पाप मज पुससी। विधले पांच मार्जारांसी। नेणसी खूण धरी आपुलीं ।॥७३॥ होती मार्जारी गर्भिणी। प्रसूति झाली भांडधामधुनी। न पाहतां उदक घालुनी । झाकोनि ठेविली अग्रीवरी ।।७४।। पांच मार्जारांचा घात। लागता दोष बहुत । ऐसें ऐकोनिया त्वरित । श्वेतकुष्ठ झाले तिसी ।। ७५।। देखोनिया भयाभीत झाली। श्रीगुरुचरणा येऊनि लागली। विनवीतसे करुणा बहाळी। कृपा करी गा गुरुमूर्ति ।। ७६।। करोनि समस्तपापराशि। तीर्थी जाती वाराणशी। मी आलें तुझे दर्शनासी। पापावेगळी होईन म्हणोनि ।।७७।। श्रीगुरु पुसती तिवेसी। तुज राहे पापराशि। पुढिले जन्मीं जरी भोगिसी। तरी कुष्ठ जाईल आतां ॥७८।। रत्नाई विनवी स्वामियासी। उबगलें बहुत जन्मासी। याचि कारणें तुझे दर्शनासी । पापावेगळे होऊं म्हणतसे ।।७९।। आतां पुरे जन्म आपणा। म्हणोनि धरिले तुझे चरणा। याचि जन्मी भोगीन जाणा । पापाचें फळ म्हणतसे ॥८०॥ इतुके ऐकोनि गुरुमूर्ति। रत्नाईस निरोप देती। पापविनाश तीर्धा जाय त्वरिती । स्नानमात्रे जाईल कुष्ठ ।।८१।। नित्य करीं हो येथे स्नान। सप्तजन्मींचे दोष गहन। संदेह न करितां होय अनुमान । म्हणोनि सांगती श्रीगुरु ॥८२॥ सिद्ध म्हणे नामधारकासी। आम्हीं देखिलें दृष्टींसी। स्नान करितां त्रिरात्रीसी । कुष्ठ तिचे परिहारिलें ॥८३॥ ऐसें प्रख्यात तीर्थ देखा। नाम पापविनाशी ऐका। जे करिती स्नान भक्तिपूर्वका । सप्तजन्मींचीं पायें जाती ।।८४।। तीर्थमहिमा देखोन। रत्नाबाई संतोषोन। राहिली मठ बांधोन । तीर्थासात्रिध अवधारा ।।८५।। पुढें कोटितीर्थ देखा। श्रीगुरु दाविती सकळिकां। स्नानमात्रे होय निका। याचे आख्यान बहु असे ।।८६।। जंबुद्वीपों जितकीं तीर्थे। एकेक महिमा अपरिमितें'। इतुकिया वास कोटितीर्थे । विस्तार असे सांगतां ।।८७।। सोम-सूर्य ग्रहणासी। अथवा संक्रांतिपर्वणीसी। अमापौर्णिमा प्रतिपदेसी । स्नान तेथे करावें ।।८८।। सवत्सेसी घेनु देखा। सालंकृत करोनि ऐका। दान द्यावें द्विजा निका। एकेक दान कोटिसरसे ।।८९।। तीर्थमहिमा आहे कैसी। स्नान केलिवा अनंत फळ पावसी। एकेक दान कोटीसरसी। दोन तीर्थी करावें ।।१०।। पुढे तीर्थ रुद्रपद । कथा असे अतिविनोद। गयातीर्थ समप्रद। तेथे असे अवधारा ।।९९।। जे जे आचार गयेसी । करावे तेथे परियेसीं। पूजा करा रुद्रपदाची। कोटि जन्मीची पायें जाती ।।९२।। पुढे असे चक्रतीर्थ । अतिविशेष पचित्र । केशव देव सन्निध तत्र । पुण्यराशिस्थान असे ।।९३।। या तीर्थी स्नान करिता। ज्ञान होय पतितां । अस्थि होती चक्रांकिता। द्वाराचतीसमान देखा ।।९४।। या तीर्थी स्नान करोनि। पूजा करावी केशवचरणीं । द्वारावती चतुर्गुणी। पुण्य असे अवधारा ।।९५।। ऐकोनि श्रीगुरुचें वचन। समस्त करिती स्नान दान। पुढे असे मन्मथदहन । तीर्थ सांगती श्रीगुरु ।। ९६।। ग्रामपूर्वभागेसी। कल्लेश्वर देव परियेसीं। जैसे गोकर्णमहाबळेश्वरासी। समान क्षेत्र परियेसा ।।९७।। मन्मथ तीर्थी स्नान करावें। कल्लेश्वरातें पूजावें। प्रजावृद्धि होय बरवे । अष्टैश्वर्ये पाविजे ।।९८।। आषाढ श्रावण मासीं। अभिषेक करावा देवासी। दीपाराधना कार्तिकमासीं। अनंत पुण्य अवधारा ।।९९।। ऐसा अष्टतीर्थमहिमा। सांगती श्रीगुरु पुरुषोत्तमा । संतोषोनि भक्त उत्तमा । अति उल्हास करिताती ॥१००।। म्हणती समस्त भक्तजन। नेणों तीर्थाचें महिमान । स्वामी निरोपिलें कृपेनें। पुनीत केलें आम्हांसी ।।१।। जवळी असतां समस्त तीर्थे। कां जावे दूर यात्रे। स्थान असे हे पवित्र। म्हणोनि समस्त आचरती ।।२।। अष्टतीर्थे सांगत। श्रीगुरु गेले मठांत। समाराधना करिती भक्त। महानंद प्रवर्तला ।।३।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी । तीर्थमहिमा आहे ऐसी। श्रीगुरु सांगती आम्हांसी। म्हणोनि तुज निरोपिलें ।।४।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर। क्षेत्र भोर गाणगापुर । तीर्थे असती अपरंपार। आचरा तुम्ही भक्तीनें ॥५।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । सिद्धमुनि शिष्यसंवाद बहुत । गाणगापुरमाहात्म्य विख्यात। एकुणपन्नासाव्यांत कथियेलें ।॥१०६।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥४९॥
ओवीसंख्या १०६
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । सिद्ध म्हणे नामधारका। पुढे अपूर्व झालें ऐका। पूर्वी रजक कथानका। तूं तें आपण निरोपिलें' ।।१।। तयानें मागितला वर। राज्यपद धुरंधर। प्रसन्न झाले तयासी गुरुवर। दिधला वर परियेसा ।।२।। उपजला तो म्लेंच्छ जातींत । बैदुरीनगरी राज्य करीत। पुत्रपौत्री नांदत। महानंदें परियेसा ।।३।। ऐसा राजा तो यवन । होता आपण संतोषोन । अश्व गज अपार धन। पायभारा मिति नाहीं ।।४।। आपण तरी यातिहीन। पुण्यवासना अंतःकरण। दानधर्म करी जाण । समस्त यातीं एकभावें ।।५।। विशेष भक्ति विप्रांवरी। ती असे पूर्वसंस्कारी असती देवालयें भूमीवरी । उपद्रव नेदी तयांसी ।।६।। तया घरचे पुरोहित। तया रायातें शिकवीत। आपण होऊन म्लेच्छ जात । देवद्विज निंदावे ।।७।। तयांतें तुम्हीं सेवितां देख। तेणें होय अपार पातक। यातिधर्म करणे सुख। अनंत पुण्य असे जाणा ।।८।। मंदमति द्विजजाति। देखा पाषाणपूजा करिती। समस्तांतें देव म्हणती। काष्ठवृक्षपाषाणांसी ।।९।। धेनूसी म्हणती देवता होय । पृथ्वी साम अग्नि सूर्य। तीर्थयात्रा नदीतोय। समस्तां देव म्हणताती ।।१०।। ऐसे विप्र मंदमती। निराकारा साकार म्हणती । तयांतें म्लेंच्छ जे भजती। ते पावती अधःपात ।।११।। ऐसे बवनपुरोहित' । रावापुढे सांगती हित । ऐकोनि राजा उत्तर देत। कोपें करोनि परियेसा ।।१२।। राजा म्हणे पुरोहितांसी। निरोपिलें तुम्हीं आम्हांसी। अणुरेणुतृणकाष्ठंसी। सर्वेश्वर पूर्ण असे ।।१३।। समस्त सृष्टि इंचराची। स्थावर जंगम रचिली साची । सर्वत्र देव असे साची। तर्कभेद असंख्य ।।१४।। समस्त जातींची उत्पत्ति। जाणावी तुम्हीं पंचभूर्ती । पृथ्वी आप तेज वायु निगुती। आकाशापासाव परियेसा ।।१५।। समस्तांची वृद्धि एक। जाणती मृत्तिका कुलाल' लोक । नानापरींची करिती अनेक भांडी भेद परोपरी ।।१६।। नानापरीच्या पेनु असती। क्षीर असे एकचि रीतीं। सुवर्ण जाण तेचि रीतीं। परोपरीचे अलंकार ।।१७।। तैसा देह भिन्न जाण। परमात्मा एकचि पूर्ण। जैसा नभीं मृगलांछन । नाना घटी दिसतसे ।।१८।। दीप असे एक घरी। चाती लाविल्या सहस्र जरी। समस्त होती दीपावरी। भिन्न भाव कोठे असे ।।१९।। एकचि सूत्र आणोनि। नानापरीचे ओविती मणि। सूत्र एकचि जाणोनि । न पाविजे भाव भिन्न ।।२०।। तैशा जाति नानापरी। असताती वसुंधरों। समस्तांसी एकचि हरी। भिन्न भाव करूं नये ।।२१।। आणिक तुम्ही म्हणाल ऐसें। पूजिती पाषाण देव कैसे। सर्वां ठायी पूर्ण भासे। विश्वात्मा आहेचि ॥२२॥ प्रतिमापूजा' स्वल्पबुद्धि । म्हणोनि सांगती प्रसिद्धी। आत्माराम पूजिती विधीं। त्यांचे मतीं ऐसे असे ।।२३।। स्थिर नव्हे अंतःकरण। म्हणोनि करिती प्रतिमा खूण। नाम ठेवोनि नारायण। तया नामें पूजिताती ।।२४।। तयातें तुम्ही निंदा करितां । तरी सर्वां ठायीं पूर्ण कां म्हणतां । प्रतिष्ठाव्या आपुले मता । द्वेष आम्हीं न करावा ।।२५।। या कारणें ज्ञानवंतीं । करूं नये निंदास्तुती। असती नानापरी जाती। आपुले रहाटी' रहाटती ।।२६।। ऐशापरी पुरोहितांसी । सांगेन राजा विस्तारेंसी। करी पुष्य बहुवसीं। विश्वास देवद्विजांबरी ॥२७।। राजा देखा येणेंपरी। होय तया वैदुरीनगरी। पुढे त्याचे मांडीवरी। स्फोटक एक उद्भवला ।।२८।। नानापरीचे वैद्य येती । तया स्फोटकासी लेप करिती । शमन न होय कवणे रीती। महादुःखें कष्टतसे ।।२९।। ऐसे असतां वर्तमानी। श्रीगुरु असतां गाणगाभुवनीं । विचार करिती आपुले मनीं। राजा येईल म्हणोनिया ।।३०।। येथे येतां म्लेंच्छ लोक। होईल द्विजां उपबाधक । प्रगट झालों आतां ऐक । आम्ही येथे असू नये ॥३१।। प्रगट जहाली महिमाख्याति । पहावया येती म्लेंच्छ जाति । आतां रहावें आम्हीं गुप्तीं। लौकिकार्थ परियेसा ।।३२।। आला ईश्चरनाम संवत्सरू। सिंहासी आला असे गुरू । गौतमी तीर्थ थोरु । यात्राप्रसंगें जावें आतां ।।३३।। म्हणती समस्त शिष्यांसी। करा आवती वेगेसी । येतो राजा बोलवावयासी। जावें त्वरित गंगेला ।। ३४।। ऐसें ऐकोनि शिष्यजन। विचार करिती आपआपण । जरी येईल राजा यवन । केवी होय म्हणताती ।।३५।। ऐसा मनी विचार करिती। काय होईल पहा म्हणती । असे नरसिंहसरस्वती । तोचि रक्षील आपणांतें ।।३६।। येणेंपरी श्रीगुरुमूर्ति। असतां गाणगापुरी ख्याति। राजा यवना झाली मति । पूर्वसंस्कारी परियेसा ।। ३७।। स्फोटकाचे दुःखें राजा। अपार कष्टला सहजा। नानापरी औषधे वोजा। करितां न होय तया बरखें ।॥३८।। मग मनीं विचार करी। स्फोटके व्यापिले अपरंपारी। वैद्याचेनि नोहे दूरी। काय करावें म्हणतसे ।।३९।। बोलावूनि विप्रांसी। पुसे काय उपाय यासी। विप्र म्हणती रायासी। सांगतों ऐका एकचित्तें ।।४०।। पूर्वजन्मीं पापे करिती। व्याधिरूपें होऊन पीडिती। दानधमें तीर्थी दैवतीं। व्याधि जाय परियेसा ।।४१।। अथवा भल्या सत्पुरुषासी। भजा आपण भार्वेसी। तयाचे दृष्टिसुधारसी। बरवें होईल परियेसा ॥४२॥ सत्पुरुषाचे कृपादृष्टीं। पापें जाती जन्म साठी। मग रोग कैचा पोटी। स्फोटकादि त्वरित जाय ।।४३।। ऐकोनिया विप्रवचन । राजा करीतसे नमन। मातें तुम्हीं न म्हणा यवन। दास आपण विप्रांचा ॥४४॥ पूर्वजन्मी आपण । केली सेवा गुरुचरण। पापास्तव झालों जाण। यवनाचे कुळीं देखा ।।४५।। एखादा पूर्ववृत्तान्त। मातें निरोपाचा त्वरित । महानुभावदर्शन' होत। कवणाचा रोग गेला असे ।।४६।। रायाचें वचन ऐकोनि । विचार करिती विप्र मनीं। सांगू नये था स्थानों। एकान्तस्थळ पाहिजे ।।४७।। तुम्ही राव म्लेच्छजाती। समस्त तुम्हां निंदा करिती। आम्ही असों द्विजजाती । केवी करावे म्हणताती ।।४८।। विप्रवचन ऐकोन। विनवीतसे तो यवन। चाड नाहीं जातीविण । आपणास तुम्हीं उद्धरावें ।॥४९।। ऐसे रावाचे अंतःकरण। अनुताप्त झाले असे जाण। मग निरोपिती ब्राह्मण। तया रायातें परियेसा ॥५०॥ विप्र म्हणती रायासी। स्थान बरवें पापविनाशी। जायें तुम्हीं सहजेंसी। विनोदार्थ परियेसा ।।५१।। तेथे असे स्थळ बरखें। एकान्तस्थान पहायें। स्नान करावें मनोभावें। एकचित्तं परियेसा ।।५२।। ऐकोनिया विप्रवचन । संतोषला राजा आपण। निघाला त्वरित तेथोन आला पापविनाश तीर्थासी ।।५३।। समस्तांतें राहवूनि । एकला गेला तथा स्थानी। स्नान करितां तवे क्षणी। आला एक यति तेथे ॥५४।। राजा देखोनि यत्तीसी। नमन करी भावेंसी। दावीतसे स्फोटकासी। म्हणे उपशमन केवी होय ।।५५।। ऐकोनि तयाचे बचन । सांगता झाला विस्तारोन। महानुभावाच्या दर्शनं। तूतें बरवें होय जाणा ।।५६।। पूर्वी याचे आख्यान । सांगेन ऐक विस्तारोन । एकचित्तें करोनि मन। ऐक म्हणती तये वेळीं ।॥५७।। अवंती' म्हणिजे थोर नगरी। तेथे होता एक दुराचारी । जन्मोनिया विप्र उदरीं। अन्य रहाटी रहातसे ।।५८।। आपण असे मदोन्मत्त । समस्त खियांसर्वे रमत । स्नानसंध्या त्यजूनि निश्चित । अन्यमार्गे वागतसे ।।५९।। ऐसे दुराचारीपणे। रहाटतसे तो ब्राह्मण। पिंगला म्हणिजे वेश्या जाण। तयेसवें वर्ततसे ।। ६० ।। न करी कर्म संध्यास्नान। रात्रंदिवस वेश्यागमन। तिचे घरीं भक्षी अन्न । येणेंपरी दोष केले ।।६१।। ऐसें असतां वर्तमानी। ब्राह्मण होता वेश्यासदनीं। तेथें आला एक मुनि। वृषभनामा महायोगी ।।६२।। तया देखोनि दोघे जण। करिती साष्टांग नमन। भक्तिभावें करोन। घेवोनि आली मंदिरांत ।। ६३।। बैसबोनिया पीठावरी। पूजा करिती षोडशोपचारी। अर्घ्यपाद्य देवोनि पुढारी। गंधाक्षता लाविती ॥६४।। नाना परिमळ पुष्पजाती । तवा योगिवासी समर्पिती। परिमळ द्रव्ये अनेक रीतीं। समर्पिली तया योगेश्वरा ।।६५।। चरणतीर्थ घेऊन । पान करिती दोघेजण। त्यांतें करविती भोजन। नानापरी पक्कानेंसी ।। ६६।। करवूनिया भोजन। केलें हस्तप्रक्षालन । बरवा पलंग आणोन। देती तया योगियासी ।।६७।। तया मंचकीं निजवोन। तांबूल देती आणोन । करिती पादसंवाहन' । भक्तिभावें दोघेही ।। ६८।। निद्रिस्त झाला योगेश्वर। दोघे करिती नमस्कार। उमें राहोनि चारी प्रहर । सेवा केली भावेसी ।।६९।। उदय झाला दिनकरासी । संतोषला तो तापसी । निरोप घेऊनि संतोषीं। गेला आपुल्या स्थानाप्रती ।।७०।। ऐसे विद्रे वेश्याधरी। क्रमितां कचित दिवसांवरी। तारुण्य जाउनी शरीरी। वार्धक्य पातले तयासी ।। ७५ ।। पुढें तया विप्रासी। मरण आलें परिवेसीं। पिंगला नाम वेश्येसी। दोघे पंचत्व पावली ।।७२।। पूर्वकर्मानुबंधेंसी। जन्म झाला राजवंशीं। दशार्णवाधिपतिकुशीं। बज्रबाहूचे उदरांत ।।७३।। तया चज्रबाहुपत्नी। नाम तिचें वसुमती । जन्मा आला तिचे पोटीं। तो विप्र परियेसा ।।७४।। तया बज्रबाहसी। ज्येष्ठ राणीच्या गर्भसी। उद्भवला विप्र परियेसीं । राजा समारंभ करीतसे ॥७५।। देखोनि तिचे सक्तीसी। क्रोध आला बहु मानसीं। गर्भझाला सपत्नीसी । म्हणोनि द्वेष मनीं घरी ।। ७६।। सर्पगरळ आणोनि। दिल्हें सवतीस नाना यत्नीं। गरळे भेदिलें अतिगहनीं। तया राजज्येष्ठ खियेसी ।।७७।। दैवयोगें न ये मरण। सर्व शरीरी झाले व्रण। चिंता करी अतिगहन । महाकष्ट भोगीतसे ॥७८।। ऐशापरी राजयुवती। कटे झाली प्रसूति। उपजतां बाळका मातेप्रती। सर्वांग स्फोट वाहत ।।७९।। विर्षे व्यापिलें सर्वांगासी। म्हणोनि आक्रंदती दिवानिशीं। दुःख करी राजा क्लेशीं। म्हणे काय करूं आतां ।।८०।। देशोदेशींच्या वैद्यांसी। बोलाविती चिकित्सेसी। वेंचिती द्रव्य अपारेंसी। कांही केलिया बरवें नोहे ।।८१।। तया माता बाळकासी । व्रण झाले बहुवसीं। निद्रा नाहीं रात्रीसी । सर्वांगी कृमि पडले असती ।।८२।। त्यांतें देखोनि रायासी। दुःख झालें बहुवसीं। निद्रा नाहीं दिवानिशीं । त्याचे कष्ट देखोनिया ।।८३।। व्यधे करोनि मातासुत । अन्न उदक न बचे' कचित। शरीरी सर्व क्लेश होत। क्षीण झालें येणेंपरी ।।८४।। राजा येऊनि एके दिवसीं । पाहे आपुले खी-सुतासी। देखोनिया महाक्लेशी। दुःख करीतसे परियेसा ।।८५।। म्हणे आतां काय करूं। केवी करणें प्रतिकारू। नाना औषधे उपचारू। करितां स्वस्थ नव्हेचि ।।८६।। स्त्री-पुत्रांची ऐशी गति । जिवंत शर्वे झाली असती। यांच्या रोगासी होय शांति। केवी पाहूं म्हणतसे ॥८७।। आतां यातें पहावयासी। कंटाळा येतो आम्हांसी। बरवें नव्हे सत्य यांसी। काय करणें म्हणतसे ।।८८।। याते देखतां आम्हांसी। श्रम होती देहासी। नेवोनिया अरण्यासी। त्यांतें त्यजू म्हणतसे ।।८९।। जे जे असती पापीजन। त्यांतें जीवन अथवा मरण । भोगिल्यांवाचोनि न सुटे जाण। आपुलें आपण भोगिजे ।।१०।। विचार करोनि मानसीं। बोलाविले कोळियासी । सांगतसे विस्तारेंसी। ऐका श्रोते एकचित्तें ।।११।। राजा म्हणे सुतासी। माझे बोल परियेसीं । नेऊनि आपले खी-पुत्रांसी। अरण्यांत ठेवावें ।॥९२।। मनुष्यांचा संबार। जेथे नसेल निर्धार। तेथे ठेवीं वेगवक्र। म्हणे राजा सूतासी ।।९३।। येणेंपरी सूतासी। राजा सागे विस्तारेंसी। रथ दिपला संजोगेसी'। घेऊनि गेला झडकरी ।।९४।। तिचे दासदासी सकळ । दुःख करिती महाप्रबळ । माता पिता बंधु सकळ । समस्त प्रलाप' करिताती ।।९५।। दुःख करिती नर नारी। हा हा पापी दुराचारी। श्री सुतांसी कैसेपरी। केवी यांतें मारवितो ।।९६।। रथावरी बैसवोनि। घेवोनि गेला महारानीं । जेथे नसती मनुष्य कोणी। तेथे ठेविलीं परियेसा ।। ९७।। सूत आला परतोनि। सांगे रायासी विस्तारोनि। महाअरण्य दुर्गम बनीं । तेथे ठेविली म्हणतसे ।।९८।। ऐकोनि राजा संतोषला। दूसरे स्त्रियेसी वृत्तान्त सांगितला । दोघांसी आनंद जाहला । बनीं राहिली मातासुत ।।९९।। मातापुत्र दोघेजण । पौडताती दुःखेकरून । कटती अन्नउदकावीण । महाघोर वनांत ।।१००१। राजपत्नी सुकुमार। तिये शरीरी व्रण थोर। चालू न शके पृथ्वीवर । महाकंटक भूमीवरी ।।१।। कडिये घेवोनि बाळकासी। जाय ती मंदगमनेंसी। आठवी आपुले कर्मोंसी। म्हणे आतां काय करूं ।।२।। तथा वनीं मृगजाति । व्याघ्र सिंहादिक असती। सर्प थोर अपरिमिती । हिंडताती वनांत ।।३।। मातें जरी व्याघ्र मारी। पापापासून होईन दुरी। पुरे आतां जन्म संसारी। वांचोनि' काय व्यर्थ जिणें ।।४।। म्हणोनि जाय पुढें रडत । क्षणोक्षणी असे पडत। पुत्रासहित चिंता करीत। जात असे वनामाजी ।।५।। उदकाविणें तृषाक्रांत । देह व्रणें असे पीडित। व्याघ्रसर्पादि देखत। भयें चकित होतसे ।।६।। देखे वेताळ ब्रह्मराक्षस । वनगज भालुका बहुवस । केश मोकळे पायांस। काटे धोंडे लागताती ।।७।। ऐसे महाअरण्यांत। राजश्री असे हिंडत । पुढें जातां देखिले वनांत । गुरें चरती वाणिवांचीं ।।८।। तयांपासीं जावोनि । पुसतसे करुणावचनीं। गोरक्षकांतें' विनवोनि। मागे उदक कुमारासी ।।९।। गोरक्षक म्हणती तियेसी। जावें तुवां मंदिरासी । तेथे उदक बहुवसी। अन्न तूतें मिळेल ।।११०।। म्हणोनि मार्ग दाखविती। हळूहळू जाय म्हणती। राजपत्नी मार्ग क्रमिती। गेली तया ग्रामांत ।।११।। तया ग्रामी नरनारी। दिसताती अपरंपारी। ऐकोन आली मनोहरी। पुसे तयां स्त्रियांसी ।।१२।। म्हणे कवण' येथे राजा । संतोषी दिसे समस्त प्रजा। ऐकोनि सांगती वैश्यराजा। महाधनिक पुण्यात्मा ।।१३।। त्याचें नांव पद्माकर । पुण्यवंत असे थोर। तूतें रक्षील साचार। म्हणोनि सांगती तियेसी ।।१४।। इतुकिया अवसरी । तया वैश्याचे घरी। दासी होत्या मनोहरी। त्याही आल्या तियेजवळी ।।१५।। येवोनि पुसती वृत्तान्त । घेवोनि गेल्या मंदिरांत । आपल्या स्वामीसी सांगत। आद्यतेसी विस्तारें ।।१६।। तीस देखोनिया वैश्वनाथ। कृपा करी अत्यंत। नेऊनिया मंदिरांत। दिल्हें एक गृह तिसी ।।१७।। पुसोनिया वृत्तान्त। वाणी होय कृपावंत । दिल्हें अन्नवस्र बहुत। नित्य तिसी रक्षीतसे ।।१८।। ऐशी तया वैश्याघरी। होती रायाची अंतुरी। वर्धतसे पीडा भारी। व्रण न चचे परियेसा ।।१९।। येणेंपरी राजसती । तया वैश्याचे घरीं होती। वाढले व्रण तयांसी बहुती। प्राणांतक होतसे ।।१२०।। वर्ततां ऐसें एके दिवसीं। मरण आलें कुमारकासी। प्रलाप करी बहुवसी। राजपत्नी तये वेळीं ।।२१।। मूर्च्छा येऊनि तये क्षणीं । राजपत्नी पडे धरणीं। आपुलें कर्म आठवोनि। महाशोक करीतसे ।।२२।। त्या वाणियाच्या स्त्रिया देखा। संबोखिताति' ती बालिका। कवणेंपरी तिचे दुःखा। शमन नोहे परियेसा ॥२३।। नानापरी दुःख करी । आठवीतसे पूर्वापारी। म्हणे ताता माझ्या सौरी' । कोठे गेलासी बाळका ।।२४।। राजकुमारा पूर्णचंद्रा । माझ्या आनंदसमुद्रा। मातें धरिसी मौनमुद्रा । तूतें काय बरवें असे ।।२५।। मातापिता बंधुजन । सोडोनि आल्यै सकळ जाण । तुझा भरंक्सा होता पूर्ण। मातें रक्षिसी म्हणोनिया ।।२६।। मातें अनाथ करोनि। तूं जातोसि सोडोनि । मज रक्षिता नसे कोणी। प्राण त्यजीन म्हणतसे ।।२७।। येणेंपरी राजनारी। दीर्घस्वरें रुदन करी । देखोनिया नरनारी। दुःख करिती परियेसा ।।२८।। समस्तही दुःखाहुनी। पुत्रशोक केवळ वहि। मातापितरांतें दाहोनि। भस्म करी परियेसा ।।२९।। येणेंपरी दुःख करितां। ऋषभ योगी आला त्वरिता। पूर्वजन्मींच्या उपकारार्था। पातला तेथे महाज्ञानी ।।१३०।। योगियातें देखोनि। बंदिता झाला तो बाणी। अर्घ्यपाद्य देवोनि। उत्तम स्थानीं बैसविला ॥३१।। योगी तया अवसरीं। पुसे कवण दीर्घस्वरी। शोक करितसे अपारों। कवण असे म्हणतसे ।।३२।। सविस्तर वैश्यनाथ। सांगता जाहला वृत्तान्त । योगीश्वर कृपावंत आला तिये जवळीक ।।३३।। म्हणे योगी तियेसी । मूढपणे दुःख करिसी। कवण जन्मला भूमीसी। कवण मेला सांग मज ।।३४।। देह म्हणिजे विनाशी जाण। जैसा गंगेत दिसे फेण'। व्यक्ताव्यक्त सर्वेचि होय जाण। जलबुदबुदापरी' देखा ।। ३५।। पृथ्वी तेज वायु आप। आकाश मिळोनि सर्वव्याप । पंच गोठली शरीररूप । दिसत असे परियेसा ॥३६।। पंच भूतें पांचांठायीं। निघोन जातां शून्य पाहीं। दुःख करितां अवकाश नाहीं। वृथा कां तू दुःख करिसी ॥ ३७।। गुणापासाव उत्पत्ति। निज कर्मे होय निरुती। काळ नाचची दृष्टिविकृतीं। वासना तयापरी जाणा ।। ३८।। मायेपासोनि माया उपजे। होय गुणे सत्त्वरजें । तमोगुणे तेथे सहजें । देहलक्षण येणेंपरी ।।३९।। या तीन गुणांपासाब । उपजताती मनुष्यभाव। सत्त्वगुणें असती देव । रजोगुण मनुष्याचा ।।१४०।। तामस तोचि राक्षस । जैसा गुण असे त्यास। तैसा जन्मे पिंडाभास। कधीं स्थिर नव्हेंचि ।।४१।। या संसारवर्तमानीं । उपजती नर कर्मानुगुणीं। जैसे अर्जित असे पूर्वपुण्यों। सुखदुःखे पडती देखा ।।४२।। कल्पकोटिवर्षांवरी । जिवंत असती सुर जरी। तेही न राहती स्थिरी। मनुष्यांचा काय पाड ।।४३।। या कारणें ज्ञानीजनें । उपजतां संतोष न करणें। मेलिया दुःख न करणें। स्थिर नव्हे देह जाणा ।।४४।। गर्भ संभवे जिये काळीं। विनाश म्हणोनि जाणती सफळी। कोणी मरती यौवनकाळीं । कचिद्वार्धक्यपणी जाणा ।।४५।। जैसे कर्म पूर्वार्जित । येणेंपरी असे घडत । मायामोहें म्हणत। सुत नरदेही हे ।।४६।। जैसें लिखित ललाटेसी। ब्रह्मदेवें लिहिलें परियेसीं । कालकर्म उल्लंघावयासी । शक्ति न होय कवणा जाणा ।।४७।। ऐसें अनित्य देहासी। कां वो माते दुःख करिसी । तुझी पूर्वपरंपरा कैसी। सांग आम्हां म्हणतसे ।।४८।। तूं जन्मांतरी जाणा। कवणा होतीस अंगना। किंवा झालीस जननी कोणा । भगिनी कोणाची सांग पां ।।४९।। ऐसे जाणोनि मानसी। वायां कां हो दुःख करिसी। जरी बरवें तूं इच्छिसी। शरण जाई शंकरा ।।१५०।। ऐसें ऐकोनि राजयुक्ती। करी ऋषभयोगिया विनंति । आपणासी झाली ऐसी गति । राज्यभ्रष्ट होऊनि आल्ये ।।५१।। मातापिता बंधुजन । सोडोनि आले मी रान। पुत्र होता माझा प्राण। भरवसा मज तयाचा ।।५२।। तया जहाली ऐशी गत्ति। आपण वांचोनि काय प्रीति। मरण व्हावें मज निखिती । म्हणोनि चरणी लागली ।।५३।। ऐसें निर्वाण' देखोनि। कृपा उपजली योगियामनों। पूर्व उपकार स्मरोनि । प्रसन्न झाला तवे वेळीं ।।५४।। भस्म काढोनि तये वेळीं। लाविलें प्रेताचे कपाळीं। घालितां त्याचे मुखकमळीं । प्राण आला परियेसा ॥५५।। बाळ बैसला उठोनि। सर्वांग झाले सुवर्णवर्णी। मातेचे व्रणही तेच क्षणीं। जाते झाले तात्काळ १।५६।। राजपत्नी पुत्रासहित। करी योगियासि दंडवत । ऋषभयोगी कृपावंत । आणीक भस्म प्रोक्षीतसे ॥५७।। तात्काळ तया दोघांसी। शरीर होय सुवर्णसंकाशी'। शोभायमान दिसे कैसी। दिव्य काया उभवतांची ।।५८।। प्रसन्न झाला योगेश्वर। तये वेळीं दिधला वर। तुम्हां न होय जराजर्जर। तारुण्यरूप चिरंजीवी ।।५९।। तुझा सुत भद्रायुषी। कीर्ति वरील बहुवशी। राज्य करी परियेसीं। पित्याहूनि अधिक जाणा ।।१६०।। ऐसा वर देऊनि । बोगी गेला तेथोनि। ऐक राजा एकमनीं। सत्पुरुषाचे महिमान ।। ६१।। सत्पुरुषाची सेवा करितां। तुझा स्फोटक जाईल त्वरिता। तुवां न कराची कांहीं चिंता। दृढ घरी भाव एक ।।६२।। ऐसे यतीचें वचन ऐकोनि। राजा नमन करी तये क्षणीं। विनवीतसे कर जोडोनि । कोठे असे सत्पुरुष ।।६३।। मातें निरोपावें आतां। जाईन आपण तेथे तत्त्वतां । मजला त्यांचे दर्शन होतां। होईल बरवें म्हणतसे ।। ६४।। ऐकोनि राजाचे वचन । सांगतसे मुनि आपण । भीमातीरीं गाणगाभुवन। असे तेथे परमपुरुष ।। ६५।। तयापासीं तुवां जावें। दर्शनमात्रे होईल बरवें। ऐकोनि राजा एकभावें । निघता झाला तये वेळीं ।।६६।। एकभावें राजा आपण। ध्यावया श्रीगुरुदर्शन । प्रयाणावरी' करी प्रयाण। आला गाणगापुरासी ।। ६७।। ग्रामी पुसे सकळिकांसी। कोण येथे एक तापसी । रूप धरिलें संन्यासी। कोठे आहे म्हणतसे ।।६८।। भयभीत झाले सकळिक । म्हणती आतां नव्हे निक। श्रीगुरुसी पुसतों ऐक । काय करील न कळे म्हणती ।। ६९।। कोणी न बोलती तयासी। राजा कोपला बहुवसी। म्हणे आलों भेटीसी । दावा आपणा म्हणतसे ।।१७०।। मग म्हणती समस्त लोक। श्रीगुरु अनुष्ठानस्थान असे निक । अमरजासंगमर्मी माध्याद्धिक। करोनि येती ग्रामातें ।॥७९॥ ऐसें ऐकोनि म्लेंच्छ देखा। समस्तां वर्जून आपण एका। बैसोनिया आंदोलिकां । गेला तया स्थानासी ॥७२॥ दुरोनि देखतां श्रीगुरुसी। चरणी आले म्लेंच्छ परियेसीं । जवळी गेला पहावयासी । नमन करूनि उभा राहे ॥७३।। श्रीगुरु म्हणती तयासी। कां रे रजका कोठे अससी । बहुत दिवशी भेटलासी। आमचा दास होवोनिया ।।७४।। ऐसें वचन ऐकोनि। म्लेंच्छ झाला महाज्ञानी । पूर्वजन्म स्मरला मनीं । करी साष्टांग दंडवत ।।७५।। पादुकांवरी लोळे आपण। सद्गदित अंतःकरण। अंगीं रोमांच उठोन । आनंदबायें रुदन करी ।।७६।। पूर्वजन्मीं आठवोन देखा। रुदन करी अति दुःखा। कर जोडून विनवी ऐका। नाना परी स्तोत्र करी ।।७७।। राजा म्हणे श्रीगुरुसी। कां उपेक्षिले आम्हांसी। झालों आपण परदेशी। बरणावेगळे केलें मज ।।७८।। अंधकारसागरांत। कां घातले मज येथ। मी होऊनि मदोन्मत्त। विसरलों चरण तुझे ।।७९।। संसारसागरमायाजाळीं । बुडालों आपण दुर्मति केवळीं। सेवा न करी चरणकमळी। दिवांध' झालों आपण ।।१८०।। होतासि तू जवळी निधान । न ओळखे आपण मतिहीन। तमार्धकारों बेष्टोन। तुझे चरण विसरलों ।।८१।। तूं भक्तजनां नुपेक्षिसी । निर्धार होता माझे मानसीं। अज्ञानसागरी आम्हांसी। कां घातलें स्वामिया ।।८२।। उद्धरावें आतां मज। आलों आपण हेंचि काज । सेवोनि तुझे चरणरज। असेन आतां राज्य पुरे ।।८३।। ऐसें नानापरी देखा। स्तुति करी राजा ऐका । श्रीगुरु म्हणती भक्त निका। तुझी वासना पुरेल ।।८४१। राजा म्हणे श्रीगुरुसी। झाला स्फोटक आपणासी। व्यथा होतसे प्रयासी। कृपादृष्टीं पहावें ।।८५।। ऐसें वचन ऐकोन। श्रीगुरु करिती हास्यवदन । स्फोटक नाहीं म्हणोन । पुसताती यवनासी ।।८६।। राजा पाहे स्फोटकासी। न दिसे स्फोटक अंगासी। विस्मय करीतसे मानसीं। पुनरपि चरणीं माथा ठेवी ।।८७।। राजा म्हणे स्वामियासी । तुझें प्रसन्नत्व आम्हांसी। राज्य पावलों संतोषीं। अष्टैश्वर्ये भोगिली ।।८८।। पुत्रपौत्र देखिले नयनीं। पूर्ण जहालों अंतःकरणीं। संकल्प असे माझे मनीं। अष्टैश्वर्ये माझे अवलोकावें ।।८९।। भक्तवत्सल ब्रीद तुझे। वासना अर्थ पुरवीं माझे। इंदियसंसार उतरीं ओझें। लीन होईल तुझे चरणीं ।।१९०३। श्रीगुरु म्हणती तयासी। आम्ही तापसी संन्यासी। येऊ नये तुझे नगरासी। महापातकें होती तेथे ।।११।। नगरी नित्य घेनुहत्या। यवनजाति तुम्ही सत्या। जीवहिंसा मद्यपी कृत्या। वर्जाचे आतां निघरिरं ।।१२।। सर्व अंगिकार करोनि । राजा लागे दोन्ही चरणों। म्हणे मी दास पुरातनी। पूर्वापारी दृष्टि देणें ।॥९३।। पूर्वी माझे जन्म रजक' । स्वामीवचनें राज्य विशेख। पावोनि देखिले नाना सुख। उणें एक म्लेंच्छजाति ।।९४।। दर्शन होतां तुझे चरण। संतुष्ट झालें अंतःकरण। पुत्रपौत्र दृष्टीं पाहोन। मग मी राहीन तुझे सेवे ।।९५।। ऐसे नानापरी देखा । राजा विनवी विशेखा। पाया पडे क्षणक्षणिका। अतिकाकुळती येतसे ।।९६।। श्रीगुरु मनीं विचार करिती । पुढे होणार ऐसी गति । कलियुगीं असे दुर्जन जाति। गौप्य असतां पुढे बरवें ।।९७।। सहज जायें सिंहस्थानी । महातीर्थ गौतमीसी। जावें हें भरंबसी। आतां आम्ही गुप्त व्हावें ।।९८।। ऐसें मनीं विचारूनि। श्रीगुरु निधाले संगमाहूनि। राजा आपुले सुखासनीं । बैसवी प्रीती करोनिया ।। ९९।। पादुका घेतल्या आपुले करीं। सांगातें येतसे पादचारी। श्रीगुरु म्हणती आरोहण करीं। लोक निंदा तुज करिती ।।२००।। राष्ट्राधिपती तुज म्हणती। जन्म तुझा म्लेंच्छजाती। ब्राह्मणसेवें तुज हांसती । जाति दूषण करितील ।।१।। राजा म्हणे स्वामी ऐका। कैचा राजा मी रजका। तुझे दृष्टीं असे निका। लोह सुवर्ण होतसे ।।२।। समस्तांसी राजा आपण सत्य। मी रजक तुझा भक्त। पूर्ण झाले मनोरथ। तुझे झालें दर्शन मज ।।३।। इतुकिया अवसरी। समस्त दळ मिळाले भारी। मदोन्मत्त अतिकुंजरी। वारू नाना वर्णाचे ।।४।। उभा राहोनि राजा देखा। समस्त दाखवी सैन्यका। संतोष मनीं अति हरिखा। आपुलें ऐश्वर्य दाखवीतसे ।।५।। श्रीगुरु निरोपिती बबनासी। आरोहण करी वारुवेसी। दूर जाणे असे नगरासी। निरोप आमुचा नको मोडूं ।।६।। श्रीगुरुवचन ऐकोन। समस्त शिष्यांतें आरोहण । देता झाला तो यवन । आपण बाजीं आरूढला ।।७।। आनंद बहु यवनाचे मनीं। हर्षनिर्भर न माये गगनीं। श्रीगुरुमेटी झाली म्हणोनि । अति उल्हास करीतसे ।।८।। श्रीगुरुमूर्ति बोलाविती यवनासी। म्हणती झालों अतिसंतोषी। तूं भक्त केवळ गुणराशी । संतुष्ट झालों आपण आजी ।।९।। आम्ही संन्यासी तापसी । नित्य करावें अनुष्ठानासी। तुम्हांसमागमें मार्गासी। न पडे वेळीं संध्यादिक ।।२१०।। वासी उपाय सांगेन। अंगिकार करावा जाण। पुढे जाऊं आम्ही त्वरेने। स्थिर यावें तुम्हीं मागें ।।१।। पापविनाशी तीर्थासी। भेटी होईल तुम्हांसी। ऐसे म्हणोनि रावासी। अदृश्य झाले गुरुमूर्ति ।।१२।। समस्त शिष्यांसहित । श्रीगुरु गुप्त झाले त्वरित । मनोवेगें मार्ग क्रमित । गेले वैदूरपुरासी ।।१३।। पापविनाशी तीर्थासी । श्रीगुरु पातले त्वरितेंसी। राहिले तेथे अनुष्ठानासी। समस्त येती भेटावया ।।१४।। साखरे सायंदेवाचा सूत । भेटीस आला नागनाथ। नानापरी पूजा करीत। समाराधना आरंभिली ।।१५।। श्रीगुरु नेऊनि आपुले घरा। पूजा केली षोडशोपचारा। आरती करोनि एक सहस्रा। समाराधना करी बहुत ।।१६।। इतुकें होतां झाली निशी । श्रीगुरु म्हणती नागनाथासी। सांगोनि आलों म्लेंच्छासी। पापविनाशी भेटूं म्हणोनि ॥१७।। जाऊं आतां तया स्थानासी । राहतां यवन येईल परियेसीं। उपद्रव होईल ब्राह्मणांसी। विप्रघरा म्लेंच्छ येती ।।१८।। ऐसें सांगोनि आपण । गेले पापविनाशी जाण । शुभासनों बैसोन। अनुष्ठान करीत होते ।।१९।। इतुकिया अवसरों । राजा इकडे काय करी । गुरुनाथ न दिसती दळभारी। मनी चिंता बहु वर्तली ॥२२०।। म्हणे कटकटा काय झालें । गुरुनायें मज उपेक्षिलें। काय सेवे अंतर पडलें। तेणें गेले निघोनिया ।।२१।। मागुती मनीं विचारी। पुढे जातों म्हणोनि येरी। पापविनाशी तीर्थातीरीं। भेटी देतों म्हणितलें ।।२२।। न कळे महिमान श्रीगुरुचें। कोण जाणें मनोगत त्यांचें। दैव बरखें होतें आमुचे। म्हणोनि चरणांचे दर्शन झालें ॥२३।। राजस्फोटक होता मज। आलों होती याचि काज। कृपानिधि श्रीगुरुराज । भेटी झाली पुण्य माझें ।॥२४॥ पुढे गेले निश्चित । म्हणोनि मनीं विचार करित । दिव्य अश्वावरी आरूढोनि त्वरित । निघाला राजा परियेसा ।।२५।। चतुश्चत्वारिंशत् क्रोश देखा। राजा पातला दिवसे एका । पापविनाशी तीथीं देखा। अवलोकितसे श्रीगुरुसी ।।२६।। विस्मय करी अति मानसीं। येऊनि लागला चरणांसीं । विनवीतसे भक्तींसीं । गृहाप्रति यावें म्हणतसे ।। २७।। नगर सर्व शृंगारिलें। प्रवाळ मोतियां तोरण केलें। गुड़िया मखर उभारविलें । समारंभ थोर नगरांत ।।२८।। बैसवोनिया पालखींत । आपण चरणचाली येत। नवरत्न असे ओवाळित। नगर लोक आरत्या आणिती ॥२९।। ऐशा समारंभ राजा देखा। घेऊनि गेला गुरुनायका। विस्मय झाला सकळ लोकां । महदाश्चर्य म्हणताती ॥२३०।। लोक म्हणती म्लेंच्छजाती। पहा हो विप्रपूजा करिती। राजा अनाचारी म्हणती । जातिधर्म सांडिला आजी ।।३१।। ज्याचे पाहू नये मुख। त्याची सेवा करी देख। राजा नष्ट म्हणोनि सकळिक । म्लेंच्छजाती बोलती ।।३२।। विप्रकुळ समस्त देख। संतोष करिती अतिकौतुक । राजा झाला विप्रसेवक। आतां बरवें राज्यासी ।।३३।। ऐसा राव असतां । महाराष्ट्रधर्मी वर्ततां। आपुला द्वेष तत्त्वतां । न करील जाण पां ।।३४।। ऐसा राजा असतां बरखें। ज्ञानवंत असे स्वभावें। ब्रह्मद्वेषी नव्हे पहावें। पुण्यश्लोक म्हणती ऐसा ॥३५॥ नगरलोक पहावया येती। नमस्कारिती अतिप्रीती। राजे चरणचालीं येती। लोक म्हणती आश्चर्य ।।३६।। एक म्हणती हा होय देव । म्हणोनि भजतो म्लेंच्छराव। या कलियुगीं अभिनव । देखिलें म्हणताती सकळिक ।। ३७।। सर्वे वाजंत्र्यांचे गजर । बंदिजन वाखाणिती अपार। राजा हर्षे निर्भर घेऊनि जातो गुरुसी ।।३८।। नानापरीचीं दिव्य बखें। बांटीतसे राजा पवित्रे। द्रव्य ओवाळुनि टाकी पात्रे। भिक्षुक तुष्टले बहुत देखा ।।३९।। ऐशा समारंभ देखा। घेऊनि गेला राजा ऐका महाद्वारी पातले सुखा। पायघड्या अंथरती ।।२४०।। नानापरीची दिव्यांबरें । मार्गी अंधरती अपारें। वाजती भेरी वाजंत्र। राजगृहा पातले ।।४१।। महासिंहासनस्थानी । शृंगार केला अतिगहनीं। जगदुरुतें नेऊनि । सिंहासनों बैसविलें ।॥४२।। राजमंदिरींच्या नारी। आरत्या घेऊनिया करी। ओवाळिती हर्षनिर्भरी । अनन्यभावें करोनियां ॥४३।। समस्त लोक बाहेर ठेवोन। श्रीगुरु होते एकले आपण। सर्वे शिष्य चवघेजण । जवळी होते परियेसा ।।४४।। अंतः पुरींचे कुलखियांसी। पुत्रपौत्री सहोदरासी। भेटविलें राजें परियेसीं । साष्टांगी नमन करिती ते ।।४५।। राजा विनवी स्वामियासी। पुष्यें देखिलें चरणांसी। न्याहाळावे कृपादृष्टीसी । म्हणोनि चरणी लागला ।।४६।। संतोषले श्रीगुरुमूर्ति। तयांसी आशीर्वाद देती। राजयातें बोलाविती। पुसताती गृहवार्ता ।।४७।। श्रीगुरु म्हणती तयासी। संतुष्ट झालास की मानसीं। अजूनि व्हावें कांहीं भावेंसी'। विस्तारोनि सांग म्हणती ।।४८।। राजा विनवी स्वामियांसी। अंतर पडतें चरणासी। राज्य केलें बहुवसीं। आर्ता द्यावी चरणसेवा ।।४९।। ऐसें ऐकोनि श्रीगुरु म्हणती। आमुची भेटी श्रीपर्वतीं। तुझे पुत्र राज्य करिती। तुवां यावें भेटीसी ॥२५०।। ऐसा निरोप देऊनि । श्रीगुरु निघाले तेथोनि। राजा विनवी चरण घरोनि। ज्ञान मजला असावें ।।५१।। कृपासिंधु गुरुनाथ। ज्ञान होईल ऐसें म्हणत। आपण निघाले त्वरित । गेले गौतमी तीरासी ।।५२।। स्नान करोनि गौतमीसी । आले गाणगापुरासी । आनंद झाला समस्तांसी। श्रीगुरुचरणदर्शनं ।।५३।। संतुष्ट झाले समस्त लोक। पहावया येती कौतुक । वंदिताती सकळिक । आरती करिती मनोभावे ।।५४।। समस्त शिष्यांतें बोलाविती। श्रीगुरु त्यांसी निरोपिती। प्रगट झाली बहु ख्याती । आतां रहावें गुप्तरूपें ।।५५।। यात्रारूपें श्रीपर्वतासी। निघावें आतां परियेसीं । प्रगट बोले हेचि स्वभावेंसी। गुप्तरूपें राहूं तेथे ।।५६।। स्थान आपुलें गाणगापुरीं। येधूनि न बचे निर्धारी। लौकिकमतें अवधारी । बोल करितों श्रीशैलयात्रा ।।५७।। प्रगट करोनिया यात्रेसी। बास निरंतर गाणगाभुवनासी। भक्तजन तारावयासी । राहू येथे निर्धार ॥५८।। कठिण दिवस युगधर्म। म्लेंच्छराजा क्रूरकर्म । प्रगटरूपें असतां धर्म । समस्त म्लेंच्छ येती ।।५९।। राजा आला म्हणोनि । समस्त यवन ऐकोनि। सकळ येती मनकामनी । म्हणोनि गुप्त असावें ।।२६०।। ऐसें म्हणोनि शिष्यांतें। सांगितलें श्रीगुरुनार्थे । सिद्ध सांगे नामधारकातें। चरित्र ऐसें श्रीगुरुचें ।।६१।। पुढें येतील दुर्दिन । कारण राज्य यवन । समस्त येती करावया भजन। म्हणोनि गुप्त राहिले ।। ६२।। लौकिकार्थ दाखवावयासी। निघाले आपण श्रीशैल्यासी। कथा असे विशेषी। सिद्ध म्हणे नामधारका ।।६३।। गंगाधराचा सुत । सरस्वती असे विनवीत । प्रत्यक्ष असे श्रीगुरुनाथ। देखिलें असे गाणगापुरीं ।। ६४।। सद्भावें भजती भक्तजन । त्यांची कामना होईल पूर्ण। संदेह न घरीं अनुमान। त्वरित सिद्धि असे जाणा ।। ६५।। न लागतां कष्ट सायास । कामना पुरती गाणगापुरास । भक्तिभावें विशेष । कल्पवृक्ष तेथे असे ।।६६।। सिद्ध म्हणे नामधारकासी । है गुरुचरित्र दिनीं निशीं । मनोभावें वाचनेंसी। सकळ कामना पुरतील ।। ६८।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । सिद्ध नामधारका सांगत । यवनाचा उद्धार येथ। तुम्हां कारणें सांगितला ।। २६९।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥५०॥
ओवीसंख्या २६९
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक विनवी सिद्धासी। कथा सांगितली आम्हांसी। म्लेंच्छराजें श्रीगुरुसी। होतें नगरासी नेले १।१।। तेथोन आले गाणगाभुवना। पुढील वर्तल्या' निरुपणा। सांगा स्वामी कृपाधना। गुरुचरित्र आम्हांसी ।।२।। सिद्ध म्हणे ऐक वत्सा । कथा असे अतिविशेषा। ऐकतां जाती सकळ दोषा। चितिले काम्य पाविजे ।।३।। राजाची भेट घेऊनि । श्रीगुरु आले गाणगाभुवनीं। योजना' करिती आपुल्या मनीं। गुप्त रहावें म्हणोनिया ।।४।। प्रगट झालों बहुवसी। राजा आला भेटीसी। उपजली भक्ति म्लेंच्छासी। नाना जाती येतील ।।५।। म्हणोनि आतां गुप्त व्हावें । लोकमतें निघोनी जावें । पर्वतयात्रा म्हणोनि भावें। निघाले श्रीगुरु परियेसीं ।।६।। गुम्म राहिले गाणगापुरीं। प्रगट दाविलें लोकाचारी। निघाले स्वामी पर्वतगिरी। शिध्यांसहित अवधारा ।।७।। भक्तजन बोळवित'। चिंता करी अत्यंत। श्रीगुरु संबोखिती समस्त । राहावविती अतिप्रीतीने ।।८।। दुःख करिती सकळ जन । लागताती श्रीगुरुचरण। स्वामी आम्हांतें सोडून । केवीं जातां यतिराया ।।९।। भक्तजनांची तू कामधेनु। आम्ही बाळक अज्ञानु। होतासि आम्हां निधानु । सोडोनि जातां श्रीगुरु ।।१०।। नित्य तुझे करितां दर्शन। दुरितें' जाती निरसून। जी जी कामना इच्छी मन । त्वरित पावे स्वामिया ।।११।। बाळकातें सोडोनि माता। केवी जाय अव्हेरितां । तू आमचा मातापिता । नको अव्हेरू म्हणताती ।।१२।। ऐकोनि नानापरी विनंति । हांसते झाले श्रीगुरुमूर्ति । संबोखिती अतिप्रीतीं । न करा चिंता म्हणोनि ।।१३।। आम्हीं असतो याचि ग्रामीं। नित्य स्नान अमरजासंगमर्मी । वसों माध्याह्रीं मठधामी । गुप्तरूपें अवधारा ।।१४।। जे भक्त असती माझ्या प्रेमीं। त्यांतें प्रत्यक्ष दिसों आम्ही । लौकिकमतें अविद्याधर्मी । बोल करितों श्रीशैलयात्रा ।।१५।। प्रातःस्नान कृष्णातीरी। पंचनदी वृक्ष औदुंबरी । अनुष्ठाना बिंदुक्षेत्रों। माध्याह्नी येतों भीमातीं ।।१६।। अमरजासंगमी स्नान करोनि। पूजा घेऊ मठीं निर्गुणीं। चिंता न करा अंतःकरणीं। म्हणोनि सांगती श्रीगुरु ।।१७।। ऐसें सांगती समस्तांसी। संदेह न धरावा मानसीं । गाणगाभुवनीं अहर्निशीं। वसों आम्ही त्रिवाचा ।।१८।। जे जे जन भक्ति करिती। त्यांसी आमुची अतिप्रीति। मनकामना पावती। सिद्ध वाक्य असे आमुचे ।।१९।। अचत्य नव्हे कल्पवृक्ष। संगमी असे प्रत्यक्ष । तुमच्या मनीं जें अपेक्षः। त्वरित होय पूजितां ।।२०।। कल्पवृक्षातें पूजोनि। मग यार्ने आमुचे स्थानों। पादुका ठेवितों निर्गुणी। पूजा करा मनोभावे ।।२१।। विघ्नहर चिंतामणी। त्यातें पूजितां एकमनीं। चितिले फळ तत्क्षणीं। लाभे तुम्हां अवधारा ।।२२।। समस्त विघ्नांचा अंतक। पूजा तुम्हीं विनायक। अष्टतीर्थे असती विशेख। आचराची मनोभावें ।।२३।। संतोषकारक आम्हांप्रती । त्रिकाळ करावी आरती। भक्तजन में इच्छिती । त्वरित होव अवधारा ।।२४।॥ ऐसें सांगोनि तयांसी। निघाले स्वामी परियेसीं। भक्त परतोनि मठासी । आले चिंतित पावांतें ।।२५।। चिंतित निघती मठांत। तेथे दिसती श्रीगुरुनाथ। लोक झाले विस्मित। म्हणती बस्तु त्रैमूर्ति ।।२६।। यासी म्हणती जे नर। ते पावती यमपूर। सत्य बोलिले निर्धार। न कळे महिमा आम्हांसी ।। २७।। सर्वेचि पाहतां न दिसे कोणी । प्रेमळ भक्त देखती नयनीं। यापरी गौप्यरूप धरोनि। राहिले श्रीगुरु मठांत ।। २८।। दृष्टान्त दाखविला भक्तांसी । पातले आपण श्रीपर्वतासी। पाताळगंगातीरासी। राहिले स्वामी परियेसा ।।२९।। शिष्यांतें निरोपिती अवधारा । पुष्पांचे आसन त्वरित करा। जाणें असे पैल तीरा। ऐक्य होऊं मल्लिकार्जुनी ।।३०।। निरोप देतां श्रीगुरुमूर्ति। आणिलीं पुष्पें शेवंती। कुमुदें कल्हारे मालती। कर्दळीपर्णे वेष्टोनि ।।३१।। आसन केलें अतिविचित्र । घातलें गंगेमध्ये पात्र। शिष्यां सांगती वेगवक्र। जायें तुम्ही गृहासी ।।३२।। दुःख करीत येत सकळी। यांसी सांगती श्रीगुरु चंद्रमौळी। गाणगाग्रामर्मी असों जवळी। भाव न धरावा दुजा तुम्ही ।।३३।। लौकिकमतें आम्ही जातों। ऐसें दृष्टान्ती दिसतों। भक्तजनां घरीं वसतों। निर्धार धरा मानसीं ।॥३४।। ऐसे भक्तां संबोखोनि । उठले श्रीगुरु तेथोनि। पुष्पासनीं बैसोनि । निरोप देती भक्तासी ।।३५।। कन्यागती बृहस्पति। बहुधान्य संवत्सरी ख्याति । सूर्य चाले उत्तर दिगंती'। संक्रांति कुंभ परियेसा ।। ३६ ।। शिशिर ऋतु माधमासीं। असितपक्ष' प्रतिपदेसी । शुक्रवारी पुण्यदिवसीं । श्रीगुरु बैसले निजानंदीं ।। ३७।। श्रीगुरु म्हणती शिष्यांसी। जातों आम्ही निज मठासी । पाचतां खूण तुम्हांसी। प्रसादयुष्ये पाठवितों ।।३८।। येतील पुष्पें जाती शेवंती। घ्यावा प्रसाद तुम्हीं भक्तीं। पूजा करावी अखंड रीतीं। लक्ष्मी वसों तुम्हां घरों ।। ३९।। आणिक सांगेन एक खूण। गावनीं करी जो माझे स्मरण। त्वाचे घरी असे जाण। गायनप्रीति आम्हांसी ।।४०।। नित्य में जन गायन करिती । त्यांवरी माझी अतिप्रीति । तयांचे घरी अखंडिती'। आपण असो अवधारा ।।४१।। व्याधि न होय त्यांचे घरों। दरिद्र जाय त्वरित दुरी । पुत्रपौत्र श्रियाकरी'। शतायुषी नांदतील ।।४२।। ऐकतील चरित्र माझें जरी। वाचतील नर निरंतरी। लक्ष्मी राहे त्यांचे परी। संदेह न घराबा मनांत ।।४३।। ऐसें सांगोनि भक्तांसी। श्रीगुरु जहाले अदूशी। चिंता करिती बहुवशी । अवलोकिती गंगेत ।।४४।। ऐशी चिंता करितां थोर। तटाकी पातले नावेकर। तिहीं सांगितला विचार। श्रीगुरु आम्हीं देखिले ।।४५।। शिष्यवर्गासी मनोहर। व्यवस्था सांगती नावेकर। होतों आम्ही पैलतीर । तेथे देखिले मुनीश्वर ।।४६।। संन्यास वेष दंड हातीं। नामें श्रीनृसिंहसरस्वती। निरोप दिधला आम्हांप्रती । तुम्हां सांगा म्हणोनि ।।४७।। आम्हांस आज्ञापिती मुनि। आपण जातों कर्दळीवनीं। सदा वसों गाणगाभुवनीं । ऐसें सांगा म्हणितलें ।।४८।। भ्रांतपणे दुःख करितां। आम्ही देखिले दृष्टान्ता । जाता असतां श्रीगुरुनाथा । सुवर्णपादुका त्यांचे चरणी ।।४९।। निरोप सांगितला तुम्हांसी। जानें आपुल्या स्थानासी। सुखी असावें वंशोवंशी। माझी भक्ति करोनि ।।५०।। प्रसादपुष्पें आलिया। घ्यावी शिष्ये काढोनिया। ऐसे आम्हां सांगोनिया। श्रीगुरु गेले अवधारा ॥५९।। ऐसे सांगती नावेकर। समस्त राहिले स्थिर । हर्षे असती निर्भर । प्रसादपुष्पें पहाती ।।५२।। इतुकिया अवसरीं। आलीं प्रसादपुष्पें चारी। मुख्य शिष्यें प्रीतिकरीं। काढोनि घेतली अवधारा ।।५३।। नामधारक म्हणे सिद्धासी। मुख्य शिष्य कोण उपदेशीं। विस्तारोनिया आम्हांसी। पुष्पें कोणा लाभली ।।५४।। सिद्ध म्हणे नामधारका। शिष्य बहुत गुरुनायका। असती गाणगापुरी ऐका। गेले शिष्य आश्रमा ।।५५।। आश्रम घेती संन्यासी । त्यांसी पाठविलें तीर्धासी। तयांची नामें परियेसी। सांगेन ऐका विस्तारोन ।।५६।। बाळकृष्णसरस्वती । उपेंद्रमाधवसरस्वती। पाठविते झाले प्रीतीं। आपण राहिले संगमर्मी ।।५७।। गृहस्थधर्म शिष्य बहुत । समस्त आपुले घरी नांदत। त्रिवर्ग' आले श्रीपर्वताप्रत। चवथा होतों आपण ।।५८।। साखरे नाम सायंदेव। कवीश्वरयुग्में' पूर्वभाव । नंदी नामें नरहरी देव। पुष्ये घेतलीं चतुर्वर्गों ॥५९।। गुरुप्रसाद घेऊन आले शिष्य बौघेजण। तींब पुष्पें मज पूजन। म्हणोनि पुष्पें दाखविती ।।६०।। ऐसा श्रीगुरूंचा महिमा। सांगतसे अनुपमा । थोडे सांगितले तुम्हां । अपार असे सांगतां ।।६१।। श्रीगुरुचरित्र कामधेनु। सांगितले तुज विस्तारोनु। दुःख दरिद्र गेलें पळोनु । ऐसें जाण निर्धारीं ।। ६२।। ऐसें श्रीगुरुचरित्र। श्रवणी कीर्तन अतिपवित्र। सुखें नांदती पुत्रपौत्र । लक्ष्मीवंत होती जाण ।।६३।। धर्म अर्थ काम मोक्ष। तयांसी लाभे प्रत्यक्ष। महा आनंद उभयपक्ष। पुस्तक लिहितां सर्वसिद्धि ।।६४।। ऐसें सिद्धं सांगितलें। नामधारक संतोषले। सकळाभिष्टं लाघलें। तात्कालिक अवधारा ।।६५।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर । श्रीगुरुचरित्र अतिमनोहर । ऐकतां पवाली पैल पार। संसारसागरा तरोनिया ।।६६।। श्रीगुरुचरित्र ऐकतां । सकळाभीष्टं तत्त्वतां । लाघती म्हणोनि समस्तां । ऐका म्हणे नामधारक १॥६७।। अमृताची असे मानणी। स्वीकारितां भाविक जनीं। धर्मार्थ काम मोठ साधनी। हेचि कथा ऐकावी ।।६८।। पुत्रपौत्रां ज्यासी चाड। त्यासी हे कथा असे गोड। राहे लक्ष्मी स्थिर अखंड । श्रवणमात्रे घरी नांदे ।।६९।। चतुर्विध पुरुषार्थ। लाघती श्रवणें परमार्थ। श्रीनृसिंहसरस्वती गुरुनाथ। रक्षी त्यांचे वंशोवंशी ।।७०।। म्हणे सरस्वतीगंगाधर । श्रोतयांसी करी नमस्कार। कथा ऐका मनोहर। सकळाभीष्ट साधती ॥७१।। मुख्य भाव कारण। प्रेमें करितां श्रवण पठण। निजध्यास आणि मनन। प्रेमें करोनि साधिजे ।।७२।। श्रीनृसिंहसरस्वती शंकर । त्याचे चरणी अर्पम सा। त्याचेचि प्रसादें समग्र । समस्त प्रजा सुखी असती ।॥७३।। ग्रंथ ठेवावा शुद्ध स्थानीं। शुद्ध वीं शुद्ध मनीं। नित्य पूजा करोनि। ग्रंथ गृहामाजीं ठेवावा ।।७४।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत। सिद्धनामधारकसंबाद अमृत। गुरुसमाधि नाम विख्यात । एकपंचाशत्तमोऽध्यायः ।।७५।।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥५१॥
ओवीसंख्या ७५
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । नामधारक विनवी सिद्धासी। श्रीगुरु निघाले शैल्ययात्रेसी। पुढें कथा वर्तली कैसी। तें विस्तारेंसी मज सांगावते ।।१।। सिद्ध म्हणे शिष्योत्तमा । काय सांगू सद्गुरुचा महिमा। आतां वर्णनाची झाली सीमा। परी गुरुभक्तिप्रेमा नावरे ।।२।। श्रीगुरु सिद्ध झाले जाववासी। श्रीपर्वतीं यात्राउदेशीं। हा वृत्तान्त नागरिकजनासी । कळला परियेसीं तात्काळ ।।३।। समस्त जन आले घधावत। नरनारी सर्व मिळाल्या बहुत । गुरुसी प्रार्थित अनेक भक्त । श्रीपर्वतासी स्वामी कां जातां ।।४।। आम्हांसी भासते व्यक्त। तुम्ही अवतार करितां समाप्त । निरंतर आपण असा अव्यक्त। परिजनांसी सुव्यक्त दिसत होतां ।।५।। तुमचे चरणांचे होतां दर्शन। पातकांचे होतसे दहन । आतां कैसे करतील जन। म्हणोनि लोटांगणें घालिती ।।६।। पुढे आम्हांस काय गति । आम्हीं तरावें कैशा रीतीं। स्वामीचे चरण नौका होती। तेणें पार उतरत होतों ।।७।। तुम्ही भक्तास कामधेनूपरी । कामना पुरवीत होतां बरी। म्हणोनि जगले आजवरी। बाउपरी आम्हीं काय करावें ।।८।। स्वामीकरितां गाणगापूर । झालें होतें वैकुंठपूर। आतां दीपविणें जैसें मंदिर। तैसें साचार होईल हैं ।।९।। माऊलीविणें तान्हें बाळ । कीं देवाविणे देऊळ। जळाविणे जैसे कमळ । तैसें सकळ तुम्हांविणें ।।१०।। माता पिता सकळ गोत। इष्टमित्र कुळदैवत । सर्वही आमुचा गुरुनाथ। म्हणोनि काळ क्रमित होतों ।।११।। आपुल्या बाळकांसी अव्हेरुनी । कैसे जातां स्वामी येथुनी। अश्रुधारा लागल्या लोचनीं। तळमळती सकळ जन ।।१२।। तेव्हां गुरु समस्त जनांप्रती । हास्यवदन करूनि बोलती। तुम्ही जनहो मानू नका खंती। सांगतों यथास्थित तें ऐका ।।१३।। आम्ही असतों याचि ग्रामी। स्नान पान करूं अमरजासंगमीं। गौप्यरूपें रहातों नियमीं। चिंता कांही तुम्हीं न करावी ।।१४।। राज्य झालें म्लेंच्छाक्रांत । आम्ही भूमंडळीं विख्यात। आमुचे दर्शनास बहु येथ। यवन सतत येतील पै ।।१५।। तेणें प्रजेस होईल उपद्रव। आम्ही अदृश्य रहातों वास्तव। ज्यास असे दृढ भक्तिभाव। त्यास दृश्य स्वभावें होऊं ।।१६।। लौकिकाममध्ये कळावयासी। आम्ही जातों श्रीशैल्यपर्वतामी। चिंता न करावी मानसीं। ऐसें समस्तांसी संबोधिलें ।।१७।। मठीं आमुच्या ठेवितों पादुका। पुरवितील कामना ऐका। अश्वत्थवृक्ष आहे निका। तो सकळिकांचा कल्पतरू ।।१८।। कामना पुरवील समस्त। सदेह न धरावा मनांत। मनोरथ प्राार होती त्वरित । ही मात आमुची सत्य जाणा ।।१९।। संगमी करूनिया स्नान। पूजोनि अखत्यनारायण। मग करायें पादुकांचे अर्चन । मनकामना पूर्ण होतील ।।२०।। विघ्नहर्ता विनायक। आहे तेथे बरदायक। तीर्थे असती अनेक। पावाल तुम्ही सुख अपार ।।२१।। पादुकांची करूनि पूजा। त्रिकाळ आरती करूनि ओजा। आमुचें वचन यथार्थ समजा । म्हणोनि द्विजांसी गुरु सांगती ।।२२।। आम्ही येथेच रहातों मठांत। हें वचन जाणावे निश्चित। ऐसें संबोधूनि जना आर्थात । निघाले त्वरित गुरुराज पैं ।।२३।। समागमें जे धावले जन। त्यांचे करून समाधान। शिष्यांसहित त्वरित गतीनें। गेले निघून श्रीगुरु ।।२४।। लोक माधारे परतले। समस्त गुरूच्या मठासी आले। तेथे समस्तांनी गुरु देखिले । बैसेल होते निजासनीं ।।२५।। सर्वेचि पहातां झाले गुप्त। जन मनीं परम विस्मित। आम्ही सोडूनि आलों मार्गांत। येथे गुरुनाथ देखिले ।।२६।। सर्वव्यापी नारायण। त्रैमूर्ति अवतार पूर्ण। चराचरी श्रीगुरु आपण। भक्तांकारर्णे रूप धरिती ।।२७।। ऐसा दृष्टान्त दावूनि जनांसी। आपण गेले श्रीशैल्यासी। पावले पाताळगंगेसी। राहिले त्या दिवसीं तेथे ।। २८ ।। श्रीगुरु शिष्यांसी म्हणती । मल्लिकार्जुनासी जावोनि शीघ्रगती। पुष्पांचे आसन यथास्थितीं। करोनि निगुती आणावें ॥२९।। शिष्य घावले अति शीघ्र पुन्नागादि कंद कल्हार। करवीर बकुळ चंपक मंदार। पुष्पें अपार आणिली ॥३०।। त्या पुष्पांचे केलें दिव्यासन। तें गंगाप्रवाहाबरी केलें स्थापन। त्यावरी श्रीगुरु आपण। बैसले ते क्षणीं परमानंदें ।।३१।। बहुधान्य संवत्सर माघमास । कृष्णप्रतिपदा शुभ दिवस। बृहस्पति होता सिंहराशीस। उत्तर दिशे होता सूर्य पैं ।।३२।। शिशिर ऋतु कुंभ संक्रमण । ताम्रपटिका सुलक्षण। ऐसे शुभमुहूर्ती गुरु आपण। आनदें प्रयाण करिते झाले ।।३३।। मध्यें प्रवाहांत पुष्पासनी। बैसोनि शिष्यास संबोधोनि। आमुचा वियोग झाला म्हणोनि । तुम्हीं मनीं खेद न मानावा ।।३४।। त्या गाणगापुयंत । आम्ही असोच पूर्ववत। भावना दूढ करा मनांत। तुम्हां दृष्टान्त तेथे होईल ।।३५।। आम्ही जातों आनंदस्थानासी। तेथे पावलों याची खूण तुम्हांसी। फुले येतील जिनसजिनसीं। तुम्हांस तो प्रसाद ।। ३६।। पुष्पांचे करिता पूजन। तुम्हां होईल देव प्रसन। भक्तिभानें करावी जतन । प्राणासमान मानुनी ॥३७।। आणिक एक ऐका युक्ति। जे कोणी माझे चरित्र गाती। प्रीतीने नामसंकीर्तन करिती। ते मज प्रिय गमती फार ।।३८।। मजपुढे करितील गायन। जाणोनि रागरागिणी तानमान। वित्ती भक्तिभाव धरून। करिती ते मज कीर्तन परमानंदे ।।३९।। भक्त मज फार आवडती। जे माझे कथामृत पान करिती। त्यांचे घरी मी श्रीपती। वसतों प्रीतीनें अखंडित ।।४०।। आमुचे चरित्र जो पठण करी। त्यास लाभती पुरुषार्थ चारी। सिद्धि सर्वेही त्याच्या द्वारों। दासीपरी तिष्ठतील ।।४१।। त्यासी नाहीं यमाचे भय । त्यास लाभ लाभे निश्चय। पुत्रपौत्रांसहित अष्टैश्चर्य। अनुभवोनि निर्भय पाचे मुक्ती ।।४२।। हे वचन मानी अप्रमाण। तो भोगील नरक दारुण। तो गुरुद्रोही जाण जन्ममरण । दुःख अनुभवणें न सुटे त्यासी ।।४३।। या कारणें असू द्या विश्वास। सुख पावाल बहुवस। ऐसें सांगोनि शिष्यांस।श्रीगुरु तेथूनि अदृश्य झाले ॥४४॥ शिष्य अवलोकिती गंगेत । तो दृष्टीं न दिसती श्रीगुरुनाथ । बहुत होवोनि चिंताक्रांत। तेथे उभे तटस्थ झाले ।।४५।। इतुकियात आला नावाडी तेथ। तो शिष्या सांगे वृत्तान्त। गंगेचे पूर्वतीरी श्रीगुरुनाथ। जात असतां म्यां देखिले ।।४६।। आहे वेष संन्यासी दंडधारी। काषायांबर वेष्टिले शिरों। सुवर्णपादुका चरणामाझारी। कांति अंगावरी फाकतसे ॥४७॥ तुम्हांस सांगा म्हणोनि। गोष्टी सांगितली आहे त्यांनी। त्यांचे नांवें श्रीनृसिंहमुनि । ते गोष्टी कानीं आइका ॥४८।। कळिकाळास्तव तप्त होऊनी। आपण असतों गाणगाभुवनीं। तुम्हीं तत्पर असावें भजनीं। ऐसें सांगा म्हणोनि कथिलें ।।४९।। प्रत्यक्ष पाहिले मागौत । तुम्ही कां झालेत चिंताक्रांत । पुष्पें येतील जळांत । घेऊनि निवांत रमावें ।॥५०।। नावाडी याने ऐसें कथिलें। त्यावरूनि शिष्य हर्षले। इतुकियांत गुरुप्रसाद फुलें । आली प्रवाहांत वाहत ।।५१।। ती परमप्रसादसुमनें। काढोनि घेतली शिष्यवर्गान। मग परतले आनंदाने । गुरुध्यान मनीं करित ।।५२।। सिद्धासी म्हणे नामधारक। पुष्पें किती आली प्रासादिक। शिष्य किती होते प्रमुख । तें मज साद्यंत' सांगावें ।॥५३॥ सिद्ध म्हणे नामधारका। तुवां भली घेतली आशंका। धन्य बा तुझ्या विवेका। होसी साधक समर्थ ॥५४।। खूण सांगतों ऐक आतां। श्रीगुरु गाणगापुरी असता। बहुत शिष्य होते गणितां। नाठवती ते ये समयीं ।॥५५।। ज्यांणी केला आश्रमस्वीकार। संन्यासी थोर थोर। तीथै हिंडावया गेले फार। कृष्णबाळसरस्वती प्रमुख ते ।।५६।। जे शिष्य झाले गृहस्थ केवळ । ते आपुल्या गृहीं नांदती सकळ । तारक होते श्रीगुरुनाथ प्रबळ । भक्त अपरिमित' तारिले ॥५७।। श्रीजगदूरूच्या समागमी। चारीजण होतों आम्ही। सार्यदेव नंदी नरहरी मी। श्रीगुरुंची सेवा करीत होतों ।१५८।। चौघांनों घेतली पुष्ये चारी। गुरुप्रसाद बंदिला शिरीं। हीं पहा म्हणोनि पुष्पें करीं। घेऊनि झडकरी दिधलीं ।॥५९।। चौघांनी चारी पुष्पांसी। मस्तकी धरिलीं भार्वेसी। आनंद झाला नामधारकासी । गुरुप्रसाद त्याचे दृष्टीं पडला ।।६०।। इति श्रीगुरुचरित्रामृत । सिद्ध नामधारकासी सांगत । श्रीगुरुप्रसाद झाला प्राप्त । द्विपंचाशत्तमोऽध्यायः ।।६१।। ।आति श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृससहसरस्वतयुपाख्याना
सिद्धनामधारकसंवादा मंगलाचरणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥५२॥
ओवीसंख्या ६१
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥
श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदावतायै नमः। श्रीपादश्रीवल्लभाय नमः। श्रीनृसिंहसरस्वत्यै नमः।
श्रीगणेशाय नमः । श्रीगुरुदेवदत्तात्रेयचरणारविंदाभ्यां नमः। गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः । श्रोते व्हावें सावधान। गुरुचरित्राध्याय बाका। ऐकोनि नामधारकाचे मन। ब्रह्मानंदीं निमग्र पै ।।१।। सेवूनि गुरुचरित्रामृत । नामधारक तटस्थ होत। अंगीं धर्मपुलकांकित' । रोमांचही ऊठती ।।२।। कंठ झाला सदृदित। गात्रे झालीं सकंपित । विवर्ण भासे लोकांत। नेत्रीं बहाती प्रेमधारा ।।३।। समाधिसुखें न बोले। देह अणुमात्र न हाले। सात्त्विक अष्टभाव उदेले । नामधारक शिष्याचे ।।४।। देखोनि सिद्ध सुखावती। समाधि लागली वासी म्हणती। सावध करावा मागुती । लोकोपकाराकारणें ।।५।। म्हणोनि हस्ते कुरचाळिती। प्रेमभावें आलिंगिती। देहावरी ये ये म्हणती। ऐक बाळा शिष्योत्तमा ।।६।। तूं तरलासी भवसागरौं। रहासी ऐसा समाधिस्थ जरी। ज्ञान राहील तुझ्या उदरीं। लोक तरती कैसे मग ॥७॥ याकारणें अंतःकरणी । दृढता असावी श्रीगुरुचरणीं। बाह्य देहाची रहाटणी। शाखाधारे करावी ।।८।। तुवां विचारिले म्हणोनि । आम्हां आठवली अमृताची वाणी। तापत्रयातें करी हानि । ऐशी अनुपम्या प्रगटली ।।९।। तुजमुळे आम्हां आठवले । तुवां आम्हां बरवे केलें । त्यांही एकाग्रत्वें ऐकिले। आतां हेंब विस्तारी ।।१०।। नामधारका ऐशिया परी। सिद्ध सांगती परोपरी । मग तो नेत्रोन्मीलन करी। कर जोडोनि उभा ठाके ।।११।। म्हणे कृपेचे तारूं। तूंचि या विश्वास आधारू। भवसागर पैल तारू । तूंचि करिसी श्रीगुरुराया ।।१२।। ऐसे नामधारक विनवीत। सिद्धाचे चरणी लागत। म्हणे श्रीगुरुचरित्रामृत। अवतरणिका मज सांगा ।।१३।। या श्रीगुरुचरितामृतीं। अमृताहूनि परमामृतीं। भक्तजनाची मनोवृत्ति। बुडी देवोनि स्थिरावली ।।१४।। अतृप्त आहे अजूनि। हेचि कथा पुनः सुचवोनि। अक्षयामृत पाजूनि। आनंद सागरी मज ठेवा ।।१५।। बहु औषधींचे सार काढोन । त्रैलोक्यचिंतामणी रसावण'। संग्रह करिती विचक्षण। तैसें सार मज सांगा ।।१६।। ऐकोनि शिष्याची प्रार्थना। प्राथ आनंद सिद्धाचिया मना । म्हणती बाळका तुझी चासना। अखं अखंड राहो श्रीगुरुचरित्रों ।।१७।। श्रीगुरुचरि बरित्राची ऐका। सांगेन आतां अवतरणिका प्रथम प्रथमपासूनि सारांश निका। बावन्नाध्या पर्यंत ।।१८ ।१८।। प्रथमाध्यायी मंगळाचरण। मुख्य देवतांचे असे स्मरण। श्रीगुरुमूर्तिचे दर्शन। भक्तांप्रती जाहले ॥१९।। द्वितीया द्वितीयाध्यायीं ब्रह्मोत्पत्ति। चारी युगांचे भाव' कथिती। श्रीगुरुसेवा दीपकाप्रती । घडली उली ऐसें कथियेले ।।२०।। नामधारका अमरजासंगमा । श्रीगुरु नेतौ आपुले घामा । अंबरीष दुर्वास यांचा महिमा । तृतीयाध्यायों कथियेला ।।२१।। चतुर्थाध्यार्थी अनस अनसूयेप्रती । छळावया या त्रैमूर्ति येती। परी तियेचे पुत्र होती। स्तन स्तनपान करिती आनंदे ।।२२।। पंचमी पंचमी श्रीदत्तात्रेय घरी । स्वये अवतार पीठापुरी पुरी। श्रीपादश्रियावलुमधारी। तीर्थयात्रेस रात्रेसी निघाले ।।२३।। सहाव्यांत लिंग घेउनि । रावण जातां गोब गोकर्णी। विघ्नेश्वरें विघ्न करूनि । स्थापना केली तयाची ॥२४।। गोकर्णमहिमा अस असंख्यात । रायाप्रती गौतम सांगत। चांडाळी उद्धरली अकस्मात । सातव्या अध्यायी यीं वर्णिती ।।२५।। माता पुत्र जीव देत होतीं। तयाप्रती गुरु गुरु कथा सांगती। शनिप्रदोष व्रत देती। ज्ञानी करिती अष्टमी ।।२६।। नवमाध्यायर्थी रजकाप्रती' । कृपाळू गुरु राज्य देती। दर्शन देऊं म्हणती पुढती। गुप्त झाले मग तेथें ।॥ २७।। तस्क मारिला भक्त ब्राह्मण । तस्करां बघिती श्रीगुरु येऊन। ब्राह्मणाला प्राणदान। देती दशमाध्यायांत ॥२८॥ माधर ब्राह्यम करंजपुरी। अंबा नामे त्याची नारी। । नरसिंहसरस्वती तिचे उदरी। एकादशीं अवतरले ।।२९।। द्वादशा मातेप्रती । ज्ञान कधुंनी पुत्र देती। काशी क्षेत्रीं संन्यास घेती। यात्रा करिती उत्तरेची ।। ३० ।। मातापि करंजपुरी । भेटोनि येती गोदातीरी। कुक्षिव्यथेच्या विप्रावरी। कृपा करिती त्रयोदशीं ।॥३१।। क्रूर यवनायें करूनि शासन । सार्वदेवास वरदान। देती श्रीगुरु कृपा करून। चौदाविया अध्यावीं ।।३२।। पंचदशीं श्रीगुरुमूर्ति । तीर्थे सांगती शिष्यांप्रती। यात्रे दवडूनि गुप्त होती। वैजनाथीं श्रीगुरु ।।३३।। षोडशी ब्राह्मण शाध्यार्थी गुरुभक्ति । कथूनि दिदली ज्ञानशक्ति। श्रीगुरु आले भिलवडीप्रती। भुवनेश्वरीसन्निध ।। ३४।। भुवनेश्वरीला मूर्ख ब्राह्मण। जिव्हा छेदोनि' करी अर्पण त्यास श्रीगुरूंनी विद्या देऊन। धन्य केला सनदशी ।।३५।। घेवडा उपटोनिया दरिद्रियाचा। कुंभ' दिधला हेमाचा'। वर्णिला प्रताप श्रीगुरूचा। अष्टादशाध्यायांत ।।३६।। औदुंबराचे करूनि वर्णन। योगिनींस देऊनि बरदान । गाणगापुरास आपण। एकोनविंशी श्रीगुरु गेले ।। ३७ ।। खियेचा समंध' दवडून । पुत्र दिधले तिजला दोन । एक मरतां कथिती ज्ञान। सिद्धरूपें विसाव्यांत ।। ३८ ।। तेचि कथा एकविंशीं। प्रेत आणिले औदुंबरापाशीं । श्रीगुरु येऊनि तेथे निशीं। पुत्र उठचिती कृपाळू ।।३९।। भिक्षा दरिद्राधरी घेती। त्याची वंध्या महिषी' होती। तीस करून दुग्धवती। बाविसाव्यांत वर दिधला ।।४०।। तेविसाव्यांत श्रीगुरूस। राजा नेई गाणगापुरास । तेथे उद्धरती राक्षस। त्रिविक्रम करी श्रीगुरुनिंदा ।।४१।। मेटी जाती त्रिविक्रमा । दाविती विश्वरूपमहिमा। वित्र लागे गुरुपादपद्या। चोविसाव्यांत बर देती ।।४२।। म्लेंच्छांपुढे वेद म्हणती। विप्र ते त्रिविक्रमा छळती। त्याला घेऊनि सांगातीं। गुरुपाशी आला पंचविंशीं ।॥४३।। सव्विसाव्यांत तया ब्राह्मणां। श्रीगुरु सांगती वेदरचना। त्यागा म्हणती वादकल्पना। परी ते उन्मत्त नायकती ।।४४।। सत्ताविशीं आणोनि पतिता। विप्रांसी वेदवाद करितां । कुंठित करोनि शापग्रस्ता । ब्रह्मराक्षस त्यां केलें ॥४५॥ अष्टाविंशों तया पतिता। धर्माधर्म सांगोनि कथा। पुनरपि देऊनि पतितावस्था । गृहाप्रती वडिला ।।४६।। एकोनत्रिंशी भस्मप्रभाव। त्रिविक्रमा कथितां गुरुराव। राक्षसा उजुरी बामदेव। हा इतिहास तयांतची ॥४७।। त्रिंशाध्यायीं पति मरतां। तयाची सौ करी बहु आकांता'। तीस श्रीगुरु नाना कथा। कथून शांतवू पाहती ॥४८।। एकतिसाव्यांत तेचि कथा। पतिव्रतेचे धर्म सांगतां । सहगमनप्रकार बोधितां । ते खियेतें जगतूरु ।।४९।। सहगमनीं निघतां सती । श्रीगुरूस झाली नमस्कारिती। आशीर्वाद देवोनि तिचा पति। बत्तिसाव्यांत उठविला ।॥५०॥ तेतिसाव्यांत रुद्राक्षधारण। कथा कुक्कुटमर्कट दोघेजण। वैश्य वेश्येचे कथन। करिती रायातें परस्पर ।।५१।। रुद्राध्यायमहिमा वर्णन। चौतिसाव्यांत निरूपण। राजपुत्र केला संजीवन। नारद भेटले रायातें ।।५२।। पंचत्रिशत्प्रसंगांत। कचदेवयानी कथा वर्तत। आणिक सोमवारव्रत। सीमंतिनीच्या प्रसंगें ।॥५३।। छत्तिशी ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मणा। खियेने नेलें परान्नभोजना। कंटाळुनी घरिती श्रीगुरुचरणा। त्याला कर्ममार्ग सांगती ।।५४।। सप्तत्रिंशी नाना धर्म । विप्रा सांगोनि ब्रह्मकर्म। प्रसन्न होवोनि वर उत्तम। देती श्रीगुरु तयांतें ।।५५।। अष्टत्रिंशी भास्कर ब्राह्मण । तिघांपुरतें आणिलें अन्न। जेविले बहुत ब्राह्मण। आणिक गांवचे शूद्रादि ।। ५६।। सोमनाथाची गंगा युवती । साठ वर्षांची बंध्या होती। तीस दिधली पुत्रसंतती। एकुणचाळिसावे अध्यार्थी ।।५७।। नरहरीकरवीं शुष्क काष्ठा। अर्चवूनि' दवडिलें त्याच्या कुष्ठा। शबरकथा शिष्यवरिष्ठां । चाळिसाव्यांत सांगती ॥५८।। एकेचाळिसीं सायंदेवा । हस्ते घेती श्रीगुरुसेवा। ईश्वरपार्वतीसंवाद बरवा। काशीयात्रानिरूपण' ।।५९।। पुत्रकलजेंसी सायंदेव । येऊनि करिती श्रीगुरुस्तव। त्याला कथिती वात्राभाव। वरही देती बेचाळिसीं ।।६०।। त्रेचाळिसी अनंतव्रत । धर्मराया कृष्ण सांगत। तेचि कथा सायंदेवाव्रत। सांगोनि व्रत करविती ।।६१।। चनेचाळिसीं तंतुकार भक्तासी । श्रीपर्वत दावूनि क्षणेसी। शिवरात्रीपुण्यकथा त्यासी। विमर्षण राजाची कथियेली ॥६२॥ पंचेचाळिसीं कुष्ठी ब्राह्मण । आला तुळजापुराहून । त्याला करवूनि संगमों स्नान। कुष्ठ नासूनि ज्ञान देती ।।६३।। कल्लेश्चर हिपरगे ग्रामास । श्रीगुरु भेटती नरहरी कवीस। आपुला शिष्य करिती त्यास । शेचाळिसी अध्यार्थी ।।६४।। सत्तेचाळिशीं दिवाळी सण। गुरुसी आमंत्रिती सातजण । तितुकीं रूपें धरूनि आपण। गेले मठींही राहिले ।।६५।। अड्डेचाळिसीं शूद्रशेती। त्याचा जोंधळा कापूनि टाकिती। शतगुर्ण पिकवूनि पुढती। आनंदविलें तयातें ।।६६।। एकोनपंचाशती श्रीगुरुमूर्ति। अमरजासंगममाहात्म्य कथिती। आणिकही तेथे सांगती । कुष्ठ दैवार्जिती रत्नाचाईचे ।। ६७।। म्लेंच्छाचा स्फोटक दवहिती। भक्तीस्तव त्याचे नगरा जाती। पुढें श्रीपर्वती भेटों म्हणती । पन्नासावे अध्यायीं ।। ६८।। एकावन्ननावनांत गुरुमूर्ति। देखूनिया क्षिती पापप्रवृत्ति । उपद्रवितील नाना याती। म्हणोनि गुप्तरूपें रहावें ।।६९।। ऐसा करूनि निर्धार। शिष्यांसी सांगती गुरुवर। आजि आम्ही जाऊ पर्वतावर । मल्लिकार्जुनयात्रेसी ।।७०।। ऐसें ऐकूनि भक्तजन। मनीं होती अतिउद्विध । शोक करिती आक्रंदोन । श्रीगुरुचरणी लोळती ।।७१।। इतुके पाहुनी गुरुमूर्ति। वरद हस्ते तयां कुरवाळिती। मद्भजनी धरा आसक्ति । मठधामी राहोनिया ।।७२।। ऐसें बोधूनि शिष्यांसी। गुरु गेले कर्दळीवनासी। नाविकमुखें सांगूनि गोष्टीसी । निजानंदीं निमन्न होती ।॥७३॥ ऐसें अपार श्रीगुरुचरित्र। अनंत कथा परम पवित्र। त्यांतील बावन्न अध्यायमात्र । प्रस्तुत कथिलें तुजलागीं ।।७४।। सिद्ध म्हणे नामधारका। तुज कथिली अवतरणिका। श्रीगुरु गेले वाटती लोकां। गुरु गुप्त असती गाणगापुरी ।। ७५।। कलियुगी अधर्म वृद्धि पावले। म्हणोनि श्रीगुरु गुप्त झाले। भक्तजनाला जैसे पाहिले । तैसेच भेटती अद्यापि ।। ७६।। हे अवतरणिका सिद्धमाला। श्रीगुरु भेटती जपे त्याला। जैसा भावार्थ असे आपुला । तैशीं कार्ये संपादिती ।। ७७।। नामधारका शिष्य भला। अवतरणिकेचा प्रश्न केला। म्हणोनि इतिहाससारांशाला । पुनः बदलों सशिष्या ।।७८।। पूर्वी ऐकिलें असेल कानीं। त्यातें तात्काळ येईल ध्यानीं । इतरां इच्छा होईल मनीं। श्रीगुरुचरित्रश्रवणाची ।।७९।। ऐसी ही अवतरणिका जाण। तुज कथिली कथांची खूण। इवें सतत करितां स्मरण। कथा अनुक्रमें स्मरतसे ।।८०।। ऐसें बदे सिद्धमुनि । नामधारका लागे चरणों । विनवीतसे कर जोडोनि । तुझे बचने सर्व सिद्धि ।।८१।। आतां असे विनवणी। श्रीगुरुसप्ताहपारायणीं। किती वाचावें प्रतिदिनों। हैं मज सांगा श्रीगुरुराया ।।८२।। सिद्ध म्हणती नामधारका। तुवां प्रश्न केला निका । परोपकार होईल लोकां । तुझ्या प्रश्र्नेकरूनिया ।।८३।। अंतःकरण असतां पवित्र । सदाकाळ वाचावें गुरुचरित्र । सौख्य होय इहपरत्र। दुसरा प्रकार सांगेन ।।८४।। सप्ताह वाचावयाची पद्धति। तुज सांगों यथास्थिति। शुविर्भूत होवोनि शास्त्ररीतीं। सप्ताह करितां बहुपुण्य ।।८५।। दिनशुद्धि बरवी पाहून। आवश्यक स्नानसंध्या करून । पुस्तक बाचावयाचे स्थान। रंगवल्यादि शोभा करावी ।।८६।। देशकालादि संकल्प करून। पुस्तकरूपीं श्रीगुरुचे पूजन। यथोपचारें करून। ब्राह्मणांसही पूजावे ।।८७।। प्रथम दिवसापासोन। बसावया असावे एक स्थान । अतत्त्वार्थभाषणी घरावें मौन। कामादि नियम राखावे ।।८८।। दीप असावे शोभायमान । देवब्राह्मणवडिलां बंदून । पूर्वोत्तरमुखकरून । वाचनीं आरंभ करावा ।।८९।। नवसंख्या अध्याय प्रथम दिनीं। एकविंशतीपर्यंत द्वितीय दिनीं । एकोनत्रिंश तृतीय दिनीं । चतुर्थदिवसीं पसतीस ।।१०।। अडतीसपर्यंत पांचवे दिनीं। त्रेचाळिसवरी सहावे दिनों । सप्तमी बावन्न बाचोनि । अवतरणिका वाचाची ।।९१।। नित्य पाठ होता पूर्ण करावें उत्तरांगपूजन। श्रीगुरुतें नमस्कारून । उपहार कांहीं करावा ।।९२।। या प्रकारें करावें सप्तदिन। रात्रीं करावें भूमिशयन। सारांश शास्त्राधारे करून । शुचिर्भूत असावें ।॥९३।। एवं होतां सप्तदिन । ब्राह्मणसुवासिनीभोजन। यथाशक्ति दक्षिणा देऊन । सर्व संतुष्ट करावे ।।९४।॥ ऐसें सप्ताह अनुष्ठान। करितां होय श्रीगुरुदर्शन। भूतप्रेतादि बाधा निरसन। होचोनि सौख्य होतसे ।।१५।। ऐसे सिद्धाचे वचन ऐकोनि । नामधारक लागे चरणीं। म्हणे बाळाची आळी पुरबोनि। कृतकृत्य केले गुरुराया ।।९६।। श्रोते म्हणती बंटूनि पायीं। श्रीगुरु केली बहु नवलाई। बाळका अमृत पाजी आई। तैसे आम्हां पाजिलें ।॥९७।। प्रति अध्याय एक ओंची। ऑविली रत्नमाळा बरखी। मनाचे कंठीं घालिता पदवी। सर्वार्थाची पावती ।।९८।। सिद्धांचे वचन रत्नखाणी। त्यांतूनि नामधारक रत्ने आणी। बावन्न भरोनि राजर्णी। भक्तयाचका तोषविलें ।। ९९।। किंवा सिद्ध हा कल्पतरू। नामधारके पसरिला करू। यांचा करोनि परोपकारू। भक्तांकरितां बहु केला ।।१००।। किंवा सिद्धमुनि बलाहक । नामधारक शिष्य चातक। मुख पसरोनि बिंदु एक। मागतां अपार वर्षला ।।१।। तेणें भक्तां अभक्तां फुकाचा। सकळां लाभ झाला अमृताचा। हृदयकोशीं खळजनांचा। पाषाण समयीं पाझरे ।।२।। श्रीगुरुरायाचे धरू चरण । सिद्धमुनीतें करूं बंदन। नामधारका करू नमन। ऐसे करी नारायण ।।३।। श्रीगुरुरूपी नारायणा । विश्वंभरा दीनोद्धारणा । आपणा आपुली दावूनि खुणा । गुरुशिष्यरूपें क्रीडसी ।।१०४।।इति
श्रीगुरुचरित्रपरमकथाकल्पतरौ श्रीनृसिंहसरस्वत्युपाख्याने सिद्धनामधारकसंवादे
द्विपंचाशदध्यायसारे
अवतरणिका नाम त्रिपंचाशत्तमोऽध्यायः ।।५३।। श्रीगुरुदत्तात्रेयार्पितमस्तु । शुभं भवतु ।
ओवीसंख्या
॥१०४।। श्रीगुरुचरित्रं समाप्तं।
एकंदर ओवीसंख्या
।।७३८५।।
ओवीसंख्या १०४
॥श्रीगुरुदत्तात्रायापुणमस्तु॥